Bihar Board (बिहार बोर्ड) Solution of Class- 10 Hindi (हिन्दी) Gadya Chapter-5 Nagri Lipi (नागरी लिपि) गोधूलि

Bihar Board Solution of Class- 10 Hindi Gadya Chapter-5 Nagri Lipi (नागरी लिपि) गोधूलि गुणाकर मुले

Dear Students! यहां पर हम आपको बिहार बोर्ड  कक्षा 10वी के लिए हिन्दी गोधूलि  भाग-2 का पाठ-5 नागरी लिपि गुणाकर मुले  Bihar Board (बिहार बोर्ड) Solution of Class- 10 Hindi (हिन्दी) Gadya Chapter-5 – Nagri Lipi संपूर्ण पाठ  हल के साथ  प्रदान कर रहे हैं। आशा करते हैं कि पोस्ट आपको पसंद आयेगी और आप इसे अपने दोस्तों में शेयर जरुर करेंगे।

Chapter Name Nagri Lipi (नागरी लिपि)
Chapter Number Chapter- 5 
Board Name Bihar Board  (B.S.E.B.)
Topic Name संपूर्ण पाठ 
Part
भाग-2 Gadya Khand (गद्य खंड )

Nagri Lipi (नागरी लिपि)

गुणाकर मुले

गुणाकर मुले का जन्म 1935 ई० में महाराष्ट्र के अमरावती जिले एक गाँव में हुआ। उनकी प्रारंभिक शिक्षा-दीक्षा ग्रामीण परिवेश में हुई । शिक्षा की भाषा. मराठी थी। उन्होंने मिडिल स्तर तक मराठी पढ़ाई भी । फिर वे वर्धा चले गये और वहाँ उन्होंने दो वर्षों तक नौकरी की, साथ ही अंग्रेजी व हिंदी का अध्ययन किया। फिर इलाहाबादं आकर उन्होंने गणित विषय में मैट्रिक से लेकर एम० ए० तक की पढ़ाई की । सन् 2009 में मुले जी का निधन हो गया ।

गुणाकर मुले के अध्ययन एवं कार्य का क्षेत्र बड़ा ही व्यापक है। उन्होंने गणित, खगोल विज्ञान, अंतरिक्ष विज्ञान, विज्ञान का इतिहास, पुरालिपिशास्त्र और प्राचीन भारत का इतिहास व संस्कृति जैसे विषयों पर खूब लिखा है। पिछले पच्चीस वर्षों में मुख्यतः इन्हीं विषयों से संबंधित उनके 2500 से अधिक लेखों तथा तीस पुस्तकों का प्रकाशन हो चुका है। उनकी प्रमुख कृतियों के नाम हैं ‘अक्षरों की कहानी’, ‘भारत : इतिहास और संस्कृति’, ‘प्राचीन भारत के महान वैज्ञानिक’, ‘आधुनिक भारत के महान वैज्ञानिक’, ‘मैंडलीफ’, ‘महान वैज्ञानिक’, ‘सौर मंडल’, ‘सूर्य’, ‘नक्षत्र-लोक’, ‘भारतीय लिपियों की कहानी’, ‘अंतरिक्ष-यात्रा’, ‘ब्रह्मांड परिचय’, ‘भारतीय विज्ञानं की कहानी’ आदि। गुणाकर मुले की एक पुस्तक है ‘अक्षर कथा’ । इस पुस्तक में उन्होंने संसार की प्रायः सभी प्रमुख पुरालिपियों की विस्तृत जानकारी दी है।

प्रस्तुत निबंध गुणाकर मुले की पुस्तक ‘भारतीय लिपियों की कहानी’ से लिया गया है। इसमें हिंदी की अपनी लिपि नागरी या देवनागरी के ऐतिहासिक विकास की रूपरेखा स्पष्ट की गयी है। यहाँ हमारी लिपि की प्राचीनता, व्यापकता और शाखा विस्तार का प्रवाहपूर्ण शैली में प्रामाणिक आख्यान प्रस्तुत किया गया है। तकनीकी बारीकियों और विवरणों से बचते हुए लेखक ने निबंध को बोझिल नहीं होने दिया है तथा सादगी और सहजता के साथ जरूरी ऐतिहासिक जानकारियाँ देते हुए लिपि के बारे में हमारे भीतर आगे की जिज्ञासाएँ जगाने की कोशिश की है।

नागरी लिपि

जिस लिपि में यह लेख छपा है, उसे हम नागरी या देवनागरी लिपि कहते हैं। करीब दो सदी पहले पहली बार इस लिपि के टाइप बने और इसमें पुस्तकें छपने लगीं, इसलिए इसके अक्षरों में स्थिरता आ गई है। हिंदी तथा इसकी विविध बोलियाँ देवनागरी लिपि में लिखी जाती हैं। हमारे पड़ोसी देश नेपाल की नेपाली (खसकुरा) व नेवारी भाषाएँ भी इसी लिपि में लिखी जाती हैं। मराठी भाषा को लिपि देवनागरी है। मराठी में सिर्फ एक अतिरिक्त ळ अक्षर है। हमने देखा है कि प्राचीन काल में संस्कृत व प्राकृत भाषाओं में यह ध्वनि थी और इसके लिए अनेक अभिलेखों में अक्षर मिलता है।

देवनागरी लिपि के बारे में एक और महत्त्वपूर्ण तथ्य यह है कि संसार में जहाँ भी संस्कृत-प्राकृत की पुस्तकें प्रकाशित होती हैं, ये प्रायः देवनागरी लिपि में ही छपती हैं। वैसे, विदेशों के कुछ पंडित, और उनका अनुकरण करते हुए कुछ भारतीय पंडित भी, ऊपर-नीचे कुछ चिह्न जोड़ते हुए रोमन अक्षरों में भी संस्कृत-प्राकृत के उद्धरण एवं ग्रंथ छपवाते हैं।

गुजराती लिपि देवनागरी से अधिक भिन्न नहीं है। बंगला लिपि प्राचीन नागरी लिपि की पुत्री नहीं, तो बहन अवश्य है। हाँ, दक्षिण भारत की लिपियाँ वर्तमान नागरी से काफी भिन्न दिखाई देती हैं। लेकिन यह तथ्य हमें सदैव स्मरण रखना चाहिए कि आज कुछ भिन्न-सी दिखाई देनेवाली दक्षिण भारत की ये लिपियाँ (तमिल-मलयालम और तेलुगु-कन्नड़) भी नागरी की तरह प्राचीन ब्राह्मी से ही विकसित हुई हैं ।

अभी कुछ समय पहले तक दक्षिण भारत में पोथियाँ लिखने के लिए नागरी लिपि का व्यवहार होता था । दरअसल, नागरी लिपि के आरंभिक लेख हमें दक्षिण भारत से ही मिले हैं। दक्षिण भारत की यह नागरी लिपि नंदिनागरी कहलाती थी। कोंकण के शिलाहार, मान्यखेट के राष्ट्रकूट, रेवगिरि के यादव तथा विजयनगर के शासकों के लेख नंदिनागरी लिपि में हैं । पहले-पहल विजयनगर के राजाओं के लेखों की लिपि को ही नंदिनागरी नाम दिया गया था ।

दक्षिण भारत में तमिल-मलयालम और तेलुगु-कन्नड़ लिपियों का स्वतंत्र विकास हो रहा था। फिर भी दक्षिण भारत में अनेक शासकों ने नागरी लिपि का इस्तेमाल किया है। राजराज व राजेंद्र जैसे प्रतापी चोड राजाओं (ग्यारहवीं सदी) के सिक्कों पर नागरी अक्षर देखने को मिलते हैं। बारहवीं सदी के केरल के शासकों के सिक्कों पर ‘वीरकेरलस्य’ जैसे शब्द नागरी लिपि में अंकित हैं । सुदूर दक्षिण से प्राप्त वरगुण का पलियम ताम्रपत्र (9वीं सदी) नागरी लिपि में है। इतना ही नहीं, श्रीलंका के पराक्रमबाहु, विजयबाहु (बारहवीं सदी) आदि शासकों के सिक्कों पर भी नागरी अक्षर देखने को मिलते हैं।

दूसरी ओर, उत्तर भारत में अल्पकाल के लिए इस्लामी शासन की नींव डालनेवाले महमूद गजनवी (ग्यारहवीं सदी, पूर्वार्द्ध) के लाहौर के टकसाल में ढाले गए चाँदी के सिक्कों पर भी हम नागरी लिपि के शब्द देखते हैं। इन सिक्कों पर एक तरफ कुफी लिपि में कलमा अंकित है, तो दूसरी तरफ नागरी लिपि में अंकित है: अव्यक्तमेकं मुहम्मद अवतार नृपति महमूद । ये सिक्के 1028 ई० में शुरू किए गए थे। स्मरण रहे कि लगभग इसी समय के दक्षिण के चोड़ राजाओं के सिक्कों पर भी नागरी लिपि में लिखे गए शब्द देखने को मिलते हैं।

महमूद गजनवी के बाद के मुहम्मद गोरी, अलाउद्दीन खिलजी, शेरशाह आदि शासकों ने भी अपने सिक्कों पर नागरी शब्द खुदवाए हैं। वादशाह अकबर ने ऐसा सिक्का चलाया था जिस पर राम-सीता की आकृति है और नागरी लिपि में ‘रामसीय’ शब्द अंकित है ।

उत्तर भारत में मेवाड़ के गुहिल, सांभर-अजमेर के चौहान, कन्नौज के गाहड़वाल, काठियावाड़-गुजरात के सोलंकी, आबू के परमार, जेजाकभुक्ति (बुंदेलखण्ड) के चंदेल तथा त्रिपुरा के कलचुरि शासकों के लेख नागरी लिपि में ही हैं। उत्तर भारत की इस नागरी लिपि को हम देवनागरी के नाम से जानते हैं ।

उपर्युक्त जानकारी से स्पष्ट हो जाता है कि ईसा की आठवीं-नौवीं सदी से नागरी लिपि का प्रचलन सारे देश में था। यह एक सार्वदेशिक लिपि थी ।

गुप्त काल की ब्राह्मी लिपि तथा बाद की सिद्धम् लिपि के अक्षरों के सिरों पर छोटी आड़ी लकीरें या छोटे ठोस तिकोन हैं। लेकिन नागरी लिपि की मुख्य पहचान यह है कि इसके अक्षरों के सिरों पर पूरी लकीरें बन जाती हैं और ये शिरोरेखाएँ उतनी ही लंबी रहती हैं जितनी कि अक्षरों की चौड़ाई होती है। हाँ, कुछ लेखों के अक्षरों के सिरों पर अब भी कहीं-कहीं तिकोन दिखाई देते हैं। दूसरी स्पष्ट विशेषता यह है कि इस प्राचीन नागरी के अक्षर आधुनिक नागरी से मिलते-जुलते हैं और इन्हें आसानी से, थोड़े अभ्यास के बाद, पढ़ा जा सकता है ।

हम बता चुके हैं कि दक्षिण भारत से नागरी (नंदिनागरी) लिपि के लेख आठवीं सदी से मिलने लग जाते हैं और उत्तर भारत से नौवीं सदी से। लेकिन हम यह नहीं कह सकते कि अमुक निश्चित समय से ही नागरी लिपि की शुरुआत होती है। नागरी जैसे अक्षर कुछ पुराने लेखों में दिखाई देते हैं और पुरानी शैली के कुछ अक्षर नागरी लेखों में भी दिखाई देते हैं। अब हमें यह देखना है कि इस नई लिपि को नागरी, देवनागरी या नंदिनागरी क्यों कहते हैं.?

नागरी नाम की उत्पत्ति तथा इसके अर्थ के बारे में विद्वानों में बड़ा मतभेद है। एक मत के अनुसार, गुजरात के नागर ब्राह्मणों ने पहले-पहल इस लिपि का इस्तेमाल किया, इसलिए इसका नाम नागरी पड़ा । इस मत को स्वीकार करने में अनेक अड़चनें हैं। एक अन्य मत के अनुसार, बाकी नगर सिर्फ नगर हैं, परंतु काशी देवनगरी है, इसलिए काशी में प्रयुक्त लिपि का नाम देवनागरी पड़ा । स्पष्टतः यह एक संकुचित मत है ।

अल्बेरूनी ने अपने ग्रंथ (1030 ई०) में लिखा है कि मालवा में नागर लिपि का इस्तेमाल होता है । अतः यह स्पष्ट है कि 1000 ई० के आसपास नागर या नागरी नाम अस्तित्व में आ. चुका था। दरअसल, यह शब्द और भी कुछ पहले अस्तित्व में आ चुका था ।

इतना निश्चित है कि यह नागरी शब्द किसी नगर अर्थात् बड़े शहर से संबंधित है । ‘पादताडितकम्’ नामक एक नाटक से जानकारी मिलती है कि पाटलिपुत्र (पटना) को नगर कहते थे। हम यह भी जानते हैं कि स्थापत्य की उत्तर भारत की एक विशेष शैली को ‘नागर शैली’ कहते हैं । अतः ‘नागर’ या ‘नागरी’ शब्द उत्तर भारत के किसी बड़े नगर से संबंध रखता है । असंभव नहीं कि यह बड़ा नगर प्राचीन पटना ही हो। चंद्रगुप्त (द्वितीय) ‘विक्रमादित्य’ का व्यक्तिगत नाम ‘देव’ था, इसलिए गुप्तों की राजधानी पटना को ‘देवनगर’ भी कहा जाता होगा । देवनगर की लिपि होने से उत्तर भारत की प्रमुख लिपि को बाद में देवनागरी नाम दिया गया होगा। लेकिन यह सिर्फ एक मत हुआ। हम सप्रमाण नहीं बता सकते कि यह देवनागरी नाम कैसे अस्तित्व में आया ।

ईसा की चौदहवीं-पंद्रहवीं सदी के विजयनगर के शासकों ने अपने लेखों के लिपि को नदिनागरी कहा है। विजयनगर के राजाओं के लेख कन्नड़-तेलुगु और नागरी लिपि में मिलते हैं। जानकारी मिलती है कि विजयनगर के राजाओं के शासनकाल में ही पहले-पहल वेदों को लिपिबद्ध किया गया था। यह वैदिक साहित्य निश्चय ही नागरी लिपि में लिखा गया होगा। विद्वानों का यह भी मत है कि वाकाटकों और राष्ट्रकूटों के समय के महाराष्ट्र के प्रसिद्ध नंदिनगर (आधुनिक नांदेड़) की लिपि होने के कारण इसका नाम नंदिनागरी पड़ा ।

लेकिन हमें नामकरण के इस झंझट में अधिक नहीं पड़ना चाहिए। यह किसी नगर-विशेष की लिपि नहीं थी। क्योंकि ईसा की 8वीं-11वीं सदियों में हम नागरी लिपि को पूरे देश में व्याप्त देखते हैं। उस समय यह एक सार्वदेशिक लिपि थी ।

देशभर से नागरी लिपि के बहुत सारे लेख मिले हैं। इस नागरी लिपि के उदय के साथ भारतीय इतिहास व संस्कृति के एक नए युग की शुरुआत होती है। भारत इस्लाम के संपर्क में आता है और बाद में, 13वीं सदी से, इस्लामी शासकों का शासन आरंभ होता है। नए संप्रदाय अस्तित्व में आते हैं। भारतीय समाज एवं बहुत-से संप्रदायों को एक व्यापक नाम मिलता है – हिंदू समाज एवं हिंदू धर्म ।

नागरी लिपि के साथ-साथ अनेक प्रादेशिक भाषाएँ भी जन्म लेती हैं। आठवीं-नौवीं सदी से आरंभिक हिंदी का साहित्य मिलने लग जाता है। हिंदी के आदिकवि सरहपाद (आठवीं सदी) के ‘दोहाकोश’ की तिब्बत से जो हस्तलिपि मिली है वह दसवीं ग्यारहवीं सदी की लिपि में लिखी गई है। नेपाल से और भारत के जैन-भंडारों से भी इस काल की बहुत सारी हस्तलिपियाँ मिली हैं। इसी काल में भारतीय आर्यभाषा परिवार की आधुनिक भाषाएँ मराठी, बंगला आदि जन्य ले रही थीं। इस समय से इन भाषाओं के लेख भी मिलने लग जाते हैं।

दक्षिण भारत की द्रविड़ भाषा परिवार की भाषाएँ, विशेषतः तमिल भाषा, अधिक प्राचीन हैं। लेकिन इन भाषाओं के लेख भी इसी समय से मिलने लग जाते हैं। इन भाषाओं के लिए दक्षिण भारत में विकसित ब्राह्मी लिपि का कुछ स्वतंत्र विकास हो रहा था; परंतु दक्षिण भारत में नागरी लिपि का भी खूब व्यवहार था। दरअसल, नागरी के आरंभिक लेख हमें विंध्य पर्वत के नीधे के दक्खन प्रदेश से ही मिलते हैं।

अनेक विद्वानों का मत है कि दक्षिण भारत में नागरी लिपि का प्राचीनतम लेख राष्ट्रकूट राजा दतिदुर्ग का सामांगड दानपत्र (754 ई०) है। दतिदुर्ग ने ही राष्ट्रकूट शासन की नींव डाली थी। ये राष्ट्रकूट शासक मूलतः कर्णाटक के रहनेवाले थे और इनकी मातृभाषा कन्नड़ थी; परंतु ये खानदेश-विदर्भ में बस गए थे। दंतिदुर्ग के बाद उसका चाचा कृष्ण (प्रथम) राष्ट्रकूटों की गद्दी पर बैठा। इसी कृष्ण के शासनकाल में एलोरा (प्राचीन एलापुर, वेरूल) में अनुपम कैलाश मंदिर पहाड़ को काटकर वनाया गया था। कृष्ण के कुछ लेख भी मिले हैं। नौवीं सदी में अमोघवर्ष एक प्रख्यात राष्ट्रकूट राजा हुआ। इसी अमोघवर्ष ने राष्ट्रकूट की नई राजधानी मान्यखेट (मालखेड) की नींव डाली। अमोघवर्ष के शासनकाल में ही जैन गणितज्ञ महावीराचार्य (850 ई०) ने ‘गणितसार-संग्रह’ की रचना की थी ।

ईसा की आठवीं सदी में पश्चिम महाराष्ट्र के कोंकण प्रदेश में शिलाहारों का राज्य स्थापित हो गया था। ग्यारहवीं सदी में इनकी एक शाखा का राज्य कोल्हापुर-सातारा प्रदेश में भी स्थापित हो गया था। इन. शिलाहारों के अनेक नागरी लेख मिले हैं।

ग्यारहवीं सदी से नागरी लिपि में प्राचीन मराठी भाषा के लेख मिलने लग जाते हैं। अक्षी (कुलाबा जिला) से शिलाहार शासक केशिदेव (प्रथम) का एक शिलालेख (1012 ई०) मिला है, जो संस्कृत-मराठी भाषाओं में है और इसकी लिपि नागरी है। परंतु दिवें-आगर (रत्नागिरी जिला) ताम्रपट पूर्णतः मराठी में है। इसे मराठी का आद्यलेख माना जाता है। नागरी लिपि में लिखा गया यह ताम्रपट 1060 ई० का है।

कर्णाटक प्रदेश का श्रवणबेलगोल स्थान जैनों का एक प्रसिद्ध तीर्थस्थल है। यहाँ गोमटेश्वर का भव्य पुतला खड़ा है। इस स्थान से विविध भाषाओं और लिपियों के अनेक लेख मिले हैं। यह है श्रीगंगराजे सुत्ताले करदियले (श्रीगंगराजा ने परकोटा बनवाया)। एक अन्य नागरी लेख में लिखा है-श्री चावुण्डरांजे करविय ले। ये लेख दक्षिणी शैली की नागरी लिपि में हैं।

देवगिरि के यादव राजाओं के नागरी लिपि में बहुत सारे लेख मिलते हैं। यादव राजा रामचंद्र (13वीं सदी) के ताम्रपत्र में ‘ए’ और ‘ओ’ की मात्राएँ अक्षरों की बाईं ओर हैं। कल्याण के पश्चिमी चालुक्य नरेशों के लेख भी नागरी लिपि में हैं। उड़ीसा (कलिंग प्रदेश) में ब्राह्मी की एक विशेष शैली, कलिंग लिंपि का अस्तित्व था, परंतु गंगवंश के कुछ शासकों के लेख नागरी लिपि में भी मिलते हैं ।

नागरी लिपि के लेख न केवल पश्चिम तथा पूर्व भारत से बल्कि सुदूर दक्षिण भारत से भी मिले हैं । दक्षिण भारत के पांड्य प्रदेश से राजा वरगुण के पलियम ताम्रपत्र मिले हैं। प्रथम ताम्रपत्र तमिल से शुरू होता है, परंतु इसकी दूसरी ओर से नागरी लिपि (संस्कृत भाषा) का लेख शुरू होता है । यह ईसा की नौवीं सदी का है।

उत्तर भारत में पहले-पहल गुर्जर-प्रतीहार राजाओं के लेखों में नागरी लिपि देखने को मिलती है । अनेक विद्वानों का मत है कि ये गुर्जर-प्रतीहार बाहर से भारत आए थे । ईसा की आठवीं सदी के पूर्वार्द्ध में अवंती प्रदेश में इन्होंने अपना शासन खड़ा किया और बाद में कन्नौज पर भी अधिकार कर लिया था। मिहिर भोज, महेंद्रपाल आदि प्रख्यात प्रतीहार शासक हुए । मिहिर भोज (840-81 ई०) की ग्वालियर प्रशस्ति नागरी लिपि (संस्कृत भाषा) में है ।

धारा नगरी का परमार शासक भोज अपने विद्यानुराग के लिए इतिहास में प्रसिद्ध है। परंतु इस शासक के बहुत कम अभिलेख मिले हैं। इस राजा के बंसवाड़ा और बेतमा दानपत्र क्रमशः ‘कोंकणविजय’ तथा ‘कोंकणविजयपर्व’ के अवसरों पर दिए गए थे। बेतमा (इंदौर के समीप) दानपत्र 1020 ई० का है ।

हमने उन्हीं आरंभिक नागरी लेखों की संक्षिप्त चर्चा की है जो देश के विभिन्न भागों से मिले हैं। 12वीं सदी के बाद हम उत्तर भारत के सभी हिंदू शासकों को देवनागरी लिपि का इस्तेमाल करते हुए देखते हैं। हमने यह भी देखा है कि कुछ इस्लामी शासकों ने भी अपने सिक्कों पर नागरी लेख अंकित किए हैं ।

बोध और अभ्यास

पाठ के साथ

  1. देवनागरी लिपि के अक्षरों में स्थिरता कैसे आयी है?

उत्तर- करीब दो सदी पहले पहली बार इस लिपि के टाइप बने और इसमें पुस्तकें छपने लगीं, इसलिए इसके अक्षरों में स्थिरता आ गई है।

  1. देवनागरी लिपि में कौन-कौन सी भाषाएँ लिखी जाती हैं?

उत्तर- देवनागरी लिपि में नेपाल की नेपाली (खसकुरा) व नेवारी भाषाएँ मराठी भाषा की लिपि तथा संस्कृत एवं हिन्दी की लिपि देवनागरी है।

  1. लेखक ने किन भारतीय लिपियों से देवनागरी का संबंध बताया है?

उत्तर- लेखक ने गुजराती और बंगला लिपि से देवनागरी का संबंध बताया है।

  1. नंदी नागरी किसे कहते हैं? किस प्रसंग में लेखक ने उसका उल्लेख किया है?

उत्तर- विद्वानों का यह भी मत है कि वाकाटकों और राष्ट्रकूटों के समय के महाराष्ट्र के प्रसिद्ध नंदिनगर (आधुनिक नांदेड़) की लिपि होने के कारण इसका नाम नदिनागरी पड़ा। दक्षिण भारत में पोधियाँ लिखने के लिए नागरी लिपि का व्यवहार होता था। दरअसल, दक्षिणभारत की यह नागरी लिपि नंदिनागरी कहलाती थी। कोंकण के शिलाहार, मान्यखेट के राष्ट्रकूट, देवगिरि के यादव तथा विजयनगर के शासकों के लेख नंदिनागरी लिपि में है। पहले-पहल। विजयनगर के राजाओं के लेखों की लिपि को ही नंदिनागरी नाम दिया गया था।

  1. नागरी लिपि के आरंभिक लेख कहाँ प्राप्त हुए हैं? उनके विवरण दें ।

उत्तर- नागरी लिपि के आरंभिक लेख हमें दक्षिण भारत से ही मिले हैं। राजराजा व राजेन्द्र जैसे प्रतापी चोल राजाओं के सिक्कों पर नागरी अक्षर देखने को मिलते हैं। दक्षिण भारत में नागरी लिपि के लेख आठवीं सदी से मिलने लग जाते हैं और उत्तर भारत में नौवीं सदी से।

  1. ब्रा‌ह्मी और सिद्धम लिपि की तुलना में नागरी लिपि की मुख्य पहचान क्या है?

उत्तर- मुप्त काल की ब्राह्मी लिपी तथा बाद की सिद्धम लिपि के अक्षरों के सिरों पर छोटी आड़ी लकीरें या छोटे ठोस तिकोन हैं। लेकिन नागरी लिपि की मुख्य पहचान यह है कि इसके अक्षरों के सिरों पर पूरी लकीरे बन जाती हैं और ये शिरोरेखाएँ उतनी ही लंबी रहती हैं जितनी कि अक्षरों की चौड़ाई होती है।

  1. उत्तर भारत में किन शासकों के प्राचीन नागरी लेख प्राप्त होते हैं?

उत्तर-उत्तर भारत के इस्लामी शासन की नींव डालनेवाली महमूद गजनवी के लाहोर के टकसाल में ढाले गए चाँदी के सिक्कों पर भी हम नागरी लिपि के शब्द देखते हैं। मुहम्मद गोरी, अलाउद्दीन खिलजी, शेरशाह, अकबर आदि शासकों ने भी अपने सिक्को पर नागरी शब्द खुदवाए थे।

  1. नागरी को देवनागरी क्यों कहते हैं? लेखक इस संबंध में क्या बताता है?

उत्तर- पादताडितकम् नामक एक नाटक से जानकारी मिलती है कि पाटलिपुत्र (पटना) को नगर कहते थे। हम यह भी जानते हैं कि स्थापत्य की उत्तर भारत की एक विशेष शैली को ‘नागर शैली’ कहते हैं। अतः ‘नागर’ या नागरी शब्द उत्तर भारत के किसी बड़े नगर से संबंध रखता है। असंभव नहीं कि यह बड़ा नगर प्राचीन पटना ही हो। चंद्रगुप्त (द्वितीय) विक्रमादित्य’ का व्यक्तिगत नाम ‘देव’ था, इसलिए इसलिए गुप्तों की राजधानी पटना को ‘देवनगर’ भी कहा जाता होगा। देवनगर की लिपि होने से उत्तर भारत की प्रमुख लिपि को बाद में देवनागरी नाम दिया गया होगा।

  1. नागरी की उत्पत्ति के संबंध में लेखक का क्या कहना है? पटना से नागरी का क्या संबंध लेखक ने बताया है?

उत्तर- इतना ध्रुवसत्य है कि यह नागरी शब्द किसी नगर अर्थात् किसी बड़े शहर से संबंधित है। ‘पादतादितकम्’ नामक एक नाटक से जानकारी मिलती है कि पाटलिपुत्र अर्थात् पटना को नगर नाम से पुकारते थे। अतः हम यह भी जानते है कि स्थापत्य की उत्तर भारत की एक विशेष शैली को नागर शैली कहते हैं। अतः नागर या नागरी शब्द उत्तर भारत के किसी बड़े नगर से संबंध रखता है। विद्वानों के अनुसार उत्तर भारत का यह बड़ा नगर निश्चित रूप से पटना ही होगा। चन्द्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य का व्यक्तिगत नाम देव था। इसलिए गुप्तों की राजधानी पटना को देवनगर भी कहा जाता था देवनगर की लिपि होने से उत्तर भारत की प्रमुख लिपि को बाद में देवनागरी नाम दिया गया था।

  1. नागरी लिपि कब एक सार्वदेशिक लिपि थी?

उत्तर- ईसा की 8वीं-11वीं सदियों में हम नागरी लिपि को पूरे देश में व्याप्त देखते हैं। उस समय यह एक सार्वदेशिक लिपि थी।

  1. नागरी लिपि के साथ-साथ किसका जन्म होता है? इस संबंध में लेखक क्या जानकारी देता है?

उत्तर- नागरी लिपि के साथ-साथ अनेक प्रादेशिक भाषाएँ भी जन्म लेती हैं। आठवीं-नोवीं सदी से आरंभिक हिंदी साहित्य मिलने लग जाता है। इसी काल में भारतीय आर्यभाषा परिवार की आधुनिक भाषाएँ, मराठी, बंगला आदि जन्म ले रही थीं।

  1. गुर्जर प्रतीहार कौन थे?

उत्तर- अनेक विद्वानों का मत है कि ये गुर्जर-प्रतीहार बाहर से भारत आए थे। ईसा की आठवीं सदी की पूर्वार्द्ध में अवंती प्रदेश में इन्होंने अपना शासन खड़ा किया और बाद में कन्नौज पर भी अधिकार कर लिया था। मिहिर भोज, महेन्द्रपाल आदि प्रख्यात प्रतीहार शासक हुए। मिहिर भोज (1840-81) ई. की ग्वालियर प्रशस्ति नागरी लिपि (संस्कृत भाषा) में है।

  1. निबंध के आधार पर काल-क्रम से नागरी लेखों से संबंधित प्रमाण प्रस्तुत करें ।

उत्तर- निबंध के आधार पर कालक्रम से नागरी लेखों से संबंधित प्रमाण इस प्रकार मिलते है ग्यारहवीं सदी में राजेन्द्र जैसे प्रतापी बेर राजाओं के सिक्कों पर नागर अक्षर देखने को मिलते है। बारहवीं सदी के केरल के शासकों के सिक्कों पर ‘वीर केरलस्य’ जैसे शब्द नागरी लिपि में अकित है। दक्षिण से प्राप्त वरगुण का पलयम ताम्रपत्र भी नागरी लिपि में नौवीं सदी की है। एक हजार ई. के आसपास मालवा नगर में नागर लिपि का इस्तेमाल होता था। विक्रमादित्य के समय पटना में देवनागरी का प्रयोग मिलता है। ईसा की आठवीं से ग्यारहवी सदियों में नागरी लिपि पूरे भारत में व्याप्त थी। आठवीं सदी में दोहाकोश की तिब्बत से जो हस्तलिपि मिली है, वह नागरी लिपि में है। पाँच सो चोअन ई० में राष्ट्रकूट राजा दंतिदुर्ग का दानपत्र नागरी लिपि में प्राप्त हुआ है। 850 ई. में जेन गणितज्ञ महावीराचार्य के गणित सार संग्रह की रचना मिलती है जो नागरी लिपि में है।

भाषा की बात
  1. निम्नलिखितं शब्दों से संज्ञा बनाएँ

स्थिर, अतिरिक्त, स्मरणीय, दक्षिणी, आसान, पराक्रमी, युगीन

उत्तर- स्थिर = स्थिति

अतिरिक्त = अतिरिक्तता

स्मरणीय = स्मरण

दक्षिणी = दक्षिण

आसान = आसानी

पराक्रमी = पराक्रम

युगीन = युग

  1. निम्नलिखित पदों के समासविग्रह करें –

तमिल-मलयालम, रामसीय, विद्यानुराग, शिरोरेखा, हस्तलिपि, दोहाकोश, पहले-पहल

उत्तर- तमिल-मलयालम = तमिल और मलयालम द्वन्द्व

रामसीय = राम और सीता द्वन्द्व

विद्यानुराग = विद्या को अनुराग (तत्पुरूष)

शिरोरेखा = शिर पर रेखा (तत्पुरूष)

हस्तलिपि = हस्त की लिपि (तत्पुरूष)

दोहाकोश = दोहा का कोश (तत्पुरूष)

पहले-पहल = पहला पहला (अव्ययीभाव)

3.निम्नलिखित शब्दों के पर्यायवाची लिखें

मत, सार्वदेशिक, अनुकरण, व्यवहार, शासक

उत्तर- मंत = कथन, वचन ।

सार्वदेशिक = पूरे देश की, संपूर्ण राष्ट्र।

अनुकरण = अनुगमन, नकल।

व्यवहार = आचार, संबंध।

शासक = राजा, बादशाह।

4.निम्नलिखित भिन्नार्थक शब्दों के अर्थ स्पष्ट करें –

(क) प्रत्न – प्रयत्न

(ख) लिपि लिप्ति

(ग) नागरी नागरिक

(घ) पट पट्ट

उत्तर- (क) प्रत्न – पुराना

प्रयत्न- प्रयास

(ख) लिपि – लिखावट

लिप्ति – ढका हुआ

(ग) नागरी – एक लिपि

नागरिक – जनता

(घ) पट – वस्त्र

पट्ट – तख्ती (पट्टिका)

शब्द निधि :

लिपि : ध्वनियों के लिखित चिह्न

नागरी : नगर की, शहर की

अनुकरण : नकल

ब्राह्मी : एक प्राचीन भारतीय लिपि जिससे नागरी आदि लिपियों का विकास हुआ

पोथियाँ : पुस्तकें, ग्रंथ

टकसाल : जहाँ सिक्के ढलते हैं:

रामसीय : राम-सीता

अस्तित्व : पहचान, सत्ता

हस्तलिपि : हाथ की लिखावट

आद्यलेख : अत्यंत प्राचीन प्रारंभिक लेख

विद्यानुराग : विद्या से प्रेम

 

Bihar Board (बिहार बोर्ड) Solution of Class-10 Hindi (हिन्दी) Gadya Chapter-6 Bahadur (बहादुर) गोधूलि

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