Bihar Board (बिहार बोर्ड) Solution of Class-10 Hindi (हिन्दी) Gadya Chapter-11 Naubatkhane mein Ibadat (नौबतखाने में इबादत) गोधूलि

Bihar Board (बिहार बोर्ड) Solution of Class-10 Hindi Gadya Chapter-11 Naubatkhane mein Ibadat (नौबतखाने में इबादत) श्री यतींद्र मिश्र

Dear Students! यहां पर हम आपको बिहार बोर्ड  कक्षा 10वी के लिए हिन्दी गोधूलि  भाग-2 का पाठ-11 नौबतखाने में इबादत श्री यतींद्र मिश्र Bihar Board (बिहार बोर्ड) Solution of Class-10 Hindi (हिन्दी) Gadya Chapter-11 Naubatkhane mein Ibadat संपूर्ण पाठ  हल के साथ  प्रदान कर रहे हैं। आशा करते हैं कि पोस्ट आपको पसंद आयेगी और आप इसे अपने दोस्तों में शेयर जरुर करेंगे।

Chapter Name
Chapter Number Chapter- 11  
Board Name Bihar Board  (B.S.E.B.)
Topic Name संपूर्ण पाठ 
Part
भाग-2 Gadya Khand (गद्य खंड )

Naubatkhane mein Ibadat (नौबतखाने में इबादत)

यतींद्र मिश्र

यतींद्र मिश्र का जन्म सन् 1977 में अयोध्या, उत्तरप्रदेश में हुआ । उन्होंने लखनऊ विश्वविद्यालय, लखनऊ से हिंदी भाषा और साहित्य में एम० ए० किया । वे साहित्य, संगीत, सिनेमा, नृत्य और चित्रकला के जिज्ञासु अध्येता हैं। वे रचनाकार के रूप में मूलतः एक कवि हैं। उनके अबतक तीन काव्य-संग्रह : ‘यदा-कदा’, ‘अयोध्या तथा अन्य कविताएँ’, और ‘ड्योढ़ी पर आलाप’ प्रकाशित हो चुके हैं। कलाओं में उनकी गहरी अभिरुचि है। इसका ही परिणाम है कि उन्होंने प्रख्यात शास्त्रीय गायिका गिरिजा देवी के जीवन और संगीत साधना पर एक पुस्तक ‘गिरिजा’ लिखी । भारतीय नृत्यकलाओं पर विमर्श की पुस्तक है ‘देवप्रिया’, जिसमें भरतनाट्यम और ओडिसी की प्रख्यात नृत्यांगना सोनल मान सिंह से यतींद्र मिश्र का संवाद संकलित है। यतींद्र मिश्र ने स्पिक मैके के लिए ‘विरासत 2001’ के कार्यक्रम के लिए रूपंकर कलाओं पर केंद्रित पत्रिका ‘थाती’ का संपादन किया है। संप्रति, वे अर्द्धवार्षिक पत्रिका ‘सहित’ का संपादनं कर रहे हैं। वे साहित्य और कलाओं के संवर्धन एवं अनुशीलन के लिए एक सांस्कृतिक न्यास ‘विमला देवी -फाउंडेशन’ का संचालन 1999. ई० से कर रहे हैं।

यतींद्र मिश्र ने रीतिकाल के अंतिम प्रतिनिधि कवि द्विजदेव की ग्रंथावली का सह-संपादन भी किया है। उन्होंने हिंदी के प्रसिद्ध कवि कुँवरनारायण पर केंद्रित दो पुस्तकों के अलावा हिंदी सिनेमा के जाने-माने गीतकार गुलजार की कविताओं का संपादन ‘यार जुलाहे’ नाम से किया है। यतींद्र मिश्र को अबतक भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार, भारतीय भाषा परिषद् युवा पुरस्कार, राजीव गाँधी राष्ट्रीय एकता पुरस्कार, रजा पुरस्कार, हेमंत स्मृति कविता पुरस्कार, ऋतुराज सम्मान आदि कई पुरस्कार प्राप्त हो चुके हैं। उन्हें केंद्रीय संगीत नाटक अकादमी, नयी दिल्ली और सराय, नई दिल्ली की फेलोशिप भी मिली है ।

‘नौबतखाने में इबादत’ प्रसिद्ध शहनाईवादक भारतरत्न उस्ताद बिस्मिल्ला खाँ पर रोचक शैली में लिखा गया व्यक्तिचित्र है। इस पाठ में बिस्मिल्ला खाँ का जीवन उनकी रुचियाँ, अंतर्मन की बुनावट, संगीत की साधना आदि गहरे जीवनानुराग और संवेदना के साथ प्रकट हुए हैं।

नौबतखाने में इबादत

सन् 1916 से 1922 के आसपास की काशी । पंचगंगा घाट स्थित बालाजी मंदिर की ड्योढ़ी। ड्योढ़ी का नौबतखाना और नौबतखाना से निकलनेवाली मंगलध्वनि कमरूद्दीन अभी सिर्फ छह साल का है और बड़ा भाई शम्सुद्दीन नौ साल का। कमरूद्दीन को पता नहीं है कि राग किस चिड़िया को कहते हैं। और ये लोग हैं मामूजान वगैरह जो बात-बात पर भीमपलासी और मुलतानी कहते रहते हैं। क्या वाजिब मतलब हो सकता है इन शब्दों का, इस लिहाज से अभी उम्र नहीं है कमरूद्दीन की, जान सके इन भारी शब्दों का वजन ‘कितना होगा । गोया इतना जरूर है कि कमरूद्दीन व शम्सुद्दीन के मामाद्वय सादिक हुसैन तथा अलीबख्श देश के जाने-माने शहनाई वादक हैं। विभिन्न रियासतों के दरबार में बजाने जाते रहते हैं । रोजनामचे में बालाजी का मंदिर सबसे ऊपर आता है। हर दिन की शुरुआत वहीं ड्योढ़ी पर होती है। मंदिर के विग्रहों को पता नहीं कितनी समझ है, जो रोज बदल-बदलकर मुलतानी, कल्याण, ललित और कभी भैरव रागों को सुनते रहते हैं। ये खानदानी पेशा है अलीबख्श के घरं का। उनके अब्बाजान भी यहीं ड्योढ़ी पर शहनाई बजाते रहते हैं। कमरूद्दीन का जन्म डुमराँव, बिहार के एक संगीत प्रेमी परिवार में 1916 ई० में हुआ । 5-6 वर्ष डुमराँव में बिताकर वह नाना के घर, ननिहाल काशी में आ गये। शहनाई और डुमराँव एक-दूसरे के लिए उपयोगी थे। शहनाई बजाने के लिए रीड का प्रयोग होता है। रीड अंदर से पोली होती है जिसके सहारे शहनाई को फूंका जाता है। रीड, नरकट (एक प्रकार की घास) से बनाई जाती है जो डुमराँव के आसपास की नदियों के कछारों में पाई जाती है। फिर कमरूद्दीन ही अपने उस्ताद बिस्मिल्ला खाँ साहब थे । इनके परदादा उस्ताद सलार हुसैन खाँ डुमराँव निवासी थे । बिस्मिल्ला खाँ उस्ताद पैगंबरबख्श खाँ और मिट्ठन के छोटे साहबजादे थे। बिस्मिल्ला खाँ की उम्र मात्र 14 साल । वही पुराना बालाजी का मंदिर जहाँ बिस्मिल्ला खाँ को नौबतखाने रियाज के लिए जाना पड़ता । मगर एक रास्ता है बालाजी मंदिर तक जाने का। यह रास्ता रसूलनबाई और बतूलनबाई के यहाँ से होकर जाता है । इस रास्ते से कमरूद्दीन को जाना अच्छा लगता । इस रास्ते न जाने कितने तरह के बोल-बनाव कभी ठुमरी, कभी टप्पे, कभी दादरा के मार्फत ड्योढ़ी तक पहुँचते रहते। रसूलन और बतूलन जब गाती, तब कमरूद्दीन को खुशी मिलती है। अपने ढेरों साक्षात्कारों में बिस्मिल्ला खाँ साहब ने स्वीकार किया है कि उन्हें अपने जीवन के आरंभिक दिनों में संगीत के प्रति आसक्ति इन्हीं गायिका बहिनों को सुनकर हुई । एक प्रकार से उनकी अबोध उम्र में अनुभव की स्लेट पर संगीत प्रेरणा की वर्णमाला रसूलनबाई और बतूलनबाई ने उकेरी । वैदिक इतिहास में शहनाई का कोई उल्लेख नहीं मिलता। इसे संगीत शास्त्रांतर्गत ‘सुषिर-वाद्यों’ में गिना जाता है। अरब देश में फूंककर बजाए जाने वाले वाद्य जिसमें नाड़ी (नरकट या रीड) होती है, को ‘नय’ बोलते हैं। शहनाई को ‘शाहनेय’ अर्थात् ‘सुषिर वाद्यों में शाह’ की उपाधि दी गई है। सोलहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध के तानसेन के द्वारा रची बंदिश, जो संगीत राग कल्पद्रुम से प्राप्त होती है, में शहनाई, मुरली, वंशी, श्रृंगी एवं मुरछंग आदि का वर्णन आया है। अवधी पारंपरिक लोकगीतों एवं चैती में शहनाई का उल्लेख बार-बार मिलता है। मंगल का परिवेश प्रतिष्ठित करने वाला यह वाद्य इन जगहों पर मांगलिक विधि-विधानों के अवसर पर ही प्रयुक्त हुआ है। दक्षिण भारत, के मंगल वाद्य ‘नागस्वरम्’ की तरह शहनाई, प्रभाती की मंगलध्वनि का संपूरक है। शहनाई की इसी मंगलध्वनि के नायक बिस्मिल्ला खाँ साहब दशकों से सुर माँग रहे हैं। सच्चे सुर की नेमत । पाँचों ववत वाली नमाज इसी सुर को पाने की प्रार्थना में खर्च हो जाती। लाखों सज़दे, इसी एक सच्चे सुर की इबादत में खुदा के आगे झुकते । वे नमाज के बाद सजुदे में गिड़गिड़ाते – ‘मेरे मालिक एक सुर बख्श दे। सुर में वह तासीर पैदा कर कि आँखों से सच्चे मोती की तरह अनगढ़ आँसू निकल आएँ। उनको यकीन था, कभी खुदा यूँ ही उन पर मेहरबान होगा और अपनी झोली से सुर का फल निकालकर उनकी ओर उछालेगा, फिर कहेगा, ले जा कमरूद्दीन इसको खा ले और कर ले अपनी मुराद पूरी । अपने ऊहापोहों से बचने के लिए हम स्वयं किसी शरण, किसी गुफा को खोजते हैं जहाँ अपनी दुश्चिंताओं, दुर्बलताओं को छोड़ सकें और वहाँ से फिर अपने लिए एक नया तिलिस्म गढ़ सकें। हिरन अपनी ही महक से परेशान पूरे जंगल में उस वरदान को खोजता है जिसकी गमक उसी में समाई है। कई दशक तक बिस्मिल्ला खाँ यही सोचते आए कि सातों सुरों को बरतने की तमीज उन्हें सलीके से अभी तक क्यों नहीं आई । बिस्मिल्ला खाँ और शहनाई के साथ जिस मुस्लिम पर्व का नाम जुड़ा हुआ है, वह मुहर्रम है। मुहर्रम का महीना वह होता है जिसमें शिया मुसलमान हजरत इमाम हुसैन एवं उनके कुछ वंशजों के प्रति अजादारी (शोक मनाना) मनाते हैं। पूरे दस दिनों का शोक । वे बताते कि उनके खानदान का कोई व्यक्ति मुहर्रम के दिनों में न तो शहनाई बजाता, न ही किसी संगीत के कार्यक्रम में शिरकत ही करता । आठवीं तारीख उनके लिए खास महत्त्व की होती थी। इसदिन खाँ साहब खड़े होकर शहनाई बजाते व दालमंडी में फातमान के करीब आठ किलोमीटर की दूरी तक पैदल रोते हुए, नौहा बजाते जाते । इस दिन कोई राग नहीं बजता । राग-रागिनियों की अदायगी का निषेध है इस दिन । उनकी आँखें इमाम हुसैन और उनके परिवार के लोगों की शहादत में नम रहती । अजादारी होती । हजारों आँखें नम । हजार बरस की परंपरा पुनर्जीवित । मुहर्रम संपन्न होता । एक बड़े कलाकार का सहजं मानवीय रूप ऐसे अवसर पर आसानी से दिख जाता था । मुहर्रम के गमजदा माहौल से अलग, कभी-कभी सुकून के क्षणों में वे अपनी जवानी के दिनों को याद करते । वे अपने रियाज को कम, उन दिनों के अपने जुनून को अधिकं याद करते । अपने अब्बाजान और उस्ताद को कम, पक्का महाल की कुलसुम हलवाइन की कचौड़ी वाली दुकान व गीताबाली और सुलोचना को ज्यादा याद करते। कैसे सुलोचना उनकी पसंदीदा हीरोइन रही थीं, बड़ी रहस्यमय मुस्कराहट के साथ गालों पर चमक आ जाती थी। खाँ साहब की अनुभवी आँखें और जल्दी ही खिस्स से हँस देने की ईश्वरीय कृपा बदस्तूर कायम रही । इसी बालसुलभ हँसी में कई यादें बंद थी। वे जब उनका जिक्र करते तब फिर उसी नैसर्गिक आनंद में आँखें चमक उठतीं। कमरूद्दीन तब सिर्फ चार साल के रहे होंगे। छुपकर नाना को शहनाई बजाते हुए सुनते थे, रियाज के बाद जब अपनी जगह से उठकर चले जाएँ तब जाकर ढेरों छोटी-बड़ी शहनाइयों की भीड़ से अपने नाना वाली शहनाई ढूँढ़ते और एक-एक शहनाई को फेंक कर खारिज करते जाते, सोचते ‘लगता है मीठी वाली शहनाई दादा कहीं और रखते हैं।’ जब मामू अलीबख्श खाँ (जो उस्ताद भी थे) शहनाई बजाते हुए सम पर आएँ, तब धड़ से एक पत्थर जमीन पर मारते थे। सम पर आने की तमीज उन्हें बचपन में ही आ गई थी, मगर बच्चे को यह नहीं मालूम था कि दाद वाह करके दी जाती है, सिर हिलाकर दी जाती है, पत्थर पटक कर नहीं। और बचपन के समय फिल्मों के बुखार के बारे में तो पूछना ही क्या ? उस समय थर्ड क्लास के लिए छह पैसे का टिकट मिलता था। कमरूद्दीन दो पैसे मामू से, दो पैसे मौसी से और दो पैसे नानी से लेता था फिर घंटों लाइन में लगकर टिकट हासिल करते थे । इधर सुलोचना की नई फिल्म सिनेमाहॉल में आई और उधर कमरूद्दीन अपनी कमाई लेकर चले फिल्म देखने जो बालाजी मंदिर’ पर रोज शहनाई बजाने से उन्हें मिलती थी । एक अठन्नी मेहनताना । उस पर यह शौक जबरदस्त कि सुलोचना की कोई नई फिल्म न छूटे और कुलसुम की देशी घी वाली दुकान । वहाँ की संगीतमय कचौड़ी । संगीतमय कचौड़ी इस तरह क्योंकि कुलसुम जब कलकलाते घी में कचौड़ी डालती थी, उस समय छन्न से उठने वाली खाली आवाज में उन्हें सारे आरोह-अवरोह दिख जाते थे। राम जाने, कितनों ने ऐसी कचौड़ी खाई होंगी। मगर इतना तय है कि अपने खाँ साहब रियाजी और स्वादी दोनों थे और इस बात में कोई शक नहीं कि दादा की मीठी शहनाई उनके हाथ लग चुकी थी। काशी में संगीत आयोजन की एक प्राचीन एवं अद्भुत परंपरा रही है। यह आयोजन पिछले कई दशकों से संकटमोचन मंदिर में होता आया है। यह मंदिर शहर के दक्षिण में लंका पर स्थित है व हनुमान जयंती के अवसर यहाँ पाँच दिनों तक शास्त्रीय एवं उपशास्त्रीय गायन-वादन की उत्कृष्ट सभा होती है। इसमें बिस्मिल्ला खाँ अवश्य रहते थे। अपने मजहब के प्रति अत्यधिक समर्पित उस्ताद बिस्मिल्ला खाँ की श्रद्धा काशी विश्वनाथ जी के प्रति भी अपार थी। वे जब भी काशी से बाहर रहते तब विश्वनाथ व बालाजी मंदिर की दिशा की ओर मुँह करके बैठते, थोड़ी देर ही सही, मगर उसी ओर शहनाई का प्याला घुमा दिया जाता और भीतर की आस्था रीड के माध्यम से बजती । खाँ साहब की एक रीड 15 से 20 मिनट के अंदर गीली हो जाती थी तब वे दूसरी रीड का इस्तेमाल कर लिया करते थे । अक्सर कहते ” क्या करें मियाँ, ई काशी छोड़कर कहाँ जाएँ, गंगा मइया यहाँ, बाबा विश्वनाथ यहाँ, बालाजी का मंदिर यहाँ, यहाँ हमारे खानदान की कई पुश्तों ने शहनाई बजाई है, हमारे नाना तो वहीं बालाजी मंदिर में बड़े प्रतिष्ठित शहनाईबाज रह चुके हैं। अब हम क्या करें, मरते दम तक न यह शहनाई छूटेगी न काशी। जिस जमीन ने हमें तालीम दी, जहाँ से अदब पाई, वो कहाँ और मिलेगी ? शहनाई और काशी से बढ़कर कोई जन्नत नहीं इस धरती पर हमारे लिए।” काशी संस्कृति की पाठशाला है। शास्त्रों में आनंदकानन के नाम से प्रतिष्ठित । काशी में कलाधर हनुमान व नृत्य-विश्वनाथ हैं। काशी में बिस्मिल्ला खाँ थे। काशी में हजारों सालों का इतिहास है जिसमें पंडित कंठे महाराज थे, विद्याधरी थे, बड़े रामदास जी थे, मौजद्दीन खाँ थे व इन रसिकों से उपकृत होने वाला अपार जन-समूह। यह एक अलग काशी है जिसकी अलग तहजीब है, अपनी बोली और अपने विशिष्ट लोग हैं। इनके अपने उत्सव हैं, अपना गम। अपना सेहरा-बन्ना और अपना नौहा। आप यहाँ संगीत को भक्ति से, भक्ति को किसी भी धर्म के कलाकार से, कजरी को चैती से, विश्वनाथ को विशालाक्षी से, बिस्मिल्ला खाँ को गंगाद्वार से अलग करके नहीं देख सकते । अक्सर समारोहों एवं उत्सवों में दुनिया कहती ये बिस्मिल्ला खाँ हैं। बिस्मिल्ला खाँ का मतलब-बिस्मिल्ला खाँ की शहनाई। शहनाई का तात्पर्य-बिस्मिल्ला खाँ का हाथ। हाथ से आशय इतना भर कि बिस्मिल्ला खाँ की फूंक और शहनाई की जादुई आवाज का असर हमारे सिर चढ़कर बोलने लगता । शहनाई में सरगम भरा है। खाँ साहब को ताल मालूम, राग मालूम । ऐसा नहीं कि बेताल जाएँगे । शहनाई में सात सुर लेकर निकल पड़े । शहनाई में परबरदिगार, गंगा मइया, उस्ताद की नसीहत लेकर उतर पड़े । दुनिया कहती-सुबहान अल्लाह, तिस पर बिस्मिल्ला खाँ कहते अलहमदुलिल्लाह । छोटी-छोटी उपज से मिलकर बड़ा आकार बनता है। शहनाई का करतब शुरू होने लगता । बिस्मिल्ला खाँ का संसार सुरीला होना शुरू हुआ। फूँक में अजान की तासीर उतरती चली गई। देखते-देखते शहनाई डेढ़ सतक के साज से दो सतक का साज बन, साजों की कतार में सरताज हो गई । कमरूद्दीन की शहनाई गूंज उठी। उस फकीर की दुआ लगी जिसने कमरूद्दीन से कहा था – “बजा, बजा ।” किसी दिन एक शिष्या ने डरते-डरते खाँ साहब को टोका, “बाबा! आप यह क्या करते हैं इतनी प्रतिष्ठा है आपकी । अब तो आपको ‘भारतरत्न’ भी मिल चुका है, यह फंटी तहमद न पहना करें । अच्छा नहीं लगता, जब भी कोई आता है आप इसी फटी तहमद में सबसे मिलते हैं। ” खाँ साहब मुस्कराए । लाड़ से भरकर बोले, ” धत् ! पगली ई भारतरत्न हमको शहनईया पे मिला है, लुंगिया पे नाहीं । तुम लोगों की तरह बनाव सिंगार देखते रहते तो उमर ही बीत जाती, हो चुकती शहनाई । त्तब क्या खाक रियाज हो पाता। ठीक है बिटिया, आगे से नहीं पहनेंगे, मगर इतना बताए देते हैं कि मालिक से यही दुआ है, फटा सूर न बख्शें। लुंगिया का क्या है, आज फटी हैं तो कल सिल जाएगी।” सन् 2000 की बात है। पक्का महाल (काशी विश्वनाथ से लगा हुआ इलांका) से मलाई जरफ़ बेचनेवाले जा चुके हैं। खाँ साहब को इसकी कमी खलती है। अब देशी घी में वह बात कहाँ और कहाँ वह कचौड़ी-जलेबी । खाँ साहब को बड़ी शिद्दत से कमी खलती है। अब संगतियों के लिए गायकों के मन में कोई आदर नहीं रहा । खाँ साहब अफसोस जताते हैं। अब घंटों रियाज को कौन पूछता है ? हैरान हैं बिस्मिल्ला खाँ। कहाँ वह कजली, चैती और अदब का जमाना ? सचमुच हैरान करती है काशी। पक्का महाल से जैसे मलाई बरफ गया, संगीत, साहित्य और अदब की बहुत • सारी पंरपराएँ लुप्त हो गईं। एक सच्चे सुर साधक और सामाजिक की भाँति बिस्मिल्ला खाँ साहब को इन सवकी कमी खलती थी। काशी में जिस तरह बाबा विश्वनाथ और बिस्मिल्ला खाँ एक-दूसरे के पूरक रहे, उसी तरह मुहर्रम-ताजिया और होली-अबीर, गुलाल की गंगा-जमुनी संस्कृति भी एक-दूसरे के पूरक रहे हैं। अभी जल्दी ही बहुत कुछ इतिहास बन चुका है। अभी आगे बहुत कुछ इतिहास बन जाएगा। फिर भी कुछ बचा है जो सिर्फ काशी में है। काशी आज भी संगीत के स्वर पर जगती और उसी की थापों पर सोती है। काशी में मरण भी मंगल माना गया है। काशी आनंदकानन है। सबसे बड़ी बात है कि कांशी के पास उस्ताद बिस्मिल्ला खाँ जैसा लय और सुर की तमीज सिखाने वाला नायाब हीरा रहा है जो हमेशा से दो कौमों को एक होने व आपस में भाईचारे के साथ रहने की प्रेरणा देता रहा । भारतरत्न से लेकर इस देश के ढेरों विश्वविद्यालयों की मानद उपाधियों से अलंकृत व संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार एवं पद्मविभूषण जैसे सम्मानों से नहीं, बल्कि अपनी अजेय संगीतयात्रा के लिए बिस्मिल्ला खाँ साहब भविष्यं में हमेशा संगीत के नायक बने रहेंगे । नब्बे वर्ष की भरी-पूरी आयु में 21 अगस्त 2006 को संगीत रसिकों की हार्दिक सभा से हमेशा के लिए विदा. हुए खाँ साहब की सबसे बड़ी देन यही है कि सारी उम्र उन्होंने संगीत को संपूर्णता व एकाधिकार से सीखने की जिजीविषा अपने भीतर जिंदा रखी ।

बोध और अभ्यास

पाठ के साथ

  1. डुमराँव की महत्ता किस कारण से है?

उत्तर- डुमराँव की महत्ता शहनाई के कारण है। प्रसिद्ध शहनाईवादक बिस्मिल्ला खाँ का जन्म डुमराँव में हुआ था। शहनाई बजाने के लिए जिस ‘रीड’ का प्रयोग होता है, जो एक विशेष प्रकार’ की घास ‘नरकट’ से बनाई जाती है, वह डुमराँव में सोन नदी के किनारे पाई जाती है।

  1. सुषिर वाद्य किन्हें कहते हैं। ‘शहनाई’ शब्द की व्युत्पत्ति किस प्रकार हुई है?

उत्तर- सुषिर वाद्य ऐसे वाद्य हैं, जिनमें नाड़ी (नरकट या रीड) होती है, जिन्हें फूंककर बजाया जाता है। ऐसे वाद्यों में शहनाई को शाह की उपाधि दी गई है, क्योंकि यह वाद्य मुरली, शृंगी जैसे अनेक वाद्यों से अधिक मोहक है। शहनाई की ध्वनि हमारे हृदय को स्पर्श करती है।

  1. बिस्मिल्ला खाँ सजदे में किस चीज के लिए गिड़‌गिड़ाते थे? इससे उनके व्यक्तित्व का कौन-सा पक्ष उद्घाटित होता है?

उत्तर- बिस्मिल्ला खाँ जब इबादत में खुदा के सामने झुकते तो सजदे में गिड़गिड़ाकर खुदा से सच्चे सुर का वरदान माँगते। इससे पता चलता है कि खाँ साहब धार्मिक, संवेदनशील एवं निरभिमानी थे। संगीत-साधना हेतु समर्पित थे। अत्यन्त विनम्र थे।

  1. मुहर्रम पर्व से बिस्मिल्ला खाँ के जुड़ाव का परिचय पाठ के आधार पर दें।

उत्तर- बिस्मिल्ला खाँ सच्चे और धार्मिक मुसलमान हैं। मुहर्रम में उनका जो रीति-रिवाज था उसे वे मानते हैं और व्यवहार में लाते हैं। बड़े कलाकार का सहज मानवीय रूप एस अब आसानी से दिख जाता है। मुहर्रम का महीना वह होता है जिसमें शिया मुसलमान हजरत इमाम हुसैन एवं उनके कुछ वंशजों के प्रति अजादारी मनाते हैं। पूरे दस दिनों का शोक आठवीं तारीख उनके लिए खास महत्त्व की है। इस दिन खाँ साहब खड़े होकर शहनाई बजाते हैं व दालमंडी में फातमान के करीब आठ किलोमीटर की दूरी तक पैदल रोते हुए, नौहा बजाते जाते हैं। इस दिन कोई राग नहीं बजता। राग-रागनियों की अदायगी का निषेध है इस दिन।

  1. ‘संगीतमय कचौड़ी’ का आप क्या अर्थ समझते हैं?

उत्तर- संगीतमय कचौड़ी इस तरह क्योंकि जुलसुम जब कलकलाते घी में कचौड़ी डालती थी, उस समय छन्न से उठने वाली खाली आवाज में इन्हें सारे आरोह-अवरोह दिख जाते थे। कहने का तात्पर्य यह है कि कचौड़ी खाते वक्त भी खाँ साहब का मान संगीत के राग में ही रमा रहता था। इसीलिए उन्हें कचौड़ी भी संगीत मय लग रहा था।

  1. बिस्मिल्ला खाँ जब काशी से बाहर प्रदर्शन करते थे तो क्या करते थे? इससे हमें क्या सीख मिलती है?

उत्तर- बिस्मिल्ला खाँ जब कभी काशी से बाहर होते तब भी काशी विश्वनाथ को नहीं भूलते। काशी से बाहर रहने पर वे उस दिशा में मुंह करके थोड़ी देर तक शहनाई अवश्य बजाते थे। वे विश्वनाथ मंदिर की दिशा में मुंह करके बैठते और विश्वनाथ के प्रति उनकी श्रद्धा एवं आस्था.. शहनाई के सुरों में अभिव्यक्त होती थी। एक मुसलमान होते हुए भी बिस्मिल्ला खाँ काशी… विश्वनाथ के प्रति अपार श्रद्धा रखते थे। इससे हमें धार्मिक दृष्टि से उदारता एवं समन्वयता की सीख मिलती है। हमें धर्म को लेकर किसी प्रकार का भेद-भाव नहीं रखना चाहिए।

  1. ‘बिस्मिल्ला खाँ का मतलब बिस्मिल्ला खाँ की शहनाई।’ एक कलाकार के रूप में बिस्मिल्ला खाँ का परिचय पाठ के आधार पर दें।

उत्तर- बिस्मिल्ला खाँ एक उत्कृष्ट कलाकार थे। शहनाई के माध्यम से उन्होंने संगीत-साधना को ही अपना जीवन मान लिये थे। शहनाईवादक के रूप में वे अद्वितीय पहचान बना लिये थे। बिस्मिल्ला खाँ का मतलब है-बिस्मिल्ला खाँ की शहनाई। शहनाई का तात्पर्य बिस्मिल्ला खाँ का हाथा हाथ से आशय इतना भर कि बिस्मिल्ला खाँ की फूंक और शहनाई की जादुई आवाज का असर हमारे सिर चढ़कर बोलने लगता है। शेर खाँ साहब की शहनाई से सात सुर ताल के साथ निकल पड़ते थे। इनका संसार सुरीला था। इनके शहनाई में परवरदिगार, गंगा मइया, उस्ताद की नसीहत उतर पड़ती थी। खाँ साहब और शहनाई एक-दूसरे के पर्याय बनकर संसार के सामने उभरे।

  1. आशय स्पष्ट करें

(क) फटा सुर न बख्शें। लुगिया का क्या है, आज फटी है, तो कल सिल जाएगी ।

व्याख्या- जब एक शिष्या ने डरते-डरते बिस्मिल्ला खाँ से पूछा कि बाबा, आप फटी तहमद क्यों पहनते हैं? आपको तो भारतरत्न मिल चुका है। अब आप ऐसा न करें। यह अच्छा नहीं लगता है जब भी कोई आपसे मिलने आता है तो आप इसी दशा में सहज, सरल भाव से मिलते हैं। इस प्रश्न को सुनकर सहज भाव से खाँ साहब ने शिष्या को कहा-अरे पगली भारतरत्न तो शहनाईवादन पर मिला है न। इस लुंगी पर नहीं न मिला है। अगर तुमलोगों की तरह बनावट श्रृंगार में मैं लग जाता तो मेरी उमर ही बीत जाती और मैं यहाँ तक नहीं पहुँचता। तब मैं रियाज खाक करता। मैं तुम्हारी बात से सहमत हूँ अब आगे से फटी हुई तहमद नहीं पहनूंगा लेकिन इतना बता देता हूँ कि मालिक यही दुआ दे यानी भगवान यही कृपा रखें कि फटा हुआ सूर नहीं दें। सूर में लय दें और कोमलता दें। फटी लुगी तो मैं सिलवा लूंगा लेकिन फटा हुआ राग या सूर लेकर क्या करूँगा। अतः, ईश्वर रहम करे और सूर की कोमलता बचाये रखे।

(ख) काशी संस्कृति की पाठशाला है।

व्याख्या- काशी संस्कृति की पाठशाला है शास्त्रों में इसकी महत्ता का वर्णन है। इसे आनंद कानन से जाना जाता है। काशी में कलाधर हनुमान व नृत्व विश्वनाथ हैं। काशी में बिस्मिल्ला खाँ हैं। काशी में हजारों साल का इतिहास है। यहाँ कई महाराज हैं। विद्याधारी हैं। बड़े रामदास जी हैं। मौजुद्दीन खाँ हैं। इन रसिकों से उत्कृष्ट होनेवाला अपार-जन समूह है। यह एक अलग काशी है जिसकी अलग तहजीब है, अपनी बोली और अपने विशिष्ट लोग हैं। इनके अपने उत्सव हैं। अपना गम है। अपना सेहरा-बन्ना और अपना नौहा है। यहाँ संगीत को भक्ति से, भक्ति को धर्म से किसी धर्म के कलाकार से, कजरी को चैती से विश्वनाथ को विशालक्षी से, बिस्मिल्ला खाँ को गंगा द्वार से अलग करके नहीं देखा जा सकता।

  1. बिस्मिल्ला खाँ के बचपन का वर्णन पाठ के आधार पर दें।

उत्तर- अमीरुद्दीन यानी उस्ताद बिस्मिल्ला खाँ का जन्म डुमराँव, बिहार के एक संगीत-प्रेमी परिवार में हुआ था। पाँच-छः वर्ष की उम्र में ही वह अपने ननिहाल काशी चले गए। डुमराँव की इतमी ही महत्ता है कि शहनाई की रीड बनाने में काम आने वाली नरकट वहाँ सोन नदी के किनारे पाई जाती हैं। बिस्मिल्ला खाँ के परदादा उस्ताद सलार हुसैन खाँ डुमराँव निवासी थे। बिस्मिल्ला खाँ उस्ताद पैगंबर बख्श खाँ और मिट्ठन के छोटे साहबजादे हैं। चार साल की उम्र में ही नाना की शहनाई को सुनते और शहनाई को ढूंढते थे। उन्हें अपने मामा का सान्निध्य भी बचपन में शहनाईवादन की कौशल विकास में लाभान्वित किया। 14 साल की उम्र में वे बालाजी के मंदिर में रियाज करने के क्रम में संगीत साधनारत हुए और आगे चलकर महान कलाकार हुए।

भाषा की बात
  1. रचना के आधार पर निम्नलिखित वाक्यों की प्रकृति बताएँ –

(क) काशी संस्कृति की पाठशाला है ।

उत्तर- सरल वाक्य

मिश्रवाक्य

(ख)शहनाई और डुमराँव एक-दूसरे के लिए उपयोगी हैं।

उत्तर- संयुक्त वाक्य

(ग) एक बड़े कलाकार का सहज मानवीय रूप ऐसे अवरारों पर आसानी से दिख जाता है।

उत्तर- मिश्रवाक्य

(घ) उनको यकीन है, कभी खुदा यूँ ही उन पर मेहरबान होगा ।

 उत्तर- मिश्रवाक्य

(ङ) धत् । पगली ई भारतरत्न हमको शहनईया पे मिला है, लुगिया पे नाहीं ।

उत्तर- मिश्रवाक्य

निम्नलिखित वाक्यों से विशेषण छाँटिए

2.(क) इसी बालसुलभ हँसी में कई यादें बंद हैं।

उत्तर- कई, बालसुलभ ।

(ख) अब तो आपको भारतरत्न भी मिल चुका है, यह फटी तहमद न पहना करें ।

उत्तर- फटी, भारतरत्न ।

(ग) शहनाई और काशी से बढ़कर कोई जन्नत नहीं इस धरती पर हमारे लिए ।

उत्तर- कोई।

(घ) कैसे सुलोचना उनकी पसंदीदा हीरोइन रही थीं, बड़ी रहस्यमय मुस्कराहट के साथ गालों पर चमक आ जाती है।

उत्तर- कोई।

शब्द निधि :

ड्योढ़ी : दहलीज

नौबतखाना : प्रवेश द्वार के ऊपर मंगल ध्वनि बजाने का स्थान :

रियाज : अभ्यास

मार्फत : द्वारा

श्रृंगी : सींग का बना वाद्ययंत्र

मुरछंग : एक प्रकार का लोक वाद्ययंत्र

नेमत : ईश्वर की देन, वरदान, कृपा

सज़दा : माथा टेकना

इबादत : उपासना

तासीर : गुण, प्रभाव, असर

श्रुति : शब्द-ध्वनि

ऊहापोह : उलझन, अनिश्चितता

तिलिस्म : जादू

गमक: खुशबू, सुगंध

अजादारी : मातम करना, दुख मनाना

बदस्तूर : कायदे से, तरीके से

नैसर्गिक : स्वाभाविक, प्राकृतिक

दाद : शाबाशी, प्रशंसा, वाहवाही

तालीम : शिक्षा

अदब : कायदा, साहित्य

अलहमदुलिल्लाह : तमाम तारीफ ईश्वर के लिए

जिजीविषा : जीने की इच्छा

शिरकत: शामिल होना

वाजिब: सही, उपयुक्त

मतलय: अर्थ

लिहाज : शिष्टाचार, छोटे-बड़े के प्रति उचित भाव

गोया : जैसे कि, मानो कि

रोजनामचा : दैनंदिन, दिनचर्या

विग्रह : मूर्ति

कछार : नदी का किनारा

उकेरी : चित्रित करना, उभारना

संपूरक : पूरा करने वाला, पूर्ण करने वाला

मुराद : आकांक्षा, अभिलाषा

दुश्चिंता : बुरी चिंता

बरतना : बर्ताव करना, व्यवहार करना

सलीका : शिष्ट तरीका

गमजदा : गम में डूबा

सुकून : शांति, आराम

जुनून : उन्माद, सनक

खारिज : अस्वीकार करना

आरोह : चढ़ाव

अवरोह: उतार

आनंदकानन : ऐसा बागीचा जिसमें आठों पहर आनन्द रहे

उपकृत : उपकार करना, कृतार्थ करना

तहजीब : संस्कृति, सभ्यता

सेहरा-बन्ना : सेहरा बाँधना, श्रेय देना

नौहा : शहनाई

सरगम :संगीत के सात स्वरं (सा रे ग म प ध नी)

नसीहत : शिक्षा, उपदेश, सीख

तहमद : लुंगी, अधोवस्त्र

शिद्दत : असरदार तरीके से, जोर के साथ

सामाजिक : सुसंस्कृत

नायाब: अद्भुत, अनुपम

जिजीविषा: जीने की लालसा

 

Bihar Board (बिहार बोर्ड) Solution of Class-10 Hindi (हिन्दी) Gadya Chapter-12 Shiksha Aur Sanskriti (शिक्षा और संस्कृति) गोधूलि

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