हिंदी कारक और विभक्ति – Hindi Karak aur Vibhakti
कारक – Karak in Hindi, परिभाषा, भेद और उदाहरण : हिन्दी व्याकरण
कारक – Karak in Hindi, परिभाषा, भेद और उदाहरण : हिन्दी व्याकरण Hindi Grammar Kaarak Bibhakti.
कारक की परिभाषा – (Karak Ki Paribhasha)
संज्ञा या सर्वनाम के जिस रूप से वाक्य के अन्य शब्दों के साथ उनका (संज्ञा या सर्वनाम का) संबंध सूचित हो, उसे (उस रूप को) ‘कारक’ कहते हैं। अथवा संज्ञा या सर्वनाम के जिस रूप से उनका (संज्ञा या सर्वनाम का) क्रिया से संबंध सूचित हो, उसे (उस रूप को) ‘कारक’ कहते हैं।
इन दो ‘परिभाषाओं’ का अर्थ यह हुआ कि संज्ञा या सर्वनाम के आगे जब ‘ने’, ‘को’, ‘से’ आदि विभक्तियाँ लगती हैं, तब उनका रूप ही ‘कारक’ कहलाता है, तभी वे वाक्य के अन्य शब्दों से संबंध रखने योग्य ‘पद’ होते हैं और ‘पद’ की अवस्था में ही वे वाक्य के दूसरे शब्दों से या क्रिया से कोई लगाव रख पाते हैं। ‘ने’, ‘को’, ‘से’ आदि विभिन्न विभक्तियाँ विभिन्न कारकों की हैं। इनके लगने पर ही कोई शब्द ‘कारकपद’ बन पाता है और वाक्य में आने योग्य होता है। ‘कारकपद’ या ‘क्रियापद’ बने बिना कोई शब्द वाक्य में बैठने योग्य नहीं होता।
जैसे— “रामचंद्रजी ने खारे जल के समुद्र पर बंदरों से पुल बँधवा दिया।” इस वाक्य में ‘रामचंद्रजी ने’, ‘समुद्र पर’, ‘बंदरों से’ और ‘पुल’ संज्ञाओं के रूपांतर हैं, जिनके द्वारा इन संज्ञाओं का संबंध ‘बँधवा दिया’ क्रिया के साथ सूचित होता है।
कारक के भेद (Karak Ke Bhed/Prakar)
हिंदी में कारक आठ हैं और कारकों के बोध के लिए संज्ञा या सर्वनाम के आगे जो प्रत्यय (चिह्न) लगाए जाते हैं, उन्हें व्याकरण में ‘विभक्तियाँ’ कहते हैं । कुछ लोग इन्हें परसर्ग भी कहते हैं। विभक्ति से बने शब्दरूप को ‘विभक्त्यंत शब्द’ या ‘पद’ कहते हैं। हिंदी कारकों की विभक्तियों के ‘चिह्न’ इस प्रकार हैं-
- कारक विभक्तियाँ
- कर्ता (Nominative) , ने
- कर्म (objective) , को
- करण ( Instrumental) से
- संप्रदान (Dative) को, के लिए
- अपादान (Ablative) से
- संबंध (Genitive) का, के, की; रा, रे री
- अधिकरण (Locative) में, पर
- संबोधन (Addressive) ,हे, अजी, अहो, अरे इत्यादि
कुछ लोग ‘विभक्ति’ के स्थान पर ‘परसर्ग’ लिखते हैं। लगता है, ‘उपसर्ग’ शब्द के अनुकरण पर ‘परसर्ग’ गढ़ लिया गया है, क्योंकि उपसर्ग का पूर्वप्रयोग होता है और विभक्ति का परप्रयोग। यदि उपसर्ग का नाम पूर्वसर्ग होता, तो विभक्ति का नाम भी भ्रांति से परसर्ग कोई रख सकता था। पं० किशोरीदास वाजपेयी का यह कहना ठीक है कि ‘विभक्ति’ शब्द हमें परंपरा से प्राप्त है, सुप्रसिद्ध है, उसकी जगह ‘परसर्ग’ चलाना किस काम का ? क्या लाभ?
विभक्तियों की प्रायोगिक विशेषताएँ
प्रयोग की दृष्टि से हिंदी कारक की विभक्तियों की कुछ अपनी विशेषताएँ हैं। इनका व्यवहार करते समय निम्नलिखित बातों को ध्यान में रखना चाहिए-
- १. सामान्यतः विभक्तियाँ स्वतंत्र हैं। इनका अस्तित्व स्वतंत्र है। चूँकि इनका काम शब्दों का संबंध दिखाना है, इसलिए इनका अर्थ नहीं होता; जैसे—ने, से आदि ।
- २. हिंदी की विभक्तियाँ विशेष रूप से सर्वनामों के साथ प्रयुक्त होने पर प्रायः विकार उत्पन्न कर उनसे मिल जाती हैं; जैसे—मेरा, हमारा, उसे, उन्हें ।
- ३. विभक्तियाँ प्रायः संज्ञाओं या सर्वनामों के साथ आती हैं। जैसे—मोहन की दूकान से यह चीज आई है। आगे इनपर विचार किया गया है।
विभक्तियों का प्रयोग
हिंदी व्याकरण में विभक्तियों के प्रयोग की विधि निश्चित है। हिंदी में दो तरह की विभक्तियाँ हैं— (१) विश्लिष्ट, और (२) संश्लिष्ट । संज्ञाओं के साथ आनेवाली विभक्तियाँ विश्लिष्ट होती हैं, अर्थात अलग रहती हैं; जैसे- राम ने, वृक्ष पर, लड़कों को, लड़कियों के लिए। सर्वनामों के साथ विभक्तियाँ संश्लिष्ट या मिली होती हैं; जैसे- – उसका, किसपर, तुमको, तुम्हें, तेरा, तुम्हारा, उन्हें । यहाँ यह ध्यान रखना है कि तुम्हें इन्हें में ‘को’ और तेरा- तुम्हारा में ‘का’ विभक्तिचिह्न संश्लिष्ट है। अतः, ‘के लिए जैसे दो शब्दों की विभक्ति में पहला शब्द संश्लिष्ट होगा और दूसरा विश्लिष्ट; जैसे – तु + रे लिए = तेरे लिए, तुम + रे लिए तुम्हारे लिए, मैं + रे लिए = मेरे लिए। यहाँ प्रत्येक कारक और उसकी विभक्ति के प्रयोग का परिचय उदाहरणसहित दिया जा रहा है।
कर्ता कारक (Karta Karak)
वाक्य में जो शब्द काम करनेवाले के अर्थ में आता है, उसे ‘कर्ता’ कहते हैं। जैसे – ‘मोहन खाता है’। इस वाक्य में खाने का काम ‘मोहन’ करता है। अतः, ‘कर्ता’ मोहन है। इसकी दो विभक्तियाँ हैं— ने और । संस्कृत का कर्ता ही हिंदी का कर्ताकारक है।
वाक्य में कर्ता का प्रयोग दो रूपों में होता है— पहला वह, जिसमें ‘ने’ विभक्ति नहीं लगती, अर्थात जिसमें क्रिया के लिंग, वचन और पुरुष कर्ता के अनुसार होते हैं। इसे ‘अप्रत्यय कर्ताकारक’ कहते हैं। इसे ‘प्रधान कर्ताकारक’ भी कहा जाता है।
उदाहरणार्थ, ‘मोहन खाता है’। यहाँ ‘खाता है’ क्रिया है, जो कर्ता ‘मोहन’ के लिंग और वचन के अनुसार है। इसके विपरीत, जहाँ क्रिया के लिंग, वचन और पुरुष कर्ता के अनुसार न होकर कर्म के अनुसार होते हैं, वहाँ ‘ने’ विभक्ति लगती है।
इसे व्याकरण में ‘सप्रत्यय कर्ताकारक’ कहते हैं। इसे ‘अप्रधान कर्ताकारक’ भी कहा जाता है। उदाहरणार्थ, ‘श्याम ने मिठाई खाई । इस वाक्य में क्रिया ‘खाई’ कर्म ‘मिठाई’ के अनुसार आई है।
कर्ता के ‘ने’ चिह्न का प्रयोग
कर्ताकारक की विभक्ति ‘ने’ है। बिना विभक्ति के भी कर्ताकारक का प्रयोग होता है। ‘अप्रत्यय कर्ताकारक’ में ‘ने’ का प्रयोग न होने के कारण वाक्यरचना में कोई खास कठिनाई नहीं होती। ‘ने’ का प्रयोग अधिकतर ‘पश्चिमी हिंदी’ में होता है। बनारस से पंजाब तक इसके प्रयोग में लोगों को विशेष कठिनाई नहीं होती; क्योंकि इस ‘ने’ विभक्ति की सृष्टि उधर ही हुई है।
हिंदी भाषा की इस विभक्ति से अहिंदीभाषी घबराते हैं। लेकिन, थोड़ी सावधानी रखी जाए और इसकी व्युत्पत्ति को ध्यान में रखा जाए, तो यह स्पष्ट हो जाएगा कि “इसका स्वरूप तथा प्रयोग जैसा संस्कृत में है, वैसा हिंदी में भी है, हिंदी में वैशिष्ट्य नहीं आया । “”
खड़ीबोली हिंदी में ‘ने’ चिह्न कर्ताकारक में संज्ञा – शब्दों की एक विश्लिष्ट विभक्ति है, जिसकी स्थिति बड़ी नपी-तुली और स्पष्ट है। किंतु, हिंदी लिखने में इसके प्रयोग की भूलें प्रायः हो जाया करती हैं। ‘ने’ का प्रयोग केवल हिंदी और उर्दू में होता है। अहिंदीभाषियों को ‘ने’ के प्रयोग में कठिनाई होती है । यहाँ यह देखना है कि हिंदी भाषा में ‘ने’ का प्रयोग कहाँ होता है और कहाँ नहीं होता ।
‘ने’ का प्रयोग कहाँ होता है ?
नियम –१. ‘ने’ का प्रयोग कर्ता के साथ तभी होता है, जब क्रिया सकर्मक तथा सामान्यभूत, आसन्नभूत, पूर्णभूत, हेतुहेतुमद्भूत और संदिग्ध भूतकालों की और कर्तृवाच्य की हो।
- सामान्यभूत – राम ने रोटी खाई।
- आसन्नभूत — राम ने रोटी खाई है।
- पूर्णभूत – राम ने रोटी खाई थी ।
- संदिग्धभूत – राम ने रोटी खाई होगी ।
- हेतुहेतुमद्भूत — राम ने पुस्तक पढ़ी होती, तो उत्तर ठीक होता ।
तात्पर्य यह कि केवल अपूर्णभूत को छोड़ शेष पाँच भूतकालों में ‘ने’ का प्रयोग होता है।
नियम – २. जब संयुक्त क्रिया के दोनों खंड सकर्मक हों, तो अपूर्णभूत को छोड़ शेष सभी भूतकालों में कर्ता के आगे ‘ने’ चिह्न का प्रयोग होता है। जैसे-
श्याम ने उत्तर कह दिया। किशोर ने खा लिया।
इन उदाहरणों में काले टाइपवाली संयुक्त क्रियाओं के दोनों खंड सकर्मक हैं।
नियम – ३. सामान्यतः अकर्मक क्रिया में ‘ने’ विभक्ति नहीं लगती, किंतु कुछ ऐसी अकर्मक क्रियाएँ हैं— जैसे नहाना, छींकना, थूकना, खाँसना– जिनमें ‘ने’ चिह्न का प्रयोग अपवादस्वरूप होता है। इन क्रियाओं के बाद कर्म नहीं आता। जैसे-
- उसने थूका । राम ने छींका।
- उसने नहाया । उसने खाँसा ।
नियम – ४. जब अकर्मक क्रिया सकर्मक बन जाए तब ‘ने’ का प्रयोग होता है, अन्यथा नहीं। जैसे-
उसने लड़ाई लड़ी। उसने टेढ़ी चाल चली।
नियम – ५. प्रेरणार्थक क्रियाओं के साथ, अपूर्णभूत को छोड़ शेष सभी भूतकालों में ‘ने’ का प्रयोग होता है। जैसे–
मैंने उसे पढ़ाया। उसने एक रुपया दिलवाया।
‘ने’ का प्रयोग कहाँ नहीं होता ?
नियम –१. सकर्मक क्रियाओं के कर्ता के साथ भविष्यत्काल में ‘ने’ का प्रयोग बिलकुल नहीं होता।
नियम –२. वकना, बोलना, भूलना — ये क्रियाएँ यद्यपि सकर्मक हैं तथापि अपवादस्वरूप सामान्य, आसन्न, पूर्ण और संदिग्ध भूतकालों में कर्ता के ‘ने’ चिह्न का व्यवहार नहीं होता । यथा — वह बका; मैं बोला; वह भूला; मैं भूला। हाँ, ‘बोलना’ क्रिया में कहीं-कहीं ‘ने’ आता है। जैसे—उसने बोलियाँ बोलीं ।
‘वह बोलियाँ बोला’ – ऐसा भी लिखा या कहा जा सकता है।
नियम –३. यदि संयुक्त क्रिया का अंतिम खंड अकर्मक हो, तो उसमें ‘ने’ का प्रयोग नहीं होता। जैसे—
- मैं खा चुका हूँगा।
- वह पुस्तक ले आया।
- उसे रेडियो ले जाना है।
नियम –४. जिन वाक्यों में लगना, जाना, सकना तथा चुकना सहायक क्रियाएँ आती हैं उनमें ‘ने’ का प्रयोग नहीं होता। जैसे-
वह खा चुका।
- मैं पानी पीने लगा।
- उसे पटना जाना है।
कर्मकारक (Karm Karak)
वाक्य में क्रिया का फल जिस शब्द पर पड़ता है, उसे कर्म कहते हैं। इसकी विभक्ति ‘को’ है।
कर्मकारक का प्रत्यय चिह्न ‘को’ है। बिना प्रत्यय के या अप्रत्यय कर्म के कारक का भी प्रयोग होता है। इसके नियम हैं—
नियम – १. बुलाना, सुलाना, कोसना, पुकारना, जगाना, भगाना इत्यादि क्रियाओं के कर्मों के साथ ‘को’ विभक्ति लगती है। जैसे- मैंने हरि को बुलाया।
- शीला ने सावित्री को जी भर कोसा।
- हमने उसे ( उसको) खूब सबेरे जगाया।
- माँ ने बच्चे को सुलाया।
- पिता ने पुत्र को पुकारा ।
- लोगों ने शोरगुल करके डाकुओं को भगाया।
नियम –२. ‘मारना’ क्रिया का अर्थ जब ‘पीटना’ होता है, तब कर्म के साथ विभक्ति लगती है, पर यदि उसका अर्थ ‘शिकार करना’ होता है, तो विभक्ति नहीं लगती, अर्थात कर्म अप्रत्यय रहता है। जैसे-
- लोगों ने चोर को मारा।
- हरि ने बैल को मारा।
- पर – शिकारी ने बाघ मारा।
- पर – मछुए ने मछली मारा।
नियम –३. बहुधा कर्ता में विशेष कर्तृत्वशक्ति जताने के लिए कर्म सप्रत्यय रखा जाता है। जैसे – मैंने यह तालाब खुदवाया है, मैंने इस तालाब को खुदवाया है। दोनों वाक्यों में अर्थ का अंतर ध्यान देने योग्य है। पहले वाक्य के कर्म से कर्ता में साधारण कर्तृत्वशक्ति का और दूसरे वाक्य में कर्म से कर्ता में विशेष कर्तृत्वशक्ति का बोध होता है।
इस तरह के अन्य वाक्य हैं— बाघ बकरी को खा गया, हरि ने ही पेड़ को काटा है, लड़के ने फलों को तोड़ लिया इत्यादि ।
जहाँ कर्ता में विशेष कर्तृत्वशक्ति का बोध कराने की आवश्यकता न हो, वहाँ सभी स्थानों पर कर्म को सप्रत्यय नहीं रखना चाहिए। इसके अतिरिक्त, जब कर्म निर्जीव वस्तु हो, तब ‘को’ का प्रयोग नहीं होना चाहिए।
जैसे— ‘राम ने रोटी को ‘खाया’ की अपेक्षा ‘राम ने रोटी खाई’ ज्यादा अच्छा है। मैं कॉलेज को जा रहा हूँ; मैं आम को खा रहा हूँ; मैं कोट को पहन रहा हूँ― इन उदाहरणों में ‘को’ का प्रयोग भद्दा है। प्रायः चेतन पदार्थों के साथ ‘को’ चिह्न का प्रयोग होता है और अचेतन के साथ नहीं। पर, यह अंतर वाक्य प्रयोग पर निर्भर करता है।
नियम – ४. कर्म सप्रत्यय रहने पर क्रिया सदा पुंलिंग होगी, किंतु अप्रत्यय रहने पर कर्म के अनुसार । जैसे— राम ने रोटी को खाया (सप्रत्यय), राम ने रोटी खाई (अप्रत्यय) ।
नियम – ५. यदि विशेषण संज्ञा के रूप में प्रयुक्त हों, तो कर्म में ‘को’ अवश्य लगता है। जैसे—बड़ों को पहले आदर दो, छोटों को प्यार करो ।
करण कारक (Karan Karak)
वाक्य में जिस शब्द से क्रिया के संबंध का बोध हो, उसे करणकारक कहते हैं।
करणकारक के सबसे अधिक प्रत्ययचिह्न हैं। ‘ने’ भी करणकारक का ऐसा चिह्न है, जो करणकारक के रूप में संस्कृत में आए कर्ता के लिए ‘एन’ के रूप में, कर्मवाच्य और भाववाच्य में आता है। किंतु, हिंदी की प्रकृति ‘ने’ को सप्रत्यय कर्ताकारक का ही चिह्न मानती है।
हिंदी में करणकारक के अन्य चिह्न हैं— से, द्वारा, के द्वारा, के जरिए, के साथ, के बिना इत्यादि। इन चिह्नों में अधिकतर प्रचलित ‘से’, ‘द्वारा’, ‘के द्वारा’, ‘के जरिए ‘ इत्यादि ही हैं। ‘के साथ’, ‘के बिना’ आदि साधनात्मक योग-वियोग जतानेवाले अव्ययों के कारण, साधनात्मक योग बतानेवाले ‘के द्वारा’ की ही तरह ‘के’ करणकारक के चिह्न हैं।
‘करण’ का अर्थ है ‘साधन’। अतः, ‘से’ चिह्न वहीं करणकारक का चिह्न है जहाँ यह ‘साधन’ के अर्थ में प्रयुक्त हो । जैसे—मुझसे यह काम न सधेगा। यहाँ ‘मुझसे’ का अर्थ है ‘मेरे द्वारा’, ‘मुझ साधनभूत के द्वारा’ या ‘मुझ जैसे साधन के द्वारा’। अतः ‘साधन’ को इंगित करने के कारण यहाँ ‘मुझसे’ का ‘से’ करण का विभक्तिचिह्न है।
अपादान का भी विभक्तिचिह्न ‘से’ है। ‘अपादान’ का अर्थ है ‘अलगाव की प्राप्ति’। अतः, अपादान का ‘से’ चिह्न अलगाव के संकेत का प्रतीक है, जबकि करण का, अपादान के विपरीत, साधना का, साधनभूत लगाव का। ‘पेड़ से फल गिरा’, ‘मैं घर से चला’ आदि वाक्यों में ‘से’ प्रत्यय ‘पेड़’ को या ‘घर’ को ‘साधन’ नहीं सिद्ध करता, बल्कि इन दोनों से बिलगाव सिद्ध करता है। अतः, इन दोनों वाक्यों में ‘घर’ और ‘पेड़ के आगे प्रयुक्त ‘से’ विभक्तिचिह्न अपादानकारक का है और इन दोनों शब्दों में लगाकर इन्हें अपादानकारक का ‘पद’ बनाता है।
करणकारक का क्षेत्र अन्य सभी कारकों से विस्तृत है। इस करण में अन्य समस्त कारकों से छूटे हुए प्रत्यय या वे पद जो अन्य किसी कारक में आने से बच गए हों, आ जाते हैं। अतः, इसकी कुछ सामान्य पहचान और नियम जान लेना आवश्यक है-
नियम – १. ‘से’ करण और अपादान दोनों विभक्तियों का चिह्न है, किंतु साधनभूत का प्रत्यय होने पर करण माना जाएगा, जबकि अलगाव का प्रत्यय होने पर अपादान। जैसे—
- वह कुल्हाड़ी से वृक्ष काटता है।
- मुझे अपनी कमाई से खाना मिलता है। – करण
- साधुओं की संगति से बुद्धि सुधरती है।
- पेड़ से फल गिरा ।
- घर से लौटा हुआ लड़का । -अपादान
- छत से उतरी हुई लता ।
नियम – २. ‘ने’ सप्रत्यय कर्ताकारक का चिह्न है। किंतु, ‘से’, ‘के द्वारा’ और ‘के जरिए ‘ हिंदी में प्रधानतः करणकारक के ही प्रत्यय माने जाते हैं; क्योंकि ये सारे प्रत्यय ‘साधन’ अर्थ की ओर इंगित करते हैं। जैसे-
- तीर से बाघ मार दिया गया।
- मेरे द्वारा मकान ढहाया गया था।
- मुझसे यह काम न सधेगा ।
- उसके द्वारा यह कथा सुनी थी।
- आपके जरिए ही घर का पता चला।
नियम – ३. भूख, प्यास, जाड़ा, आँख, कान, पाँव इत्यादि शब्द यदि एकवचन करणकारक में सप्रत्यय रहते हैं, तो एकवचन होते हैं और अप्रत्यय रहते हैं, तो बहुवचन । जैसे-
- वह भूख से बेचैन है;
- लड़का प्यास से मर रहा है;
- स्त्री जाड़े से काँप रही है;
- मैंने अपनी आँख से यह घटना देखी;
- कान से सुनी बात पर विश्वास नहीं करना चाहिए;
- लड़का अब अपने पाँव से चलता है;
- वह भूखों बेचैन है।
- लड़का प्यासों मर रहा है।
- स्त्री जाड़ों काँप रही है।
- मैंने अपनी आँखों यह घटना देखी।
- कानों सुनी बात पर विश्वास नहीं करना चाहिए।
- लड़का अब अपने पाँवों चलता है!
संप्रदानकारक (Sampradan Karak)
जिसके लिए कुछ किया जाए या जिसको कुछ दिया जाए, इसका वोध करानेवाले शब्द के रूप को संप्रदानकारक कहते हैं।
नियम – १. कर्म और संप्रदान का एक ही विभक्तिप्रत्यय है ‘को’, पर दोनों के अर्थों में अंतर है। संप्रदान का ‘को’, ‘के लिए’ अव्यय के स्थान पर या उसके अर्थ में प्रयुक्त होता है, जबकि कर्म के ‘को’ का ‘के लिए’ अर्थ से कोई संबंध नहीं है। नीचे लिखे वाक्यों पर ध्यान दीजिए-
- कर्म- हरि मोहन को मारता है।
- कर्म – उसके लड़के को बुलाया।
- कर्म- माँ ने बच्चे को खेलते देखा।
- संप्रदान—माँ ने बच्चे को खिलौने खरीदें।
- संप्रदान- हरि मोहन को रुपये देता है।
- संप्रदान— उसने लड़को को मिठाइयाँ दी।
नियम – २. साधारणतः जिसे कुछ दिया जाता है या जिसके लिए कोई काम किया जाता वह पद संप्रदानकारक का होता है। जैसे-
- भूखों को अन्न देना चाहिए और प्यासों को जल गुरु ही शिष्य को ज्ञान देता है।
नियम – ३. ‘के हित’, ‘के वास्ते’, ‘के निमित्त’ आदि प्रत्ययवाले अव्यय भी संप्रदानकारक के प्रत्यय हैं। जैसे—
- राम के हित लक्ष्मण वन गए थे।
- तुलसी के वास्ते ही जैसे राम ने अवतार लिया।
- मेरे निमित्त ही ईश्वर की कोई कृपा नहीं।
अपादानकारक (Apadan Karak)
संज्ञा के जिस रूप से किसी वस्तु के अलग होने का भाव प्रकट होता है, उसे अपादानकारक कहते हैं।
जिस शब्द में अपादान की विभक्ति लगती है, उससे किसी दूसरी वस्तु के पृथक् होने का बोध होता है। जैसे-
- हिमालय से गंगा निकलती है।
- वह घर से बाहर आया।
- मोहन ने घड़े से पानी ढाला।
- बिल्ली छत से कूद पड़ी।
- लड़का पेड़ से गिरा।
- चूहा बिल से बाहर निकला।
करण और अपादान के ‘से’ प्रत्यय में अर्थ का अंतर करणकारक के प्रसंग में बताया जा चुका है।
संबंधकारक (Sambandh Karak)
संज्ञा या सर्वनाम के जिस रूप से किसी अन्य शब्द के साथ संबंध या लगाव प्रतीत हो, उसे संबंधकारक कहते हैं।
नियम –१. संबंधकारक का विभक्तिचिह्न ‘का’ है। वचन और लिंग के अनुसार इसकी विकृति ‘के’ और ‘की’ है। इस कारक से अधिकार, कर्तृत्व, कार्य-कारण, मोल-भाव, परिमाण इत्यादि का बोध होता है; जैसे-
- अधिकार- राम की किताब, श्याम का घर।
- कर्तृत्व – प्रेमचंद के उपन्यास, भारतेंदु के नाटक ।
- कार्य-करण- – चाँदी की थाली, सोने का गहना ।
- मोल-भाव – एक रुपए का चावल, पाँच रुपए का घी ।
- परिमाण – चार भर का हार, सौ मील की दूरी, पाँच हाथ की लाठी ।
द्रष्टव्य- बहुधा संबंधकारक की विभक्ति के स्थान में ‘वाला’ प्रत्यय भी लगता जैसे- रामवाली किताब, श्यामवाला घर, प्रेमचंदवाले उपन्यास, चाँदीवाली थाली इत्यादि ।
नियम – २. संबंधकारक की विभक्तियों द्वारा कुछ मुहावरेदार प्रयोग भी होते हैं; जैसे-
- (अ) दिन के दिन, महीने के महीने, होली की होली, दीवाली की दीवाली, रात की रात, दोपहर के दोपहर इत्यादि ।
- (आ) कान का कच्चा, बात का पक्का, आँख का अंधा, गाँठ का पूरा, बात का धनी, दिल का सच्चा इत्यादि ।
- (इ) वह अब आने का नहीं, मैं अब जाने का नहीं, वह टिकने का नहीं इत्यादि ।
नियम – ३. दूसरे कारकों के अर्थ में भी संबंधकारक की विभक्ति लगती है; जैसे- – जन्म का भिखारी जन्म से भिखारी (करण), हिमालय का चढ़ना = हिमालय पर चढ़ना = (अधिकरण) ।
नियम – ४. संबंध, अधिकार और देने के अर्थ में बहुधा संबंधकारक की विभक्ति का प्रयोग होता है; जैसे— हरि को बाल-बच्चा नहीं है, राम के बहन हुई है, राजा के आँखें नहीं होतीं केवल कान होते हैं, रावण ने विभीषण को लात मारी, ब्राह्मण को दक्षिणा दो ।
नियम – ५. सर्वनाम की स्थिति में संबंधकारक का प्रत्यय रा-रे-री और ना-ने-नी हो जाता है; जैसे – मेरा लड़का, मेरी लड़की, तुम्हारा घर, तुम्हारी पगड़ी, अपना भरोसा, अपनी रोजी ।
अधिकरणकारक (Adhikaran Karak)
क्रिया या आधार को सूचित करनेवाली संज्ञा या सर्वनाम के स्वरूप को अधिकरणकारक कहते हैं।
नियम – १. कभी-कभी ‘में’ के अर्थ में ‘पर’ और ‘पर’ के अर्थ में ‘में’ का प्रयोग होता है। जैसे—तुम्हारे घर पर चार आदमी हैं घर में। दूकान पर कोई नहीं था = दूकान में। नाव = जल में तैरती है = जल पर ।
नियम – २. कभी-कभी अधिकरणकारक की विभक्तियों का लोप भी हो जाता है; जैसे-
- इन दिनों वह पटने है।
- वह द्वार-द्वार भीख माँगता चलता है।
- जिस समय वह आया था, उस समय मैं नहीं था ।
- वह संध्या समय गंगा किनारे जाता है।
- लड़के दरवाजे दरवाजे घूम रहे हैं।
- उस जगह एक सभा होने जा रही है।
नियम – ३. किनारे, आसरे और दिनों जैसे पद स्वयं सप्रत्यय अधिकरणकारक के हैं और यहाँ, वहाँ, समय आदि पदों का अर्थ सप्रत्यय अधिकरणकारक का है। अतः, इन पदों की स्थिति में अधिकरणकारक का प्रत्यय नहीं लगता। इसके उदाहरण दिए जा चुके हैं।
संबोधनकारक (Sambodhan Karak)
संज्ञा के जिस रूप से किसी के पुकारने या संकेत करने का भाव पाया जाता है, उसे संबोधनकारक कहते हैं। जैसे- हे भगवान! मेरी रक्षा कीजिए। इस वाक्य में ‘हे भगवान’ से पुकारने का बोध होता है। संबोधनकारक की कोई विभक्ति नहीं होती है। इसे प्रकट करने के लिए ‘हे’, ‘अरे’, ‘रे’ आदि शब्दों का प्रयोग होता है।