Bihar Board (बिहार बोर्ड) Solution of Class-10 Hindi Gadya Chapter-12 Shiksha Aur Sanskriti (शिक्षा और संस्कृति) महात्मा गाँधी
Dear Students! यहां पर हम आपको बिहार बोर्ड कक्षा 10वी के लिए हिन्दी गोधूलि भाग-2 का पाठ-12 शिक्षा और संस्कृति महात्मा गाँधी Bihar Board (बिहार बोर्ड) Solution of Class-10 Hindi (हिन्दी) Gadya Chapter-12 Shiksha Aur Sanskriti संपूर्ण पाठ हल के साथ प्रदान कर रहे हैं। आशा करते हैं कि पोस्ट आपको पसंद आयेगी और आप इसे अपने दोस्तों में शेयर जरुर करेंगे।
Chapter Name | |
Chapter Number | Chapter- 12 |
Board Name | Bihar Board (B.S.E.B.) |
Topic Name | संपूर्ण पाठ |
Part |
भाग-2 Gadya Khand (गद्य खंड ) |
Shiksha Aur Sanskriti (शिक्षा और संस्कृति)
महात्मा गाँधी
राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी का जन्म 2 अक्टूबर 1869 ई० में पोरबंदर, गुजरात में हुआ था। उनके पिता का नाम करमचंद गाँधी और माता का नाम पुतलीबाई था। उनकी प्रारंभिक शिक्षा पोरबंदर और उसके आस-पास हुई। 4 दिसंबर 1888 ई० में वे वकालत की पढ़ाई *के लिए यूनिवर्सिटी कॉलेज, लंदन यूनिवर्सिटी, लंदन गए । 1883 ई०में कम उम्र में ही उनका विवाह कस्तूरबा से हुआ जो स्वाधीनता संग्राम में उनके साथ कदम-से-कदम मिलाकर चलीं । गाँधीजी के जीवन में दक्षिण अफ्रीका (1893-1914 ई०) के प्रवास का ऐतिहासिक महत्त्व है। वहीं उन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ अहिंसा का पहला प्रयोग किया । 1915 ई० में गाँधीजी भारत लौट आए और स्वाधीनता संग्राम में कूद पड़े। आजादी की लड़ाई में उन्होंने सत्य के प्रयोग किए। अहिंसा और सत्याग्रह उनका सबसे बड़ा हथियार था। उन्होंने स्वराज की माँग की, अछूतोद्धार का काम किया, सर्वोदय का कार्यक्रम चलाया, स्वदेशी का नारा दिया, समाज में व्याप्त ऊँच-नीच, जाति-धर्म के विभेदक भाव को मिटाने की कोशिश की और अंततः अंग्रेजों की गुलामी से भारत को आजादी दिलाई । गाँधीजी को रवींद्रनाथंठाकुर ने ‘महात्मा’ कहा। उन्हें ‘बापू’, ‘राष्ट्रपिता’ आदि कहकर कृतज्ञ राष्ट्र याद करता है। गाँधीजी ने ‘हिंद स्वराज’, ‘सत्य के साथ मेरे प्रयोग’ आदि पुस्तकें लिखीं। उन्होंने ‘हरिजन’, ‘यंग इंडिया’ आदि पत्रिकाएँ भी संपादित कीं। उनका पूरा जीवन राष्ट्र के प्रति समर्पित था। उन्होंने शिक्षा, संस्कृति, राजनीति तथा सामाजिक एवं आर्थिक पक्षों पर खूब लिखा और उनके प्रयोग के द्वारा भारतवर्ष को फिर से एक उन्नत एवं गौरवशाली राष्ट्र बनाने की कोशिश की। 30 जनवरी 1948 ई० में नई दिल्ली में एक सिरफिरे ने उनकी हत्या कर दी। गाँधीजी की स्मृति में पूरा राष्ट्र 2 अक्टूबर को उनकी जयंती मनाता है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उनके जन्म दिवस को ‘अहिंसा दिवस’ के रूप में मनाया जाता है। शिक्षा और संस्कृति जैसे विषय पर यहाँ ‘हरिजन’, ‘यंग इंडिया’ जैसे ऐतिहासिक पत्रों के अग्रलेखों से संकलित-संपादित राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी के विचार प्रस्तुत हैं। इस पाठ में उनके क्रांतिकारी शिक्षा दर्शन. के अनुरूप वास्तविक जीवन में उपयोगी, व्यावहारिक दृष्टिकोण और विचार हैं जिनके बल पर आत्मा, बुद्धि, मानस एवं शरीर के संतुलित परिष्कार के साथ मनुष्य के नैतिक विकास के लिए जरूरी प्रेरणाएँ हैं । गाँधीजी की शिक्षा और संस्कृति की परिकल्पना निरी सैद्धांतिक नहीं है, वह जटिल और पुस्तकीय भी नहीं है, बल्कि हमारे साधारण दैनंदिन जीवन-व्यवहार से गहरे अर्थों में जुड़ी हुई है।
शिक्षा और संस्कृति
अहिंसक प्रतिरोध सबसे उदात्त और बढ़िया शिक्षा है। वह बच्चों को मिलनेवाली साधारण अक्षर-ज्ञान की शिक्षा के बाद नहीं, पहले होनी चाहिए। इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि बच्चे को, वह वर्णमाला लिखे और सांसारिक ज्ञान प्राप्त करे उसके पहले यह जानना चाहिए कि आत्मा क्या है, सत्य क्या है, प्रेम क्या है और आत्मा में दया-क्या शक्तियाँ छुपी हुई हैं। शिक्षा का जरूरी अंग यह होना चाहिए कि बालक जीवन-संग्राम में प्रेम से घृणा को, सत्य से असत्य को और कष्ट-सहन से हिंसा को आसानी के साथ जीतना सीखें। इस सत्य का ‘बल अनुभव करने के कारण ही मैंने सत्याग्रह-संग्राम के उत्तरार्ध में पहले टॉल्सटाय फार्म में और बाद में फिनिक्स आश्रम में बच्चों को इसी ढंग की तालीम देने की भरसक कोशिश की थी।
मेरी राय में बुद्धि की सच्ची शिक्षा शरीर की स्थूल इन्द्रियों अर्थात हाथ, पैर, आँख, कान, नाक वगैरह के ठीक-ठीक उपयोग और तालीम के द्वारा ही हो सकती है। दूसरे शब्दों में, बच्चे द्वारा इन्द्रियों का बुद्धिपूर्वक उपयोग उसकी बुद्धि के विकास का जल्द-से-जल्द और उत्तम तरीका है। परन्तु शरीर और मस्तिष्क के विकास के साथ आत्मा की जागृति भी उतनी ही नहीं होगी, तो केवल बुद्धि का विकास घटिया और एकांगी वस्तु ही साबित होगा। आध्यात्मिक शिक्षा से मेरा मतलब हृदय की शिक्षा है। इसलिए मस्तिष्क का ठीक-ठीक और सर्वांगीण विकास तभी हो सकता है, जब साथ-साथ बच्चे की शारीरिक और आध्यात्मिक शक्तियों की भी शिक्षा होती रहे । ये सब बातें अविभाज्य हैं। इसलिए इस सिद्धांत के अनुसार यह मान लेना कुतर्क होगा कि उनका विकास अलग-अलग या एक-दूसरे से स्वतंत्र रूप में किया जा सकता है ।
शिक्षा से मेरा अभिप्राय यह है कि बच्चे और मनुष्य के शरीर, बुद्धि और आत्मा के सभी उत्तम गुणों को प्रगट किया जाए । पढ़ना-लिखना शिक्षा का अन्त तो है ही नहीं; वह आदि भी नहीं है। वह पुरुष और स्त्री को शिक्षा देने के साधनों में केवल एक साधन है । साक्षरता स्वयं कोई शिक्षा नहीं है। इसलिए तो मैं बच्चे की शिक्षा का प्रारंभ इस तरह करूंगा कि उसे कोई • उपयोगी दस्तकारी सिखाई जाए और जिस क्षण से वह अपनी तालीम शुरू करे उसी क्षण उसे उत्पादन का काम करने योग्य बना दिया जाए।
मेरे ‘भतानुसार इस प्रकार की शिक्षा पद्धति में मस्तिष्क और आत्मा का उच्चतम विकास संभव है। इतनी ही बात है कि आजकल की तरह प्रत्येक दस्तकारी केवल यांत्रिक ढंग से न सिखाकर वैज्ञानिक ढंग से सिखानी पड़ेगी। अर्थात बच्चे को प्रत्येक प्रक्रिया का कारण जानना चाहिए । मैं चाहता हूँ कि सारी शिक्षा किसी दस्तकारी या उद्योगों के द्वारा दी जाए ।
आपको यह ध्यान में रखना चाहिए कि प्रारंभिक शिक्षा में सफाई, तन्दुरुस्ती, भोजनशास्त्र, अपना काम आप करने और घर पर माता-पिता को मदद देने वगैरह के मूल सिद्धान्त शामिल हों। मौजूदा पीढ़ी के लड़कों को स्वच्छता और स्वावलंबन का कोई ज्ञान नहीं होता और वे शरीर से कमजोर होते हैं। इसलिए मैं संगीतमय कवायद के जरिए उनको अनिवार्य शारीरिक तालीम दिलवाऊँगा ।
इस प्रकार कताई और धुनाई जैसे ग्रामोद्योगों द्वारा प्राथमिक शिक्षा देने की मेरी योजना में कल्पना यह है कि यह एक ऐसी शान्त सामाजिक क्रान्ति की अग्रदूत बने, जिसमें अत्यंत दूरगामी परिणाम भरे हुए हैं। इससे नगर और ग्राम के संबंधों का एक स्वास्थ्यप्रद और नैतिक आधार प्राप्त होगा और समाज की मौजूदा आरक्षित अवस्था और वर्गों के परस्पर विषाक्त संबंधों की कुछ बड़ी से बड़ी बुराइयों को दूर करने में बहुत सहायता मिलेगी । इससे हमारे देहातों का दिन-दिन बढ़नेवाला हास रुक जाएगा और एक दिन ऐसी अधिक न्यायपूर्ण व्यवस्था की बुनियाद पड़ेगी जिसमें गरीब-अमीर का अप्राकृतिक भेद न हो और हर एक के लिए गुजर के लायक कमाई और स्वतंत्रता के अधिकार का आश्वासन हो। और यह सब किसी भयंकर और रक्तरंजित वर्गयुद्ध अथवा बहुत भारी पूँजी के व्यय के बिना भी हो जाएगा। भारत जैसे विशाल देश का यंत्रीकरण किया गया तो इन दोनों बातों में से एक तो जरूर होगी। मेरी योजना में विदेशों से मँगाई हुई मशीनरी या वैज्ञानिक और यांत्रिक दक्षता पर भी लाचार होकर निर्भर करने की जरूरत नहीं पड़ेगी। आखिरी बात यह है कि बड़े-बड़े विशेषज्ञों की बुद्धि की जरूरत न होने के कारण एक तरह से जनसाधारण के भाग्य का निपटारा स्वयं उन्हीं के हाथ में रहेगा ।
जब भारत को स्वराज्य मिल जाएगा तब शिक्षा का क्या ध्येय होगा ? चरित्र निर्माण । मैं साहस, बल, सदाचार और बड़े लक्ष्य के लिए काम करने में आत्मोत्सर्ग की शक्ति का विकास काने की कोशिश करूँगा। यह साक्षरता से ज्यादा महत्त्वपूर्ण है; किताबी ज्ञान तो उस बड़े उद्देश्य का एक साधनमात्र है ।
मेरा ख्याल है कि अगर व्यक्ति का चरित्र-निर्माण करने में हम सफल हो जाएँगे तो समाज अपना काम आप सँभाल लेगा। इस प्रकार जिन व्यक्तियों का विकास हो जाएगा, उनके हाथों में समाज के संगठन का काम मैं खुशी से सौंप दूँगा ।
मैं चाहता हूँ कि उस भाषा (अंग्रेजी) में और इसी तरह संसार की अन्य भाषाओं में जो ज्ञान-भंडार भरा पड़ा है, उसे राष्ट्र अपनी ही देशी भाषाओं के द्वारा प्राप्त करे । मुझे रवीन्द्रनाथ की अपूर्व रचनाओं की खूबियाँ जानने के लिए बाँग्ला सीखने की जरूरत नहीं। वे मुझे अच्छे अनुवादों से मिल जाती हैं। गुजराती लड़कों और लड़कियों को टॉल्सटाय की छोटी-छोटी कहानियों • से लाभ उठाने के लिए रूसी भाषा सीखने की आवश्यकता नहीं। वे तो उन्हें अच्छे अनुवादों के जरिये सीख लेते हैं । अंग्रेजों को यह गर्व है कि संसार में जो उत्तम साहित्य उत्पन्न होता है, वह प्रकाशित होने के एक सप्ताह के भीतर सीधी-सादी अंग्रेजी में उस राष्ट्र के हाथों में आ जाता है। शेक्सपीयर और मिल्टन ने जो कुछ सोचा या लिखा है, उसके उत्तम भाग को प्राप्त करने के लिए • मुझे अंग्रेजी सीखने की जरूरत क्यों हो ?
यह अच्छी मितव्ययिता होगी यदि हम विद्यार्थियों का एक अलग वर्ग ऐसा रख दें, जिसका • काम यह हो कि संसार की भिन्न-भिन्न भाषाओं में से सीखने की उत्तम बातें वह जान ले और उनके अनुवाद देशी भाषाओं में करके देता रहे ।
यह बात मेरे विचार में भी नहीं आ सकती कि हम कूपमंडूक बन जायें या अपने चारों और दीवारें खड़ी कर लें । मगरं मेरा नम्रतापूर्वक यह कथन जरूर है कि दूसरी संस्कृतियों की समझ और कद्र स्वयं अपनी संस्कृति की कद्र होने और उसे हजम कर लेने के बाद होनी चाहिए, पहले हरगिज नहीं । मेरा दृढ़ मत है कि कोई संस्कृति इतने रत्न-भण्डार से भरी हुई नहीं है जितनी हमारी अपनी संस्कृति है। हमने उसे जाना नहीं है। हमें तो उसके अध्ययन को तुच्छ मामना और उसका मूल्य कम करना सिखाया गया है। हमने उसके अनुसार जीवन बिताना छोड़ दिया है । उसका ज्ञान हो, मगर उस पर अमल न किया जाये तो वह मसाले में रखी हुई लाश जैसी है, जो शायद दिखने में सुन्दर हो, परन्तु उससे कोई प्रेरणा या पवित्रता प्राप्त नहीं होती। मेरा धर्म जहाँ यह आग्रह रखता है कि स्वयं अपनी संस्कृति को हृदयांकित करके उसके अनुसार आचरण किया जाए – क्योंकि वैसा न किया जाए तो उसका परिणाम सामाजिक आत्महत्या होगा वहाँ वह दूसरी संस्कृतियों को तुच्छ समझने या उनकी उपेक्षा करने का निषेध भी करता है ।
कोई संस्कृति जिन्दा नहीं रह सकती, अगर वह दूसरों का बहिष्कार करने की कोशिश करती है। इस समय भारत में शुद्ध आर्य संस्कृति जैसी कोई चीज मौजूद नहीं है। आर्य लोग भारत के ही रहनेवाले थे या जबरन यहाँ आ घुसे थे, इसमें मुझे बहुत दिलचस्पी नहीं है। मुझे जिस बात में दिलचस्पी है वह यह है कि मेरे पूर्वज एक-दूसरे के साथ बड़ी आजादी के साथ मिल गये और मौजूदा पीढ़ीवाले हम लोग उस मिलावट की ही उपज हैं।
मैं नहीं चाहता कि मेरे घर के चारों ओर दीवारें खड़ी कर दी जायें और मेरी खिड़कियाँ बन्द कर दी जायें। मैं चाहता हूँ कि सब देशों की संस्कृतियों की हवा मेरे घर के चारों ओर अधिक-से-अधिक स्वतंत्रता के साथ बहती रहे। मगर मैं उनमें से किसी के झोंके में उड़ नहीं जाऊँगा। मैं चाहूँगा कि साहित्य में रुचि रखनेवाले हमारे युवा स्त्री-पुरुष जितना चाहे अंग्रेजी और संसार की दूसरी भाषाएँ सीखें और फिर उनसे यह आशा रखूँगा कि वे अपनी विद्वत्ता का लाभ भारत और संसार को उसी तरह दें जैसे बोस, राय या स्वयं कविवर दे रहे हैं। लेकिन मैं यह नहीं चाहूँगा कि एक भी भारतवासी अपनी मातृभाषा को भूल जाए, उसकी उपेक्षा करे, उस पर शर्मिन्दा हो या यह अनुभव करे कि वह अपनी खुद की देशी भाषा में विचार नहीं कर सकता या अपने उत्तम विचार प्रकट नहीं कर सकता। मेरा धर्म कैदखाने का धर्म नहीं है।
भारतीय संस्कृति उन भिन्न-भिन्न संस्कृतियों के सामंजस्य की प्रतीक है जिनके हिन्दुस्तान में पैर जम गए हैं, जिनका भारतीय जीवन पर प्रभाव पड़ चुका है और जो स्वयं भी भारतीय जीवन से प्रभावित हुई हैं। यह सामंजस्य कुदरती तौर पर स्वदेशी ढंग का होगा, जिसमें प्रत्येक संस्कृति के लिए अपना उचित स्थान सुरक्षित होगा। वह अमरीकी ढंग का सामंजस्य नहीं होगा, जिसमें एक प्रमुख संस्कृति बाकी संस्कृतियों को हजम कर लेती है और जिसका लक्ष्य मेल की तरफ नहीं है, बल्कि कृत्रिम और जबरदस्ती की एकता की ओर है।
बोध और अभ्यास
पाठ के साथ
- गाँधीजी बढ़िया शिक्षा किसे कहते हैं?
उत्तर-अहिंसक प्रतिरोध सबसे उद्धत और बढ़िया शिक्षा है। वह बच्चों को मिलनेवाली साधारण अक्षर ज्ञान की शिक्षा के बाद नहीं, पहले होनी चाहिए। इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि बच्चे को, वह वर्णमाला लिखे और सांसारिक ज्ञान प्राप्त करे उसके पहले यह जानना चाहिए कि आत्मा क्या है सत्य क्या है, प्रेम क्या है और आत्मा में क्या-क्या शक्तियाँ छुपी हुई हैं। शिक्षा का ज़रूरी अंग यह होना चाहिए कि बालक जीवन-संग्राम में प्रेम से घृणा को, सत्य से असत्य को कष्ट-सहन से हिंसा को आसानी के साथ जीतना सीखें।
- इंद्रियों का बुद्धिपूर्वक उपयोग सीखना क्यों जरूरी है?
उत्तर- इन्द्रियों का बुद्धिपूर्वक उपयोग उसकी बुद्धि के विकास का जल्द-से-जल्द और उत्तम तरीका है। परन्तु शरीर और मस्तिष्क के विकास के साथ आत्मा की जागृति भी उतनी ही नहीं होगी, तो केवल बुद्धि का विकास घटिया और एकांगी वस्तु ही साबित होगा। आध्यात्मिक शिक्षा से मेरा मतलब हृदय की शिक्षा है। इसलिए मस्तिष्क का ठीक-ठीक और सर्वांगीण विकास तभी हो सकता है, जब साथ-साथ बच्चे की शारीरिक और आध्यात्मिक शक्तियों की भी शिक्षा होती रहे।
- शिक्षा का अभिप्राय गाँधीजी क्या मानते हैं?
उत्तर- शिक्षा का मेरा अभिप्राय यह है कि बच्चे और मनुष्य के शरीर, बुद्धि और आत्मा के सभी उत्तम गुणों को प्रकट किया जाए। पढ़ना-लिखना तो शिक्षा का अन्त है ही नहीं; वह आदि भी नहीं है। वह पुरुष और स्त्री को शिक्षा देने के साधनों में केवल एक साधन है। साक्षरता स्वयं कोई शिक्षा नहीं है। इसलिए तो मैं बच्चे की शिक्षा का प्रारंभ इस तरह करूँगा कि उसे कोई उपयोगी दस्तकारी सिखाई जाए और जिस क्षण से वह अपनी तालीम शुरू करे उसी क्षण उसे उत्पादन का काम करने योग्य बना दिया जाए।
- मस्तिष्क और आत्मा का उच्चतम विकास कैसे संभव है?
उत्तर- इस प्रकार की शिक्षा पद्धति में मस्तिष्क और आत्मा का उच्चतम विकास संभव है। इतनी ही बात है कि आजकल की तरह प्रत्येक दस्तकारी केवल यांत्रिक ढंग से न सिखाकर वैज्ञानिक ढंग से सिखानी पड़ेगी। अर्थात् बच्चे की प्रत्येक प्रक्रिया का कारण जानना चाहिए। मैं चाहता हूँ कि सारी शिक्षा किसी दस्तकारी या उद्योगों के द्वारा दी जाय। आपको यह ध्यान में रखना चाहिए कि प्रारंभिक शिक्षा में सफाई, तन्दुरुस्ती, भोजनशास्त्र, अपना काम आप करने और घर पर माता-पिता को मदद देने वगैरह के मूल सिद्धान्त शामिल हों। मौजूदा पीढ़ी के लड़कों को स्वच्छता और स्वावलंबन का कोई ज्ञान नहीं होता और वै शरीर से कमजोर होते हैं। इसलिए मैं संगीतमय कवायद के जरिए उनको अनिवार्य शारीरिक तालीम दिलवाऊंगा।
- गाँधीजी कताई और धुनाई जैसे ग्रामोद्योगों द्वारा सामाजिक क्रांति कैसे संभव मानते थे?
उत्तर- कताई और धुनाई जैसे ग्रामोद्योगों के संबंध में गाँधीजी की कल्पना थी कि यह एक ऐसी शांत सामाजिक क्रांति की अग्रदूत बने जिसमें अत्यंत दूरगामी परिणाम भरे हुए हैं। इससे नगर और ग्राम के संबंधों का एक स्वास्थ्यप्रद और नैतिक आधार प्राप्त होगा और समाज की मौजूदा आरक्षित अवस्था और वर्गों के परस्पर विषाक्त संबंधों की कुछ बड़ी-से-बड़ी बुराइयों को दूर करने में बहुत सहायता मिलेगी। इससे ग्रामीण जन-जीवन विकसित होगा और गरीब-अमीर का अप्राकृतिक भेदें नहीं होगा।
- शिक्षा का ध्येय गाँधीजी क्या मानते थे और क्यों?
उत्तर- शिक्षा का ध्येय गाँधीजी चरित्र-निर्माण करना मानते थे। उनके विचार से शिक्षा के माध्यम से मनुष्य में साहस, बल, सदाचार जैसे गुणों का विकास होना चाहिए, क्योंकि चरित्र-निर्माण होने से सामाजिक उत्थान स्वयं होगा। साहसी और सदाचारी व्यक्ति के हाथों में समाज के संगठन का काम आसानी से सौंपा जा सकता है।
- गाँधीज़ी देशी भाषाओं में बड़े पैमाने पर अनुवाद कार्य क्यों आवश्यक मानते थे?
उत्तर-गाँधीजी का मानना था कि देशी भाषाओं में अनुवाद के माध्यम से किसी भी भाषा के विचारों को ज्ञान को आसानी से ग्रहण किया जा सकता है। अंग्रेजी या संसार के अन्य भाषाओं में जो ज्ञान-भंडार पड़ा है, उसे अपनी ही मातृभाषा के द्वारा प्राप्त करना सरल है। सभी भाषाओं से ग्राह्य ज्ञान के लिए अनुवाद की कला परमावश्यक है। अतः इसकी आवश्यकता बड़े पैमाने है।
- दूसरी संस्कृति से पहले अपनी संस्कृति की गहरी समझ क्यों जरूरी ह?
उत्तर- दूसरी संस्कृतियों की समझ और कद्र स्वयं अपनी संस्कृति की कद्र होने और उसे हजम कर लेने के बाद होनी चाहिए, पहले हरगिज नहीं। कोई संस्कृति इतने रत्न-भण्डार से भरी हुई नहीं है जितनी हमारी अपनी संस्कृति है। सर्वप्रथम हमें अपनी संस्कृति को जानकर उसमें निहित बातों को अपनाना होगा। इससे चरित्र-निर्माण होगा जो संसार के अन्य संस्कृति से कुछ सीखने की क्षमता प्रदान करेगा। अपनी संस्कृति संसार से कुछ ग्रहण करने का मूलाधार है। अतः इससे पहले और अन्य संस्कृतियों से बाद में जुड़ना चाहिए।
- अपनी संस्कृति और मातृभाषा की बुनियाद पर दूसरी संस्कृतियों और भाषाओं से सम्पर्क क्यों बनाया जाना चाहिए? गाँधीजी की राय स्पष्ट कीजिए ।
उत्तर- गाँधीजी के विचारानुसार हमें अपनी संस्कृति और मातृभाषा का महत्त्व अवश्य देना चाहिए। अपनी मातृभाषा का माध्यम बनाकर हम अत्यधिक विकास कर सकते हैं। अपनी संस्कृति के माध्यम से जीवन में तेज गति से उत्थान किया जा सकता है। लेकिन हम कूपमंडूक नहीं बनें। दूसरी संस्कृति की अच्छी बातों को अपनाने में परहेज नहीं किया जाय। इसके लिए ध्यान रखने की बात है कि अपनी संस्कृति एवं भाषा के महत्त्व को कम नहीं आँको साथ-ही इसे आधार बनाकर अन्य भाषा एवं संस्कृति को अपने जीवन से युक्त करें।
- गाँधीजी किस तरह के सामंजस्य को भारत के लिए बेहतर मानते हैं और क्यों?
उत्तर- गांधीजी भिन्न-भिन्न संस्कृतियों के सामंजस्य को भारत के लिए बेहतर मानते हैं, क्योंकि भिन्न-भिन्न संस्कृतियों का सामंजस्य भारतीय जीवन को प्रभावित किया है और स्वयं भी भारतीय जीवन से प्रभावित हुई है। हर सामंजस्य कुदरती तौर पर स्वदेशी ढंग का होगा, जिसमें प्रत्येक संस्कृति के लिए अपना उचित स्थान सुरक्षित होगा।
- आशय स्पष्ट करें
(क) मैं चाहता हूँ कि सारी शिक्षा किसी दस्तकारी या उद्योगों के द्वारा दी जाए ।
व्याख्या- गाँधीजी के विचारानुसार सच्ची और सही शिक्षा वही है जो मनुष्य को मनुष्यता सिखाए। दस्तकारी और उद्योगों के द्वारा जो शिक्षा ही जाएगी उससे गाँवों की बेरोजगारी दूर होगी। व्यावहारिक जीवन में आत्मीयता, प्रेम, करुणा, दया, धर्म, अहिंसा, सत्य और कर्म के प्रति लोगों का रुझान बढ़ेगा। एक-दूसरे के प्रति लगाव पैदा होगा। मन और मस्तिष्क का उचित विकास होगा। गाँवों स्पिकला, कुटीर उद्योगों का विकास होगा। शारीरिक, मानसिक और आर्थिक विकास में इससे सहयोग मिलेगा। शरीर-बुद्धि और आत्मा के सभी उत्तम गुणों का विकास अलग-अलग रूपों में होगा। आजकल ही शिक्षा मात्र यांत्रिक नहीं होगी बल्कि वैज्ञानिक होगी। ऐसी शिक्षा द्वारा ही मस्तिष्क और आत्मा का उच्चतम विकास संभव हो जायेगा। दस्तकारी और उद्योगों के माध्यम से प्राप्त शिक्षा द्वारा स्वावलम्बन के प्रति लोगों की भावना जागेगी। सभी तत्पर होकर कार्य करेंगे। अपनी संस्कृति के प्रति रुचि दिखायेंगे। उत्पादन विनिमय, वितरण में सुगमता होगी (जनजीवन सुखी और समृद्ध होगा) गाँवों का विकास, उनका विकास और आर्थिक स्वावलंबन होगा। हस्तकला-शिल्पकला की महत्ता और उपयोगिता से लोग अवगत होंगे। ग्राम आधारित उद्योग-धंधों का विकास और जनता के बीच खुशहाली बढ़ेगी।
(ख) इस समय भारत में शुद्ध आर्य संस्कृति जैसी कोई चीज मौजूद नहीं है।
व्याख्या- गाँधी जी का विचार है कि इस समय जो संस्कृति का विकसित रूप हम देख रहे हैं वह शुद्ध आर्य संस्कृति नहीं है, यह अनेक जातियों एवं धर्मों के सम्मिश्रण के समन्वय का स्वरूप है, आर्य कहाँ से आयें, कैसे आयें या ये मूल निवासी भारत के थे? इस विवाद में गाँधीजी पड़ना नहीं चाहते थे। उनका कहना है कि मेरे पूर्वज एक-दूसरे के साथ बड़ी आजादी के साथ मिल गये और वर्तमान में जो पीढ़ी है, उसी मिश्रण या मिलावट की उपज है। शक, हूण, कुषाण, आर्य, अनार्य, स्वेत श्याम सबका सम्मिश्रण रूप भारत है और यहाँ के निवासी उसी की उपज हैं।
(ग) मेरा धर्म कैदखाने का धर्म नहीं है।
व्याख्या- भारतीय धर्म के बारे में गाँधीजी के विचार हैं कि भारतीय धर्म कैदखाने का धर्म नहीं है। बलात् किसी पर थोपा नहीं गया है। बलात् किसी धर्मांतरण के लिये प्रताड़ित या सताया गया नहीं है। यह तो समन्वय का धर्म है। प्रेम का धर्म है। अपनत्व और आत्मीयता का धर्म है। यह तो विश्व-बंधुत्व और वसुधैव कुटुम्बकम का विराट स्वरूप है। इस प्रकार गाँधीजी ने भारतीय धर्म की विराटता, खुलापन, व्यापक दृष्टिकोण समन्वयवाद भावना आदि रूपों, विशेषताओं की ओर ध्यान खींचा है और इसे व्यापक मानव हितकारी धर्म कहा है। यहाँ चिन्तन की गहरायी है, आजादी है. सहिष्णता और सम्मान की भावना है।
भाषा की बात
- निम्नलिखित के विग्रह करते हुए समास के प्रकार बताएँ
बुद्धिपूर्वक, हृदयांकित, सर्वांगीण, अविभाज्य, भोजनशास्त्र, उत्तरार्ध, रक्तरंजित, कूपमंडूक, अग्रदूत, एकांगी
उत्तर- बुद्धिपूर्जक – बुद्धि से युक्त – तत्पुरुष
हृदयांकित – हृदय में अंकित – तत्पुरुष
सर्वांगीण – सभी अंगों के साथ अव्ययीभाव
अविभाज्य – जो विभाजित नहीं है नब समास
भोजनशास्त्र – भोजन का शास्त्र – तत्पुरूष
उत्तरार्ध – बाद का – तत्पुरूष
रक्तरंजित – रक्त से रंजित – तत्पुरूष
कूपमंडूक – कुंए का मेढ़क – तत्पुरूष
अग्रदूत – आगे चलने वाला – कर्मधारय
एकांगी – एक ही अंग का कर्मधारय
- निम्नलिखित के पर्यायवाची बताएँ –
‘शारीरिक, प्रगट, दस्तकारी, मौजूदा, कोशिश, परिणाम, तालीम, पूर्वज
उत्तर- शारीरिक = शरीर, देह
प्रगट = प्रत्यक्ष, सामने
दस्तकारी = हस्तकौशल, हाथ की कारीगरी
मौजूदा = उपस्थित, मौजूद
कोशिश = प्रयास
परिणाम = प्रतिफल
तालीम = शिक्षा, विद्या
पूर्वज = पुरखे
- निम्नलिखित के संधि-विच्छेद करें –
साक्षर, एकांगी, उत्तरार्ध, स्वावलंबन, संस्कृति, बहिष्कार, प्रत्येक, अध्यात्म
उत्तर- साक्षर = स + अक्षर
एकांगी = एक + अंगी।
उत्तरार्ध = उत्तर + अर्थ
स्वावलंबन = स्व + अवलंबन
संस्कृति = सम् + कृति
बहिष्कार = बहिः + कार
प्रत्यक = प्रति + एक
अध्यात्म = अधि + आत्म
शब्द निधि
प्रतिरोध: विरोध, संघर्ष
उदात्त : उन्नत
उत्तरार्ध: बाद का, परवर्ती आधा भाग
स्थूल: मोटा
जागृति: जागरण
एकांगी: एकपक्षीय
सर्वांगीण: सम्पूर्ण, समग्र
अविभाज्य: अविभक्त, जिसे अलग-अलग न बाँटा जा सके
दस्तकारी: हस्तकौशल, हस्तशिल्प, हाथ की कारीगरी
यांत्रिक: मशीनी, यंत्र पर आधारित
कवायद: ड्रील, भागदौड़
अग्रदूत:आगे-आगे चलने वाला
दूरगामी : दूर तक जाने वाला
गुजर : निर्वाह, पालन
रक्तरंजित : खून से सना हुआ
दक्षता : कौशल
आत्मोत्सर्ग: खुद को न्योछावर करना, आत्म-त्याग
कूपमंडूक : कुएँ का मेढक, संकीर्ण
हजम : पचना
हरगिज: किसी भी हाल में
अमल: व्यवहार
हृदयांकित: हृदय में अंकित