साहित्य समाज का दर्पण है,पर निबंध || Saahity Samaaj ka Darpan Hai Par Nibandh Hindi || Essay on Literature is the reflection of the society in Hindi
साहित्य समाज का दर्पण है क्योंकि यह समाज के विचार, समस्याएँ, और जीवनशैली को दर्शाता है। साहित्यकार अपने समय के सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक परिवेश को अपनी रचनाओं में चित्रित करता है। साहित्य न केवल समाज की वर्तमान स्थिति को उजागर करता है, बल्कि यह समाज के सुधार और बदलाव की दिशा में प्रेरणा भी प्रदान करता है। वह सामाजिक असमानताएँ, अन्याय और कुरीतियों पर प्रकाश डालता है, जैसे कि प्रेमचंद की कहानियों में गाँव की असलियत और गांधीजी के विचारों में समाज सुधार की आवश्यकता। साहित्य समाज को नई दिशा और जागरूकता प्रदान करता है, जिससे समाज का उत्थान होता है।
साहित्य समाज का दर्पण है
अन्य शीर्षक
- मानव जीवन और साहित्य,
- साहित्य का उद्देश्य और शक्ति,
- साहित्य और समाज,
- समाज-परिवर्तन और साहित्य,
- जीवन और साहित्य,
- साहित्य ही जीवन है,
- साहित्य समाज की अभिव्यक्ति है।
रूपरेखा
- प्रस्तावना,
- साहित्य का अर्थ अथवा परिभाषा,
- साहित्यकार का महत्त्व,
- साहित्य और समाज का पारस्परिक सम्बन्ध,
- सामाजिक परिवर्तन और साहित्य,
- साहित्य की शक्ति,
- साहित्य का लक्ष्य,
- साहित्य पर समाज का प्रभाव,
- उपसंहार।
प्रस्तावना- साहित्य युग और परिस्थितियों पर आधारित अनुभवों एवं अनुभूतियों की अभिव्यक्ति होती है। यह अभिव्यक्ति साहित्यकार के हृदय के माध्यम से होती है। कवि और साहित्यकार लेखनी के माध्यम से ह्रदयगत सूक्ष्म अनुभूतियों को कागज पर उतारते हैं, जिससे आनेवाली पीढ़ियाँ उसके मधुर फल का आस्वादन कर सकें।“साहित्य उसी रचना को कहेंगे जिसमे कोई सच्चाई प्रकट की गई हो, जिसमे दिल और दिमाग पर असर डालने का गुण हो”
साहित्य का अर्थ अथवा परिभाषा – ‘सहितस्य भाव साहित्य्’ अथार्त ‘सहित’ का भाव साहित्य है।’ दूसरे शब्दों में – सहित- स + हित = अर्थात जिसमे सभी के हित का भाव हो, वह साहित्य है। साहित्य वह है जिसमें प्राणी के हित की भावना निहित है। साहित्य मानव के सामाजिक सम्बन्धों को दृढ़ बनाता है; क्योंकि उसमें सम्पूर्ण मानव जाति का हित निहित रहता है। मुंशी प्रेमचन्द जी ने साहित्य को “जीवन की आलोचना” कहा है। आंग्ल विद्वान् मैथ्यू आर्नोल्ड ने भी साहित्य को जीवन की आलोचना माना है।
साहित्यकार का महत्त्व – कवि और लेखक अपने समाज के मस्तिष्क भी हैं और मुख भी। साहित्यकार की पुकार समाज की पुकार है। वह समाज का उन्नायक और शुभचिन्तक होता है। उसकी रचना में समाज के भावों की झलक मिलती है। उसके द्वारा हम समाज के हृदय तक पहुँच जाते हैं तथा समाज को जगाने का काम भी किया जाता है।
साहित्य और समाज का पारस्परिक सम्बन्ध – साहित्य और समाज का सम्बन्ध अन्योन्याश्रित है। साहित्य समाज का प्रतिबिम्ब अथवा दर्पण है। समाज की समस्त शोभा, उसकी श्रीसम्पन्नता और मान-मर्यादा साहित्य पर ही अवलम्बित है। कवि एवं समाज एक-दूसरे को प्रभावित करते हैं; अतः साहित्य समाज से भिन्न नहीं है। यदि समाज शरीर है तो साहित्य उसका मस्तिष्क। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के शब्दों में, “प्रत्येक देश का साहित्य वहाँ की जनता की चित्तवृत्ति का संचित प्रतिबिम्ब है।” साहित्य हमारे अमूर्त अस्पष्ट भावों को मूर्त रूप देता है और उनका परिष्कार करता है। साहित्य केवल हमारे समाज का दर्पणमात्र न रहकर उसका नियामक और उन्नायक भी होता है।
सामाजिक परिवर्तन और साहित्य – साहित्य और समाज का अटूट सम्बन्ध है, जब कभी देश को जगाने की आवश्यकता पड़ी तो साहित्य ने अहम् भूमिका निभायी।जब कभी राजा जयसिंह जैसे सत्ताधारी नरेश रानियों के प्रेमपाश में बँधे अपनी प्रजा व राज्य के प्रति उदासीन हुए तो बिहारी जैसे साहित्यकारों ने मात्र एक दोहे से परिवर्तन ला दिया। यथा जयसिंह को राज-कार्य की ओर प्रेरित करने के लिए बिहारी के द्वारा लिखा गया एक दोहा-
नहिं पराग नहिं मधुर मधु, नहिं विकास इहि काल।
अली कली ही सौं बँध्यो, आगे कौन हवाल ॥
साहित्य की शक्ति- निश्चय ही साहित्य असम्भव को भी सम्भव बना देता है। उसमें भयंकरतम अस्त्र-शस्त्रों से भी अधिक शक्ति छिपी है। आ० महावीरप्रसाद द्विवेदी के शब्दों में, “साहित्य में जो शक्ति छिपी रहती है वह तोप, तलवार और बम के गोलों में भी नहीं पाई जाती। यूरोप में हानिकारक धार्मिक रूढ़ियों का उद्घाटन साहित्य ने ही किया है। जातीय स्वातन्त्र्य के बीज उसी ने बोए हैं, व्यक्तिगत स्वतन्त्रता के भावों को भी उसी ने पाला-पोसा और बढ़ाया है। पतित देशों का पुनरुत्थान भी उसी ने किया है।”
साहित्य का लक्ष्य – समाज को दर्पण दिखाना ही साहित्य का लक्ष्य है। हजारी प्रसाद द्विवेदी के शब्दों में – ‘मनुष्य ही साहित्य का लक्ष्य है’। वर्तमान भारतवर्ष में दिखाई देनेवाला परिवर्तन अधिकांशतः साहित्य के प्रभाव का ही परिणाम है। हमारा समाज वैसा ही होता है अथवा बन जाता है, जैसा यथार्थवादी साहित्य में एक साहित्यकार प्रस्तुत करता है।
साहित्य पर समाज का प्रभाव – सत्य तो यह है कि साहित्य और समाज दोनों कदम-से-कदम मिलाकर चलते हैं। समाज का पूरा प्रतिबिम्ब हमें तत्कालीन साहित्य में दिखाई पड़ता है। समाज में व्याप्त आशा-निराशा, सुख-दुख, उत्साह-हताशा, जैसे भाव साहित्य को प्रभावित करते हैं तथा इन्हीं से साहित्य के स्वरूप का निर्धारण होता है। समाज में यदि निराशा व्याप्त है तो साहित्य में भी निराशा झलकती है तथा समाज में यदि युद्ध का खतरा व्याप्त है तो साहित्यकार भी ओज भरी वाणी में दुश्मन पर टूट पड़ने का आह्वान करता दिखाई देता है। इसीलिए कहा गया है कि साहित्य समाज का दर्पण है। दर्पण में वही प्रतिबिम्ब दिखाई पड़ता है जो उसके सामने रख दिया जाता है, कहा गया है:
अन्धकार है वहां जहां आदित्य नहीं है।
मुर्दा है वह देश जहां साहित्य नहीं है।
उपसंहार-अन्तंत: हम यही कह सकते हैं कि समाज और साहित्य में आत्मा और शरीर जैसा सम्बन्ध है। समाज और साहित्य एक-दूसरे के पूरक हैं, इन्हें एक-दूसरे से अलग करना सम्भव नहीं है; अतः आवश्यकता इस बात की है कि साहित्यकार सामाजिक कल्याण को ही अपना लक्ष्य बनाकर साहित्य का सृजन करते रहें।