UP Board Solution of Class 9 Hindi Gadya Chapter 1 – Baat – बात (प्रतापनारायण मिश्र) Jivan Parichay, Gadyansh Adharit Prashn Uttar Summary
Dear Students! यहाँ पर हम आपको कक्षा 9 हिंदी गद्य खण्ड के पाठ 1 बात का सम्पूर्ण हल प्रदान कर रहे हैं। यहाँ पर बात सम्पूर्ण पाठ के साथ प० प्रतापनारायण मिश्र का जीवन परिचय एवं कृतियाँ, गद्यांश आधारित प्रश्नोत्तर अर्थात गद्यांशो का हल, अभ्यास प्रश्न का हल दिया जा रहा है।
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Chapter Name | Baat – बात (प्रतापनारायण मिश्र) Pt. Pratapnarayan Mishra |
Class | 9th |
Board Name | UP Board (UPMSP) |
Topic Name | जीवन परिचय,गद्यांश आधारित प्रश्नोत्तर,गद्यांशो का हल(Jivan Parichay, Gadyansh Adharit Prashn Uttar Summary ) |
जीवन परिचय
पं० प्रतापनारायण मिश्र
स्मरणीय तथ्य
जन्म | सन् 1856 ई० । |
मृत्यु | सन् 1894 ई०। |
पिता | पं० संकटाप्रसाद मिश्र (ज्योतिषी)। |
जन्म–स्थान | बैजेगाँव (उन्नाव), उ० प्र० । |
शिक्षा | संस्कृत, बंगला, उर्दू आदि का ज्ञान। |
साहित्यिक विशेषताएँ | प्रारम्भिक लेखक होते हुए भी श्रेष्ठ निबन्धों की रचना की। आँख, कान जैसे साधारण विषयों पर भी सुन्दर निबन्ध रचना। |
भाषा–शैली | प्रवाहपूर्ण, हास्य-विनोद का पुट, मुहावरों की चहल-पहल, भाषा में चमत्कार । |
रचनाएँ | 50 से भी अधिक पुस्तकों की रचना । ‘प्रतापनारायण मिश्र ग्रन्थावली‘ (सभी रचनाओं का संग्रह) प्रकाशित हो चुका है। |
जीवन–परिचय
पं० प्रतापनारायण मिश्र का जन्म उन्नाव जिला के बैजेगाँव में सन् 1856 ई० में हुआ था। इनके पिता पं० संकटाप्रसाद मिश्र एक ज्योतिषी थे। वे पिता के साथ बचपन से ही कानपुर आ गये थे। अंग्रेजी स्कूलों की अनुशासनपूर्ण पढ़ाई इन्हें रुचिकर नहीं लगी। फलतः घर पर ही आपने बंगला, अंग्रेजी, संस्कृत, उर्दू, फारसी का अध्ययन किया। लावनीबाजों के सम्पर्क में आकर मिश्र जी ने लावनियाँ लिखनी शुरू कीं और यहीं से इनकी कविता का श्रीगणेश हुआ। बाद में आजीवन इन्होंने हिन्दी की सेवा की।
कानपुर के सामाजिक-राजनीतिक जीवन से भी इनका गहरा सम्बन्ध था। वे यहाँ की अनेक सामाजिक संस्थाओं से सम्बद्ध थे। इन्होंने कानपुर में एक नाटक-सभा की भी स्थापना की थी। ये भारतेन्दु के व्यक्तित्व से अत्यन्त प्रभावित थे तथा इन्हें अपना गुरु और आदर्श मानते थे। अपनी हाजिरजवाबी और हास्यप्रियता के कारण वे कानपुर में काफी लोकप्रिय थे। इनकी मृत्यु कानपुर में ही सन् 1894 ई० में हुई।
कृतियाँ
मिश्र जी द्वारा लिखित पुस्तकों की संख्या 50 हैं, जिनमें प्रेम-पुष्पावली, मन की लहर, मानस विनोद आदि काव्य-संग्रह; कलि कौतुक, हठी हम्मीर, गो-संकट, भारत-दुर्दशा (नाटक), जुआरी-खुआरी (प्रहसन) आदि प्रमुख हैं। नागरी प्रचारिणी सभा काशी द्वारा ‘प्रतापनारायण मिश्र ग्रन्थावली‘ नाम से इनकी समस्त रचनाओं का संकलन प्रकाशित हुआ है।
भाषा–शैली
प्रवाहपूर्ण, हास्य-विनोद का पुट, मुहावरों की चहल-पहल, भाषा में चमत्कार ।
बात
यदि हम वैद्य होते तो कफ और पित्त के सहवर्ती बात की व्याख्या करते तथा भूगोलवेत्ता होते तो किसी देश के जल- बात का वर्णन करते, किन्तु दोनों विषयों में से हमें एक बात कहने का भी प्रयोजन नहीं है। हम तो केवल उसी बात के ऊपर दो-चार बातें लिखते हैं, जो हमारे-तुम्हारे सम्भाषण के समय मुख से निकल-निकल के परस्पर हृदयस्थ भाव को प्रकाशित करती रहती हैं।
सच पूछिये तो इस बात की भी क्या ही बात है जिसके प्रभाव से मानव जाति समस्त जीवधारियों की शिरोमणि (अशरफ- उल मखलूकात) कहलाती है। शुकसारिकादि पक्षी केवल थोड़ी-सी समझने योग्य बातें उच्चारित कर सकते हैं, इसी से अन्य नभचारियों की अपेक्षा आदृत समझे जाते हैं। फिर कौन न मानेगा कि बात की बड़ी बात है। हाँ, बात की बात इतनी बड़ी है कि परमात्मा को लोग निराकार कहते हैं, तो भी इसका सम्बन्ध उसके साथ लगाये रहते हैं। वेद, ईश्वर का वचन है, कुरआनशरीफ कलामुल्लाह है, होली बाइबिल वर्ड ऑफ गाड है। यह वचन, कलाम और वर्ड बात ही के पर्याय हैं जो प्रत्यक्ष मुख के बिना स्थिति नहीं कर सकती। पर बात की महिमा के अनुरोध से सभी धर्मावलम्बियों ने ‘बिन बानी वक्ता बड़ जोगी’ वाली बात मान रखी है। यदि कोई न माने तो लाखों बातें बना के मनाने पर कटिबद्ध रहते हैं। यहाँ तक कि प्रेम सिद्धान्ती लोग निरवयव नाम से मुँह बिचकावेंगे। ‘अपाणिपादो जवनो ग्रहीता’ पर हठ करनेवाले को यह कह के बातों में उड़ावेंगे कि “हम लूले-लँगड़े ईश्वर को नहीं मान सकते, हमारा प्यारा तो कोटि काम सुन्दर श्याम वर्ण विशिष्ट है।” निराकार शब्द का अर्थ श्री शालिग्राम शिला है जो उसकी श्यामता का द्योतन करती है अथवा योगाभ्यास का आरम्भ करनेवाले को आँखें मूंदने पर जो कुछ पहले दिखायी देता है वह निराकार अर्थात् बिलकुल काला रंग है। सिद्धान्त यह कि रंग-रूप रहित को सब रंग-रंजित एवं अनेक रूप सहित ठहरावेंगे, किन्तु कानों अथवा प्राणों व दोनों को प्रेम-रस से सिंचित करनेवाली उसकी मधुर मनोहर बातों के मजे से अपने को वंचित न रहने देंगे।
जब परमेश्वर तक बात का प्रभाव पहुँचा हुआ है तो हमारी कौन बात रही? हम लोगों के तो ‘गात माँहि बात करामात है।’ नाना शास्त्र, पुराण, इतिहास, काव्य, कोश इत्यादि सब बात ही के फैलाव हैं जिनके मध्य एक-एक बात ऐसी पायी जाती है जो मन, बुद्धि, चित्त को अपूर्व दशा में ले जानेवाली अथच लोक-परलोक में सब बात बनानेवाली है। यद्यपि बात का कोई रूप नहीं बतला सकता कि कैसी है पर बुद्धि दौड़ाइये तो ईश्वर की भाँति इसके भी अगणित ही रूप पाइयेगा। बड़ी बात, छोटी बात, सीधी बात, खोटी बात, टेढ़ी बात, मीठी बात, कड़वी बात, भली बात, बुरी बात, सुहाती बात, लगती बात इत्यादि सब बात ही तो हैं।
बात के काम भी इसी भाँति अनेक देखने में आते हैं। प्रीति-वैर, सुख-दुःख, श्रद्धा-घृणा, उत्साह-अनुत्साह आदि जितनी उत्तमता और सहजता बात के द्वारा विदित हो सकते हैं, दूसरी रीति से वैसी वैसी सुविधा ही नहीं। घर बैठे लाखों कोस का समाचार मुख और लेखनी से निर्गत बात ही बतला सकती है। डाकखाने अथवा तारघर के सहारे से बात की बात में चाहे जहाँ की जो बात हो, जान सकते हैं। इसके अतिरिक्त बात बनती है, बात बिगड़ती है, बात आ पड़ती है, बात जाती रहती है, बात उखड़ती है। हमारे तुम्हारे भी सभी काम बात पर ही निर्भर करते हैं। ‘बातहि हाथी पाइये वातहि हाथी पाँव’ बात ही से पराये अपने और अपने पराये हो जाते हैं। मक्खीचूस उदार तथा उदार स्वल्पव्ययी, कापुरुष युद्धोत्साही एवं युद्धप्रिय शान्तिशील, कुमार्गी सुपथगामी अथच सुपन्थी कुराही इत्यादि बन जाते हैं।
बात का तत्त्व समझना हर एक का काम नहीं है और दूसरों की समझ पर आधिपत्य जमाने योग्य बात गढ़ सकना भी ऐसों-वैसों का साध्य नहीं है। बड़े-बड़े विज्ञवरों तथा महा-महा कवीश्वरों के जीवन बात ही के समझने-समझाने में व्यतीत हो जाते हैं। सहृदयगण की बात के आनन्द के आगे सारा संसार तुच्छ जँचता है। बालकों की तोतली बातें, सुन्दरियों की मीठी- मीठी प्यारी-प्यारी बातें, सत्कवियों की रसीली बातें, सुवक्ताओं की प्रभावशालिनी बातें जिनके जी को और का और न कर दें, उसे पशु नहीं पाषाणखण्ड कहना चाहिए; क्योंकि कुत्ते, बिल्ली आदि को विशेष समझ नहीं होती तो भी पुचकार के ‘तू-तू’, ‘पूसी-पूसी’ इत्यादि बातें कह दो तो भावार्थ समझ के यथासामर्थ्य स्नेह प्रदर्शन करने लगते हैं। फिर वह मनुष्य कैसा जिसके चित्त पर दूसरे हृदयवान् की बात का असर न हो।
हमारे परम पूजनीय आर्यगण अपनी बात का इतना पक्ष करते थे कि “तन तिय तनय धाम धन धरनी। सत्यसंध कहँ तृन सम बरनी।” अथच “प्रानन ते सुत अधिक है सुत ते अधिक परान। ते दूनो दशरथ तजे, वचन न दीन्हों जान।” इत्यादि उनकी अक्षर-सम्बद्धा कीर्ति सदा संसार-पट्टिका पर सोने के अक्षरों से लिखी रहेगी। पर आजकल के बहुतेरे भारत कुपुत्रों ने यह ढंग पकड़ रखा है ‘मर्द की जबान’ (बात का उदय स्थान) और गाड़ी का पहिया चलता-फिरता ही रहता है। आज जो बात है कल ही स्वार्थान्धता के वश हुजूरों की मरजी के मुवाफिक दूसरी बातें हो जाने में तनिक भी विलम्ब की सम्भावना नहीं है। यद्यपि कभी-कभी अवसर पड़ने पर बात के अंश का कुछ रंग-ढंग परिवर्तित कर लेना नीति-विरुद्ध नहीं है। पर कब? जात्युपकार, देशोद्धार, प्रेम-प्रचार आदि के समय न कि पापी पेट के लिए।
एक हम लोग हैं जिन्हें आर्यकुल रत्नों के अनुगमन की सामर्थ्य नहीं है? किन्तु हिन्दुस्तानियों के नाम पर कलंक लगानेवालों के भी सहमार्गी बनने में घिन लगती है। इससे यह रीति अंगीकार कर रखी है कि चाहे कोई बड़ा बतकहा अर्थात् बातूनी कहे, चाहे यह समझे कि बात कहने का भी शऊर नहीं है, किन्तु अपनी मति के अनुसार ऐसी बातें बनाते रहना चाहिए जिनमें कोई- न-कोई किसी-न-किसी के वास्तविक हित की बात निकलती रहे। पर खेद है कि हमारी बातें सुननेवाले उँगलियों ही पर गिनने भर को हैं। इससे ‘बात-बात में बात’ निकालने का उत्साह नहीं होता। अपने जी को ‘क्या बने बात जहाँ बात बनाये न बने’ इत्यादि विदग्धालापों की लेखनी से निकली हुई बातें सुना के कुछ फुसला लेते हैं और बिन बात की बात को बात का बतंगड़ समझ के बहुत बात बढ़ाने से हाथ समेट लेना ही समझते हैं कि अच्छी बात है।
प्रतापनारायण मिश्र
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निम्नलिखित गद्यांशों के नीचे दिये गये प्रश्नों के उत्तर दीजिए–
(1) यदि हम वैद्य होते तो कफ और पित्त के सहवर्ती बात की व्याख्या करते तथा भूगोलवेत्ता होते तो किसी देश के जल– बात का वर्णन करते, किन्तु दोनों विषयों में से हमें एक बात कहने का भी प्रयोजन नहीं है। हम तो केवल उसी बात के ऊपर दो–चार बातें लिखते हैं, जो हमारे तुम्हारे सम्भाषण के समय मुख से निकल निकल के परस्पर हृदयस्थ भाव को प्रकाशित करती रहती है।
प्रश्न (i) उपर्युक्त गद्यांश का सन्दर्भ लिखिए।
उत्तर– सन्दर्भ– प्रस्तुत गद्यावतरण हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘हिन्दी गद्य‘ में संकलित एवं पं० प्रतापनारायण मिश्र द्वारा लिखित ‘बात ‘ शीर्षक पाठ से उद्धृत है। यहाँ लेखक बात की महत्ता बताते हुए कहता है कि जिस प्रकार का व्यक्ति होता है वह उसी प्रकार की बात करता है।
(ii) रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।
उत्तर– रेखांकित अंश की व्याख्या– लेखक इस तथ्य से अवगत कराते हुए कहता है कि एक व्यक्ति का जो स्वभाव होगा अथवा जो जिस प्रकार का कार्य करेगा वह स्वाभाविक रूप से उसी प्रकार के वातावरण में उसी कार्य के अनुसार बुद्धिवाला हो जायेगा, फिर वह उसी से सम्बन्धित बात करेगा। उदाहरणस्वरूप यदि हम वैद्यराज को लें तो अपने स्वभावानुसार एवं कार्य के अनुरूप किसी रोग जैसे पित्त और उससे सम्बन्धित विषयों पर बात करेगा। यदि कोई भूगोल का ज्ञाता होगा तो वह अपने स्वभावानुसार किसी देश की जलवायु अथवा प्राकृतिक विषयों पर बात करेगा। परन्तु लेखक कहता है कि दोनों विषयों में बात कहने का हमारा कोई प्रयोजन नहीं है। हम लोग उसी विषय पर बात लिखते अथवा करते हैं जो हृदय की भावनाओं को वाणी के माध्यम से प्रकाशित करती है। हमारे मन की जो स्थिति है, जो भावनाएँ हमारे हृदय में प्रतिपल उठती हैं उसे यदि हम मुख से, वाणी के माध्यम से दूसरे को अवगत करायें तो वह ‘बात’ कहलाती है।
(iii) हम अपने हृदयस्थ भावों की अभिव्यक्ति किसके माध्यम से करते हैं?
उत्तर–हम अपने हृदयस्थ भावों की अभिव्यक्ति बात के माध्यम से करते हैं।
(iv) भूगोलवेत्ता किसका अध्ययन करता है?
उत्तर– भूगोलवेत्ता किसी देश के जल-बात का वर्णन करते हैं।
(v) वैद्य किस बात का वर्णन करते हैं?
उत्तर– वैद्य कफ और पित्त के सहवर्ती बात की व्याख्या करते हैं।
(vi) प्रस्तुत गद्यांश में लेखक क्या कहना चाहता है ? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर–प्रस्तुत गद्यांश में लेखक ने ‘बात’ शब्द का विभिन्न अर्थों में प्रयोग कर अपने शब्द-कौशल और चिकित्साशास्त्र, भूगोल एवं साहित्य सम्बन्धी ज्ञान को प्रकट करते हुए सम्भाषण (बातचीत) के महत्त्व पर प्रकाश डाला है।
(vii) यदि लेखक वैद्य एवं भूगोलवेत्ता होता तो वह क्या करता?
उत्तर–यदि लेखक वैद्य होता तो वह कफ एवं पित्त के तीसरे तत्त्व ‘वात’ की व्याख्या करता तथा यदि भूगोलवेत्ता होता तो वह किसी देश की जलवायु का वर्णन करता।
(2) जब परमेश्वर तक बात का प्रभाव पहुँचा हुआ है तो हमारी कौन बात रही? हम लोगों के तो ‘गात माँहि बात करामात है।’ नाना शास्त्र, पुराण, इतिहास, काव्य, कोश इत्यादि सब बात ही के फैलाव हैं जिनके मध्य एक-एक बात ऐसी पायी जाती है जो मन, बुद्धि, चित्त को अपूर्व दशा में ले जानेवाली अथच लोक-परलोक में सब बात बनानेवाली है। यद्यपि बात का कोई रूप नहीं बतला सकता कि कैसी है पर बुद्धि दौड़ाइये तो ईश्वर की भाँति इसके भी अगणित ही रूप पाइयेगा। बड़ी बात, छोटी बात, सीधी बात, खोटी बात, टेढ़ी बात, मीठी बात, कड़वी बात, भली बात, बुरी बात, सुहाती बात, लगती बात इत्यादि सब बात ही तो हैं।
(i) गद्यांश का सन्दर्भ लिखिए।
उत्तर– पूर्ववत्
(ii) रेखांकित अंशों की व्याख्या कीजिए।
उत्तर–रेखांकित अंशों की व्याख्या– इन पंक्तियों में लेखक बात की महत्ता दिखाते हुए कहता है, कि बात का तक ही सीमित नहीं, परमेश्वर तक इसके प्रभाव से बच नहीं पाये। यद्यपि परमेश्वर के विषय में कहा गया है कि उसकी न वाणी है, न हाथ हैं, न पैर हैं, बल्कि वह तो निराकार निरंजन है तथापि उसे बिना वाणी का वक्ता कहा गया है। जब निराकार ब्रह्म पर भी बात का प्रभाव होता है तो फिर हम शरीरधारी मनुष्यों का तो कहना ही क्या है? हमारे शरीर में तो बात (भाषण शक्ति अथवा वायु) का ही चमत्कार है। अनेक शास्त्र, पुराण, इतिहास, काव्य, कोष आदि जितना भी साहित्य है, वह सब बात का ही विस्तार है। इन विविध प्रकार के ग्रन्थों में एक से बढ़कर एक बातें पायी जाती हैं। एक-एक बात ऐसी अमूल्य है कि जो हमारे मन, बुद्धि और चित्त को अपूर्व आनन्दमयी दशा में पहुँचा देती है। इन ग्रन्थों की बातें ही लोक तथा परलोक की सब बातों का ज्ञान कराती हैं। लेखक कहता है कि बात का रूप-रंग नहीं होता। कोई कह नहीं सकता कि अमुक बात ऐसी हैं। परन्तु यदि बुद्धि से विचार कर देखा जाय तो हम पायेंगे कि जैसे भगवान् के अनेक रूप होते हैं, उसी प्रकार बात के भी अनेक रूप होते हैं, जैसे बड़ी बात, छोटी बात, सीधी बात, टेढ़ी बात, मीठी, कड़वी, भली, बुरी, सुहाती और लगती बात आदि कैसी भी हों ये सब बात के ही रूप हैं।
(iii) “गात माँहि बात करामात है।” का क्या तात्पर्य है?
उत्तर–“गात माँहि बात करामात है।” का तात्पर्य है कि हमारे शरीर में तो बात का ही चमत्कार है।
(iv) कौन–सी बात चित्त, मन और बुद्धि को अपूर्व दिशा की ओर अग्रसर करती है?
उत्तर– नानाशास्त्र, पुराण, इतिहास काल आदि की बातें चित्त, मन और बुद्धि को अपूर्व दिशा की ओर अग्रसर करती है।
(v) ‘बड़ी बात‘, ‘छोटी बात‘ एवं ‘सीधी बात‘ मुहावरे का क्या अभिप्राय है?
उत्तर–‘बड़ी बात’, ‘छोटी बात’ एवं ‘सीधी बात’ मुहावरे का अभिप्राय बात का स्वरूपगत वैभिन्नता को दर्शाना है।
(3) सच पूछिये तो इस बात की भी क्या ही बात है जिसके प्रभाव से मानव जाति समस्त जीवधारियों की शिरोमणि (अशरफ-उल मखलूकात) कहलाती है। शुकसारिकादि पक्षी केवल थोड़ी-सी समझने योग्य बातें उच्चरित कर सकते हैं, इसी से अन्य नभचारियों की अपेक्षा आदृत समझे जाते हैं। फिर कौन न मानेगा कि बात की बड़ी बात है। हाँ, बात की बात इतनी बड़ी है कि परमात्मा को लोग निराकार कहते हैं, तो भी इसका सम्बन्ध उसके साथ लगाये रहते हैं। वेद ईश्वर का वचन है, कुरआनशरीफ कलामुल्लाह है, होली बाइबिल वर्ड ऑफ गाड है। यह वचन, कलाम और वर्ड बात ही के पर्याय हैं जो प्रत्यक्ष मुख के बिना स्थिति नहीं कर सकती। पर बात की महिमा के अनुरोध से सभी धर्मावलम्बियों ने ‘बिन बानी वक्ता बड़ जोगी’ वाली बात मान रखी है।
प्रश्न (i) उपर्युक्त गद्यांश का सन्दर्भ लिखिए।
उत्तर– पूर्ववत्
(ii) रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।
उत्तर–रेखांकित अंश की व्याख्या– वस्तुतः बात का महत्त्व इतना अधिक है कि उसका वर्णन करना कठिन हो जाता है। यदि बात के महत्त्व को लेखनीबद्ध किया जाय तो एक ग्रन्थ बन सकता है। संसार में मानव को समस्त प्राणियों से श्रेष्ठ माना जाता है। उसका मुख्य कारण भी यह बात ही है। मानव ही एकमात्र ऐसा प्राणी है, जो बात करने में चतुर है। इसी कारण वह सभी प्राणियों का सिरमौर बना है। मानव की भाषा में तोता मैना आदि पक्षी थोड़ा समझने योग्य बातों का उच्चारण कर लेते हैं, जिसके कारण वे आकाश में विचरण करनेवाले अन्य पक्षियों की तुलना में श्रेष्ठ समझे जाते हैं और इसीलिए उनका जनसामान्य में आदर किया जाता है। इतना सब कुछ होते हुए भी भला कौन ऐसा व्यक्ति होगा, जो बात (भाषा) की महत्ता को स्वीकार नहीं करेगा। बात (भाषा) की महत्ता के कारण ही लोग भगवान् का सम्बन्ध उससे जोड़ते हैं। यद्यपि लोग भगवान् को बिना आकार वाला (अशरीर) मानते हैं किन्तु लोग उसे फिर भी श्रेष्ठ उपदेशवक्ता कहकर उसकी सर्वोच्च सत्ता को स्वीकार करते हैं। लेखक बात की महत्ता का वर्णन करते हुए यह कहता है कि यदि यह कहा जाय कि भगवान् तो निराकार होने के कारण सम्भाषण (उपदेश) कर ही नहीं सकते तो वह मनुष्य से भी निम्न श्रेणी में आ जाते हैं क्योंकि मनुष्य तो सम्भाषण करने में समर्थ है। अतः बात (सदुपदेश) ही भगवान् को मनुष्य से श्रेष्ठ बनाती है। इसीलिए शायद सभी
धर्मावलम्बी भगवान् का सम्बन्ध भाषण-शक्ति से अवश्य जोड़ते हैं, चाहे वे उसके निराकार रूप के समर्थक हों अथवा साकार रूप के।
(iii) निराकार परमात्मा का सम्बन्ध बात से कैसे है?
उत्तर– हिन्दू समाज में वेदों को ईश्वर का वचन कहा जाता है साथ ही ईश्वर को निराकार कहा जाता है।
(iv) मानव जाति समस्त जीवधारियों में क्यों शिरोमणि है?
उत्तर– बात का प्रभाव के कारण मानव जाति जीवधारियों में शिरोमणि है।
(v) ‘बिन बानी वक्ता बड़ जोगी‘ का क्या अभिप्राय है?
उत्तर– ‘बिन बानी वक्ता बड़ जोगी’ का अभिप्राय प्रत्यक्ष मुख के बिना बात से स्थित स्पष्ट हो जाना है।
(vi) अन्य नभचारियों की अपेक्षा आदृत समझे जाने वाले पक्षियों के नाम लिखिए।
उत्तर– शुकसारिकादि यानी तोता मैना आदि में मनुष्य का अनुकरण कर बोलने का गुण विद्यमान होता है, इसलिए ये अन्य पक्षियों में आदूत (आदरणीय) व श्रेष्ठ समझे जाते हैं।
(4) बात के काम भी इसी भाँति अनेक देखने में आते हैं। प्रीति–वैर, सुख–दुःख, श्रद्धा–घृणा, उत्साह–अनुत्साह आदि जितनी उत्तमता और सहजता बात के द्वारा विदित हो सकते हैं, दूसरी रीति से वैसी सुविधा ही नहीं। घर बैठे लाखों कोस का समाचार मुख और लेखनी से निर्गत बात ही बतला सकती है। डाकखाने अथवा तारघर के सहारे से बात की बात में चाहे जहाँ की जो बात हो, जान सकते हैं। इसके अतिरिक्त बात बनती है, बात बिगड़ती है, बात आ पड़ती है, बात जाती रहती है, बात उखड़ती है। हमारे तुम्हारे भी सभी काम बात पर ही निर्भर करते हैं। ‘बातहि हाथी पाइये बातहि हाथी पाँव‘ बात ही से पराये अपने और अपने पराये हो जाते हैं। मक्खीचूस उदार तथा उदार स्वल्पव्ययी, कापुरुष युद्धोत्साही एवं युद्धप्रिय शान्तिशील, कुमार्गी, सुपथगामी अथच सुपन्थी, कुराही इत्यादि बन जाते हैं।
प्रश्न (i) उपर्युक्त गद्यांश का सन्दर्भ लिखिए।
उत्तर– पूर्ववत्
(ii) रेखांकित अंशों की व्याख्या कीजिए।
उत्तर– रेखांकित अंशों की व्याख्या – लेखक बात के विभिन्न रूपों पर प्रकाश डालते हुए कहता है कि बात का प्रभाव बहुत व्यापक होता है। बात कहने के ढंग से ही उसका प्रभाव घटता अथवा बढ़ता है। निश्चय ही हमारे बात करने के ढंग से हमारा प्रत्येक कार्य प्रभावित होता है। बात के प्रभावशाली होने पर कवि अथवा चारण, राजाओं से पुरस्कार में हाथी तक प्राप्त कर लेते थे किन्तु कटु बात कहने से राजाओं द्वारा लोग हाथी के पाँव के नीचे कुचल भी दिये जाते और यदि बात लग जाय तो युद्ध चाहनेवाला व्यक्ति भी शान्तिप्रिय बन जाता है। बात के प्रभाव से बुरे रास्ते पर चलनेवाला व्यक्ति सन्मार्ग पर चलने लगता है और बात की शक्ति-द्वारा सन्मार्ग पर चलनेवाला व्यक्ति भी दुष्टों-जैसा व्यवहार करने लगता है। तात्पर्य यह है कि बात कहने का ढंग और शब्दों का प्रयोग मनुष्य पर आश्चर्यजनक प्रभाव डालता है।
(iii) लाखों कोस का समाचार कौन बतला सकता है?
उत्तर–लाखों कोस का समाचार बात बतला सकता है।
(iv) पाँच वाक्यों में बात का महत्त्व लिखिए।
उत्तर–बात का महत्त्व (1) बात के अनेक काम देखने में मिलते हैं? (2) बात के द्वारा कोई भी भाव सहजता एवं सरलता से विदित हो सकता है। (3) लाखों कोस का समाचार मुख या लेखनी से निर्गत बात बतला सकती है। (4) हम डाकघर अथवा तारघर के सहारे दूर की बात जान सकते हैं। (5) सभी काम बात पर ही निर्भर करते हैं।
(v) ‘बातहि हाथी पाइये बातहि हाथी पाँव‘ का आशय स्पष्ट कीजिए।
उत्तर–‘बातहि हाथी पाइये बातहि हाथी पाँव’ का आशय है अच्छी बात से पुरस्कार स्वरूप हाथी की प्राप्ति होती है और बुरी बात पर हाथी के पाँव के नीचे कुचला जा सकता है।
(5) बात का तत्त्व समझना हर एक का काम नहीं है और दूसरों की समझ पर आधिपत्य जमाने योग्य बात गढ़ सकना भी ऐसों— वैसों का साध्य नहीं है। बड़े–बड़े विज्ञवरों तथा महा–महा कवीश्वरों के जीवन बात ही के समझने–समझाने में व्यतीत हो जाते हैं। सहृदयगण की बात के आनन्द के आगे सारा संसार तुच्छ जँचता है। बालकों की तोतली बातें, सुन्दरियों की मीठी- मीठी प्यारी-प्यारी बातें, सत्कवियों की रसीली बातें, सुवक्ताओं की प्रभावशालिनी बातें जिनके जी को और का और न कर दें, उसे पशु नहीं पाषाणखण्ड कहना चाहिए; क्योंकि कुत्ते, बिल्ली आदि को विशेष समझ नहीं होती तो भी पुचकार के ‘तू- तू’, ‘पूसी-पूसी’ इत्यादि बातें कह दो तो भावार्थ समझ के यथासामर्थ्य स्नेह प्रदर्शन करने लगते हैं। फिर वह मनुष्य कैसा जिसके चित्त पर दूसरे हृदयवान् की बात का असर न हो।
प्रश्न (i) उपर्युक्त गद्यांश का सन्दर्भ लिखिए।
उत्तर– पूर्ववत्
(ii) रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।
उत्तर– रेखांकित अंश की व्याख्या– विद्वानों की बात का तात्पर्य समझ पाना प्रत्येक व्यक्ति के लिए सरल काम नहीं है। साथ ही साथ दूसरों को प्रभावित कर सकनेवाली बात भी गढ़कर कह देना साधारण मनुष्यों का काम नहीं है। संसार में बड़े-बड़े ज्ञानियों एवं कवियों का जीवन बात के तात्पर्य को समझने और समझाने में ही बीत जाता है सुहृदगणों की बात में जो आनन्द मिलता है उसके आगे सारा संसार फीका पड़ जाता है। बालकों की तोतली बोलियों में, सुन्दर रमणियों की मीठी, प्यारी-प्यारी बातों में, कवियों की रसीली उक्तियों में और सुन्दर वक्ताओं की प्रभावशाली सशक्त बातों में जो आकर्षण होता है वह सभी के चित्त को मुग्ध कर देता है। जो इससे प्रभावित नहीं होते वे पशु ही क्यों पत्थर की शिला की भाँति शुष्क और कठोर होते हैं।
(iii) बालकों की बातें कैसी होती हैं?
उत्तर–बालकों की बातें सुन्दर रमणियों की मीठी, प्यारी-प्यारी होती हैं।
(iv) इस अवतरण में पाषाण खण्ड से क्या आशय है?
उत्तर–बालकों की तोतली बातें, सुन्दरियों की प्यारी मीठी बातें, कवियों की रसीली बातें जिनके हृदय को प्रभावित न करे उन्हें पाषाण खण्ड कहते हैं।
(v) विद्वानों एवं कवियों का जीवन कैसे बीतता है?
उत्तर–विद्वानों एवं कवियों का जीवन बात ही को समझने-समझाने में व्यतीत हो जाते हैं।
(6) ‘मर्द की जबान’ (बात का उदय स्थान) और गाड़ी का पहिया चलता-फिरता ही रहता है। आज जो बात है कल ही स्वार्थान्धता के वश हुजूरों की मरजी के मुवाफिक दूसरी बातें हो जाने में तनिक भी विलम्ब की सम्भावना नहीं है। यद्यपि कभी–कभी अवसर पड़ने पर बात के अंश का कुछ रंग–ढंग परिवर्तित कर लेना नीति विरुद्ध नहीं है। पर कब? जात्युपकार, देशोद्धार, प्रेम–प्रचार आदि के समय न कि पापी पेट के लिए।
प्रश्न (i) उपर्युक्त गद्यांश का सन्दर्भ लिखिए।
उत्तर– पूर्ववत्
(ii) रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।
उत्तर– रेखांकित अंश की व्याख्या– लेखक का कथन है कि आदमी की जबान और गाड़ी का पहिया तो चलते ही रहते हैं यह कथन उन्हीं स्वार्थी लोगों का है जिनके लिए जाति, देश और सम्बन्धों का कोई महत्त्व नहीं होता। ऐसे लोगों की आज की जो बात है कल ही वह स्वार्थवश मालिक के मन के अनुसार बदलने में थोड़ी भी देर नहीं लगाते हैं। लेखक आगे कहता है कि किसी महान् उद्देश्य की साधना या समय आने पर बात के रंग-ढंग या कहने का तरीका बदल लेने में किसी नियम का उल्लंघन नहीं है।
(iii) लेखक ने किसे नियमों का उल्लंघन नहीं माना है?
उत्तर– यदि बात बदलने से मानव जाति की भलाई होती है, देश का कल्याण होता है या प्रेम-प्रसंग में प्रेमी-प्रेमिका का हित छिपा है तो कोई नियम विरुद्ध कार्य नहीं है।
(iv) ‘मर्द की जबान‘ के चलते–फिरते रहने से क्या तात्पर्य है?
उत्तर–‘मर्द की जबान’ के चलते-फिरते रहना का तात्पर्य है स्वार्थवश बात बदलने में विलम्ब न लगना है।
(v) बात के ढंग का कुछ रंग–ढंग परिवर्तित कर लेना किस प्रकार नीति विरुद्ध नहीं है?
उत्तर– जाति उपकार और देशोद्धार के लिए अवसर पड़ने पर बात के कुछ रंग-ढंग को परिवर्तित कर लेना नीति विरुद्ध नहीं है।