UP Board Solution of Class 10 Social Science (History) Chapter- 5 मुद्रण संस्कृति और आधुनिक दुनिया (Mudran Sanskriti aur Aadhunik duniya) Notes

UP Board Solution of Class 10 Social Science [सामाजिक विज्ञान] History [इतिहास] Chapter- 5 मुद्रण संस्कृति और आधुनिक दुनिया (Mudran Sanskriti aur Aadhunik duniya) लघु उत्तरीय प्रश्न एवं दीर्घ उत्तरीय प्रश्न Notes

प्रिय पाठक! इस पोस्ट के माध्यम से हम आपको कक्षा 10वीं की सामाजिक विज्ञान ईकाई 1 इतिहास भारत और समकालीन विश्व-2  खण्ड-3 रोजाना की जिन्दगी, संस्कृति और राजनीति के अंतर्गत चैप्टर 5 मुद्रण संस्कृति और आधुनिक दुनिया पाठ के लघु उत्तरीय प्रश्न एवं दीर्घ उत्तरीय प्रश्न प्रदान कर रहे हैं। जो की UP Board आधारित प्रश्न हैं। आशा करते हैं आपको यह पोस्ट पसंद आई होगी और आप इसे अपने दोस्तों के साथ भी शेयर करेंगे।

Subject Social Science [Class- 10th]
Chapter Name मुद्रण संस्कृति और आधुनिक दुनिया
Part 3  इतिहास (History)
Board Name UP Board (UPMSP)
Topic Name रोजाना की जिन्दगी, संस्कृति और राजनीति

           मुद्रण संस्कृति और आधुनिक विश्व दुनिया Mudran Sanskriti aur Aadhunik duniya

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1. छपी हुई किताबों की शुरुआत कहाँ हुई तथा ये कैसे छापी जाती थीं?

या मुद्रण संस्कृति क्या है? इसमें चीन की क्या भूमिका है?

उत्तर- मुद्रण संस्कृति का आशय किताबों की छपाई के प्रारम्भ से है। पढ़ने की यह नई संस्कृति एक नई तकनीक से साथ आई। छपी हुई किताबों की शुरुआत चीन से हुई। तकरीबन 594 ई. से चीन में स्याही लगे काठ के ब्लॉक या तख्ती पर कागज को रगड़कर किताबें छापी जाने लगी थीं। चूँकि पतले, छिद्रित कागज के दोनों तरफ छपाई संभव नहीं थी, इसलिए पारंपरिक चीनी किताब ‘एकॉर्डियन” शैली में, किनारों को मोड़ने के बाद सिलकर बनाई जाती थी। किताबों का सुलेखन या खुशनवीसी करने वाले लोग दक्ष सुलेखक या खुशखत होते थे, जो हाथ से बड़े सुंदर-सुडौल अक्षरों में सही-सही कलात्मक लिखाई करते थे।

प्रश्न 2. गुटेनबर्ग ने किस तरह मुद्रण में अपना योगदान दिया?

या गुटेनबर्ग कौन था? मुद्रण के क्षेत्र में उसकी क्या भूमिका है?

उत्तर– गुटेनबर्ग एक व्यापारी का बेटा था। वह खेती की एक बड़ी रियासत में पला-बढ़ा था। गुटेनबर्ग का मुद्रण के विकास में बड़ा योगदान है। उसने पत्थर पॉलिश करने, शीशे को विभिन्न आकारों में ढालने तथा सुनार का काम सीखा और अपने इस ज्ञान का प्रयोग एक नयी व तेज गति से छापने वाली पहली प्रिंटिंग मशीन जिसे ‘मूवेबल टाइप प्रिंटिंग मशीन’ के नाम से जाना गया, के लिए किया। उसकी यह प्रेस ही अगले 300 सालों तक छपाई की बुनियादी तकनीक रही। हर छपाई के लिए तख्ती पर खास आकार उकेरने की पुरानी तकनीक की तुलना में अब किताबों का इस तरह छापना निहायत तेज हो गया। गुटेनबर्ग प्रेस एक घंटे में 250 पन्ने (एक साइड) छाप सकता था।

प्रश्न 3. 19वीं सदी में भारत की गरीब जनता पर मुद्रण संस्कृति का क्या प्रभाव पड़ा?

उत्तर- 19वीं सदी में भारत की गरीब जनता पर मुद्रण संस्कृति का निम्नलिखित प्रभाव पड़ा-

(i) उन्नीसवीं सदी के मद्रासी शहरों में काफी सस्ती किताबें चौक-चौराहों पर बेची जा रही थीं जिसके कारण गरीब लोग भी बाजार से उन्हें खरीदने की स्थिति में आ गए थे।

(ii) सार्वजनिक पुस्तकालय खुलने लगे थे जिससे किताबों की संख्या बढ़ी। ये पुस्तकालय अधिकतर शहरों या कस्बों में होते थे और कहीं-कहीं सम्पन्न गाँवों में भी पुस्तकालय स्थापित होने लगे थे। स्थानीय अमीरों के लिए पुस्तकालय खोलना प्रतिष्ठा की बात थी।

(iii) कारखानों में मजदूरों से बहुत अधिक काम लिया जा रहा था और उन्हें अपने बारे में लिखने की शिक्षा तक नहीं मिली थीं। लेकिन कानपुर के मजदूर काशीबाबा ने 1938 ई. में छोटे और बड़े सवालो पर लिखा और उसे प्रकाशित करवाया। इस लेख में जातीय और वर्गीय शोषण के बीच का रिश्ता समझाने की कोशिश की।

(iv) 1935 से 1955 ई. के बीच सुदर्शन चक्र के नाम से लिखने वाले एक और मिल-मजदूर का लेखन ‘सच्ची कविताएँ’ नामक एक संग्रह में छापा गया।

प्रश्न 4. लुई सेबेस्तिएँ मर्सिए कौन थे और उनके छापेखाने के विषय में क्या विचार थे?

उत्तर- लुई सेबेस्तिएँ मर्सिए 18वीं सदी के प्रसिद्ध फ्रांसीसी उपन्यासकार थे। वे मानते थे- “छापाखाना प्रगति का सबसे ताकतवर औजार है। इससे बन रही जनमत की आँधी निरंकुशवाद का अंत कर देगी।” वे अपने उपन्यासों में ऐसे नायकों का चित्रण करते थे जो अक्सर किताबें पढ़कर बदल जाते हैं। वे किताबों को घोटते हैं तथा किताबों की दुनिया में जीते हैं और इसी क्रम में ज्ञान प्राप्त करते हैं। वे निरंकुश शासकों को चेतावनी देते हुए कहते हैं कि “हे निरंकुशवादी शासकों, अब तुम्हारे काँपने का समय आ गया है। प्रभावकारी लेखक की कलम के जोर के आगे तुम हिल उठोगे”।

प्रश्न 5. जाति-भेद को मिटाने में प्रेस ने क्या योगदान दिया?

उत्तर- 19वीं सदी में जाति-भेद को मिटाने में प्रेस ने महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। ऐसी पुस्तकें और निबंध लिखे गए जिससे इसका अंत हो सके; जैसे- ज्योतिबा फुले ने अपनी ‘गुलामगिरी’ में जाति प्रथा के अत्याचारों पर लिखा, भीमराव अंबेडकर व मद्रास के ई.वी. रामास्वामी नायकर (पेरियार) ने भी इस संबंध में लिखा। स्थानीय विरोध आंदोलनों व संप्रदायों ने प्राचीन धर्मग्रंथों की आलोचना करते हुए न्यायपूर्ण समाज के स्वप्न की कल्पना को प्रकट करने वाले पत्र-पत्रिकाएँ व गुटके छापे।

प्रश्न 6. मार्टिन लूथर कौन था? धार्मिक बहस को प्रारम्भ करने के लिए उसने मुद्रण कला का उपयोग किस प्रकार किया?

या मार्टिन लूथर कौन था? उसका मुख्य योगदान क्या था?

उत्तर- मार्टिन लूथर एक धर्म सुधारक था। उसने 1512 ई. में रोमन कैथोलिक चर्च की कुरीतियों की आलोचना करते हुए अपनी ‘पिच्चानवे स्थापनाएँ’ लिखीं और मुद्रण कला के प्रयोग से छपवाकर प्रकाशित किया। इसकी एक प्रकाशित प्रति विटेनबर्ग के गिरजाघर के दरवाजे पर टाँगी गई। इसमें उसने चर्च शास्त्रार्थ के लिए चुनौती दी थी। जल्दी ही लूथर के लेख बड़ी संख्या में छापे और पढ़े जाने लगे। इसके परिणामस्वरूप चर्च में विभाजन हो गया और प्रोटेस्टेण्ट धर्म सुधार की शुरुआत हुई।

प्रश्न 7. भारत में प्रेस की भूमिका को नियंत्रित करने के लिए अंग्रेज सरकार द्वारा क्या-क्या प्रयास किए गए?

उत्तर- भारत में जब प्रेस का प्रसार होने लगा तब अंग्रेज सरकार ने इसको रोकने के लिए कई प्रयास किए। उनके द्वारा किए गए प्रयास निम्नलिखित हैं-

(i) प्रथम विश्वयुद्ध के समय भारतीय रक्षा अधिनियम के अधीन 22 अखबारों को जमानत देनी पड़ी थी। इनमें से 18 ने सरकारी आदेश मानने के बजाए खुद को बंद कर देना अच्छा समझा।

(ii) रॉलेट ऐक्ट द्वारा अखबारों के खिलाफ जुर्माना आदि कार्यवाहियों को और सख्त बना दिया गया।

(ii) द्वितीय विश्वयुद्ध के समय भारतीय रक्षा अधिनियम ऐक्ट पास करके युद्ध-संबंधी विषयों को सेंसर कर दिया गया।

(iv) भारत छोड़ो आंदोलन के समय भी अगस्त, 1942 में तकरीबन 90 अखबारों का दमन किया गया।

प्रश्न 8. कुछ लोग किताबों की सुलभता को लेकर चिंतित क्यों थे? यूरोप और भारत से एक-एक उदाहरण लेकर समझाइए।

उत्तर – कुछ लोग किताबों की सुलभता को लेकर चिंतित थे। उन्हें आशंका थी कि न जाने इसका आम लोगों के जेहन पर क्या असर हो। भय था कि अगर छपी हुई किताबों पर कोई नियंत्रण न होगा तो लोगों में बागी और अधार्मिक विचार पनपने लगेंगे। अगर ऐसा हुआ तो ‘मूल्यवान’ साहित्य की सत्ता ही नष्ट हो जाएगी।

उदाहरण के लिए, यूरोप में लातिन के विद्वान और कैथोलिक धर्म सुधारक इरैस्मस ने लिखा है- “किताबें भिनभिनाती मक्खियों की तरह हैं, दुनिया का कौन-सा कोना है जहाँ ये नहीं पहुँच जातीं। हो सकता है कि जहाँ-तहाँ यह एकाध जानने लायक चीजें भी बताएँ, लेकिन इनका ज्यादा हिस्सा तो विद्वत्ता के लिए हानिकारक ही है। ये बेकार का ढेर है, इनसे बचना चाहिए। मुद्रक दुनिया को तुच्छ, बकवास, बेवकूफ, सनसनीखेज, धर्म-विरोधी, अज्ञानी और षड्यंत्रकारी किताबों से पाट रहे हैं और उनकी तादाद ऐसी है कि मूल्यवान साहित्य का मूल्य भी नहीं रह जाता।”

इसी तरह भारत में भी दकियानूसी मुसलमानों का मानना था कि महिलाएँ उर्दू के रूमानी अफसाने पढ़कर बिगड़ जाएँगी। वहीं दकियानूसी हिंदू मानते थे कि किताबें पढ़ने से कन्याएँ विधवा हो जाएँगी।

प्रश्न 9. अठारहवीं सदी के यूरोप में कुछ लोगों को क्यों ऐसा लगता था कि मुद्रण संस्कृति से निरंकुशवाद का अंत और ज्ञानोदय होगा?

उत्तर- अठारहवीं सदी के मध्य तक यह आम विश्वास बन चुका था कि किताबों के जरिए प्रगति और ज्ञानोदय होता है क्योंकि –

(i) कई लोगों का मानना था कि किताबें दुनिया बदल सकती हैं और वे निरंकुशवाद और आतंकी राजसत्ता से समाज को मुक्ति दिलाकर ऐसा दौर लाएँगी जब विवेक और बुद्धि का राज होगा।

(ii) इन लोगों का ऐसा मानने का कारण यह था कि किताबों व पढ़ने के प्रति लोगों में जागरूकता दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही थी।

(iii) अब कम शिक्षित लोग भी किताबों के माध्यम से दार्शनिकों, लेखकों व चिंतकों के विचारों को जान रहे थे।

(iv) पुरानी मान्यताओं में सुधार की आवश्यकता को बुद्धि व विवेक से तौला जाने लगा था।

(v) विभिन्न विचारों को पढ़कर लोग अपनी खुद की मान्यताएँ तय करने में सक्षम हो रहे थे।

(vi) फ्रांस के एक उपन्यासकार लुई सेबेस्तिएँ मर्सिए ने घोषणा की- “छापाखाना प्रगति का सबसे ताकतवर औजार है। इससे बन रही जनमत की आँधी निरंकुशवाद का अंत कर देगी।” मर्सिए के उपन्यासों में नायक अक्सर किताबें पढ़कर बदल जाते हैं। इस तरह बहुत-से लोग मुद्रण संस्कृति की भूमिका के प्रति आश्वस्त थे कि इससे निरंकुशवाद का अंत और ज्ञानोदय होगा।

प्रश्न 10. कुछ इतिहासकार ऐसा क्यों मानते हैं कि मुद्रण संस्कृति ने फ्रांसीसी क्रान्ति के लिए जमीन तैयार की?

उत्तर- छपाई के कारण ज्ञानोदय से वॉल्टेयर और रूसो जैसे चिन्तकों के विचारों का प्रचार-प्रसार हुआ। सामूहिक रूप से उन्होंने परम्परागत, अन्धविश्वास और निरंकुशवाद की आलोचना प्रस्तुत की। उन्होंने ‘तार्किकता’ का प्रचार-प्रसार किया। इसने लोगों को राजशाही के विरुद्ध विद्रोही हेतु प्रेरित किया। मुद्रण ने समस्त पुराने मूल्यों, संस्थाओं और नियमों पर आम जनता के मध्य बहस-मुबाहिसे और धार्मिक तथा राजनीतिक मुद्दों पर विचार-विमर्श का मार्ग प्रशस्त किया। कार्टूनों और कैरिकेचरों (व्यंग्य चित्रों) में यह भाव सामने आता था कि जनता तो मुश्किल में फँसी है जबकि राजशाही भोग-विलास में डूबी हुई है। इसने क्रान्ति की ज्वाला भी भड़काई। अतः स्पष्ट है- “मुद्रण संस्कृति ने फ्रांसीसी क्रान्ति के लिए अनुकूल परिस्थितियाँ रची थीं।”

प्रश्न 11. मुद्रण संस्कृति ने भारत में राष्ट्रवाद के विकास में क्या मदद की?

उत्तर – मुद्रण संस्कृति ने भारत में राष्ट्रवाद के विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया जो निम्नलिखित है-

(i) बहुत-से समाज व धर्म-सुधारकों ने समाज में व्याप्त अंधविश्वासों को दूर करने के लिए लिखना शुरू किया, जिससे लोगों में चेतना आई।

(ii) जातिवाद, महिला शोषण व मजदूरों की दयनीय स्थिति पर लिखा गया, इससे जनमानस में अपनी खराब स्थिति को समझने में मदद मिली।

(iii) 1870 के दशक तक पत्र-पत्रिकाओं में सामाजिक-राजनीतिक विषयों पर टिप्पणी करते हुए कैरिकेचर व कार्टून छपने लगे थे।

(iv) कुछ ने शिक्षित भारतीयों की पश्चिमी पोशाकों और पश्चिमी अभिरुचियों का मजाक उड़ाया।

(v) राष्ट्रवादी लोगों ने राष्ट्रवाद को बढ़ाने के लिए स्थानीय मुद्रण का व्यापक सहारा लिया।

(vi) खुलेआम व चोरी-छिपे राष्ट्रवादी विचार व लेख प्रकाशित होने लगे जिन्हें आम जनता तक पहुँचाना मुश्किल नहीं था।

(vii) अंधविश्वासों, सामाजिक समस्याओं के साथ-साथ विदेश राज पर भी सवाल उठाए जाने लगे तथा भारत की जनता की गरीबी व परेशानियों तथा पिछड़ेपन के लिए ब्रिटिश सत्ता को कोसा जाने लगा। इस तरह मुद्रण संस्कृति ने भारत में राष्ट्रवाद के विकास में व्यापक भूमिका निभाई।

प्रश्न 12. मुद्रण क्रान्ति क्या है? इसका फ्रांस की क्रान्ति पर क्या प्रभाव पड़ा?

उत्तर- मुद्रण क्रान्ति मुद्रण क्रांति का तात्पर्य केवल किताबों का नया और विकसित होने से नहीं था बल्कि इसने छापाखाने में यूरोपीय लोगों की जिंदगियों को पूरी तरह से बदल दिया। छापेखाने का आविष्कार महज तकनीकी दृष्टि से नाटकीय बदलाव की शुरुआत नहीं थी। पुस्तक उत्पादन के नए तरीकों ने लोगों की जिंदगी बदल दी। इसके बाद सूचना और ज्ञान से, संस्था और सत्ता से उनका रिश्ता ही बदल गया। इससे लोकचेतना बदली और चीजों को देखने का नजरिया बदल गया।

मुद्रण क्रान्ति का फ्रांस की क्रान्ति पर प्रभाव उक्त प्रश्न संख्या 10 का उत्तर देखें।

प्रश्न 13. उन्नीसवीं सदी के प्रकाशन के विभिन्न पहलू क्या थे? किन्हीं तीन का उल्लेख कीजिए।

उत्तर- (i) 19वीं सदी के अंतिम चरण में प्राथमिक शिक्षा को अनिवार्य बना दिया गया। बहुत बड़ी संख्या में बच्चों की किताबें छापी गईं; अतः बच्चे भी एक नये किन्तु बड़े पाठक वर्ग के रूप में उभरकर सामने आए।

(ii) 19वीं सदी में पेनी पत्रिका का प्रकाशन आरम्भ हुआ। ये पत्रिकाएँ महिलाओं में काफी लोकप्रिय हुईं। उपन्यासों एवं पुस्तिकाओं ने भी लोकप्रियता पाई। महिलाएँ इन साहित्यों के एक बड़े पाठक वर्ग के रूप में उभरीं।

(iii) 17वीं सदी से जो उधार पर किताब देने वाले पुस्तकालय स्थापित किए गए थे वे अब सफेदपोश नौकरी पेशा लोगों, कारीगरों तथा निम्न मध्य वर्ग के लोगों के बीच काफी लोकप्रिय बन चुके थे।

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1. गुटेनबर्ग ने अपनी प्रेस से पहली पुस्तक कौन-सी छापी थी? उसकी क्या विशेषताएँ थीं?

उत्तर – गुटेनबर्ग ने अपनी प्रेस से पहली किताब ‘बाइबिल’ छापी थी। उसने इसकी तकरीबन 180 प्रतियाँ बनाने में सिर्फ तीन साल का समय लिया जो उस समय के हिसाब से काफी तेज छपाई थी। उसकी 180 प्रतियों में से 50 प्रतियाँ ही बच पाई हैं। इन्हें गुटेनबर्ग की प्रेस की धातुई टाइप से छापा गया था। इसकी विशेषताएँ निम्नलिखित थीं-

(i) इसके पन्नों और हाशियों पर कलाकारों ने हाथ से टीकाकारी और सुघड़ चित्रकारी की थी।

(ii) कोई भी दो प्रतियाँ एक जैसी नहीं थीं। हर प्रति का हर पन्ना अलग था।

(iii) पहली नजर में वे एक जैसे लगते, किन्तु गौर से तुलना करने पर फर्क पता चलता था।

(iv) हर जगह पर कुलीन वर्गों ने इस विशिष्टता को पसंद किया।

(v) जो प्रति जिसके पास थी वह दावा कर सकता था कि वह अनोखी है क्योंकि किसी के पास उसकी हू-ब-हू नकल नहीं थी।

(vi) इसकी इबारतों में कई जगह पर अक्षरों में रंग भरे गए थे। इसके दो फायदे थे एक तो पन्ना रंगीन हो जाता था साथ ही पवित्र शब्द ज्यादा दर्शनीय और महत्त्वपूर्ण बन जाते थे।

(vii) गुटेनबर्ग ने इबारत व पाठ को काले में छापा और बाद में रंग भरने के लिए जगह छोड़ दी।

प्रश्न 2. प्रिंटिंग प्रेस के आविष्कार के पश्चात् प्रकाशित पुस्तकों ने यूरोपीय समाज में क्या बदलाव किए?

या छापेखाने (प्रिंटिंग प्रेस) के आविष्कार से समाज पर क्या प्रभाव पड़ा? किन्हीं तीन बिन्दुओं पर प्रकाश डालिए।

उत्तर – 17 और 18 सदी की अवधि में यूरोप के अधिकांश भागों में साक्षरता बढ़ती रही। अलंग-अलग सम्प्रदाय के चर्चों ने गाँवों में स्कूल स्थापित किए और किसानों-कारीगरों को शिक्षित करने लगे। अठारहवीं सदी के अन्त तक यूरोप के कुछ भागों में तो साक्षरता दर 60 से 80 प्रतिशत तक हो गई थी। यूरोपीय देशों में-साक्षरता और स्कूलों के प्रसार के साथ लोगों में पढ़ने का जैसे जुनून उत्पन्न हो गया। लोगों को पुस्तकें चाहिए थीं, इसलिए मुद्रक अधिक-से-अधिक पुस्तकें छापने लगे।  नए पाठकों की रुचि को दृष्टिगत रखते हुए विभिन्न प्रकार का साहित्य छपने लगा। पुस्तक विक्रेताओं ने गाँव-गाँव जाकर छोटी-छोटी पुस्तकों को बेचने वाले फेरीवालों को काम पर लगाया। ये पुस्तकें मुख्यतः पंचांग के अलावा ‘लोक-गाथाएँ और लोकगीतों की हुआ करती थीं। लेकिन शीघ्र पुस्तकें ही मनोरंजन-प्रधान सामग्री के रूप में साधारण पाठकों तक पहुँचने लगीं। – इंग्लैंड में पेनी चैपबुक्स या एकपैसिया किताबें बेचने वालों को चैपमेन कहा जाता था। इन पुस्तकों को गरीब लोग भी खरीदकर पढ़ सकते थे। फ्रांस में बिब्लियोथीक ब्ल्यू का चलन था, जो सस्ते कागज पर छपी और नीली जिल्द में बँधी छोटी पुस्तकें हुआ करती थीं। इसके अलावा चार-पाँच पन्ने की प्रेम-कहानियाँ थीं और अतीत की थोड़ी गाथाएँ थीं, जिन्हें ‘इतिहास’ कहते थे। आप देख सकते हैं कि अलग-अलग उद्देश्य और रुचि के हिसाब से पुस्तकों के कई आकार-प्रकार थे। 18वीं सदी के आरम्भ में पत्रिकाओं का प्रकाशन प्रारम्भ हुआ, जिनमें समसामयिक घटनाओं की खबर के साथ मनोरंजन भी परोसा जाने लगा। अखबार और पत्रों में युद्ध और व्यापार से सम्बन्धित जानकारी के अलावा दूर देशों की खबरें होती थीं।

उसी प्रकार वैज्ञानिक और दार्शनिक भी साधारण जनता की पहुँच के बाहर नहीं रहे। प्राचीन व मध्यकालीन ग्रन्थ संकलित किए गए और नक्शों के साथ-साथ वैज्ञानिक खाके भी बड़ी मात्रां में छापे गए। जब आइजैक न्यूटन जैसे वैज्ञानिकों ने अपने आविष्कार प्रकाशित करने प्रारम्भ किए तो उनके लिए विज्ञान-बोध में रुचि रखने वाला एक बड़ा पाठक-वर्ग तैयार हो चुका था। टॉमस पेन, वॉल्टेयर और ज्याँ जाक रूसो जैसे दार्शनिकों की पुस्तकें भी अधिक संख्या में छापी और पढ़ी जाने लगीं। स्पष्ट है कि विज्ञान, तर्क और विवेकवाद के उनके विचार लोकप्रिय साहित्य में भी स्थान पाने लगे।

प्रश्न ३. भारत में छपाई कब शुरू हुई? मुद्रण युग के पहले यहाँ सूचना और विचार कैसे लिखे जाते थे?

उत्तर- प्रिंटिंग प्रेस 16वीं सदी में भारत के गोवा में पुर्तगाली धर्म प्रचारकों के साथ आया। जेसुइट पुजारियों ने कोंकणी सीखी और अनेक पुस्तिकाएँ छापीं। 1674 ई. तक कोंकणी और कन्नड़ भाषाओं में लगभग 50 किताबें छप चुकी थीं। कैथोलिक पुजारियों ने 1579 में कोचीन में पहली तमिल किताब छापी और 1713 में पहली मलयालम किताब छापने वाले भी वही थे। डच प्रोटेस्टेंट धर्म प्रचारकों ने 32 तमिल किताबें छापीं, जिनमें से कई पुरानी किताबों का अनुवाद थीं। अंग्रेजी भाषी प्रेस भारत में बहुत समय तक विकास नहीं कर पाया था, यद्यपि ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने 17वीं सदी के अंत तक छापेखाने का आयात शुरू कर दिया था।

जेम्स ऑगस्टस हिक्की ने 1780 से बंगाल गजट नामक एक साप्ताहिक पत्रिका का संपादन शुरू किया। यह पत्रिका भारत में प्रेस चलाने वाले औपनिवेशिक शासन से आजाद, निजी अंग्रेज उद्यम थी और इसे अपनी स्वतंत्रता पर अभिमान था। वह भारत में कार्यरत वरिष्ठ अंग्रेज अधिकारियों से जुड़ी गपबाजी भी छापता था। इससे नाराज होकर गवर्नर जनरल वॉरेन हेस्टिंग्स ने हिक्की पर मुकदमा कर दिया और ऐसे सरकारी आश्रय प्राप्त अखबारों के प्रकाशन को प्रोत्साहित करना शुरू कर दिया जो औपनिवेशिक राज की छवि पर होते हमलों से इसकी रक्षा कर सकें। 18वीं सदी के अंत तक अनेक पत्र-पत्रिकाएँ छपने लगीं। कुछ हिन्दुस्तानी भी अपने अखबार छापने लगे थे। ऐसे प्रयासों में पहला था राजा राममोहन राय के करीबी रहे गंगाधर भट्टाचार्य द्वारा प्रकाशित बंगाल गजट।

मुद्रण युग से पहले की पांडुलिपियाँभारत में मुद्रण युग से पहले संस्कृत, अरबी, फारसी और विभिन्न क्षेत्रीय भाषाओं में हस्त लिखित पांडुलिपियों की परंपरा थी। वे पांडुलिपियाँ ताड़ के पत्तों या हाथ से बने कागज पर नकल कर बनाई जाती थीं। कभी-कभी तो पन्नों पर बेहतरीन तस्वीरें भी बनाई जाती थीं। ये पांडुलिपियाँ नाजुक होती थीं और काफी महँगी भी। एक तो इन्हें बड़ी सावधानी से पकड़ना होता था, दूसरे लिपियों के अलग-अलग तरीके से लिखे जाने के चलते उन्हें पढ़ाना भी आसान नहीं था। इसलिए इनका व्यापक दैनिक प्रयोग नहीं होता था। पूर्व औपनिवेशिक काल में बंगाल में ग्रामीण क्षेत्रों में प्राथमिक पाठशालाओं का बड़ा जाल था, लेकिन विद्यार्थी आमतौर पर किताबें नहीं पढ़ते थे। गुरु याद्दाश्त से किताबें सुनाते थे और विद्यार्थी उन्हें लिख लेते थे। इस तरह अधिकांश लोग बिना कोई किताब पढ़े साक्षर बन जाते थे।

 

UP Board Solution of Class 10 Social Science (History) Chapter- 4 औद्योगीकरण का युग (Audhogikaran ka Yug) Notes

error: Copyright Content !!
Scroll to Top