UP Board Solution of Class 9 Social Science [सामाजिक विज्ञान] History [इतिहास] Chapter- 2 यूरोप में समाजवाद एवं रूसी क्रान्ति (Europe Me Samajwad aur Rusi Kranti)
दीर्घ उत्तरीय प्रश्न Long Answer
प्रिय पाठक! इस पोस्ट के माध्यम से हम आपको कक्षा 9वीं की सामाजिक विज्ञान इकाई-1: इतिहास भारत और समकालीन विश्व-1 खण्ड-1 घटनायें और प्रक्रियायें के अंतर्गत चैप्टर-2 यूरोप में समाजवाद एवं रूसी क्रान्ति (Europe Me Samajwad aur Rusi Kranti)पाठ के दीर्घ उत्तरीय प्रश्न प्रदान कर रहे हैं। जो की UP Board आधारित प्रश्न हैं। आशा करते हैं आपको यह पोस्ट पसंद आई होगी और आप इसे अपने दोस्तों के साथ भी शेयर करेंगे।
Subject | Social Science [Class- 9th] |
Chapter Name | यूरोप में समाजवाद एवं रूसी क्रान्ति (Europe Me Samajwad aur Rusi Kranti) |
Part 3 | History [इतिहास] |
Board Name | UP Board (UPMSP) |
Topic Name | भारत और समकालीन विश्व-1 |
यूरोप में समाजवाद एवं रूसी क्रान्ति (Europe Me Samajwad aur Rusi Kranti)
दीर्घ उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1. रूस के सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक हालात 1905 ई. से पहले कैसे थे?
उत्तर- 19वीं शताब्दी में लगभग समस्त यूरोप में महत्त्वपूर्ण सामाजिक आर्थिक और राजनीतिक परिवर्तन हुए थे। इनमें कई देश गणराज्य थे, तो कई संवैधानिक राजतंत्र। सामंती व्यवस्था समाप्त हो चुकी थी और सामंतों का स्थान नए मेध्य वर्ग ने ले लिया था। परन्तु रूस अभी भी ‘पुरानी दुनिया’ में जी रहा था। यह “बात रूस की सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक दशा से स्पष्ट हो जाएगी-
- रूस की राजनीतिक स्थिति
रूस की राजनीतिक स्थिति सन् 1905 से पूर्व अत्यन्त चिंताजनक थी। रूस मैं जार का निरंकुश शासन था जिसमें जनता ‘पुरानी दुनिया’ की तरह रह रही थी क्योंकि वहाँ पर अभी तक यूरोप के अन्य देशों की भाँति आर्थिक, सामाजिक व राजनीतिक परिवर्तन नहीं हो रहे थे। रूस के किसान, श्रमिक और जनसाधारण की हालत बड़ी दयनीय थी। रूस में औद्योगीकरण देरी से हुआ। सारा समाज विषमताओं से पीड़ित था। राज्य जनता को कोई अधिकार देने को तैयार नहीं था क्योंकि वह दैवी सिद्धान्त में विश्वास रखता था। जार और उसकी पत्नी बुद्धिहीन *और भोग-विलासी थे। वह जनता पर दमनपूर्ण शासन रखना चाहता था।
- सन् 1905 से पूर्व रूस की सामाजिक और आर्थिक स्थिति
(i) श्रमिकों की हीन दशा- औद्योगिक क्रांति के कारण रूस में बड़े-बड़े पूँजीपतियों ने अधिक मुनाफा कमाने की इच्छा से मजदूरों का शोषण करना आरम्भ कर दिया। वे उन्हें कम वेतन देते थे तथा कारखानों में उनके साथ बुरा व्यवहार करते ‘थे। यहाँ तक कि बच्चों व स्त्रियों के जीवन से भी खिलवाड़ करने में वे कभी नहीं चूकते थे। ऐसी अवस्था से बचने के लिए मजदूर एक होने लगे। किन्तु सन् 1900 में इन पर हड़ताल करने व संघ बनाने पर भी रोक लगा दी गई। उन्हें न तो कोई राजनीतिक अधिकार प्राप्त थे और न ही उन्हें सुधारों की कोई आशा थी। ऐसे समय में उनके पास मरने अथवा मारने के अलावा और कोई चारा नहीं था।
(ii) किसानों की शोचनीय स्थिति- रूस में किसानों की स्थिति : अत्यन्त शोचनीय थी। वहाँ कृषि-दास प्रथा अवश्य समाप्त हो चुकी थी, लेकिन किसानों की दशा में कोई सुधार नहीं हुआ था। उनकी कृषि जोतें बहुत ही छोटी थीं और खेती को विकसित तकनीक से करने के लिए उनके पास पूँजी का अभाव था। इन छोटी-छोटी जोतों को पाने के लिए भी उन्हें अनेक दशकों तक मुक्ति कर के रूप में बड़ी कीमत चुकानी पड़ती थी।
प्रश्न 2. सन् 1917 से पहले रूस की कामकाजी आबादी यूरोप के बाकी देशों के मुकाबले किन-किन स्तरों पर भिन्न थी?
उत्तर- रूस की कामकाज करने वाली जनसंख्या यूरोप के अन्य देशों से सन् 1917 से पहले भिन्न थी। ऐसा इसलिए क्योंकि सभी रूसी कामगार कारखानों में काम करने के लिए गाँव से शहर नहीं आए थे। इनमें से ज्यादातर गाँवों में ही रहना पसन्द करते थे और शहर में काम करने के निमित्त रोज गाँव से आते और शाम को वापस लौट जाते थे। वे सामाजिक स्तर एवं दक्षता के अनुसार समूहों में बँटे हुए थे और यह उनकी पोशाकों से परिलक्षित होता था। धातुकर्मी अपने को मजदूरों में स्वयं को साहब मानते थे। क्योंकि उनके काम में ज्यादा प्रशिक्षण और निपुणता की जरूरत रहती थी तथापि कामकाजी जनसंख्या कार्य स्थितियों एवं नियोक्ताओं के अत्याचार के खिलाफ हड़ताल के मोर्चे पर एकजुट थी।
अन्य यूरोपीय देशों के मुकाबले में रूस की कामगार जनसंख्या जैसे कि किसानों एवं कारखाना मजदूरों की स्थिति बहुत भयावह थी। ऐसा जार निकोलस द्वितीय की निरंकुश सरकार के कारण था जिसकी भ्रष्ट एवं दमनकारी नीतियों से इन लोगों से उसकी शत्रुता दिनों-दिन बढ़ती जा रही थी।
कारखाना मजदूरों की स्थिति भी इतनी ही खराब थी कि वे अपनी शिकायतों को प्रकट करने के लिए कोई ट्रेड यूनियन अथवा कोई राजनीतिक दल नहीं बना सकते थे। अधिकतर कारखाने उद्योगपतियों की निजी संपत्ति थे। वे अपने स्वार्थ के लिए मजदूरों का शोषण करते थे। कई बार तो इन मजदूरों को न्यूनतम निर्धारित मजदूरी भी नहीं मिलती थी। कार्य घण्टों की कोई सीमा नहीं थी जिसके कारण उन्हें दिन में 12-15 घण्टे काम करना पड़ता था। उनकी स्थिति इतनी दयनीय थी कि न तो उन्हें राजनीतिक अधिकार प्राप्त थे और न ही सन् 1917 की रूसी क्रांति की शुरुआत से पहले किसी प्रकार के सुधारों की आशा थी।
किसान जमीन पर सर्फ के रूप में काम करते थे और उनकी पैदावार का अधिकतम भाग जमीन के मालिकों एवं विशेषाधिकार प्राप्त वर्गों को चला जाता था। कुलीन वर्ग, सम्राट तथा रूढ़िवादी चर्च के पास बहुत ज्यादा संपत्ति थी। ब्रिटेन में फ्रांसीसी क्रांति के दौरान किसान कुलीनों का सम्मान करते थे और उनके लिए लड़ते थे किन्तु रूस में किसान कुलीनों को दी गई जमीन लेना चाहते थे। उन्होंने लगान देने से मना कर दिया और जमींदारों को मार भी डाला।
तत्कालीन रूस के किसान अपनी कृषि भूमि एकत्र कर अपने कम्यून (मीर) को सौंप देते थे और किसानों का कम्यून उस कृषि भूमि को प्रत्येक परिवार की आवश्यकता के अनुसार बाँट देता था, जिससे उस कृषि भूमि पर सुगमता से कृषि की जा सके।
प्रश्न 3. सन् 1917 में जार का शासन क्यों खत्म हो गया?
उत्तर- जार की नीतियों के प्रति बढ़ते जन असन्तोष के कारण सन् 1917 में जार के शासन का अंत हो गया। जार निकोलस द्वितीय ने रूस में राजनीतिक गतिविधियों पर रोक लगा दी, मतदान के नियम परिवर्तित कर दिए तथा अपनी सत्ता के खिलाफ उठे उन आक्रोश को निरस्त कर दिया। रूस में युद्ध तो अत्यधिक लोकप्रिय थे और जनता युद्ध में जार का साथ भी देती थी किन्तु जैसे-जैसे
युद्ध जारी रहा, जार ने ड्यूमा के प्रमुख दलों से सलाह लेने से मना कर दिया। इस प्रकार उसने समर्थन खो दिया और जर्मन विरोधी भावनाएँ प्रबल होने लगीं। जारीना अलेक्सान्द्रा के सलाहकारों विशेषकर रासपुतिन ने राजशाही को अलोकप्रिय बना दिया। रूसी सेना लड़ाई हार गई। पीछे हटते समय रूसी सेना ने फसलों एवं इमारतों को नष्ट कर दिया। फसलों एवं इमारतों के विनाश से रूस में लगभग 30 लाख से अधिक लोग शरणार्थी हो गए जिससे हालात और बिगड़ गए। प्रथम विश्व युद्ध का उद्योगों पर बुरा प्रभाव पड़ा। बाल्टिक सागर के रास्ते पर जर्मनी का कब्जा हो जाने के कारण माल का आयात बन्द हो गया। औद्योगिक उपकरण बेकार होने लगे तथा सन् 1916 तक रेलवे लाईनें टूट गईं। अनिवार्य सैनिक सेवा के चलते सेहतमन्द लोगों को युद्ध में झोंक दिया गया जिसके परिणामस्वरूप मजदूरों की कमी हो गई। रोटी की दुकानों पर दंगे होना आम बात है। गई। 26 फरवरी, 1917 को ड्यूमा को बर्खास्त कर दिया गया। यह आखिरी दाँव साबित हुआ और इसने जार के शासन को पूरी तरह जोखिम में डाल दिया। 2 मार्च, 1917 को जार गद्दी छोड़ने पर विवश हो गया और इससे निरंकुशता का अन्त है गया।
किसान जमीन पर सर्फ के रूप में काम करते थे और उनकी पैदावार का ज्यादातर भाग जमीन के मालिकों एवं विशेषाधिकार प्राप्त वर्गों को चला जाता था। किसानों में जमीन की भूख प्रमुख कारक थी। विभिन्न दमनकारी नीतियों तथा कुण्ठा के कारण वे साधारणतय लगान देने से मना कर देते और प्रायः जमींदारों करते। कार्ल मार्क्स की साम्यवादी धारणा और सर्वहारा की विश्व-विजय के उद्घो की हत्या ने रूस के जारशाही से आक्रोशित लोगों को विद्रोह के लिए उद्वेलित किया।
प्रश्न 4. दो सूचियाँ बनाइए एक सूची में फरवरी क्रांति की मुख्य घटनाओं और प्रभावों को लिखिए और दूसरी सूची में अक्टूबर क्रांति की प्रमुख घटनाओं और प्रभावों को दर्ज कीजिए।
उत्तर- जार की गलत नीतियों, राजनीतिक भ्रष्टाचार तथा जनसाधारण एवं सैनिकों की दुर्दशा के कारण रूस में क्रान्ति का वातावरण तैयार हो चुका था। एक छोटी-सी घटना ने इस क्रान्ति की शुरुआत कर दी और यह दो चरणों में पूरी हुई। ये दो चरण थे-फरवरी क्रान्ति और अक्टूबर क्रान्ति। संक्षेप में क्रान्ति का सम्पूर्ण घटनाक्रम इस प्रकार है-
फरवरी क्रान्ति- सन् 1917 के फरवरी माह में शीतकाल में राजधानी पेत्रोआद में हालात बिगड़ गए। मजदूरों के क्वार्टरों में खाने की बहुत कमी हो गयी जबकि संसदीय प्रतिनिधि जार की ड्यूमा को बर्खास्त करने की इच्छा के खिलाफ थे। नगर की संरचना इसके नागरिकों के विभाजन का कारण बन गयी। मजदूरों के क्वार्टर और कारखाने नेवा नदी के दाएँ तट पर स्थित थे। बाएँ तट पर फैशनेबल इलाके जैसे कि विंटर पैलेस, सरकारी भवन तथा वह महल भी था जहाँ ड्यूमा की बैठक होती थी।
सर्दी बहुत ज्यादा अधिक थी- असाधारण कोहरा और बर्फबारी हुई थी। 22 फरवरी को दाएँ किनारे पर एक कारखाने में तालाबंदी हो गई अगले दिन सहानुभूति के तौर पर 50 और कारखानों के मजदूरों ने हड़ताल कर दी। कई कारखानों में महिलाओं ने हड़ताल की अगुवाई की।
रविवार, 25 फरवरी को सरकार ने ड्यूमा को बर्खास्त कर दिया।
27 फरवरी को पुलिस मुख्यालय पर हमला किया गया।
गलियाँ रोटी, मजदूरी, बेहतर कार्य घण्टों एवं लोकतंत्र के नारे लगाते हुए लोगों से भर गईं।
घुड़सवार सैनिकों की टुकड़ियों ने प्रदर्शनकारियों पर गोली चलाने से मना कर दिया तथा शाम तक बगावत कर रहे सैनिकों एवं हड़ताल कर रहे मजदूरों ने मिलकर पेत्रोग्राद सोवियत नाम की सोवियत काउंसिल बना ली।
जार ने 2 मार्च को अपनी सत्ता छोड़ दी और सोवियत तथा ड्यूमा के नेताओं ने मिलकर रूस के लिए अंतरिम सरकार बना ली। फरवरी क्रांति के मोर्चे पर कोई भी राजनीतिक दल नहीं था। इसका नेतृत्व लोगों ने स्वयं किया था। पेत्रोग्राद ने राजशाही का अन्त कर दिया और इस प्रकार उन्होंने सोवियत इतिहास में महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त कर लिया।
फरवरी क्रान्ति का प्रभाव यह हुआ कि जनसाधारण तथा संगठनों की बैठकों पर से प्रतिबन्ध हटा लिया गया। पेत्रोग्राद सोवियत की तरह की सभी जगह सोवियत बन गई यद्यपि इनमें एक जैसी चुनाव प्रणाली का अनुसरण नहीं किया गया। अप्रैल, 1917 ई. में बोल्शेविकों के नेता ब्लादिमीर लेनिन देश निकाले से रूस वापस लौट आए। उसने ‘अप्रैल थीसिस’ के नाम से जानी जाने वाली तीन माँगे रखीं। ये तीन माँगें थीं- युद्ध को समाप्त किया जाए, भूमि किसानों को हस्तांतरित की जाए और बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया जाए। उसने इस बात पर भी जोर दिया कि अब अपने रेडिकल उद्देश्यों को स्पष्ट करने के लिए बोल्शेविक पार्टी का नाम बदलकर कम्युनिस्ट पार्टी रख दिया जाए।
अक्टूबर क्रान्ति- जनता की सबसे महत्त्वपूर्ण चार माँगें थीं- शांति, भूमि का स्वामित्व जोतने वालों को, कारखानों पर मजदूरों का नियंत्रण तथा गैर-रूसी जातियों को समानता का दर्जा। अस्थायी सरकार का प्रधान करेंस्की इनमें से किसी भी माँग को पूरा न कर सका और सरकार ने जनता का समर्थन खो दिया। लेनिन फरवरी क्रान्ति के समय स्विट्जरलैण्ड में निर्वाचित जीवन व्यतीत कर रहा था, वह अप्रैल में रूस लौट आया। उसके नेतृत्व में बोल्शेविक पार्टी ने युद्ध समाप्त करने, किसानों को जमीन देने तथा ‘सारे अधिकार सोवियतों को देने’ की स्पष्ट नीतियाँ सामने रखीं। गैर-रूसी जातियों के प्रश्न पर भी केवल लेनिन की बोल्शेविक पार्टी के पास एक स्पष्ट नीति थी।
अक्टूबर क्रांति अंतरिम सरकार तथा बोल्शेविकों में मतभेद के कारण हुई। सितम्बर में ब्लादिमीर लेनिन ने विद्रोह के लिए समर्थकों को इकट्ठा करना शुरू कर दिया।
16 अक्टूबर, 1917 को उसने पेत्रोग्राद सोवियत तथा बोल्शेविक पार्टी को सत्ता पर सामाजिक कब्जा करने के लिए मना लिया। सत्ता पर कब्जे के लिए लियोन ट्रॉटस्की के नेतृत्व में एक सैनिक क्रांतिकारी सैनिक समिति नियुक्त की गई।
जब 24 अक्टूबर को विद्रोह शुरू हुआ, प्रधानमंत्री करेंस्की ने स्थिति को नियंत्रण से बाहर होने से रोकने के लिए सैनिक टुकड़ियों को लाने हेतु शहर छोड़ा।
क्रांतिकारी समिति ने सरकारी कार्यालयों पर हमला बोला, ऑरोरा नामक युद्धपोत ने विंटर पैलेस पर बमबारी की और 24 तारीख की रात को शहर पर बोल्शेविकों का नियंत्रण हो गया।
थोड़ी-सी गम्भीर लड़ाई के उपरान्त बोल्शेविकों ने मॉस्को पेत्रोग्राद क्षेत्र पर पूरा नियंत्रण पा लिया। पेत्रोग्राद में ऑल रशियन कांग्रेस ऑफ सोवियत्स की बैठक में बोल्शेविकों की कार्रवाई को सर्वसम्मति से स्वीकार कर लिया गया।
अक्टूबर क्रान्ति का नेतृत्व मुख्यतः लेनिन तथा उसके अधीनस्थ ट्रॉटस्की ने किया और इसमें इन नेताओं का समर्थन करने वाली जनता भी सम्मिलित थी। इसने सोवियत पर लेनिन के शासन की शुरुआत की तथा लेनिन के निर्देशन में बोल्शेविक इसके साथ थे।
प्रश्न 5. बोल्शेविकों ने अक्टूबर क्रान्ति के फौरन बाद कौन-कौन से प्रमुख परिवर्तन किए?
उत्तर-अक्टूबर क्रांति के पश्चात् बोल्शेविकों द्वारा किए गए प्रमुख परिवर्तन– रूस की बागडोर अपने हाथ में लेकर बोल्शेविक पार्टी ने युद्ध को समाप्त करने, किसानों को जमीन दिलाने तथा सम्पूर्ण सत्ता सोवियतों को सौंपने के सम्बन्ध में स्पष्ट नीतियाँ अपनाईं। सबसे पहले रूस ने अपने-आपको प्रथम विश्वयुद्ध से बिलकुल अलग कर लिया चाहे इसके लिए उसे भारी कीमत क्यों न चुकानी पड़ी। इसके बाद जो-जो उपनिवेश रूस के अधीन थे उन सब उपनिवेशों को स्वतंत्र कर दिया गया। तदुपरान्त बोल्शेविक पार्टी ने अनेक घोषणाएँ कीं जिनसे रूस में समाजवाद का सूत्रपात हुआ। यह घोषणाएँ निम्नलिखित थीं-
- भूमि को सामाजिक सम्पत्ति घोषित कर दिया गया और किसानों को उस भूमि पर कब्जा करने दिया गया जिस पर वे काम करते थे।
- बोल्शेविक पार्टी का नाम बदल कर रूसी कम्युनिस्ट पार्टी (बोल्शेविक) रख दिया गया।
- परिवर्तन को स्पष्ट करने के लिए बोल्शेविकों ने सेना एवं कर्मचारियों की नई वर्दियाँ पेश कीं।
- नवम्बर में संविधान सभा के चुनावों में बोल्शेविकों की हार हुई और जनवरी, 1918 में जब सभा ने उनके प्रस्तावों को खारिज कर दिया तो लेनिन ने सभा बर्खास्त कर दी। मार्च, 1918 में राजनीतिक विरोध के बावजूद रूस ने ब्रेस्ट लिटोस्क में जर्मनी से संधि कर ली।
- पुराने अभिजात्य वर्ग की पदवियों के प्रयोग पर रोक लगा दी गई।
- रूस एक-दलीय देश बन गया और ट्रेड यूनियनों को पार्टी के नियंत्रण में रखा गया।
- शहरों में बड़े घरों के परिवार की आवश्यकता के अनुसार हिस्से कर दिए गए।
- उन्होंने पहली बार केन्द्रीकृत नियोजन लागू किया जिसके आधार पर पंचवर्षीय योजनाएँ बनाई गईं।
- बोल्शेविक निजी सम्पत्ति के पक्षधर नहीं थे अतः अधिकतर उद्योगों एवं बैंकों का राष्ट्रीयकरण कर दिया गया।
प्रश्न 6. निम्नलिखित के बारे में संक्षेप में लिखिए –
(क) कुलक
(ख) ड्यूमा
(ग) 1900 से 1930 के बीच महिला कामगार
(घ) उदारवादी
(ङ) स्तालिन का सामूहिकीकरण कार्यक्रम ।
उत्तर- (क) कुलक- ये सोवियत रूस के धनी किसान थे। कृषि के सामूहिकीकरण कार्यक्रम के अन्तर्गत स्तालिन ने इनका अन्त कर दिया। स्टालिन का विश्वास था कि वे अधिक लाभ कमाने के लिए अनाज इकट्ठा कर रहे थे। सन् 1927-28 तक सोवियत रूस के नगर अन्न आपूर्ति की भारी किल्लत का सामना कर रहे थे। इसलिए इन कुलकों पर सन् 1928 में छापे मारे गए और उनके अनाज के भण्डारों को जब्त कर लिया गया। मार्क्सवादी स्तालिनवाद के अनुसार कुलक गरीब किसानों के ‘वर्ग शत्रु’ थे। उनकी मुनाफाखोरी की इच्छा से खाने की किल्लत हो गई और अन्ततः स्तालिन को इन कुलकों का सफाया करने के लिए सामूहिकीकरण कार्यक्रम चलाना पड़ा और सरकार द्वारा नियंत्रित बड़े खेतों की स्थापना करनी पड़ी।
(ख) ड्यूमा – ड्यूमा रूस की राष्ट्रीय सभा अथवा संसद थी। रूस के जार निकोलस द्वितीय ने इसे मात्र एक सलाहकार समिति में परिवर्तित कर दिया था। इसमें मात्र अनुदारवादी राजनीतिज्ञों को ही स्थान दिया गया। उदारवादियों तथा क्रान्तिकारियों को इससे दूर रखा गया।
(ग) 1900 से 1930 के बीच महिला कामगार – महिला मजदूरों ने रूस के भविष्य निर्माण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। महिला कामगार सन् 1914 तक कुल कारखाना कामगार शक्ति का 31 प्रतिशत भाग बन चुकी थी किन्तु उन्हें पुरुषों की अपेक्षा कम मजदूरी दी जाती थी।
महिला कामगारों को न केवल कारखानों में काम करना पड़ता था अपितु अपने परिवार एवं बच्चों की भी देखभाल करनी पड़ती थी। वे देश के सभी मामलों में बहुत सक्रिय थीं। प्रायः अपने साथ काम करने वाले पुरुष कामगारों को प्रेरणा भी देती थी।
सन् 1917 की अक्टूबर क्रान्ति के बाद समाजवादियों ने रूस में सरकार बनाई। सन् 1917 में राजशाही के पतन एवं अक्टूबर की घटनाओं को ही
सामान्यतः रूसी क्रांति कहा जाता है। उदाहरण के लिए लॉरंज टेलीफोन की महिला मजदूर मार्फा वासीलेवा ने बढ़ती कीमतों तथा कारखाने के मालिकों की मनमानी के विरुद्ध आवाज उठाई, सफल हड़ताल की। अन्य महिला मजदूरों ने भी मार्फा वासीलेवा का अनुसरण किया और जब तक उन्होंने रूस में समाजवादी सरकार की स्थापना नहीं की तब तक उन्होंने राहत की साँस नहीं ली।
(घ) उदारवादी – उदारवाद एक क्रमबद्ध और निश्चित विचारधारा नहीं है, इसका सम्बन्ध न किसी एक युग से है और न ही किसी सर्वमान्य व्यक्ति विशेष से। यह तो युगों-युगों तथा अनेक व्यक्तियों के दृष्टिकोणों का परिणाम है। इस विचारधारा के समर्थक प्रायः निम्नलिखित विषयों में परिवर्तन चाहते थे-
(i) प्रत्येक व्यक्ति को इच्छानुसार व्यवसाय करने तथा सम्पत्ति अर्जित करने का अधिकार होना चाहिए। राज्य को आवश्यक कर ही लगाने चाहिए। (ii) उदारवादी ऐसा राष्ट्र चाहते थे जिसमें सभी धर्मों को बराबर का सम्मान और जगह मिले।
(iii) इनके अनुसार व्यक्ति को प्राचीन रूढ़ियों एवं परम्पराओं का दास नहीं बनाना चाहिए। प्रगति एवं विकास के लिए यदि परम्पराओं का विरोध करना पड़े तो भी करना चाहिए।
(iv) व्यक्ति की गरिमा और प्रतिष्ठा को बनाए रखा जाए क्योंकि समाज और राज्य व्यक्ति की प्रगति और उत्थान के साधन मात्र हैं।
(ङ) स्तालिन का सामूहिकीकरण कार्यक्रम – सन् 1929 से स्तालिन के साम्यवादी दल ने सभी किसानों को सामूहिक खेतों (कोलखोज) में काम करने का निर्देश जारी कर दिया। ज्यादातर जमीन और साजो-सामान को सामूहिक खेतों में बदल दिया गया। रूस के सभी किसान सामूहिक खेतों पर मिल-जुलकर काम करते थे। कोलखोज के लाभ को सभी किसानों के बीच बाँट दिया जाता था। इस निर्णय से नाराज किसानों ने सरकार का विरोध किया। इस विरोध को जताने के लिए वे अपने जानवरों को मारने लगे। परिणामस्वरूप रूस में सन् 1929 से 1931 के मध्य जानवरों की संख्या में एक तिहाई की कमी आयी। सरकार द्वारा सामूहिकीकरण का विरोध करने वालों को कठोर दण्ड दिया जाता था। अनेक विरोधियों को देश से निर्वासित कर दिया गया। सामूहिकीकरण के फलस्वरूप कृषि उत्पादन में कोई विशेष वृद्धि नहीं हुई। दूसरी और सन् 1930 से 1933 के बीच खराब फसल के पश्चात् सोवियत रूस में सबसे बड़ा अकाल पड़ा। इस अकाल में 40 लाख से अधिक लोग मारे गए।
प्रश्न 7. रूसी क्रान्ति में लेनिन की भूमिका बताइए।
उत्तर – रूसी क्रान्ति में लेनिन की भूमिका
- सन् 1905 की क्रांति के कारण जार ने यह आश्वासन दिया था कि रूस में ड्यूमा अर्थात् पार्लियामेंट का निर्माण किया जाएगा परन्तु बाद में अपनी निरंकुशता के कारण उसने ड्यूमा को कोई काम नहीं करने दिया। वह इसके चुनाव में भी हस्तक्षेप करने लगा। पहली ड्यूमा को उसने केवल ढाई महीने में ही भंग कर दिया।
- जार की साम्राज्यवादी नीति का दुष्परिणाम रूस को भुगतना पड़ा। निरन्तर युद्धों के कारण देश के धन एवं समाधनों का बड़े पैमाने पर विनाश हुआ। देश का आर्थिक संकट गहराने लगा और जनता जार के विरुद्ध हो गयी।
- रूस का जार निकोलस द्वितीय बहुत ही उद्दण्ड और निरंकुश शासक था। सन् 1905 की क्रांति दवाने के बाद भी निकोलस द्वितीय की निरंकुशता बढ़ती ही गई। उसने गुप्तचर विभाग का कार्य बहुत तेज कर दिया। जिन लोगों का क्रांति से जरा-सा भी संबंध समझा गया, उनको या तो मार दिया गया या उन्हें बंदी बना लिया गया या फिर देश-निकाला दे दिया गया।
- जार अपनी सुन्दर रानी जरीना के प्रभाव में था जबकि रानी जरीना पर रासपुतिन नामक एक ढोंगी संत का प्रभाव था। यह ढोंगी संत दमन की नीति का पक्षपाती था। कहा जाता है कि यह संत एक गुण्डा था जो चोरी के अपराध में पकड़ा गया था। बाद में उसने साधु का वेश धारण कर लिया था। इतिहासकार रासपुतिन को ‘होली डैविल’ के नाम से पुकारते हैं।
- जार ने एक विशाल साम्राज्य स्थापित कर रखा था जिसमें भाँति-भाँति के लोग रहते थे जो सदा उसके लिए कोई-न-कोई समस्या खड़ी कर देते थे।
प्रश्न 8. लेनिन की नयी आर्थिक नीति का विवेचन कीजिए।
उत्तर- लेनिन की नयी आर्थिक नीति उसकी दूरदर्शिता का परिणाम थी जिसने रूस की स्थिर अर्थव्यवस्था को प्रगति के पथ पर अग्रसर कर दिया। नई आर्थिक नीति, 1921 में लागू की गयी। इस नीति के प्रमुख बिन्दु इस प्रकार 第一
- अनाज और माल की निजी क्षेत्र में व्यापार करने की अनुमति फिर दे दी गई।
- सरकारी फार्म स्थापित किए गए। इन फार्मों में कृषि सम्बन्धी अनुसन्धान कार्य (रिसर्च) तथा नये-नये प्रयोग किए जाने लगे।
- अकाल पीड़ितों की राहत के लिए बड़े पैमाने पर राहत कार्य शुरू किए गए।
- लोगों को वेतन नकद दिया जाने लगा।
- रूस में बहुत बड़ी संख्या में सहकारी संघ या समितियाँ स्थापित की गयीं।
- भूमि की चकबन्दी की गयी। इन बड़े फार्मों पर किसानों को नये तन्नब तथा अच्छी खाद-बीज आदि देकर मदद की गयी।
- कुछ उद्योगों में निजी प्रवन्ध स्वामित्व की छूट दी गई।
- युद्ध के समय साम्यवाद के अन्तर्गत (1917-1921) उठाए गए सभी कदमों को वापस ले लिया गया।
प्रश्न 9. रूसी क्रान्ति के प्रमुख कारणों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर- रूसी क्रान्ति के प्रमुख कारण
19वीं शताब्दी में लगभग समस्त यूरोप में महत्त्वपूर्ण सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक परिवर्तन हो रहे थे। इनमें से ज्यादातर देश फ्रांस की भाँति गणतन्त्र में और इंग्लैण्ड की भांति संवैधानिक राजतंत्र। यूरोप के अधिकांश देशों में प्राचीन सामंती अभिजात वर्ग के स्थान पर नवीन मध्यम वर्ग सत्तासीन हो गया था। लेकिन वह अभी भी पुरानी व्यवस्था में जी रहा था। इसी के चलते रूस में 1905 1917 में क्रान्ति घटित हुई। रूसी क्रान्ति के लिए निम्नलिखित परिस्थितियों उत्तरदायी थी-
- निरंकुश राजतंत्र– रूस की राजनीतिक स्थिति अक्टूबर क्रान्ति से बहुत अच्छी नहीं थी। चूँकि रूस में लम्बे समय से जार का निरंकुश, स्वेच्छाचारी, अत्याचारी, अकुशल और शोषक शासन अस्तित्व में था, ऐसे में रूस घटित होना अवश्यम्भावी था। क्रांति से पूर्व रूस में शासन पर भ्रष्ट जमींदारों, शाही परिवार के लोगों, अमीरों एवं सैनिक अधिकारियों का प्रभुत्व था। कहने को तो रूस का साम्राज्य बहुत बड़ा था लेकिन इसमें गैर-रूसी जनता पर और भी अधिक अत्याचार होते थे। जार को शेष जनता की भावनाओं का कोई आदर नहीं था। वस्तुतः शासकों व शासितों के मध्य अन्तर निरन्तर बढ़ता ही जा रहा था। अतः जनता में असंतोष की सभी सीमाएँ पार हो गई थीं। रूस के जार पूरी तरह निरंकुश व स्वेच्छाचारी थे। उन्होंने समय-समय पर जो परामर्शदात्री सभाएँ बनाई, उनके विचारों को मानने के लिए वे बाध्य नहीं थे। जापान से परास्त हो जाने के बाद निकोलस द्वितीय को ड्यूमा नामक संसद के गठन के लिए मजबूर होना पड़ा किन्तु वह वास्तव में जनता तथा विशेषतः समाज के दुर्बल वर्ग का प्रतिनिधित्व नहीं करती थी। दूसरे इसकी शक्तियाँ सीमित थीं। सम्राट इसके निर्णय से बंधा हुआ नहीं था। वह पूर्ववत् निरंकुश शासक बना रहा। जब कभी जार के शासन के विरुद्ध जन-आंदोलन उठे, उन्हें निर्दयतापूर्वक दबा दिया गया। जार दैवी सिद्धान्त में विश्वास रखता था। वह और उसकी बुद्धिहीन पत्नी भोग-विलास में डूबे थे। जनसाधारण को कोई राजनीतिक अधिकार प्राप्त नहीं थे।
- विचारकों का प्रभाव- अनेक रूसी विचारक यूरोप में हो रहे परिवर्तनों से बहुत प्रभावित हुए। वे उसी तरह के परिवर्तन रूस में भी चाहते थे। इसी भावना से प्रेरित होकर उन्होंने किसानों में जागृति लाने और मजदूरों में संगठित होने की विचारधारा का प्रसार किया। रूस की तत्कालीन स्थितियों में एक नरमपंथी, जनतंत्रवादी अथवा सुधारक को भी क्रांतिकारी बनने के लिए मजबूर होना पड़ा। 19वीं शताब्दी के अन्तिम चरण के दौरान ‘जनता के पास जाओ’ नामक एक आन्दोलन आरम्भ हुआ। यूरोप के उदार विचारों ने भी रूसी क्रांति लाने में बड़ा योगदान दिया। भौतिक क्रांति से पहले रूसी जनता के विचारों में क्रांति हुई। जार के अनेक प्रतिबंध लगाने पर भी पश्चिम के उदार विचारकों ने रूस में साहित्य के माध्यम से प्रवेश किया। विभिन्न रूसी लेखकों जैसे टालस्टाय, टर्जने आदि ने नवयुवकों के विचारों में क्रांति पैदा कर दी और वे पश्चिमी देशों के लोगों को प्राप्त सुविधाओं और अधिकारों की माँग करने लगे। जार ने जब उन्हें ठुकराने की कोशिश की तो उन्होंने क्रांति का मार्ग अपनाया।
- 1905 ई. की क्रान्ति- 9 जनवरी, 1905 को रविवार के दिन मास्को में जनसाधारण ने अपनी 11 सूत्रीय मांगों के साथ एक जुलूस निकाला। प्रदर्शनकारियों का उद्देश्य इन 11 सूत्रीय मांगों को जार के महल तक जाकर उसे जार को सौंपना था। “छोटे भगवान! हमें रोटी दो।” के नारे के साथ ये लोग जार के महल की ओर बढ़ रहे थे, किन्तु जार ने इनसे बात करना तो दूर इन पर गोली चलवा दी। लगभग 1,000 प्रदर्शनकारी मारे गए तथा 60,000 गिरफ्तार कर लिए गए। रूस की सड़कों पर इस दिन बहुत रक्तपात हुआ। इसीलिए 9 जनवरी, 1905 का रविवार का दिन रूसी इतिहास में खूनी रविवार के नाम से प्रसिद्ध है। अनेक इतिहासकारों की राय है कि यद्यपि 1905 ई. की क्रांति को कुचलने में जार कामयाब रहा लेकिन इस क्रांति ने अक्टूबर, 1917 की क्रांति के लिए उचित वातावरण तैयार करने में अहम भूमिका अदा की। इस दिन हुए हत्याकांड से सारे रूस में रोष फैल गया। क्रांतिकारियों के समर्थन में जगह-जगह बन्द आयोजित किए गए और हड़तालें हुईं। इस क्रांति के कारण शिक्षित वर्ग के लोग भी क्रांतिकारियों के साथ मिल गए। इसीलिए सन् 1905 की क्रांति को कई बार सन् 1917 की क्रांति की जननी भी कहा जाता है।
- 1904-05 में रूस-जापान युद्ध – सन् 1904-05 के रूसी-जापानी युद्ध में रूस की हार हुई। छोटे से देश से हारने के कारण जनता जार के शासन की विरोधी बन गई, क्योंकि उसको विश्वास हो गया कि इस हार का एकमात्र कारण जार की निर्बल और अयोग्य सरकार है जो युद्ध का ठीक प्रकार संचालन करने में असफल रही है।
- श्रमिकों की विपन्न दशा- औद्योगिक क्रान्ति के कारण रूस में अनेक उद्योगों की स्थापना की गयी थी, जिनमें लाखों मजदूर काम करते थे किन्तु मजदूरों की आर्थिक स्थिति और उनके कार्यस्थल की दशाएँ अत्यन्त शोचनीय थीं। ऐसी दयनीय स्थिति से बचने के लिए मजदूर एक होने लगे। उन्होंने श्रम संभों का निर्माण शुरू किया। परन्तु पूँजीपति व उनके इशारों पर चलने वाली सरकार ने सन् 1900 में श्रम संघ बनाने एवं हड़ताल करने पर रोक लगा दी। उन्हें न तो कोई राजनीतिक अधिकार प्राप्त थे और न ही उन्हें सुधारों की कोई उम्मीद थी।
- प्रथम विश्व युद्ध में हुई क्षति – प्रथम विश्व युद्ध में रूस की सेना की कई मोचों पर पराजय हुई। इस युद्ध में रूस के 60 लाख सैनिक मारे गए। रूस के लोग युद्ध को चालू रखने के पक्ष में नहीं थे। लगभग समस्त देशवासियों और विशेषकर सैनिकों में युद्ध को लेकर आक्रोश व्याप्त था।
- किसानों की विपन्न दशा- रूस में किसानों की स्थिति अत्यन्त दयनीय थी। रूस में सन् 1861 से पहले सामन्तवादी व्यवस्था अस्तित्व में थी। अधिकांश किसान भूमि दासों या सर्फ के रूप में जमीन जोता करते थे। उन्हें अपनी उपज का एक बहुत बड़ा हिस्सा सामंतों को देना पड़ता था। यद्यपि सन् 1861 में सामंत-प्रथा समाप्त कर दी गई तो भी किसानों की दशा में कोई सुधार नहीं हुआ। उनके खेत बहुत छोटे होते थे जिन पर वे पुराने ढंग से खेती करते थे। उन पर लगे करों का बोझ भारी था इसलिए वे सदा ऋण से दबे रहते थे। सच तो यह है कि उन्हें दो समय का भरपेट भोजन भी नसीब नहीं होता था। रूस में जमीन के लिए किसानों की भूख असंतोष का एक प्रबल सामाजिक कारण था।
प्रश्न 10. बोल्शेविक कौन थे? इनके नेता का क्या नाम था? रूस में बोल्शेविकों के उद्देश्यों पर प्रकाश डालिए।
उत्तर-19वीं शताब्दी के अंतिम दशक से रूस में समाजवादी विचारों का प्रसार आरंभ हो गया था और कई एक समाजवादी संगठनों की स्थापना की जा चुकी थी। सन् 1898 में विभिन्न समाजवादी दल मिलकर एक हो गए और उन्होंने ‘रूसी समाजवादी लोकतांत्रिक मजदूर दल’ का गठन किया। इस पार्टी में वामपक्ष का नेता ब्लादीमीर ईलिच उल्यानोव था जिसे लोग लेनिन के नाम से जानते थे। सन् 1903 में इस गुट का दल में बहुमत हो गया और इनको बोल्शेविक कहा जाने लगा। जो लोग अल्पमत में थे और उन्हें मेन्शेविक के नाम से पुकारा गया।
बोल्शेविकों के उद्देश्य- बोल्शेविक पक्के राष्ट्रवादी थे। वे रूस के लोगों की दशा में सुधार करना चाहते थे। वे रूस को एक शक्तिशाली राष्ट्र के रूप में देखना चाहते थे। अपने इस स्वप्न को साकार करने के लिए उन्होंने जो उद्देश्य अपने सामने रखे, उनका वर्णन इस प्रकार है-
- जार के कुलीन तंत्र का अंत करना- बोल्शेविक यह भली-भाँति जानते थे कि जार के शासन के अंतर्गत रूस के लोगों की दशा को कभी नहीं सुधारा जा सकता। अतः वे जार के शासन का अंत करके रूस में गणतंत्र की स्थापना करना चाहते थे।
- समाजवाद की स्थापना- बोल्शेविक लोगों का अंतिम उद्देश्य रूस में समाजवादी व्यवस्था स्थापित करना था। इसके अतिरिक्त उनके कुछ तत्कालीन उद्देश्य भी थे।
निम्नलिखित कारण जार के पतन के लिए निश्चय ही उत्तरदायी थे-
- बिना तैयारी के प्रथम विश्वयुद्ध में कूद पड़ने के कारण लाखों की संख्या में रूसी सैनिक मारे गए। ऐसे वातावरण में लोग शांति चाहते थे जबकि जार युद्ध को जारी रखने की बात पर अड़ा हुआ था।
- किसान वर्ग भूमि पर केवल खेती करने वालों का अधिकार चाहता था, परन्तु जार ऐसा करने को तैयार न था।
- देश में चारों ओर अकाल पड़ा था लोगों के पास खाने को कुछ नहीं था। जार लोगों की समस्या को नहीं सुलझा सका।
- जार ने अपनी साम्राज्यवादी नीति के कारण अनेक जातियों को अपना दास बना रखा था। ऐसी जातियां जार को सहयोग देने के लिए तैयार न थीं।
- कारीगर लोग कारखानों पर अपना नियंत्रण चाहते थे, परन्तु जार ने ऐसा करना स्वीकार न किया।