Bihar Board Solution of Class-10 Hindi Gadya Chapter-6 Bahadur (बहादुर) गोधूलि अमरकांत
Dear Students! यहां पर हम आपको बिहार बोर्ड कक्षा 10वी के लिए हिन्दी गोधूलि भाग-2 का पाठ-6 बहादुर अमरकांत Bihar Board (बिहार बोर्ड) Solution of Class-10 Hindi (हिन्दी) Gadya Chapter-6 – Bahadur संपूर्ण पाठ हल के साथ प्रदान कर रहे हैं। आशा करते हैं कि पोस्ट आपको पसंद आयेगी और आप इसे अपने दोस्तों में शेयर जरुर करेंगे।
Chapter Name | Bahadur (बहादुर) |
Chapter Number | Chapter- 6 |
Board Name | Bihar Board (B.S.E.B.) |
Topic Name | संपूर्ण पाठ |
Part |
भाग-2 Gadya Khand (गद्य खंड ) |
Bahadur (बहादुर)
अमरकांत
हिन्दी के सशक्त कथाकार अमरकांत का जन्म जुलाई 1925 ई० में नागरा, बलिया (उत्तरप्रदेश) में हुआ था। उन्होंने गवर्नमेंट हाईस्कूल, बलिया से हाईस्कूल की शिक्षा पायी। कुछ समय तक उन्होंने गोरखपुर और इलाहाबाद में इंटरमीडिएट की पढ़ाई की, जो 1942 के स्वाधीनता संग्राम में शामिल होने से अधूरी रह गयी, और अंततः 1946 ई० में सतीशचंद्र कॉलेज. बलिया से इंटरमीडिएट किया। उन्होंने 1947 ई० में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से बी० ए० किया और 1948 ई० में आगरा के दैनिक पत्र ‘सैनिक’ के संपादकीय विभाग में नौकरी कर ली। आगरा में ही वे ‘प्रगतिशील लेखक संघ’ में शामिल हुए और वहीं से कहानी लेखन की शुरुआत की। बाद में वे दैनिक ‘अमृत पत्रिका’ इलाहाबाद, दैनिक ‘भारत’ इलाहाबाद, मासिक पत्रिका ‘कहानी’ इलाहाबाद तथा ‘मनोरमा’ इलाहाबाद के भी संपादकीय विभागों से सम्बद्ध रहे। अखिल भारतीय कहानी प्रतियोगिता में उनकी कहानी ‘डिप्टी कलक्टरी’ पुरस्कृत हुई थी। उन्हें कथा लेखन के लिए ‘साहित्य अकादमी पुरस्कार’ भी प्राप्त हो चुका है।
आजादी के बाद के हिंदी कथा साहित्य के महत्त्वपूर्ण कथाकार अमरकांत की कहानियों में मध्यवर्ग, विशेषकर निम्न मध्यवर्ग के जीवनानुभवों और जिजीविषा का बेहद प्रभावशाली और अंतरंग चित्रण मिलता है। अक्सर सपाट नजर आनेवाले कथनों में भी वे अपने जीवंत मानवीय संस्पर्श के कारण अनोखी आभा पैदा कर देते हैं। अमरकांत के व्यक्तित्व की तरह उनकी भाषा में भी एक खास किस्म का फक्कड़पन है। लोकजीवन के मुहावरों और देशज शब्दों के प्रयोग से उनकी भाषा में एक ऐसी चमक पैदा हो जाती है जो पाठकों को निजी लोक में ले जाती है। अमरकांत के कई कहानी संग्रह और उपन्यास हैं। ‘जिंदगी और जोंक’, ‘देश के लोग’, ‘मौत का नगर’, ‘मित्र-मिलन’, ‘कुहासा’ आदि उनके कहानी संग्रह हैं और ‘सूखा पत्ता’, ‘आकाशपक्षी’, ‘काले उजले दिन’, ‘सुखजीवी’, ‘बीच की दीवार’, ‘ग्राम सेविका’ आदि उपन्यास हैं। उन्होंने ‘वानर सेना’ नामक एक बाल उपन्यास भी लिखा है।
अमरकांत की प्रस्तुत कहानी में मँझोले शहर के नौकर की लालसा वाले एक निम्न मध्यवर्गीय परिवार में काम करनेवाले बहादुर की कहानी है एक नेपाली गवई गोरखे की। परिवार का नौकरी-पेशा मुखिया तटस्थ स्वर में बहादुर के आने और अपने स्वच्छंद निश्छल स्वभाव की आत्मीयता के साथ नौकर के रूप में अपनी सेवाएँ देने के बाद एक दिन स्वभाव की उसी स्वच्छंदता के साथ हर हृदय में एक कसकती अंतर्व्यथां देकर चले जाने की कहानी कहता है। लेखक घर के भीतर और बाहर के यथार्थ को बिना बनाई-सँवारी सहज परिपक्व भाषा में पूरी कहानी बयान करता है। हिंदी कहानी में एक नये नायक को यह कहानी प्रतिष्ठित करती है।
बहादुर
सहसा मैं काफी गंभीर हो गया था, जैसा कि उस व्यक्ति को हो जाना चाहिए, जिस पर एक भारी दायित्व आ गया हो। वह सामने खड़ा था और आँखों को बुरी तरह मलका रहा था। बारह-तेरह वर्ष की उम्र । ठिगना चकइठ शरीर, गोरा रंग और चपटा मुँह । वह सफेद नेकर, आधी बाँह की ही सफेद कमीज और भूरे रंग का पुराना जूता पहने था। उसके गले में स्काउटों की तरह एक रूमाल बँधा था । उसको घेरकर परिवार के अन्य लोग खड़े थे। निर्मला चमकती दृष्टि से • कभी लड़के को देखती और कभी मुझको और अपने भाई को । निश्चय ही वह पंच-बराबर हो गई थी ।
उसको लेकर मेरे साले साहब आए थे। नौकर रखना कई कारणों से बहुत जरूरी हो गया था। मेरे सभी भाई और रिश्तेदार अच्छे ओहदों पर थे और उन सभी के यहाँ नौकर थे। मैं जब बहन की शादी में घर गया तो वहाँ नौकरों का सुख देखा। मेरी दोनों भाभियाँ रानी की तरह बैठकर चारपाइयाँ तोड़ती थीं, जबकि निर्मला को सबेरे से लेकर रात तक खटना पड़ता था। मैं ईर्ष्या से जल गया । इसके बाद नौकरी पर वापस आया तो निर्मला दोनों जून ‘नौकर-चाकर’ की माला जपने लगी। उसकी तरह अभागिन और दुखिया स्त्री और भी कोई इस दुनिया में होगी ? वे लोग दूसरे होते हैं, जिनके भाग्य में नौकर का सुख होता है……।
पहले साले साहब से असाधारण विस्तार से उसका किस्सा सुनना पड़ा। वह एक नेपाली था, जिसका गाँव नेपाल और बिहार की, सीमा पर था। उसका बाप युद्ध में मारा गया था और उसकी माँ सारे परिवार का भरण-पोषण करती थी। माँ उसकी बड़ी गुस्सैल थी और उसको बहुत मारती थी । माँ चाहती थी कि लड़का घर के काम-धाम में हाथ बटाये, जबकि वह पहाड़ या जंगलों में निकल जाता और पेड़ों पर चढ़कर चिड़ियों के घोंसलों में हाथ डालकर उनके बच्चे पकड़ता या फल तोड़-तोड़कर खाता । कभी-कभी वह पशुओं को चराने के लिए ले जाता था। उसने एक बार उस भैंस को बहुत मांरा, जिसको उसकी माँ बहुत प्यार करती थी, और इसीलिए जिससे वह बहुत चिढ़ता था । मार खाकर भैंस भागी-भागी उसकी माँ के पास चली गई, जो कुछ दूरी पर एक खेत में काम कर रही थी। माँ का माथा ठनका। बेचारा बेजुबान जानवर चरना छोड़कर वहाँ क्यों आएगा ? जरूर लौंडे ने इसको काफी मारा है। वह गुस्से से पागल हो गई। जब लड़का आया तो माँ ने भैंस की मार का काल्पनिक अनुमान करके एक डंडे से उसकी दुगुनी पिटाई की और उसको वहीं कराहता हुआ छोड़कर घर लौट आई। लड़के का मन माँ से फट गया और वह रात भर जंगल में छिपा रहा। जब सबेरा होने को आया तो वह घर पहुँचा और किसी तरह अन्दर चोरी-चुपके घुस गया। फिर उसने घी की हंडिया में हाथ डालकर माँ के रखे रुपयों में से दो रुपये निकाल लिए। अन्त में नौ-दो ग्यारह हो गया। वहाँ से छह मील की दूरी पर बस-स्टेशन था, वहाँ गोरखपुर जानेवाली बस थी ।
तुम्हारा नाम क्या है जी ? मैंने पूछा ।
दिलबहादुर, सा’ब ।
उसके स्वर में एक मीठी झनझनाहट थी। मुझे ठीक-ठीक याद नहीं कि मैंने उसको क्या हिदायतें दीं। शायद यह कि वह शरारतें छोड़कर ढंग से काम करे और घर को अपना घर समझे । इस घर में नौकर-चाकर को बहुत प्यार और इज्जत से रखा जाता है। जो सब खाते-पहनते हैं, वही नौकर-चाकर खाते पहनते हैं। अगर वह यहाँ रह गया तो ढंग-शऊर सीख जाएगा, घर के • और लड़कों की तरह पढ़-लिख जाएगा और उसकी जिंदगी सुधर जाएगी। निर्मला ने उसी समय कुछ व्यावहारिक उपदेश दे डाले थे। इस मुहल्ले में बहुत तुच्छ लोग रहते हैं, वह न किसी के यहाँ जाए और न किसी का काम करे। कोई बाजार से कुछ लाने को कहे तो वह ‘अभी आता हूँ’ कहकर अन्दर खिसक जाए। उसको घर के सभी लोगों से सम्मान और तमीज से बोलना चाहिए । और भी बहुत-सी बातें। अन्त में निर्मला ने बहुत ही उदारतापूर्वक लड़के के नाम में से ‘दिल’ शब्द उड़ा दिया ।
परन्तु बहादुर बहुत ही हँसमुख और मेहनती निकला। उसकी वजह से कुछ दिनों तक हमारे घर में वैसा ही उत्साहपूर्ण वातावरण छाया रहा, जैसा कि प्रथम बार तोता-मैना या पिल्ला पालने पर होता है। सबेरे सबेरे ही मुहल्ले के छोटे लड़के घर के अन्दर आकर खड़े हो जाते और उसको देखकर हँसते या तरह-तरह के प्रश्न करते। ‘ऐ, तुम लोग छिपकली को क्या कहते हो ?’ ‘ऐ, तुमने शेर देखा है?’ ऐसी ही बातें। उससे पहाड़ी गाने की फरमाइशें की जातीं । घर के लोग भी उससे इसी प्रकार की छेड़खानियाँ करते थे। वह जितना उत्तर देता था उससे अधिक हँसता था । सबको उसके खाने और नाश्ते की बड़ी फिक्र रहती ।
निर्मला आँगन में खड़ी होकर पड़ोसियों को सुनाते हुए कहती थी बहादुर, आकर नाश्ता क्यों नहीं कर लेते ? मैं दूसरी औरतों की तरह नहीं हूँ, जो नौकर-चाकर को जलाती-भुनती हैं। मैं तो नौकर-चाकर को अपने बच्चे की तरह रखती हूँ। उन्होंने तो साफ-साफ कह दिया है कि सौ-डेढ़ सौ महीनवारी उस पर भले ही खर्च हो जाए, पर तकलीफ उसको जरा भी नहीं होनी चाहिए । एक नेकर-कमीज तो उसी रोज लाए थे…. और भी कपड़े बन रहे हैं….
धीरे-धीरे वह घर के सारे काम करने लगा। सबेरे ही उठकर वह बाहर नीम के पेड़ से दातुन तोड़ लाता था । वह हाथ का सहारा लिए बिना कुछ दूर तक तने पर दौड़ते हुए चढ़ जाता । मिनट भर में वह पेड़ की पुलई पर नजर आता । निर्मला छाती पीटकर कहती थी- अरे रीछ-बन्दर की जात, कहीं गिर गया तो बड़ा बुरा होगा। वह घर की सफाई करता, कमरों में पोंछा लगाता, अँगीठी जलाता, चाय बनाता और पिलाता। दोपहर में कपड़े धोता और बर्तन मलता । वह रसोई बनाने की भी जिद करता, पर निर्मला स्वयं सब्जी और रोटी बनाती । निर्मला को उसकी बहुत फिक्र रहती थी । उसकी उन दिनों तबीयत ठीक नहीं रहती थी, इसलिए वह कुछ दवा ले रही थी। बहादुर उसको कोई काम करते देखकर कहता था माता जी, मेहनत न करो, तकलीफ बढ़ जाएगा । वह कोई भी काम करता होता, समय होने पर हाथ धोकर भालू की तरह दौड़ता हुआ कमरे में जाता और दवाई का डिब्बा निर्मला के सामने लाकर रख देता ।
जब मैं शाम को दफ्तर से आता, तो घर के सभी लोग मेरे पास आकर दिन भर के अपने अनुभव सुनाते थे । बाद में वह भी आता था। वह एक बार मेरी ओर देखकर सिर झुका लेता और धीरे-धीरे मुस्कराने लगता। वह कोई बहुत ही मामूली घटना की रिपोर्ट देता। – बाबूजी, बहिन जो का एक सहेली आया था। या बाबू जी, भैया सिनेमा गया था। इसके बाद वह इस तरह हँसने लगता था, गोया बहुत ही मजेदार बात कह दी हो । उसकी हँसी बड़ी कोमल और मीठी थी, जैसे फूल की पंखुड़ियाँ बिखर गई हों। मैं उससे बातचीत करना चाहता था, पर ऐसी इंच्छा रहते हुए भी मैं जान-बूझकर बहुत गम्भीर हो जाता था और दूसरी ओर देखने लगता था ।
निर्मला कभी-कभी उससे पूछती थी बहादुर, तुमको अपनी माँ की याद आती है ?’
नहीं ।
क्यों ?
वह मारता क्यों था ? इतना कहकर वह खूब हँसता था, जैसे मार खाना खुशी की बात हो ।
तब तुम अपना पैसा माँ के पास कैसे भेजने को कहते हो ?
माँ-बाप का कर्जा तो जन्म भर भरा जाता है वह और भी हँसता था ।
निर्मला ने उसको एक फटी-पुरानी दरी दे दी थी। घर से वह एक चादर भी ले आया था । रात को काम-धाम करने के बाद वह भीतर के बरामदे में एक टूटी हुई बँसखट पर अपना विस्तर बिछाता था । वह बिस्तरे पर बैठ जाता और अपनी जेब में से कपड़े की एक गोल-सी नेपाली टोपी निकालकर पहन लेता, जो बाईं ओर काफी झुकी रहती थी। फिर वह एक छोटा-सा आईना निकालकर बन्दर की तरह उसमें अपना मुँह देखता था। वह बहुत ही प्रसन्न नजर आता था । इसके बाद कुछ और भी चीजें उसकी जेब से निकलकर उसके बिस्तरे पर सज जाती थीं – कुछ गोलियाँ, पुराने ताश की एक गड्डी, कुछ खूबसूरत पत्थर के टुकड़े, ब्लेड, कागज की नावें । वह कुछ देर तक उनसे खेलता था। उसके बाद वह धीमे-धीमे स्वर में गुनगुनाने लगता था। उन पहाड़ी गानों का अर्थ हम समझ नहीं पाते थे, पर उसकी मीठी उदासी सारे घर में फैल जाती, जैसे कोई पहाड़ की निर्जनता में अपने किसी बिछुड़े हुए साथी को बुला रहा हो ।
X X X
दिन मजे में बीतने लगे। बरसात आ गई थी। पानी रुकता था और बरसता था । मैं अपने को बहुत ऊँचा महसूस करने लगा था। अपने परिवार और सम्बन्धियों के बड़प्पन तथा शान-बार पर मुझे सदा गर्व रहा है। अब मैं मुहल्ले के लोगों को पहले से भी तुच्छ समझने लगा। मैं किसी से सीधे मुँह बात नहीं करता। किसी की ओर ठीक से देखता भी नहीं था। दूसरे के बच्चों को मामूली-सी शरारत पर डाँट-डपट देता। कई बार पड़ोसियों को सुना चुका था जिसके पास कलेजा है, वही आजकले नौकर रख सकता है। घर के सवांग की तरह रहता है। निर्मला भी सारे मुहल्ले में शुभ सूचना दे आई थी आधी तनख्वाह तो नौकर पर ही खर्च हो रही है, पर रुपया-पैसा कमाया किसलिए जाता है ? वे तो कई बार कह ही चुके थे कि तुम्हारे लिए दुनिया के किसी कोने से नौकर जरूर लाऊँगा…. वही हुआ ।
निस्संदेह बहादुर की वजह से सबको खूब ओराम मिल रहा था। घर खूब साफ और चिकना रहता । कपड़े चमाचम सफेद । निर्मला की तबीयत भी काफी सुधर गई। अब कोई एक खर भी न टसकाता था। किसी को मामूली-से-मामूली काम करना होता, तो वह बहादुर को आवाज देता । ‘बहादुर, एक गिलास पानी।’ ‘बहादुर, पेन्सिल नीचे गिरी है, उठाना।’ इसी तरह की फरमाइशें ! बहादुर घर में फिरकी की तरह नाचता रहता। सभी रात में पहले ही सो जाते थे और सबेरे, आठ बजे के पहले न उठते थे ।
मेरा बड़ा लड़का किशोर काफी शान-शौकत और रोब-दाब से रहने का कायल था और उसने बहादुर को अपने कड़े अनुशासन में रखने की आवश्यकता महसूस कर ली थी। फलतः उसने अपने सभी काम बहादुर को सौंप दिए । सबेरे उसके जूते में पॉलिश लगनी चाहिए। कॉलेज जाने के ठीक पहले साइकिल की सफाई जरूरी थी। रोज ही उसके कपड़ों की धुलाई और इस्त्री होनी चाहिए । और रात में सोते समय वह नित्य बहादुर से अपने शरीर की मालिश कराता और मुक्की भी लगवाता । पर इतनी सारी फरमाइशों की पूर्ति में कभी-कभी कोई गड़बड़ी भी हो जाती। जब ऐसा होता, किशोर गर्जन-तर्जन करने लगता, उसको बुरी-बुरी गालियाँ देता और उस पर हाथ छोड़ देता । मार खाकर बहादुर एक कोने में खड़ा हो जाता- चुपचाप ।
– देख-बे – किशोर चेतावनी देता मेरा काम सबसे पहले होना चाहिए। अगर एक काम भी छूटा तो मारते-मारते हुलिया टाइट कर दूँगा। साला, कामचोर, करता क्या है तू ? बैठा-बैठा खाता है ।
रोज ही, कोई-न-कोई ऐसी बात होने लगी, जिसकी रिपोर्ट पत्नी मुझे देती थी। मैंने किशोर को मना किया, पर वह नहीं माना तो मैंने यह सोचकर छोड़ दिया कि थोड़ा-बहुत तो यह चलता ही रहता है। फिर एक हाथ से ताली कहाँ बजती है? बहादुर भी बदमाशी करता होगा। पर एक दिन जब मैं दफ्तर से आया तो मैंने किशोर को एक डंडे से बहादुर की पिटाई करते हुए देखा । निर्मला कुछ दूरी पर खड़ी होकर हाँ हाँ करती हुई मना कर रही थी ।
मैंने किशोर को डाँट कर अलग किया। कारण यह था कि शाम को साइकिल की सफाई करना बहादुर भूल गया था। किशोर ने उसको मारा तथा गालियाँ दी तो उसने उसका काम करने से ही इनकार कर दिया ।
– तुम साइकिल साफ क्यों नहीं करते? मैंने उससे कड़ाई से पूछा ।
-बाबू जी, भैया ने मेरे बाप को क्यों लाकर खड़ा किया ? वह रोते हुए बोला ।
मैं जानता था कि किशोर उसको और भी भद्दी गालियाँ देता था, लेकिन आज उसने ‘सूअर ‘का बच्चा’ कहा था, जो उसे बरदाश्त न हुआ। निस्संदेह वह गाली उसके बाप पर पड़ती थी । मुझे कुछ हँसी आ गई। खैर, किशोर के व्यवहार को अच्छा नहीं कहा जा सकता था, पर गृहस्वामी होने के कारण मुझ पर कुछ और गम्भीर दायित्व भी थे।
मैंने उसे समझाया – बहादुर, ये आदतें ठीक नहीं। तुम ठीक से काम करोगे तो तुमको
कोई कुछ भी नहीं कहेगा । मेहनत बहुत अच्छी चीज है, जो उससे बचने की कोशिश करता है, वह कुछ भी नहीं कर सकता। रूठना-फूलना मुझे सख्त नापसंद हैं। तुम तो घर के लड़के की तरह हो । घर के लड़के मार नहीं खाते ? हम तुमको जिस सुख-आराम से रखते हैं, वह कोई क्या रखेगा ? जाकर दूसरे घरों में देखो तो पता लगे। नौकर-चाकर भरपेट भोजन के लिए तरसते रहते हैं। चलो, सब खत्म हुआ, अब काम करो….
वह चुपचाप सुनता रहा। फिर हाथ-मुँह धोकर काम करने लगा। जल्दी वह प्रसन्न भी हो गया। रात में सोते समय वह अपनी टोपी पहनकर देर तक गाता रहा ।
लेकिन कुछ दिनों बाद एक और भी गड़बड़ी शुरू हुई। निर्मला बहुत पतली-पतली रोटियाँ सेंकती थी, इसलिए वह रोटी बनाने का काम कभी भी बहादुर से नहीं लेती थी। लेकिन मुहल्ले की किसी औरत ने उसे यह सिखा दिया कि परिवार के लिए रोटियाँ बनाने के बाद वह बहादुर से कहे कि वह अपनी रोटी खुद बना लिया करे, नहीं तो नौकर-चाकर की आदतें खराब हो जाती हैं, महीन खाने से उनकी आदत बिगड़ जाती है ।
यह बात निर्मला को जँच गई थी और रात में उसने ऐसा ही प्रयोग किया। वह अपनी रोटियाँ बनाकर चौके में से उठ गई। बहादुर का मुँह उतर गया। वह चूल्हे के पास सिर झुकाकर चुपचाप खड़ा रहा ।
-क्या हो गया, रे ? निर्मला ने पूछा ।
वह कुछ नहीं बोला ।
– चल, चुपचाप बना अपनी रोटियाँ । तू सोचता है कि मैं तुझे पतली-पतली, नरम-नरम रोटियाँ सेंककर खिलाऊँगी? तू कोई घर का लड़का है ? नौकर-चाकर तो अपना बनाकर खाते ही रहते हैं। तीता तो इनको इसलिए लग रहा है कि सारे घर के लिए मैंने रोटियाँ बनाईं, इनको अलग करके इनके साथ भेद क्यों किया ? वाह रे, इसके पेट में तो लम्बी दाढ़ी है। समझ जा, रोटियाँ नहीं सेंकेगा तो भूखा रहेगा ।
पर बहादुर उसी तरह खड़ा रहा तो निर्मला का गुररो से बुरा हाल हो गया। उसने लपककर उसके माथे पर दो-तीन थप्पड़ जड़ दिए सूअर कहीं के! इसीलिए तुझे किशोर मारता है। इसी वजह से तेरी माँ भी मारती होगी। चल, बना रोटी…..
मैं नहीं बनाऊँगा…. मेरी माँ भी सारे घर की रोटियाँ बनाकर मुझसे रोटी सेंकवाती थी- यह रोने लगा था ।
– तो क्या मैं तेरी माँ हूँ कि तू मुझसे जिद कर रहा है? घर के लड़कों के बराबर बन है ? भारते-मारते मुँह रंग दूँगी ।
पर उसने अपने लिए रोटी नहीं बनाई। मुझे भी बड़ा गुस्सा आया। मैंने उसको डाँय और समझाया। पर वह नहीं माना। रात भर वह भूखा ही रहा ।
पर सबेरे उठकर वह पहले की तरह ही हँसने लगा। उसने अँगीठी जला कर अपने लिए रोटियाँ सेंकीं। अपनी बनाई मोटी और भद्दी रोटियों को देखकर वह खिलखिलाने लगा। फिर रात की बची हुई सब्जी से उसने खाना खा लिया ।
लेकिन निर्मला का भी हाथ खुल गया था। वह उससे कुछ चिंढ़ भी गई थी। अब बहादुर से कोई भी गलती होती तो वह उस पर हाथ चला देती। उसको मारनेवाले अब घर में दो व्यक्ति हो गए थे और कभी-कभी एक गलती के लिए उसको दोनों मारते ।
बरसात बीत गई थी। आकाश दर्पण की तरह स्वच्छ दिखलाई देता । मैंने बहादुर की माँ के पास चिट्ठी लिखी थी कि उसका लड़का मेरे पास मजे में है और मैं उसकी तनख्वाह के पैसे उसके पास भेज दिया करूँगा, लेकिन कई महीनों के बाद भी उधर से कोई जवाब नहीं आया का। मैंने वहादुर से कह दिया था कि उसका पैसा यहाँ जमा रहेगा, जब वह घर जाएगा तो लेता जाएगा ।
पर अब बहादुर से भूल-गलतियाँ अधिक होने लगी थीं। शायद इसका कारण मार-पीट और गाली-गलौज हो। मैं कभी-कभी इसको रोकना चाहता, फिर यह सोचकर चुप लगा जाता कि नौकर-चाकर तो मार-पीट खाते ही रहते हैं।
एक दिन रविवार को मेरी पत्नी के एक रिश्तेदार आए। वह बीबी-बच्चों के साथ थे। वह अपने किसी खास संबंधी के यहाँ आए थे, तो यहाँ भी भेंट-मुलाकात करने के लिए चले आए थे। घर में बड़ी चहल-पहल मच गई। मैं बाजार से रोहू मछली और देहरादूनी चावल ले आया । नाश्ता-पानी के बाद बातों की जलेबी छनने लगी पर इसी समय एक घटना हो गई ।
अचानक उस रिश्तेदार की पल्ली नीचे फर्श पर झुककर देखने लगीं। फिर उन्होंने चारपाई के अन्दर इगैंककर देखा। अन्त में कमरे के अन्दर गईं और फर्श पर पड़े हुए कागजों को उठाकर जाँच-पड़ताल करने लगीं ।
क्या बात है ? मैंने पूछा ।
रिश्तेदार की पत्नी जबरदस्ती मुस्कराक्रर मजबूरी में सिर हिलाते हुए बोलीं- क्या बताएँ. … ग्यारह रुपए साड़ी के खूँट से निकालकर यहीं चारपाई पर रखे….पर वे मिल नहीं रहे हैं….
आपको ठीक याद है न…
– हाँ-हाँ – खूब अच्छी तरह याद है। ये रुपए मैंने खूँट में बाँधकर रखे थे… रिक्शेवाले को देने के लिए खूँट खोला ही था, फिर वे रुपए चारपाई पर रख दिए थे कि चार रुपए की मिठाई मँगा लूंगी और कुछ बच्चों के हाथ पर रख दूँगी। रास्ते में कोई ढंग की दुकान नहीं मिली थी, नहीं तो उधर से ही लाती। किसी के यहाँ खाली हाथ जाने में अच्छा भी नहीं लगता । बताइए, अब तो मैं कहीं की न रही। फिर मेरी ओर झुक कर धीमे स्वर में कहा था- जरा उससे पूछिए न ! वह इधर आया था। कुछ देर तक यहाँ खड़ा रहा, फिर तेजी से बाहर चला गया था।
– अरे नहीं, वह ऐसा नहीं है- मैंने कहा ।
यू डू नॉट नो-दीज पीपुल आर एक्सपर्ट इन दिस आर्ट’ रिश्तेदार ने कहा ।
मैंने बहादुर की ओर तिरछी दृष्टि से देखा। वह सिर झुकाकर आटा गूँथ रहा था । उसके चेहरे पर संतुष्टि एवं प्रफुल्लता थी। उसने ऐसा काम तो कभी नहीं किया, बल्कि जब कभी उसने दो-चार आने इधर-उधर पड़े देखे तो उठाकर निर्मला के हाथ में दे दिए थे। पर किसी के दिल की बात कोई कैसे जान सकता है ? न. मालूम अचानक मुझे क्या हो गया और मैं गुस्से में आ गया ।
– बहादुर ! – मैंने कड़े स्वर में कहा ।
– जी, बाबू जी ।
– इधर आओ ।
– वह आकर खड़ा हो गया ।
– तुमने यहाँ से रुपए उठाए थे ?
– जी नहीं बाबूजी ! उसने निर्भय उत्तर दिया ।
– ठीक बताओ… मैं बुरा नहीं मानूँगा ।
– नहीं बाबूजी । मैं लेता, तो बता देता ।
– तुम यहाँ खड़े नहीं थे ? रिश्तेदार की पत्नी फिर तेजी से बाहर चले गए। देखो भैया, सच-सच बता दो। मिठाई खरीदने और बच्चों को देने के लिए ये रुपए रखे थे। मैं तो बुरी फँसी । अब वापस जाने के लिए रिक्शे के भी पैसे नहीं ।
– मैं तो बाहर नमक लेने गया था ।
– सच-सच बता बहादुर । अगर नहीं बताएगा तो बहुत पीदूँगा और पुलिस के सुपुर्द कर
दूँगा। – मैं चिल्ला पड़ा।
मैंने नहीं लिया, बाबूजी । बहादुर का मुँह काला पड़ गया था ।
पता नहीं मुझे क्या हो गया। मैंने सहसा उछलकर उसके गाल पर एक माचा जड़ दिया। मैं आशा कर रहा था कि ऐसा करने से वह बता देगा। तमाचा खाकर वह गिरते-गिरते बचा। उसकी आँखों से आँसू गिरने लगे ।
– मैंने नहीं लिया….
इसी समय रिश्तेदार साहब ने एक अजीब हरकत की अच्छा छोड़िए, इसको पुलिस के पास ले जाता हूँ। – इतना कहकर उन्होंने बहादुर का हाथ पकड़ लिया और उसको दरवाजे की ओर घसीटकर ले गए। पर दरवाजे के पास उससे धीरे से बोले देखो, तुम मुझे बता दो….मैं कुछ नहीं करूँगा, बल्कि तुमको इनाम में दो रुपए दे दूँगा ।
पर बहादुर ने इनकार कर दिया। इसके बाद रिश्तेदार साहब दो-तीन बार उसको दरवाजे को ओर खींचकर ले गए, जैसे पुलिस को देने ही जा रहे हैं। लेकिन आगे बढ़कर वह रुक जाते और उससे धीमे-धीमे शब्दों में पूछ-ताछ करने लगते ।
अन्त में हारकर उन्होंने उसको छोड़ दिया और वापस आकर चारपाई पर बैठते हुए हँसकर तोले – जाने दीजिए…. ये सब बड़े घाघ होते हैं। किसी झाड़ी-वाड़ी में छिपा आया होगा या जमीन में गाड़ आया होगा। मैं तो इन सबों को खूब जानता हूँ। भालू-बन्दर से कम थोड़े होते हैं ये। चलिए, इतना नुकसान लिखा था।
इसके बाद निर्मला ने भी उसको डराया धमकाया और दो-चार तमाचे जड़ दिए, पर वह ‘नहीं-नहीं’ करता रहा ।
इस घटना के बाद बहादुर काफी डाँट-मार खाने लगा। घर के सभी लोग उसको कुत्ते की तरह दुरदुराया करते । किशोर तो जैसे उसकी जान के पीछे पड़ गया था। वह उदास रहने लगा और काम में लापरवाही करने लगा ।
एक दिन मैं दफ्तर से विलम्ब से आया। निर्मला आँगन में चुपचाप सिर पर हाथ रखकर बैटी थी। अन्य लड़कों का पता नहीं था, केवल लड़की अपनी माँ के पास खड़ी थी। अँगीठी अभी नहीं जली थी। आँगन गंदा पड़ा था, बर्तन बिना मले हुए रखे थे। सारा घर जैसे काट रहा था ।
– क्या बात है? – मैंने पूछा ।
– बहादुर भाग गया ।
– भाग गया! क्यों ?
– पता नहीं । आज तो कुछ हुआ भी नहीं था। सबेरे से ही बड़ा प्रसन्न था । हमेशा ‘माताजी माताजी’ किए रहा। दोपहर में खाना खाया। उसके बाद आँगन से सिल-बट्टा लेकर बरामदे में रखने जा रहा था कि सिल हाथ से छूटकर गिर गई और दो टुकड़े हो गई। शायद इसी डर से वह भाग गया कि लोग गारेंगे। पर मैं इसके लिए उसको थोड़े कुछ कहती? क्या बताऊँ मेरी किस्मत में आराम ही नहीं….
– कुछ ले गया?
– यही तो अफसोस है। कोई भी सामान नहीं ले गया है। उसके कपड़े, उसका बिस्तरा, उसके जूते – सभी छोड़ गया है। पता नहीं उसने हमें क्या समझा? अगर वह कहता तो मैं उसे • रोकती थोड़े ? बल्कि उसको खूब अच्छी तरह पहना-ओढ़ाकर भेजती, हाथ में उसकी तनख्वाह के रुपए रख देती । दो-चार रुपए और अधिक दे देती। पर वह तो कुछ ले ही नहीं गया….
– और वे ग्यारह रुपए?
– अरे वह सब झूठ है। मैं तो पहले ही जानती थी कि वे लोग बच्चों को कुछ देना नहीं चाहते इसलिए अपनी गलती और लाज छिपाने के लिए यह प्रपंच रच रहे हैं। उन लोगों को क्या मैं जानती नहीं? कभी उनके रुपए रास्ते में गुम हो जाते हैं.. कभी वे गलती से घर ही पर छोड़ आते हैं। मेरे कलेजे में तो जैसे कुछ हौंड़ रहा है। किशोर को भी बड़ा अफसोस है। उसने सारा शहर छान मारा, पर बहादुर नहीं मिला । किशोर आकर कहने लगा अम्मा, एक बार भी अगर बहादुर आ जाता तो मैं उसको पकड़ लेता और कभी जाने न देता । उससे माफी माँग लेता और कभी नहीं मारता । सच, अब ऐसा नौकर कभी नहीं मिलेगा। कितना आराम दे गया है वह ।
अगर वह कुछ चुराकर ले गया होता तो संतोष हो जाता ।
निर्मला आँखों पर आँचल रखकर रोने लगी। मुझे बड़ा क्रोध आया। मैं चिल्लाना चाहता था, पर भीतर-ही-भीतर कलेजा जैसे बैठ रहा हो। मैं वहीं चारपाई पर सिर झुकाकर बैठ गया। मुझे एक अजीब-सी लघुता का अनुभव हो रहा था। यदि मैं न मारता, तो शायद वह न जाता ।
मैंने आँगन में नजर दौड़ाई । एक ओर स्टूल पर उसका बिस्तरा रखा था । अलगनी पर उसके कुछ कपड़े टँगे थे। स्टूल के नीचे वह भूरा जूता था, जो मेरे साले साहब के लड़के का था । मैं उठकर अलगनी के पास गया और उसके नेकर की जेब में हाथ डालकर उसके सामान निकालने लगा – वही गोलियाँ, पुराने ताश की गड्डी, खूबसूरत पत्थर, ब्लेड, कागज की नावें…
बोध और अभ्यास
पाठ के साथ.
- लेखक को क्यों लगता है कि जैसे उस पर एक भारी दायित्व आ गया हो?
उत्तर- लेखक महोदय की पत्नी दिन-रात ‘नौकर-चाकर’ की माला जपती थी। उनका साला नौकर को लाकर सामने खड़ा कर दिया था। अब लेखक महोदय के ऊपर एक भारी दायित्व आ गया था कि नौकर के साथ घर में अच्छा बवि हो। नौकर घर के अनुकुल ढल जाया और यहाँ टिक जाय।
- अपने शब्दों में पहली बार दिखे बहादुर का वर्णन कीजिए ।
उत्तर- नौकर यानी बहादुर का शरीर चौड़ा और कद छोटा था। गोरा रंग और मुँह चपटा था। वह उजला हाफ पेंट और सफेद कमीज, भूरे रंग का जूता और गले में रूमाल बंधा था।
- लेखक को क्यों लगता है कि नौकर रखना बहुत जरूरी हो गया था?
उत्तर- लेखक महोदय के सभी भाई और रिश्तेदार ऊंचे पद पर थे। इसलिए उन लोगों के पास नौकर-चाकर था। जब उनकी बहन के विवाह में सभी रिश्तेदारों का मिलन हुआ तो लेखक महोदय की पत्नी नौकर को देखकर ईर्ष्यालु हो गई। इसके बाद से घर में नौकर रखने के लिए परेशान करने लगी। अब लेखक महोदय को नौकर रखना बहुत जरूरी हो गया।
- साले साहब से लेखक को कौन-सा किस्सा असाधारण विस्तार से सुनना पड़ा?
उत्तर- लेखक को साले साहब से एक दुखी लड़का का किस्सा असाधारण विस्तार से सुनना पड़ा। किस्सा था कि वह एक नेपाली था, जिसका गाँव नेपाल और बिहार की सीमा पर था। उसका बाघ युद्ध में मारा गया था और उसकी माँ सारे परिवार का भरण-पोषण करती थी। माँ उसकी बड़ी गुस्सैल थी और उसको बहुत मारती थी। माँ चाहती थी कि लड़का घर के काम-धाम में हाथ बँटाये, जबकि वह पहाड़ या जंगलों में निकल जाता और पेड़ों पर चढ़कर, चिड़ियों के घोसलों में हाथ डालकर उनके बच्चे पकड़ता या फल तोड़-तोड़कर खाता। एक बार उसने भैंस की पिटाई की जिसके चलते माँ ने भी उसे खूब पीटा। अत्यधिक पिटाई के चलते लड़के का मन माँ से फट गया। रातभर जंगल में छिपा रहा, सुबह होने पर घर से राह खर्च के लिए चोरी से ‘कुछ रुपया लेकर भाग गया।
- वहादुर अपने घर से क्यों भाग गया था?
उत्तर- बहादुर कभी-कभी पशुओं को चराने के लिए ले जाता था। एक बार उसने अपनी माँ की प्यारी भैंस को बहुत मारा। मार खाने के उपरान्त भैंस उसकी मां के पास पहुंच जाती है। माँ को आभास होता है कि लड़के ने इसको काफी मारा है। माँ ने भैंस की मार का काल्पनिक अनुमान करके एक डंडे से उसकी दुगुनी पिटाई की। लड़के का मन माँ से फट गया और वह पूरी रात जंगल में छिपा रहा। अंततः सुबह में घर पहुंचकर चुपके से कुछ रुपया लिया और घर से भाग गया।
- बहादुर के नाम से ‘दिल‘ शब्द क्यों उड़ा दिया गया? विचार करें ।
उत्तर- प्रथम बार नाम पूछने में बहादुर ने अपना नाम दिलबहादुर बताया। यहां दिल शब्द का अभिप्राय भावात्मक परिवेश में है। उपदेश देने के दरम्यान उसे कहा जा रहा था कि किसी के साथ भावुकता से पेश नहीं होकर दिमाग से अधिक कार्य करना है। सामाजिक तो उदारता से दूर रहकर मन और मस्तिष्क से केवल अपने घर के कार्यों में लीन रहने का उपदेश दिया गया। इस प्रकार से निर्मला द्वारा उसके नाम से दिल शब्द उड़ा दिया गया।
- व्याख्या करें –
(क) उसकी हँसी बड़ी कोमल और मीठी थी, जैसे फूल की पंखुड़ियाँ बिखर गई हों।
व्याख्या-प्रस्तुत पंक्तियाँ हमारी पाठ्यपुस्तक के वहादुर’ शीर्षक कहानी से ली गई हैं। इन पक्तियों का संदर्भ बहादुर से जुड़ा हुआ है।
जब लेखक शाम को दफ्तर से घर आते थे तो बहादुर सहज भाव से उनके पास आता था और उन्हें एक बार देखकर सिर झुका लेता था तथा धीरे-धीरे मुस्कुराने लगता था। घर की मामूली-सी घटनाओं को लेखक से सुनाया करता था। कभी कहता-बाबूजी, बहिनजी की सहेली आयीं थीं तो कभी कहता बाबूजी, भैया सिनेमा गया था। इसके बाद वह ऐसी हँसी हँसता था कि लगता था जैसे उसने कोई बहुत बड़ा किस्सा कह दिया हो। उसके निश्छल, निष्कलुष हाव-भाव से प्रभावित होकर ही लेखक ने लिखा है-उसकी हंसी बड़ी कोमल थी और मीठी थी लगता था फूल की पंखड़ियों बिखरी हुई हों। इस प्रकार उक्त पंक्तियों में लेखक ने बहादुर की निश्छलता, निर्मलता, ईमानदारी और आत्मीय व्यवहार का यथोचित रेखांकन किया है। बहादुर बच्चा था। उसके होठों पर कोमलता और मिठास थी, फूलों के खिलने जैसा उसकी खिलखिलाहट थी। इस प्रकार उक्त पंक्तियों में लेखक ने बहादुर के कोमल भावों व्यवहारों, ईमानदारी, आत्मीय । संबंधों का सटीक वर्णन किया है।
(ख) पर अब बहादुर से भूल-गलतियाँ अधिक होने लगी थीं ।
व्याख्या-प्रस्तुत पंक्तियाँ हमारी पाठ्यपुस्तक के ‘बहादुर’ कहानी पाठ से ली गयी हैं। इसका संदर्भ बहादुर से जुड़ा हुआ है।
बहादुर को लेखक का पुत्र किशोर बराबर पीट करता था। कुछ दिन बीतने पर लेखक की पत्नी भी बहादुर को मारने डाँटने लगी थी। लेखक को ऐसा विश्वास था कि हो सकता है घर में मार खाने, गाली-सुनने के कारण बहादुर दुखी होकर रहने लगा था और इसी कारण उससे कई भूलें हो जाती होंगी। ऐसी स्थितियों को लेखक कभी-कभी रोकना चाहते थे। लेकिन बाद में चुप हो जाया करते थे क्योंकि उनके विचार में नौकर-चाकर तो मार-पीट खाते ही रहते हैं, ऐसा ही भाव था। इस कारण वे भी बहादुर की मदद नहीं कर पाते थे और बहादुर दीन-हीन रूप में, असहाय बनकर लेखक की पत्नी और पुत्र से डाँट-मारपीट खाता तो और सहता था। इन पंक्तियों का मूल आशय यह है कि लेखक की मानसिकता भी दो तरह की थी। वे भी सबल की आलोचना नहीं कर पाते हैं। गरीबों के प्रति नौकर के प्रति उनका भी भाव दोयम दर्जे का था। इसी कारण बहादुर की मानसिक स्थिति संतुलित नहीं रह पाती थी।
(ग) अगर वह कुछ चुराकर ले गया होता तो संतोष हो जाता ।
व्याख्या-प्रस्तुत पंक्तियाँ हमारी पाठ्यपुस्तक के ‘बहादुर’ कहानी पाठ से ली गयी हैं। इन पंक्तियों का संबंध उस काल से है जब बहादुर चोरी के इल्जाम और मारपीट, गाली-गलौज से तंग आ चुका था। अचानक सिल उठाते वक्त वह गिर गया और दो टुकड़ा हो। अब क्या था बहादुर घर छोड़कर भाग गया। उसे खोजने के लिए लेखक के लड़के किशोर ने शहर का कोना- कोना छान डाला लेकिन बहादुर का कहीं अता-पता नहीं था।
वह बहादुर के लिए बहुत दुःखी था। वह उसके सुख-दुख को याद कर माँ से कह रहा था-माँ, अगर वह मिल जाता तो मैं उससे माफी मांग लेता किन्तु अब उसे नहीं मारता-पीटता, गालियाँ नहीं देता। उसने हमलोगों को बहुत सुख दिया। बहुत सेवा की। गलती हम लोगों से ही हुई। माँ अगर वह कुछ चुराकर भी ले गया होता तो हमलोगों को संतोष होता। लेकिन वह तो हमलोगों का क्या अपना भी सब ‘सामान छोड़ गया।
इन पंक्तियों से यही आशय निकलता है कि आदमी को सद्व्यवहार करना चाहिए। दुर्व्यवहार के कारण कष्ट भोगना पड़ता है।
(घ) यदि मैं न मारता, तो शायद वह न जाता ।
व्याख्या-प्रस्तुत पंक्तियाँ हमारी पाठ्यपुस्तक के ‘बहादुर’ कहानी पाठ से ली गयी हैं। यह पंक्ति बहादुर से संबंधित है।
लेखक बहादुर के भाग जाने पर अफसोस करता है और कहता है कि अगर मैं, उसे नहीं मारता तो वह भागता नहीं, ऐसा मेरा विश्वास है। लेखक को अपने आप पर, अपने द्वारा किए गए अमानवीय व्यवहार पर खेद होता है।
जब निर्मला बहादुर के लिए रोने लगती है तब ये वाक्य लेखक उसी समय चारपाई पर बैठकर सिर झुकाकर कह रहे हैं। लेखक इस घटना पर रोना चाहता है किन्तु भीतर ही भीतर छटपटा कर रह जाता है। एक छोटी-सी भूल जीवन में कितना दुख दे जाती है-अब लेखक को समझ में बात आती है। वह पहले से सचेत रहता तो ऐसी घटना कभी नहीं घंटती। इन पंक्तियों का आशय यह है कि आदमी के साथ सद्व्यवहार होना चाहिए। संदेह के बीज बड़े भयानक होते हैं। उनका प्रतिफल भी कष्टदायक होता है। आज बहादुर के साथ दुर्व्यवहार मारपीट चाहे गाली-गलौज नहीं किया जाता संदेह के आधार पर चोर नहीं ठहराया जाता तो वह नहीं भागता। अतः, संदेह और दुर्व्यवहार से इन्सान को बचना चाहिए।
- काम-धाम के बाद रात को अपने बिस्तर पर गये बहादुर का लेखक किन शब्दों में चित्रण करता है? चित्र का आशय स्पष्ट करें ।
उत्तर-निर्मला ने बहादुर को एक फटी-पुरानी दरी दे दी थी। घर से वह एक चादर भी ले आया था। रात को काम-धाम करने के बाद वह भीतर के बरामदे में एक टूटी हुई बसखट पर अपना बिस्तर बिछाता था। वह बिस्तरे पर बैठ जाता और अपनी जेब में से कपड़े की एक गोल-सी नेपाली टोपी निकालकर पहन लेता, जो बाईं ओर काफी झुकी रहती थी। फिर वह छोटा-सा आइना निकालकर बन्दर की तरह उसमें अपना मुँह देखता था। वह बहुत ही प्रसन्न नजर आता था।
इसके बाद कुछ और भी चीजें जेब से निकालकर बिस्तर पर खेलता था। गीत गाता था। पुरानी स्मृतियों में खो जाता था। इससे उसके बाल मन की स्वाभाविकता की झलक मिलती है। उसके अंतःकरण में निहित विरह का भाव गीत में मुखरित होता था। इसके माध्यम से लेखक ने बालसुलभ मनोदशा, स्वच्छंदता के आनंद की स्मृति का चित्रण किया है।
- बहादुर के आने से लेखक के घर और परिवार के सदस्यों पर कैसा प्रभाव पड़ा?
उत्तर-बहादुर के आने से घर के सदस्यों को आराम मिल रहा था। घर खूब साफ और चिकना रहता। सभी कपड़े चमाचम सफेद दिखाई देते। निर्मला की तबीयत काफी सुधर गई। अब परिवार का कोई सदस्य एक भी काम स्वयं नहीं करता है। सभी बहादुर को आवाज देकर काम बताता था और उस कार्य को वह पूरा करता था। सभी रात में पहले ही सो जाते और सबेरे आठ, बजे से पहले न उठते थे।
- किन कारणों से बहादुर ने एक दिन लेखक का घर छोड़ दिया?
उत्तर-लेखक के घर में प्रारंभ में बहादुर को अच्छा से रखा गया। धीरे-धीरे लेखक का लड़का उस पर दबाव डालकर काम करवाने लगा। कुछ समय पश्चात् पत्नी एवं पुत्र दोनों उसकी पिटाई बात-बात पर कर देते थे। एक रिश्तेदार लेखक के घर पर एक दिन आया और रुपये खो जाने की बात कहते हुए बहादुर पर चोरी का आरोप मढ़ दिया। उस दिन लेखक ने बहादुर की पिटाई कर दी। बार-बार प्रताड़ित होने से एवं मार खाने के कारण एक दिन अचानक बहादुर भाग गया।
- बहादुर पर ही चोरी का आरोप क्यों लगाया जाता है और उस पर इस आरोप का क्या असर पड़ता है?
उत्तर-प्रायः ऐसा देखा जाता है कि लोग घर के नौकर को हेय दृष्टि से देखते हैं। किसी मामले में उसे दोषी मान लेना आसान लगता है। रिश्तेदार ने सोचा कि नौकर पर आरोप लगाने से लोगों को लगेगा कि ऐसा हो सकता है। बहादुर इस आरोप से बहुत दुःखी होता है। उसके अंतरात्मा पर गहरी चोट लगती है। उस दिन से वह उदास रहने लगता है। उस घटना के बाद से उसे अधिक फटकार का सामना करना पड़ता है। उसे काम में मन नहीं लगता है।
- घर आए रिश्तेदारों ने कैसा प्रपंच रचा और उसका क्या परिणाम निकला?
उत्तर-लेखक के घर आए रिश्तेदारों ने अपनी झूठी प्रतिष्ठा कायम करने के लिए रुपया-चोरी का प्रपंच रचा। उनका कहना था कि मैं बच्चों के लिए मिठाई नहीं ला सका इसलिए मिठाई मंगाने के लिए कुछ रुपया निकालकर यहाँ रखा था। लेकिन बाद में हमलोग उलझे हुए रहे इसी दरम्यान रुपये की चोरी हो गई। उन्होंने बहादुर पर इस चोरी का दोषारोपण किया। इस आरोप से बहादुर को पिटाई लगी।
उस दिन से लोग उसे हर हमेशा फटकार लगाने लगे। वह उदास और अन्यमनस्क रूपं से रहकर काम करता था। अंततः घर से अचानक चला गया। रिश्तेदार के प्रपंच के चलते लेखक के घर का काम करने वाले बहादुर के जाने की घटना घटी और घर अस्त-व्यस्त हो गया।
- बहादुर के चले जाने पर सबको पछतावा क्यों होता है?
उत्तर-बहादुर घर के सभी कार्य को कुशलतापूर्वक करता था। घर के सभी सदस्य को आराम मिलता था। किसी भी कार्य हेतु हर सदस्य बहादुर को पुकारते रहते थे। वह घर के कार्य से सभी को मुक्त रखता था। साथ रहते-रहते सबसे हिलमिल गया था। डॉट-फटकार के बावजूद काम करते रहता था। यही सब कारणों से उसके चले जाने पर सबको पछतावा होता है।
- बहादुर, किशोर, निर्मला और कथावाचक का चरित्र चित्रण करें ।
उत्तर-बहादुर बहादुर लेखक महोदय का नौकर था। वह एक नेपाली था। उसके पिता का देहावसान युद्ध में हो गया था। माता जी घर चलाती थीं। एक दिन माँ ने बहादुर को बहुत मारा। बहादुर घर छोड़कर भाग गया। और लेखक महोदय के यहाँ नौकरी करने लगा।
किशोर-किशोर लेखक महोदय का लड़का था। जो अपना सारा काम बहादुर से ही करवाता था। धीरे-धीरे बहादुर पर हाथ भी छोड़ने लगा। बहादुर को घर छोड़कर भागने में किशोर का बर्ताव अधिक कारगर हुआ।
निर्मला – निर्मला लेखक महोदय की पत्नी थी। जिसे नौकर रखने का बहुत शौक था। पहले-पहल बहादुर के आने पर काफी लाड़-प्यार दिया। लेकिन धीरे-धीरे व्यवहार बदलने लगा। यहाँ तक की उसे मारने भी लगी। परिणाम हुआ बहादुर भाग गया। बहादुर के भाग जाने पर काफी विलाप की।
कथावाचक – कथावाचक लेखक महोदय का साला है। जो बहादुर के बारे में पूरी कहानी असाधारण विस्तार सुनाता है। बहादुर को लेकर कथावाचक ही आता है। वह अपनी बहन की नौकर रखने की इच्छा को पूरा करता है।
- निर्मला को बहादुर के चले जाने पर किस बात का अफसोस हुआ?
उत्तर-निर्मला एक भावुक महिला थी। बहादुर के रहने से उसे बहुत आराम मिला था। लेकिन लेखक का रिश्तेदार जब उनके घर में आया तब उसने रुपया चोरी का प्रपंच रचा जिसका शिकार बहादुर को बनाया। निर्मला को बहादुर पर गुस्सा आया और उसे पीट दिया। उसके बाद से कई बार उसे फटकारते रहती थी। अंत में जब रिश्तेदार की सच्चाई का आभास हुआ और यह बात समझ में आ गई कि बहादुर निर्दोष था और उसने रुपये की चोरी नहीं की थी तब उसे पश्चाताप हुआ। वह यह सोचकर अफसोस कर रही थी कि वह बिना बताये क्यों चला गया। वह अपने साथ कुछ लेकर भी नहीं गया था। उसकी कर्मठता, ईमानदारी को याद करके निर्मला ने अपने द्वारा किये गये व्यवहार के लिए अफसोस किया।
- कहानी छोटा मुँह बड़ी बात कहती है। इस दृष्टि से ‘बहादुर‘ कहानी पर विचार करें ।
उत्तर-बहादुर कहानी में सबसे बड़ी बात होती है कि एक दिन बहादुर बिना कुछ कहे और बिना सामान लिये भाग गया। यह घटना तो छोटी थी लेकिन बहुत बड़ी-बड़ी बात कह गई। सभी को अपने व्यवहार पर पछतावा होने लगा। हर आदमी अपने-आप को नीचा अनुभव करने लगा। किशोर बहादुर के मिलने पर उससे माफी मांगने को भी तैयार था।
- कहानी के शीर्षक की सार्थकता स्पष्ट कीजिए। लेखक ने इसका शीर्षक ‘नौकर‘ क्यों नहीं रखा?
उत्तर-प्रस्तुत कहानी में एक बालक का चित्रण किया गया है। बालक जो लेखक के घर में नौकर का काम करता है कहानी का मुख्य पात्र है। इसमें बहादुर नौकरी करने के पूर्व स्वच्छंद में था। वह माँ से मार खाने के बाद घर से भाग गया था। उसके बाद लेखक के घर काम करने के लिए रखा जाता है। यहाँ उसके नौकर के रूप में चित्रण के साथ-साथ उसके बाल- सुलभ मनोभाव का चित्रण भी किया गया है। ईमानदार, कर्मठ एवं सहनशील बालक के रूप में चित्रित है। प्रताड़ना, झूठा आरोप उसे पसंद नहीं था। अंततः फिर वह भागकर स्वछंद हो जाता है। साथ ही लेखक के पूरे परिवार पर अपने अच्छे छवि का चित्र अंकित कर जाता है ऐसे में बहादुर ही इसका नायक कहा जा सकता है। इस कहानी के केन्द्र में बहादुर है। अतः यह शीर्षक सार्थक है। इसमें बालक को केवल नौकर की भूमिका में नहीं रखा गया है बल्कि उसमें विद्यमान अन्य गुणों की चर्चा की गई है। इसलिए नौकर शीर्षक नहीं रखा गया।
- कहानी का सारांश प्रस्तुत करें ।
भाषा की बात
- निम्नलिखित मुहावरों का वाक्य में प्रयोग करते हुए अर्थ स्पष्ट करें
मारते-मारते मुँह रंग देना, हुलिया टाइट करना, हाथ खुलना, मजे में होना, बातों की जलेबी छनना, कहीं का न रहना, नौ-दो ग्यारह होना, खाली हाथ जाना, बुरे फँसना, पेट में लंबी दाढ़ी, चहल-पहल मचना
उत्तर- मारते-मारते मुँह रंग देना (बहुत मार मारना)निर्मला नौकर को मारते-मारते मुँह रंग दिया।
हुलिया टाइट करना – (बुरा हाल करना) किशोर नौकर को इतना मारता कि हुलिया टाइट हो जाता।
हाथ खुलना – (मारने की आदत होना) आजकल निर्मला का हाथ भी नौकर पर खुलने लगा है।
मजे में होना- (खुशी में होना) दिन मजे में बीतने लगे।
बातों की जलेबी छनना- (लंबी-चौडी बातें होना) मोहन अपने दोस्तों के बीच बातों की जलेबी छानता है।
कहीं का न रहना- (बरे फंसना) बहादुर के भाग जाने पर निर्मला कहीं की न रही।
नौ दो ग्यारह होना – (भाग जाना) मौका मिलते ही नौकर नौ दो ग्यारह हो गया।
खाली हाथ जाना – (साथ में कुछ नहीं ले जाना) सोहन घर जाते वक्त खाली हाथ चला गया।
बुरे फंसना-(संकट में फंसना) यात्रा के बीच में बस खराब होने जाने से मैं बुरा फंस गया।
पेट में लबी दाढ़ी-(धूर्तता करना) मोहन के बातों पर मत जाओ उसके पेट में लंबी दाढ़ी है।
चहल-पहल मचना- (खुशी होना) मामा जी के आते ही घर में चहल-पहल मच गया।
- निम्नलिखित शब्दों का वाक्य में प्रयोग करते हुए लिंग-निर्देश करें
रूमाल, ओहदा, भरण-पोषण, इज्जत, झनझनाहट, फरमाइश, छेड़खानी, पुलई, फिक्र, चादर
उत्तर-रूमाल – रूमाल छोटा है।
ओहदा – ओहदा बड़ा है।
भरण – पोषण वह अपने बेटा का भरण-पोषण ठीक से नहीं करता है।
इज्जत – मेरे घर में नौकर को भी इज्जत से रखा जाता है।
झनझनाहट – उसके स्वर में एक मीठी झनझनाहट थी।
फरमाइश – बहादुर सबका फरमाइश पूरा करता था।
छेडखानी – छेड़खानी करना अच्छा नहीं है।
पुलई – वह पेड़ की पुलई पर नजर आता है।
फिक्र – फिक्र मत करो। चादर बहुत पुरानी है।
- निम्नलिखित वाक्यों की बनावट बदलें –
(क) सहसा मैं काफी गंभीर हो गया था, जैसा कि उस व्यक्ति को हो जाना चाहिए, जिस पर एक भारी दायित्व आ गया हो ।
उत्तर- सहसा भारी दायित्व आने के कारण मैं उस व्यक्ति की तरह गंभीर हो गया था।
(ख) माँ उसकी बड़ी गुस्सैल थी और उसको बहुत मारती थी ।
उत्तर- माँ उसकी बड़ी गुस्सैल थी इसलिए उसको बहुत मारती थी।
(ग) मार खाकर भैंस भागी-भागी उसकी माँ के पास चली गई, जो कुछ दूरी पर एक खेत में काम कर रही थी।
उत्तर-मार खाकर मैस भागी-भागी उसकी माँ के पास चली गई। वह कुछ दूरी पर एक खेत में काम कर रही थी।
(घ) मैं उससे बातचीत करना चाहता था, पर ऐसी इच्छा रहते हुए भी मैं जानबूझकर गंभीर हो जाता था और दूसरी ओर देखने लगता था ।
उत्तर- मैं उससे बातचीत करना चाहता लेकिन ऐसी इच्छा रहते हुए भी जानबूझकर गंभीर होकर दूसरी ओर देखने लगता था।
(ङ) निर्मला कभी-कभी उससे पूछती थी बहादुर, तुमको अपनी माँ की याद आती है?
उत्तर- निर्मला कभी-कभी उससे पूछती थी कि बहादुर तुमको अपनी माँ की याद आती है।
- अर्थ की दृष्टि से निम्नलिखित वाक्यों के प्रकार बताएँ
(क) वह मारता क्यों था?
(ख) वह कुछ देर तक उनसे खेलता था ।
(ग) दिन मजे में बीतने लगे ।
(घ) इसी तरह की फरमाइशें ।
(ङ) देख-बे मेरा काम सबसे पहले होना चाहिए ।
(च) रास्ते में कोई ढंग की दुकान नहीं मिली थी, नहीं तो उधर से ही लाती ।
उत्तर-(क) प्रश्नवाचक वाक्य।
(ख) विधानवाचक वाक्य।
(ग) विधानवाचक वाक्य।
(घ) विधानवाचक वाक्य।
(ङ) आज्ञार्थक वाक्य।
(च) संकेतवाचक वाक्य।
शब्द निधि
पंच-बराबर: दो पक्षों के बीच निर्णायक की तरह होना, पंच की तरह
ओहदा: पद
जून: वक्त
बेजुबान: मूक, भाषाविहीन
हिदायत:चेतावनी, सावधानी
शरारत: चंचलता, बदमाशी
शऊर : ढंग, शिष्टाचार, सलीका
तुच्छ : नगण्य, क्षुद्र
फरमाइश : आग्रह, निवेदन
नेकर : पैंट
पुलई : पेड़ की सबसे ऊँची शाखा
सवांग : सगा, परिवार का सदस्य
फिरकी : नाचने वाली घिरनी
कायल : आकांक्षी, अभ्यस्त, आदी
दायित्व: जिम्मेदारी
दर्पण : आईना
खूँट : साड़ी के आँचल से बँधी हुई गाँठ
घाघ : घुँटा हुआ, चतुर
हौंड़ना : मँथना, मँथाना
अलगनी : कपड़े डालने के लिए बँधी लंबी रस्सी, खूँटी