Bihar Board Solution of Class-10 Hindi Gadya Chapter-8 Jit-Jit Men Nirkhat Hu (जित-जित मैं निरखत हूँ) पं० बिरजू महाराज
Dear Students! यहां पर हम आपको बिहार बोर्ड कक्षा 10वी के लिए हिन्दी गोधूलि भाग-2 का पाठ-8 जित-जित मैं निरखत हूँ पं० बिरजू महाराज Bihar Board (बिहार बोर्ड) Solution of Class-10 Hindi (हिन्दी) Gadya Chapter-8 – Jit-Jit Men Nirkhat Hu संपूर्ण पाठ हल के साथ प्रदान कर रहे हैं। आशा करते हैं कि पोस्ट आपको पसंद आयेगी और आप इसे अपने दोस्तों में शेयर जरुर करेंगे।
Chapter Name | Jit-Jit Men Nirkhat Hu (जित-जित मैं निरखत हूँ) |
Chapter Number | Chapter- 8 |
Board Name | Bihar Board (B.S.E.B.) |
Topic Name | संपूर्ण पाठ |
Part |
भाग-2 Gadya Khand (गद्य खंड ) |
Jit-Jit Men Nirkhat Hu (जित-जित मैं निरखत हूँ)
पंडित बिरजू महाराज
जित जित मैं निरखत हूँ
आज कलाप्रेमी जनसाधारण तथा नृत्य रसिकों के बीच कथक और बिरजू महाराज एक-दूसरे के पर्यायवाची से बन गये हैं। महाराज की अथक साधना, एकांतनिष्ठा और कल्पनाशील सर्जनात्मकता के संयोग से ही यह संभव हो सका है। कथक के व्याकरण और कौशल को उन्होंने सार्थक सौंदर्यबोध और काव्य दिया है। वे कथक के लालित्य के कवि हैं। परंपरा की प्रामाणिकता की रक्षा करते हुए उन्होंने सर्जनात्मक साहस के साथ कथक का अनेक नई दिशाओं में विस्तार किया है तथा यह सिद्ध किया है कि शास्त्रीय कला जड़ या स्थिर नहीं है। उसमें एक निरंतर गतिशीलता और समकालीनता बरकरार है ।
लखनऊ घराने के वंशज और सातवीं पीढ़ी के इस कलाकार में मानो सातों पीढ़ियों का सौंदर्य केंद्रीभूत हो गया है। सौम्य, हँसमुख, मिलनसार विनत्व और सहज-निष्कपट लगभग बच्चे का भोलापन लिए बिरजू महाराज को देखकर इनकी महान प्रतिभा का अंदाज लगाना कठिन है। किंतु बात करते-करते उनका न जाने कहाँ खो जाना, उँगलियों का निरंतर गिनती में उलझे रहना और अचानक चेहरे पर नितांत शून्य भाव बेचैन करने वाला होता है। अचानक कुछ कौंधता-सा है उनकी आँखों में और फिर वही फुसलाती सी सरल मुस्कराहट, दोहरा बदन, मंझोला कद, चेचक के हल्के दाग और बड़ी आँखों वाला ढीलाढाला व्यक्ति मंच पर एकदम और ही हो जाता है। गजब का लोच, फुर्ती और हल्कापन….. कथक नृत्य का सौंदर्य मानो मूर्तिमान हो उठा हो।
यहाँ बिरजू महाराज की सुयोग्य शिष्या मशहूर नृत्यांगना और रंगकर्म की पत्रिका ‘नटरंग’ की संपादक रश्मि वाजपेयी की महाराज से बातचीत किंचित संपादित रूप में अविकल प्रस्तुत है। बातचीत के बहाने बिरजू महाराज का अंतरंग जीवन उनके आत्मकथनों में झलक उठता है। पाठ के क्रोड़स्थ अंतःपाठ उन्हीं की दो काव्य रचनाओं के हैं।
रश्मि वाजपेयी: अपने बारे में कुछ बताएँ ।
बिरजू महाराजं : जन्म मेरा लखनऊ के जफरीन अस्पताल में 1938, 4 फरवरी, शुक्रवार, सुबह
8 बजे; वसंत पंचमी के एक दिन पहले हुआ। घर में आखिरी सन्तान । तीन बहनों के बाद। सवसे छोटी बहन मुझसे आठ नौ साल बड़ी। अम्मा तब 28 के लगभग रही होंगी । बहनों का जन्म रामपुर में क्योंकि बाबूजी यहाँ 22 साल रहे। बड़ी बहन लगभग 15 साल बड़ी । उस समय बाबूजी रायगढ़ आदि राजाओं के यहाँ भी गए। मैं डेढ़ दो साल का था। उस समय विभिन्न राजा कुछ समय के लिए कलाकारों को माँग लिया करते थे। पटियाला भी गए थे पहले । रायगढ़ दो * ढाई साल रहे होंगे। रामपुर लौटकर आए। रामपुर काफी अरसे रहे। जब पाँच छह साल के थे तो अकसर नवाब याद कर लिया करते थे। हलकारे आ गए तो जाना ही पड़ता था। चाहे जो भी वक्त हो ।
छह साल की उम्र में मैं नवाब साहब को बहुत पसंद आ गया। मैं नाचता था जाकर । पीछे पैर मोड़कर बैठना पड़ता था। चूड़ीदार पैजामा साफा, अचकन पहन कर । अम्मा जी बेचारी चहुत परेशान । उन्होंने हमारे तनख्वाह भी बाँध दी थी। बाबूजी रोज हनुमानजी का प्रसाद माँगे कि 22 साल गुजर गए, अब नौकरी छूट जाए। नवाब साहब बहुत नाराज कि तुम्हारा लड़का नहीं होगा तो तुम भी नहीं रह सकते। खैर बाबू जी बहुत खुश हुए और उन्होंने मिठाई बाँटी । हनुमान जी को प्रसांद चढ़ाया कि जान छूटी।
वहाँ से फिर निर्मला जी (जोशी) के स्कूल में यहाँ दिल्ली में हिन्दुस्तानी डान्स म्यूजिक में जले गए। यहाँ दो तीन साल काम करते रहे। ये शायद 43 की बात रही होगी। उस उम्र में जुबली टॉकीज़ दिल्ली के बड़े भारी कांफ्रेंस में मेरा नाच रखा गया। यह हाल अभी भी है। इसमें मैं एक कलाकार के नाते आमंत्रित था। उस उम्र में न जाने क्या नाचा रहा होऊँगा । तबला बाबूजी ने बजाया । अकसर वे बजा देते थे। पर उन्होंने मेरी आदत डाल दी थी अक्सर जहाँ वे खुद नाचते तो पहले मुझे नचवाते थे और खूब जोरों से जमकर नाचता था । यों मुझे याद तो था नहीं पर वे जो बोल देते थे तो टुकड़े का मेजरमेंट मैं फट से याद कर लेता था। जैसे दिग दिग थेई ता थेई । मैं अंदाज कर लेता यह नाप मेरा ईश्वर की कृपा से शुरू में अच्छा रहा । खूब नाचा । उसी समय यहाँ कपिला जी, लीला कृपलानी आदि हिन्दुस्तानी डांरा अकादेमी में थीं। बाबूजी के साथ मैं रोज आता था। हालाँकि लौटते लौटते मुझे नींद आ जाती थी ताँगे में। मुझे हैट पहनने का बहुत शौक था। एक बार हैट पहने ताँगे में लेटा था। पार्टिशन के कारण चैकिंग भी चल रही थी; हैट गिर गया तो उन्हें गुस्सा आया आते हैं स्कूल और सो जाते हैं। फिर उठाया। झण्डेवालान के पास उस समय यों भी डर लगता था पहाड़ी से रात में । बाबूजी के हाथ में छड़ी देखकर पुलिसवाले ने टोका भी, क्योंकि उन दिनों यह सब नहीं रख सकते थे । खैर उन दिनों ऐसे ही दिन बीतते रहे। लेकिन कपिला जी लीलाजी की जो हायर ट्रेनिंग होती थी
श्याम श्याम श्याम है ॥
वृक्षन की पतियन में फूलन की कलियन में पवन के झकोरन में श्याम श्याम श्याम है ॥ गुणियन के तालन में गायक के स्वरन गें कवियन के हृदय में श्याम श्याम श्याम है ॥ याही ब्रजश्याम तोसों अरज करे कर जोरे अंत हूँ शरण पाऊँ श्याम श्याम श्याम है ।। |
वह मैं याद कर लेता था और अगले दिन बाबूजी से कहूँ कि मुझे याद हो गया तो मानते नहीं थे। फिर जब अम्मा जी कहें सुन लो और मस्का लगाएँ तो सुनते थे। तो ऐसे परन किड़ तक धुन-धुन नातिट ता धाधिनता। ये परनें उस सात साल की उम्र में खूब सुनाता उनको। दरअसल उस समय नौकरी का यह नहीं था कि जम गए एक ही जगह । जैसे मैं 28 साल से यहाँ हूँ। तब जहाँ भी नौकरी की वहाँ रहे कुछ दिन फिर लखनऊ आ गए दो तीन महीने । यह स्वतंत्रता थी। रामपुर हैं तो तीन महीने दिल्ली चले आए । बंदिश नहीं थी कि कहीं हिल नहीं सकते ।मेरा भी मन नहीं लगता औरलगता मैं भी. ऐसा करूँ। बस इसी तरह वक्त बीता । यहाँ दिल्ली में जब हिदू-मुस्लिम दंगे होने लगे. काटा मारी होने लगी तो डर के मारे अम्मा और मैं लखनऊ चले गए । तालीम इसी किस्म की थी। कुछ क्लास में देखा । कुछ ताऊ जी को सिखा रहे हैं, उसे देखा । कुछ लखनऊ में’। इसके अलावा प्रायवेट प्रोग्राम जिनमें बाबूजी जाते थे जौनपुर, मैनपुरी, कानपुर, देहरादून, कलकत्ता, बंबई आदि, इनमें मुझे जरूर रखते थे। पहले इसीलिए कलकत्ते में बहुत मजा आया। उसमें फर्स्ट प्राइज मिलने वाला था । उसमें शम्भू महाराज चाचाजी और बाबूजी दोनों नाचे । पर उसमें फर्स्ट प्राइज मुझे मिला । तो चाचा कहने लगे देख भैया बड़े मियाँ तो बड़े मियाँ छोटे मियाँ सुभान अल्लाह। और मैं बहुत खुश । चेन और मैडल वगैरह मुझे मिला। उस समय मैं आठ साढ़े आठ साल का था । समझ लीजिए कि नौ साढ़े नौ साल के भीतर ही सब तमाशे हो गए मेरी जिन्दगी के । हाँ मैं आमलेट नहीं जाता था । चाचांजी खाते थे। तो कहे अदे दाल का चिल्ला खाएगा। जब अण्डा कहकर पूछें तो नहीं खाता था पर जब मूंग की दाल का कहें तो बड़े मजे से खा लेता था, तो शंभू महाराज शुरू से ही बड़े शौकीन तबीयत के थे। लच्छू महाराज शुरू से ही बड़े अपटूडेट रहते थे। जब ये शायद 28-30 साल के थे तब से गए हैं कलकत्ते न्यू थियेटर्स कंपनी में । चालीस साल कलकत्ते और बंबई मिलाकर फिल्म में बीते ।.
हाँ साढ़े नौ साल का था जब बातूनी की मृत्यु हुई। उनके साथ आखिरी प्रोग्राम गैनपुरी में था मेरा । वे 54 साल के थे। लू लग गई थी उन्हें। और यहाँ इनकी जगह मैं नाचा था और उन्होंने भाव बताया था। उस समय क्योंकि उन्हें बुखार था। लू उन्हें मैनपुरी में ही लगी थी । वहाँ से हमलोग लौटकर आए तो 16-20 दिन रहे वो । कमजोरी आती गई । बाबूजी की यह आदत थी और मेरी भी आदत है कि अपना दुख और कष्ट ज्यादा किसी से कहता नहीं हूँ । वो भी छिपाते रहते थे । उन्हें भी शुगर था। तो इक्के पर चौक वगैरह चले गए और सबसे मिल आए । जितने भी अमीनाबाद में थे बाजार आदि में मिलने वाले और सब ही प्यार करते थे उन्हें। वह उनके साथ आखिरी प्रोग्राम था ।
मुझे तालीम बाबूजी से ही मिली। गण्डा भी बाँधा उन्होंने मुझे। जब बाँधा तो अम्मा से कहा जब तक तुम्हारा लड़का मुझे नजराना नहीं देगा गण्डा नहीं बाधूंगा। तो मुझे 500 रुपए के दो प्रोग्राम मिलें थे । जब पाँच सौ आया तो गण्डा बाँधा उन्होंने। और कहा इसमें एक पैसा नहीं दूँगा। यह मेरा पैसा है। मैं इसका गुरु हूँ और यह इसने मुझे नजराना दिया है। तो 500 रुपए देकर मैंने गण्डा बँधवाया तो मुझे और जगत कहार, एक लड़का है लखनऊ में, दोनों को एक साथ गण्डा बाँधा । तो शागिर्द मैं बाबूजी का हूँ ।
आज प्रिय श्यामा श्याम भई ॥
एक अजूबा देखि सखी मैं अति सों चकित भई अंकहि भरि भरि कान्ह राधिके एकल रूप भई ॥ ‘लै कान्ह की बाँसुरी अपने करहु लई बार बार लै अधर लगावति बंसी तान भई ॥ निरखत छबि ब्रज श्याम रंग सों राधा श्याम भईं । |
फिर पिताजी की मृत्यु हुई और उस समय मैं इतना छोटा था कि उनका दुख भी ठीक समझ में नहीं आया। उनके मरते ही हम लोगों के बहुत खराब दिन शुरू हो गए । उधर लेकर महाराजजी का शौक । कर्जा लेकर खाना-पीना-गालियाँ देना घर भर, को। उनके दो वच्चों की मृत्यु भी लगभग उन्हीं दिनों हुई। यह सब उसी समय की बात है। बाबूजी की मृत्यु के साथ ही साथ । पिताजी बहुत दुखी रहते थे उनसे । उसी समय मैं अन्ना को लेकर नेपाल गया । सोचिए उस समय बिना पिताजी के । मुजफ्फरपुर भी गए। अम्मा ले गई । बौराबरेली भी । उस समय यह हालत थी कि पचास रुपए भी मिल जाएँ कहीं से तो बहुत हैं। पहले का सब पैसा हमारे टाइम तक खत्म हो गया था। कर्जदार बहुत हो गए थे। बाबूजी किसी का भी भला करने के लिए एक से लेकर दूसरे को दे देते थे। मतलब सौ लिए दो सौ दूँगा कहकर । यह उनकी अजीब सी आदत थी। कानपुर दो ढाई साल रहा। जिसमें 25-25 रुपए की दो ट्यूशन की मैंने आर्यानगर में। पैदल तीन मील जाता था। और रास्ते में कब्रिस्तान पड़ता था तो डर भी लगता था। दस ग्यारह साल की उम्र थी मेरी। अब पचास रुपए में रिक्शे पर खर्च करता तो क्या बचता और ट्यूशन में नागा हो तो पैसा अलग काट लेते थे। 50 रुपए में काम करके किसी तरह पढ़ता रहा मैं ।. एक सीताराम बागला करके लड़का था अमीर घर का । उसे मैं डांस सिखाता और वह बेचारा मुझे पढ़ा देता था। हाई स्कूल की पढ़ाई । कहाँ चिन्ता, कहाँ अम्मा, कहाँ 50 रुपए की ट्यूशन सब बिखरा हुआ इसलिए फेल भी हो गया । मतलव पढ़ाई अच्छी तरह नहीं कर पाया । अच्छी तरह पढ़ता तरीके से तो ईश्वर की कृपा से मेरा दिमाग. बहुत. तेज था शुरू से । नेपाल भी इसी दौरान गए थे। एक हमारे रिश्तेदार थे वहाँ झुमकलाल करके । तो अम्मा इसीलिए ले गई थी कि कुछ इनाम वगैरह मिल जाए। बस यही एक कारण था। वहाँ रहे नहीं। खास प्राप्ति नहीं हुई। जाते में मुजफ्फरपुर भी गए थे । जयपुर भी गया मैं। वहाँ भी. कोशिश की । मतलब यह कि प्रोग्राम मिल जाए दो चार सौ मिल जाएँ तो कुछ महीने कट जायेंगे। ऐसी हालत थी । हम लोग रहते एक मकान में ही थे, पर ऊपर नीचे । चूल्हा शुरू से ही अलग था। महाराज जी का अपना खानापीना जैसा था । पिताजी के समय से ही दादी, पिता अलग रहते, चाचा अलग। और वे मारा पीटी बहुत करते थे ।
चौदह साल की उम्र में जब मैं वापस लखनऊ आया फेल होकर तब कपिला जी अचानक लखनऊ पहुँची मालूम करने कि लड़का जो है वह कुछ करता भी है या आवारा या गिरहकट हो गया, वह है कहाँ। तब अम्मा जी ने दिखाया मुझे कि करते तो हैं थोड़ा बहुत जो सीख पाए थे । तब कपिला जी मुझे संगीत भारती (जो पहले हिन्दुस्तानी म्यूजिक डांस अकादमी था वही संगीत भारती हो गया था) लाई। छह महीने बढ़ गए तो बहुत खुश हुआ मैं। उस समय 250 रुपए मिलते थे । और रहता था दरियागंज में एक दुछत्ती थी जैन साहब का मकान था। अम्माजी को यह दुख कि जैनियों का मकान है लड़के को प्याज खाने को नहीं मिल रहा है । मछली तो खाता नहीं था। पर उसमें छोटी सी तो जगह थी। एक टेबिल फैन ले लिया था । दरियागंज से पाँच या नौ नंबर बस पकड़ता था। कभी रीगल पर और तो कभी ओडेन सिनेमा के पास उतरता था । वह स्कूल था रिवोली के पास तो एक महीने तक मैं रास्ता ही भूल जाता. था । एक से खंबे हैं चारों तरफ तो मैं किसी भी सीढ़ी से चढ़ जाता था। बड़ी मुश्किल से फिर निशान बनाए कि यहाँ से जाओ यहाँ से जीओ ।
हाँ एक घटना बहुत दुखदायी रही शुरू में बाबूजी की मृत्यु के समय । बिल्कुल पैसा नहीं था घर में कि उनका दसवाँ किया जा सके। दस दिन के अंदर सोचिए मैंने दो प्रोग्राम किए । और उन दो प्रोग्राम से 500 इकट्ठे हुए तो दसवाँ और तेरहीं की गई। बाहर मित्रों आदि को भी शायद अंदाज नहीं रहा होगा कि घर की ऐसी हालत है। जो भी हो यह मुझे अच्छी तरह याद है कि पिताजी का मरना, फिर उन दस दिनों में मेरा नाचना और पैसे इकट्ठे होना और उनसे ही दसवाँ तेरही का इन्तजाम होना। यह मुझे अच्छी तरह याद है। उससे बड़ा कष्ट और कुछ नहीं हुआ होगा । ऐसी हालत में मैं नाचने गया। मेरा ख्याल है-कानपुर या देहरादून । ऐसी जगह लखनऊ से वहाँ गया । नहीं माचता तो पैसा कहाँ होता। यह बहुत बड़ा दुखद वक्त था…खैर। बहरहाल जन चौदह साल का था तो संगीत भारती आया। फिर जब एक साल हो गया तो कहने लगे अब तुम परमानेंट हो गए। मैंने वहाँ साढ़े चार साल काम किया । संगीत भारती में सबसे बड़ी कमी थी कि गुप्ता जी भरतनाट्यम, मणिपुरी आदि वालों को तो कहते थे पंक्ति बनाकर ग्रुप फिट करो, ये करो वो करो और समझते थे कथक में आठ मिनट का रानी करणा का सोलो करवा दो बस वही काफी है। तो मुझे बहुत दुख होता था कि मैं कर सकता हूँ और मुझे करने नहीं देते। इसी धर्म-संकट में मैंने नौकरी छोड़ दी। करीब 56 के आसपास । लगभग आठ महीने मैं अलग रहा । मैं लखनऊ चला गया था। बस ऐसे ही। तब तक शम्भू महाराज आ चुके थे भारतीय कला केंद्र में । और सुमित्रा जी के यहाँ करजन रोड में सिखाते थे मायाराव को। संगीत भारती की कमाई से मैंने एक साइकिल खरीदी थी जो मेरे पास अभी भी है। और उस साइकिल को मैं नहीं बेचता हूँ। उसे देखकर मैं पुराना वक्त याद करता हूँ, किस तरह साइकिल पर मैं चढ़कर एक ट्यूशन करता था पचास रुपए की। संगीत भारती के पैसे काफी नहीं होते थे। फैमिली थी बाराखम्बा रोड पर, दो बच्चे थे मिकी और अनु । दो बार यहाँ सड़क पर गिर भी पड़ा मैं अनबैलेंस होकर। साइकिल कामचलाऊ आती थी ठीक से थोड़ी आती थी । बस के पैसे बचाने के लिए खरीदी थी । खैर भारतीय कला केंद्र आये पूसा रोड पर। वहाँ आये तो वहाँ भी छोटी क्लास मिली। यहाँ भी झमेला वाली क्लास । जबकि मेरे अंदर वो चरण टुकड़े तिहाइयाँ बल खातीं कि कोई आवे तो उसे दूँ। पर वहाँ यह था कि बड़ी लड़कियाँ समझदार जो भी आयेंगी बड़े महाराज के पास आवेंगी । यहाँ काहे को आयेंगी। अब अठारह बीस साल का लड़का बड़े बुजुर्ग के आगे कहाँ चल सकता था । खैर उसमें से रश्मि जी एक लड़की मिली थी। उन्हें पूरे मन से सिखाया
बिरजू महाराज का नृत्य देखते हुए
(काव्यांश) स्थिति नहीं, गति नहीं, मुद्रा नहीं, न ही भंगिमा लय में लयमान सृष्टिः कथाकृति मूर्तिमान X X X बजते हुए घुँघरू नहीं, पूरा का पूरा अंतरिक्ष घूमता चमकते नक्षत्रों का अंकुरित भाव में सँवरे जाते सूक्ष्म सुरों के गणितरूप अगाध X X X पैर महज चलते नहीं, भाषाएँ बेबस जहाँ वहाँ से आगे बढ़ हमें रंगते, रचते, गाते, आत्मा को सँवारते, अवतार लेते लीलाकमल बनते-बनाते X X X भाषा अनन्त की यह कैसी है चरणों की चेरी है ध्वनियों के छविगृह में शाश्वती दीपित है हृदय-शिखा । – श्रीराम वर्मा |
इसलिए भी कि हमको तो और कोई बड़ी लड़की मिलती नहीं कि इनको तैयार करेंगे। वो तालीम देखकर जो महाराज के यहाँ थी लड़कियाँ, अट्रेक्ट हुई। और हमारी तरफ खिंचने लगीं क्योंकि तालीम जरा अच्छी थी मेरी ।
बस उसके बाद से बैले वगैरह जो लच्छू महाराज जी ने मालती माधव पहला किया उसमें असिस्टेंट था । जबकि मजेदार बात यह है कि उसके एक्शन वगैरह सब मैं ही बनाता था अंदर अंदर और वे कहते थे अबे जब वहाँ जाएगा तो बोल देना सबके सामने चाचाजी वह कौन सा मूवमेंट सिखाया था। तो मैं कहूँगा वो वाला और फिर तू बना लीजो अपने आप । बस तो बनाता मैं था। और…. बरखाबहार गोवर्धन लीला बनाने के लिए साल डेढ़ साल पहले आये थे । पूसा रोड में कॉलेज जब शुरू हुआ तो मैं आ गया था। नीनाजी के सामने ही मैंने जॉइन किया । केशवभाई और मैं साथ ही रहते थे । सूप आदि पीते थे। ये बिचारे बनाते थे, मुझे तो वह भी नहीं आता था। बस उसके बाद संगीत भारती के जमाने में अपने होश में कलकत्ते में एक कांफ्रेंस में नाचा हूँ। उस समय दयाराम जी साथ थे। वही मेरी देखरेख करते थे। इनको ले जाता था रखवाली के लिए। वह जो मेरा नाच हुआ है वहाँ से कलकत्ते की ऑडियन्स ने मेरी बड़ी प्रशंसा की। इतनी की कि तमाम अखबारों में मैं छप गया एकदम । और वहाँ से दूसरे डांसर्स थे तमाम उनको भी लगा कि भई लड़के ने कुछ कर ही डाला है। मतलब वहाँ से लोगों को पता लगा कि मैं कुछ हूँ घर का। पर उस समय की कुछ कटिंग आदि नहीं है। बहुत पुरानी बात है। तो वहाँ से मेरा एक मोड़ हुआ । उसके बाद हरिदास स्वामी कांफ्रेंस बंबई ब्रजनारायण ने बुलाया। वह भी प्रोग्राम मेरा बहुत अच्छा गया। यह भारतीय कला केंद्र जॉइन करने के बाद। उसके बाद से फिर ईश्वर की कृपा से प्रोग्राम कलकत्ते, बंबई और उन्हीं दिनों कुछ अरसे के बाद मद्रास, भारतीय कला केंद्र के साथ ही गया था मद्रास । और धीरे-धीरे लोग मुझे चाहने लगे, इज्जत करने लगे। तीन साल जो संगीत भारती में बीते हैं उसमें मेरा नियम था सुबह चार बजे उठना बगैर नागा। चाहे बुखार चढ़ा है, चाहे खाँसी आ रही है ।… सुबह पाँच बजे से रियाज पाँच, छह, सात, आठ तक रियाज फिर घर जाना और एक घंटे में तैयार होकर वापस नौ बजे दो घंटे की क्लास सुबह की। वह तीन साल मैंने खूब रियाज किया । मतलब यही सोचकर कि यही टाइम है अगर कुछ बढ़ना है तो अँधेरा कमरा करके किया करता था जब बाद में थक जाऊँ मैं तो जो भी साज हाथ आये कभी सितार, कभी गिटार, कभी हारमोनियम लेकर बजाऊँ, मतलब रिलेक्स होने के लिए। सितार भी मैं बहुत बजाने लगा था। अच्छा खासा हाँ खूब जोरों से। फिर हाथ में शक्लें बनने लगीं, मिजराब की वजह से तो मैंने डर के मारे छोड़ दिया कि डिस्टर्ब करेगा डांस में कि दो आँखें दिखेंगी तो मैंने सितार छोड़ दिया। गिटार बजाने लगा ऐसे ही थोड़ा शौक के मारे । सितार छोड़ा, गिटार छोड़ा फिर बाँसुरी मेरी बहुत दिन चली । मतलब शौक के मारे बजाता रहा। डागर साहब के साथ ट्रेन में भी अपने ऊपर बजा रहा हूँ वे नीचे गुनगुना रहे हैं। तो शौक उसका भी रहा फिर सरोद भी चलता रहा। खैर सरोद तो अभी भी मेरा शौक है। तबला मैं शुरू से बजाता हूँ। हारमोनियम थोड़ा बहुत, लहरा • बजाने के लायक बहुत शुरू से बजाता हूँ। शुरू में फिल्मी गाने गाकर मैं पूरे मोहल्ले के लोगों को खुश किया करता था जब मैं छोटा था। और दो एक फेमिली थीं मोहल्ले में जो मेरा गाना सुनकर बहुत खुश होती थीं तो खाना-वाना भी खिला देती थीं। सिन्धी फैमिली थीं। वो बिचारी मेरी बहुत मदद करती थीं कभी दाल मखाने की सब्जी जब बने तो चुपचाप लाकर खिला देती थीं। उन दिनों मतलब हमारी हालत भी ऐसी थी कि कोई खिला दे तो अच्छा लगता था । खैर फिर उसके बाद तो तमाम फिर यहाँ काम करने लगे नए-नए। उसके बाद की कहानी तो फिर मालूम ही है आपको कि कितने बैले किए दुनिया भर के अलग-अलग हिस्टॉरिकल और फिर विदेश टूर भी शुरू हो गए। रूस पहला हमारा ट्रिप था जिसमें कुमारसंभव लेकर हम लोग सब गए थे ।
२० वा० :-आपको संगीत नाटक अकादेमी अवार्ड कब मिला ?
बि० म०27 साल का था तब मैं। बहुत छोटे में ही। मेरी सब चीज बहुत छोटे में
जल्दी-जल्दी हो गईं।
२० वा०:आपकी शादी किस सन् में हुई ?
बि०. म०.:ओ माँ ! मैं अठारह साल का था बस इतना ही याद है मुझे। अठारह साल की उम्र में मेरी शादी अम्माजी ने कर दी। बहुत बड़ी गलती की। जब कि हम सोच रहे थे कि पहले काम कर लें फिर शादी करें। पर अम्माजी शायद घबराई हुई थीं, क्योंकि उनको तो चिंता थी कि पिंताजी मर ही गए उनका क्या होगा पता नहीं । उस घबराहट में शादी कर दी। पर वह मेरे लिए बहुत नुकसानदेह रहा । एक जिम्मेवारी और ज्यादा बढ़ गई । और शायद नौकरी मैं नहीं भी करता । अपने रियाज में और अपने नाच में ही मस्त हो सकता था लेकिन इन पाबन्दियों ने शादी, गृहस्थी और लखनऊ और घर इन चीजों ने मुझे मजबूर कर दिया कि तुम नौकरी नहीं करोगे तो क्या करोगे। वरना छोड़छाड़ के मैं अपना अकेले फिल्म में भी चाचाजी की वजह से उनका असिस्टेंट बन संकता था बंबई जाकर, और लालच शुरू में जैसे बच्चों को अकसर हुआ करता है कि बंबई भाग जाओ। पर खैर वो तो अच्छा ही हुआ जो नहीं गया। कुछ समझदार लोगों ने मुझे एडवाइज किया कि ये ठीक नहीं है। अच्छा ही हुआ जो बच गया। खैर… बाद का हमारा किस्सा फिर सत्यजीत रे की फिल्म का रिसेन्ट किया था। उसके बाद से भी मेरी एक बड़ी खास आदत रही है जैसे कि मेरे बाबूजी की भी थी कि जब शागिर्द को सिखा रहे हैं तो पूर्णरूप से मेहनत करके सिखाना और अच्छा बना देना है। ऐसा बना देना कि मैं खुद हूँ। यह कोशिश है। पर अब भगवान की कृपा भी होनी चाहिए तब । मतलब कोशिश यही रहती है कि मैं कोई चीज चुराता नहीं हूँ कि अपने बेटे के लिए ये रखना है उसको सिखाना है। उस लड़की को नहीं सिखाना है …. यह मेरे भेद नहीं है। मतभेद बिलकुल नहीं है। तो बस यह छोटी सी कहानी थी मेरी फिलहाल डिटेल में तो पता नहीं बहुत कुछ है।
२० वा० :-अपने शागिदों के बारे में बताएँ कौन है ऐसा जिनके बारे में सोचकर आपको लगता है कि कुछ करेंगे ?
बि० म० :- शागिदों में ऐसा है कि अब तुम हो इतने अर्से से। किसी भी अच्छे खानदान की लड़की के नाम से तो हम कहेंगे यही कि शाश्वती लगी हुई हैं। 15-20 साल से और कुछ दिन पहले मैंने ये कहा कि उनके अंदर रंग अब शुरू हुआ है। वैसे विदेशियों में वैरोनिक भी तरक्की कर रही है। उधर फिलिप मेक्लीन टॉक था ।… वह चला गया बहुत अच्छा ।.. वह इस वक्त अच्छा होता । ले लो पैसे मिल जायेंगे, बात तमन्ना है फिर आके सीखे मुझसे । बाकी तीरथ प्रताप, प्रदीप ये लोग नाम किये हैं लेकिन इन लोगों को बड़ी जल्दी तसल्ली हो गयी कि काम मिल गया अब हम कमाने लगे हैं। अब इतनी परफारमेंस कर लो । तालियाँ ले लो पैसे मिल जायेंगे, बात खत्म हो गई । कला के लिए सच्चे दिल से परेशान होने वाले बहुत कम लोग रहते हैं जो कि उसे आगे बढ़ाएँ । बहुत कम हैं । तो अब लड़कियों में तरक्की करने वाली सामने आने वालियों में शाश्वती हैं ही । दुर्गा भी अच्छी तरक्की कर रही है। ये छोटी सी फैमिली की लड़की है, अच्छी स्थिति घर की नहीं है पर उसका मन नाच के साथ जुड़ा हुआ है । अब सीखने को तो बहुत से लोग अभी भी सीख ही रहे हैं। और लड़कों में. जितना बढ़ना चाहिए कृष्णमोहन, राममोहन को. उतना ध्यान नहीं है । यहाँ तक कि मेरे बेटे भी ध्यान नहीं देते। उस तरह का ध्यान नहीं देते जैसे कि मेरी कहानी आपने सुनी है। इन लोगों ने कभी ये नहीं सोचा कि हाँ भैया ने कहा है – हुक्म दे दिया है तो हम दो साल तक कुछ नहीं सोचेंगे। बस यही सोचेंगे । उस तरह का त्याग नहीं है। उतनी शक्ति ही नहीं है। मौज लेते हैं। नाचते हैं तो उसे भी एक एन्जॉय सोचका कर लेते हैं। क्योंकि देश विदेश तो मैं बहुत गया। जर्मनी, जापान, हांगकांग, लाओस, बर्मा ।
२० वा० :- इतनी बार आप गये तो कोई खास बात आपको याद आती है…. कोई विशेष आयोजन जिससे आपको लगे कि हम….
बि० म० :- हाँ क्यों नहीं। जैसे लंदन फेस्टीवल तो एक बहुत ही जरूरी था । और एक दफा अमेरिका में दो चार जगहें वहाँ भी कामगी हॉल में हम नाचे थे ।… बड़े अच्छे लोग थे । एक जगह एक लड़का फटी हुई एकदम अंदर ।… आँखें उसकी आया हाँफते और काँपते हुए । मैंने सोचा जाने क्या हुआ उसको तो मैंने कहा मेरे साथ फोटो खिंचाना है क्या तुम्हें । यस-यस गया। अब बेचारा बेहाल हो गया अब लड़का तक बेहाल हो नाच देखकर तो यह जरा मजेदार बात है। पाकिस्तान में कोई खातून थीं पूरे हॉल में उनकी ही आवाज आए सुभान अल्लाह । मतलब मेरे नाच के आशिक तो बहुत हैं। मेरे आशिक भी हैं। मगर… मैं नाच की वजह से हूँ। … इसलिए आशिक तो नाच के ही होते हैं। मैं तो बेचारा उसका असिस्टेंट हूँ। उस नाचने वाले का ।
उसके बाद से तो खैर धीरे-धीरे दिल्ली में स्कूटर भी खरीदा; फिर चला नहीं; हम लड़ गए खम्भे में अपने आप ही। फिर डर के मारे मोटर खरीदी पुरानी । दो चार दफे पुरानी खरीदी। फिर बैंक से लोन लेकर नई एम्बेसेडर । फिर उसको बेचकर नई फियेट खरीदी । अब दूसरी फियेट है। अब तो ईश्वर की कृपा से काफी सुविधा है। काफी कृपा है उनकी । लोग प्यार ‘करते हैं मुझे बहुत । और मैं उस प्यार की वजह से ही इतना बढ़ा हूँ । क्योंकि….
२० वा० :- आपको आगे बढ़ाने में अम्मा जी का बहुत हाथ है ?
बि० म० :- अम्मा जी का बहुत बड़ा हाथ है। अम्मा जी ने तो शुरू से उन बुजुर्गों की तारीफ कर करके मेरे सामने हरदम कि बेटा वो ऐसे थे । उनको कम से कम इतना नाम तो याद था उन बुजुर्गों का । अभी आप दूसरे किसी से पूछें घर में तो उन्हें नाम भी नहीं मालूम था कि कौन थे। चाची (शंभू महाराज की पत्नी) से आप पूछें महाराज बिन्दादीन के बाद पहले और कौन थे तो उनको नहीं मालूम । ठुमरियाँ भी मैंने उनसे सीखीं। मेरी वाकई में गुरुवाइन थीं; वो माँ तो थीं ही । गुरुवाइन भी । और जब भी मैं नाचता था तो सबसे बड़ा एक्जामिनर या जज अम्मा को समझता था । जब भी वो नाच देखती थीं तो मैं कहता था उनसे कि मैं कहीं गलत तो नहीं का रहा हूँ। मतलब बाबूजी वाला ढंग है न । कहीं गड़बड़ी तो नहीं हो रही । तो कहतीं नहीं बेटा यहीं। उन्हीं की तस्वीर हो । पर बैले वैले यह तो मेरा नया क्रियेशन है। वो हरदम ऐसे ही कहती रहीं और लखनऊ के जो बुजुर्ग थे उनसे भी गवाही ली मैंने। चेंज तो नहीं लग रहा है। “नहीं बेटा वही ढंग है। और तुम्हारा शरीर वगैरह टोटल ढंग वैसा ही है। बैठने का, उठने का, बात करने का । मतलब जैसा था उनका ।
बस यही….
और जगहें तो बहुत थीं आने जाने की। हम बहुत लोकप्रिय हैं बंबई में, कलकत्ता में, साउथ के लोग भी अब बहुत चाहते हैं मुझे और हर डांसर के लिए चाहे थोड़ी देर के लिए गलत शब्द इस्तेमाल कर ले। पर दिल से अगर आप पूछेंगे कि ईमानदारी से बताओ तो दूसरा शब्द इस्तेमाल नहीं करेगा। वह यही कहेगा दो अच्छे हैं। मतलब अगर ईमानदारी से कहेंगे तो । और प्रोफेशनल जहाँ आता है तो चार जगह बुराई करेंगे कि उन्हें क्या आता है वो तो ऐसे ही बेकार आदमी हैं। तो मुझे मालूम है इस चीज का । मुझे कोई द्वेष नहीं है शुरू से किसी के बारे में। जो करता है बढ़िया करता है (बस मैं अपना बुरा नहीं चाहूँगा) बस यही खास आदत है ।
२० वि० :- आपको मंच पर कुछ अनुभव या संस्मरण बचपन के या ऐसे अनुभव जो याद आते हों ?
बि० म० : अब नाचे तो हम बहुत ज्यादा हैं। इतना कि गिनती करना मुश्किल है। और उस जमाने से । रामपुर नवाब के महल में भी नाचा हूँ… नेपाल महाराज के यहाँ भी नाचा हूँ… और जमींदारों के यहाँ भी नाचा हूँ… जहाँ का मैं अक्सर तमाशा सुनाता रहता हूँ… कि जहाँ महफिल भी लगी है कि लड़का नाचेगा…. जरा चारों तरफ थोड़ा खिसककर जगह बनाओ…तो सब खिसक जायें. …तो नीचे गलीचा… गलीचे पर चाँदनी और चाँदनी गलीचे के नीचे जमीन पर कहीं पर गड्ढे हैं कहीं पर खाँचा है… मतलब यह सब नहीं…. कौन परवाह करे। आजकल हमारे नये डांसर हैं कि स्टेज बड़ा खराब है…. बड़ा टेढ़ा है…. बड़ा गड्ढा है। हम लोगों को यह सब सोचने का कहाँ मौका मिलता था । अब गर्मी के दिनों में जरा सोचो न एयर कंडीशन; न कुछ वो बड़े-बड़े पंखे लेकर जो नौकर चाकर थे, वो हाँकते रहते थे। उनसे भी हाथ बचाना पड़ता था । नाचने में उससे न लड़ जायें कहीं । दूसरे कि गैस लाइट जल रही है उसकी भी गर्मी ।
२० वि० अक्सर रात में होते थे…या दिन में भी होते थे प्रोग्राम ?
बि० म० दिन में भी होते थे। भैरवी का प्रोग्राम जो कहा जाता था यह कायदा था कि रात को डेढ़ दो बजे तक तो चलता था नाच वाच। उसमें थोड़ा भाव गीत वगैरह हुआ तो हुआ ठुमरी भाव पर विशेष दूसरे दिन दस बजे की महफिल । सुबह दस बजे से चार बजे तक भैरवी का एक प्रोग्राम कहलाता था। तो उससे समापन होता था। माने टोटल प्रोग्राम। याने डांसर आया है तो सुबह से लेकर शाम तक……
बोध और अभ्यास
पाठ के साथ
- लखनऊ और रामपुर से बिरजू महाराज का क्या संबंध है ?
उत्तर- लखनऊ में बिरजू महाराज का जन्म हुआ था। और बहनों का जन्म रामपुर में हुआ था। रामपुर में बिरजू महाराज काफी दिन तक रहे।
- रामपुर के नवाब की नौकरी छूटने पर हनुमान जी को प्रसाद क्यों चढ़ाया?
उत्तर-रामपुर के नवाब की नौकरी छूटने पर हनुमान जी को प्रसाद चढ़ाया क्योंकि महाराज जी छह साल की उम्र में नवाब साहब के यहाँ नाचते थे। अम्मा परेशान थी। बाबूजी नौकरी छूटने के लिए हनुमान जी को प्रसाद चढ़ाते थे। नौकरी से जान छूटी इसलिए हनुमान जी को प्रसाद चढ़ाया गया।
- नृत्य की शिक्षा के लिए पहले-पहल बिरजू महाराज किस संस्था से जुड़े और वहाँ किनके सम्पर्क में आए ?
उत्तर-नृत्य की शिक्षा के लिए पहले-पहल बिरजू महाराज दिल्ली में निर्मला जी के स्कूल हिन्दुस्तानी डान्स म्यूजिक से जुड़े। वहाँ वे कपिला जी, लीला कृपलानी आदि के संपर्क में आये।
- किनके साथ नाचते हुए बिरजू महाराज को पहली बार प्रथम पुरस्कार मिला ?
उत्तर-कलकत्ता में बिरजू महाराज को पहली बार प्रथम पुरस्कार मिला। वहाँ शम्भू महाराज चाचा जी और बाबू जी दोनों नाचे।
- बिरजू महाराज के गुरु कौन थे ? उनका संक्षिप्त परिचय दें ।
उत्तर- बिरजू महाराज के गुरु उनके बाबूजी थे। वे अच्छे स्वभाव के थे। वे अपने दुःख को व्यक्त नहीं करते थे। उन्हें कला से बेहद प्रेम था। जब बिरजू महाराज साढ़े नौ साल के थे, उसी समय बाबूजी की मृत्यु हो गई। बिरजू महाराज को तालीम बाबूजी ने ही दिया।
- बिरजू महाराज ने नृत्य की शिक्षा किसे और कब देनी शुरू की ?
उत्तर- बिरजू महाराज ने नृत्य की शिक्षा रश्मि जी को करीब 56 के आसपास जब उन्हें सीखने वाले की खोज थी, देनी शुरू की। उस समय महाराज को सही पात्र की खोज थी।
- बिरजू महाराज के जीवन में सबसे दुखद समय कब आया ? उससे संबंधित प्रसंग का वर्णन कीजिए।
उत्तर- जब महाराज जी के बाबूजी की मृत्यु हुई तब उनके लिए बहुत दुखदायी समय व्यतीत हुआ। घर में इतना भी पैसा नहीं था कि दसवाँ किया जा सके। इन्होंने दस दिन के अन्दर दो प्रोग्राम किए। उन दो प्रोग्रामों से 500 रु० इकट्ठे हुए तब दसवाँ और तेरह की गई। ऐसी हालत में नाचना एवं पैसा इकट्ठा करना महाराजजी के जीवन में सबसे दुःखद समय था।
- शंभु महाराज के साथ बिरजू महाराज के संबंध पर प्रकाश डालिए ।
उत्तर-शंभू महाराज के साथ बिरजू महाराज बचपन में नाचा करते थे। आगे भारतीय कला केन्द्र में उनका सान्निध्य मिला। शंभू महाराज के साथ सहायक रहकर कला के क्षेत्र में विकास किया। शम्भू महाराज उनके चाचा थे। बचपन से महाराज को उनका मार्गदर्शन मिला।
- कलकत्ते के दर्शकों की प्रशंसा का बिरजू महाराज के नर्तक जीवन पर क्या प्रभाव पड़ा ?
उत्तर- कलकत्ते के एक कांफ्रेंस में महाराजजी नाचे। उस नाच की कलकत्ते के श्रोताओं दर्शकों ने प्रशंसा की। तमाम अखबारों में छा गये। वहाँ से इनके जीवन में एक मोड़ आया। उस समय से निरंतर आगे बढ़ते गये।
- संगीत भारती में बिरजू महाराज की दिनचर्या क्या थी ?
उत्तर-संगीत भारती में प्रारंभ में 250 रु० मिलते थे। उस समय दरियागंज में रहते थे। वहाँ से प्रत्येक दिन पाँच या नौ नंबर का बस पकड़कर संगीत भारतीय पहुँचते थे। संगीत भारती में इन्हें प्रदर्शन का अवसर कम मिलता था। अंततः दुःखी होकर नौकरी छोड़ दी।
- बिरजू महाराज कौन-कौन से वाद्य बजाते थे ?
उत्तर- बिरजू महाराज सितार, गिटार, हारमोनियम, बाँसुरी, तबला और सरोद आदि बजाया करते थे।
- अपने विवाह के बारे में बिरजू महाराज क्या बताते हैं ?
उत्तर- बिरजू महाराज की शादी 18 साल की उम्र में हुई थी। उस समय विवाह करना महाराज अपनी गलती मानते हैं। लेकिन बाबूजी की मृत्यु के बाद माँ ने घबराकर जल्दी में शादी कर दी। शादी को नुकसानदेह मानते हैं। विवाह की वजह से नौकरी करते रहे।
- बिरजू महाराज की अपने शागिदों के बारे में क्या राय है ?
उत्तर- बिरजू महाराज अपने शिष्या रश्मि वाजपेयी को भी अपना शार्गिद बताते हैं। वे उन्हें शाश्वती कहते हैं। इसके साथ ही वैरोनिक, फिलिप, मेक्लीन, टॉक, तीरथ प्रताप प्रदीप, दुर्गा इत्यादि को उन्होंने अपना प्रमुख शार्गिद बताया है। वे लोग तरक्की कर रहे हैं, प्रगतिशील बने हुए हैं, इसकी भी चर्चा भी उन्होंने किया है।
- व्याख्या करें –
(क) पाँच सौ रुपए देकर मैंने गण्डा बँधवाया ।
व्याख्या-प्रस्तुत पंक्तियाँ हमारी पाठ्यपुस्तक के ‘जित-जित में निरखत’ हूँ। पाठ से ली गयी हैं। इन पंक्तियों का संबंध लेखक के नृत्य और उनके व्यक्तिगत जीवन से है। बिरजूजी का कहना है कि मेरे नाच पर बहुत लोग खुश हो जाते हैं, देखने आते हैं, ये मेरे चाहनेवाले हैं, मरे आशिक हैं। लेकिन फिर बिरजू महाराज स्वयं को प्रस्तुत करते हुए कहते हैं कि मेरा क्या? लोग तो मेरे
नृत्य की वजह से मेरी तारीफ करते हैं, मुझे चाहते हैं। मेरे और लोगों के बीच जो प्रेम-संबंध है वह तो नाच के कारण है। उसमें मैं कहाँ। वहाँ तो कला है, नाच है। मैं तो उस नाच का असिस्टेंट हूँ। सहायक हूँ।
इन पंक्तियों में बिरजूजी अपने को और नाच के बीच लोगों के प्यार, स्नेह, सम्मान की चर्चा करते हुए कहते हैं कि सम्मान मेरा नहीं मेरे नाच का है। मैं तो उसका सहायक हूँ। इस प्रकार कला या गुण सर्वोपरि है। आदमी कुछ नहीं है। उसकी गुणवत्ता की पूजा होती है, सम्मान मिलता है।
(ख) मैं कोई चीज चुराता नहीं हूँ कि अपने बेटे के लिए ये रखना है, उसको सिखाना है।
व्याख्या- प्रस्तुत पंक्तियाँ हमारी पाठ्यपुस्तक से ‘जित जित मैं निरखत हूँ पाठ से ली गयी हैं। इन पंक्तियों का संबंध बिरजू महाराज के गुरु-शिष्य संबंध से है। जब बिरजूजी किसी को नृत्य सिखाते थे तो कोई भी कला चुराते नहीं थे। यानी लड़का-लड़की का भेदभाव नहीं रखते थे। समान व्यवहार और समान शिक्षा देते थे। यह नहीं कि किसी को किसी भाववश कुछ सिखाया और कुछ चुरा लिया। अपने बेटे और अन्य शिष्यों में भी कोई भेदभाव नहीं रखते थे।
उनकी शिष्यों के प्रति उदार भावना थी और भीतर मन में किसी भी प्रकार की कलुषित भावना नहीं थी। उनमें यह भेद नहीं था कि बेटे के लिए अच्छी चीजों को चुराकर रखना है, दूसरों को आधी-अधूरी शिक्षा देनी है। इन पंक्तियों में बिरजूजी के मनोभावों का पता चलता है। उनमें पुत्र-शिष्य का लड़का-लड़की का भेदभाव नहीं था। विचार में पवित्रता और गुरु की सदाशयता थी।
(ग) मैं तो बेचारा उसका असिस्टेंट हूँ। उस नाचने वाले का ।
व्याख्या- प्रस्तुत पंक्तियाँ हमारी पाठ्यपुस्तक से ‘जित जित मैं निरखत हूँ पाठ से ली गयी हैं। इन पंक्तियों का संबंध बिरजू महाराज के गुरु-शिष्य संबंध से है। जब बिरजूजी किसी को नृत्य सिखाते थे तो कोई भी कला चुराते नहीं थे। यानी लड़का-लड़की का भेदभाव नहीं रखते थे। समान व्यवहार और समान शिक्षा देते थे। यह नहीं कि किसी को किसी भाववश कुछ सिखाया और कुछ चुरा लिया। अपने बेटे और अन्य शिष्यों में भी कोई भेदभाव नहीं रखते थे।
उनकी शिष्यों के प्रति उदार भावना थी और भीतर मन में किसी भी प्रकार की कलुषित भावना नहीं थी। उनमें यह भेद नहीं था कि बेटे के लिए अच्छी चीजों को चुराकर रखना है, दूसरों को आधी-अधूरी शिक्षा देनी है। इन पंक्तियों में बिरजूजी के मनोभावों का पता चलता है। उनमें पुत्र-शिष्य का लड़का-लड़की का भेदभाव नहीं था। विचार में पवित्रता और गुरु की सदाशयता थी।
- बिरजू महाराज अपना सबसे बड़ा जज किसको मानते थे ?
उत्तर- बिरजू महाराज अपना सबसे बड़ा जज अपनी अम्मा को मानते थे। जब वे नाचते थे और अम्मा देखती थी तब वे अम्मा से अपनी कमी या अच्छाई के बारे में पूछा करते थे। उसने बाबूजी से तुलना करके इनमें निखार लाने का काम किया।
- पुराने और आज के नर्तकों के बीच बिरजू महाराज क्या फर्क पाते हैं ?
उत्तर- पुराने नर्तक कला प्रदर्शन करते थे। कला प्रदर्शन शौक था। साधन के अभाव में भी उत्साह होता था। कम जगह में गलीचे पर गड्डा, खाँचा इत्यादि होने के बावजूद बेपरवाह होकर कला प्रदर्शन करते थे। लेकिन आज के कलाकार मंच की छोटी-छोटी गलतियों को ढूंढते हैं। चर्चा का विषय बनाते हैं। उस समय न एयर कंडीशन होता, न ही बहुत अधिक अन्य सुविधाएँ। उसके बावजूद उत्साह था, लेकिन आज सुविधा की पूर्णता होते हुए भी मीन-मेख निकालने की परिपाटी विकसित हुई है।
भाषा की बात
- काल रचना स्पष्ट करें –
(क) ये शायद 43 की बात रही होगी ।
उत्तर- 1943 ई की।
(ख) यह हाल अभी भी है !
उत्तर- 1943 ई की।
(ग) उस उम्र में न जाने क्या नाचा रहा होऊँगा ।
उत्तर- 1943 ई की।
(घ) अब पचास रुपए में रिक्शे पर खर्च करता तो क्या बचता, और ट्यूशन में नागा हो तो पैसा अलग काट लेते थे ।
उत्तर- 1948 ई की।
(ङ) पचास रुपए में काम करके किसी तरह पढ़ता रहा मैं ।
उत्तर- 1948 ई की।
- अर्थ की रक्षा करते हुए वाक्य की बनावट बदलें –
(क) चौदह साले की उम्र में, जब मैं वापस लखनऊ आया फेल होकर, तब कपिला जी अचानक लखनऊ पहुँचीं मालूम करने कि लड़का जो है वह कुछ करता भी है या आवारा या गिरहकट हो गया, वह है कहाँ ।
उत्तर- चौदह साल की उम्र में फेल होकर लखनऊ आया कपिला जी अचानक लखनऊ आकर पता किया कि लड़का क्या कर रहा है।
(ख) वह तीन साल मैंने खूब रियाज किया, मतलब यही सोचकर कि यही टाइम है अगर कुछ बढ़ना है तो अंधेरा कमरा करके किया करता था जब बाद में थक जाऊँ मैं तो जो भी साज हाथ आए कभी सितार, कभी गिटार, कभी हारमोनियम लेकर बजाऊँ मतलब रिलैक्स होने के लिए ।
उत्तर- अंधेरा कमरा करके तीन साल में खूब रियाज किया और थक जाने पर सितार, गिटार, हारमोनियम रिलेक्स के लिए बजाता।
- पाठ से ऐसे दस वाक्यों का चयन कीजिए जिससे यह साबित होता हो कि ये वाक्य आमने-सामने बैठे व्यक्तियों के बीच की बातचीत के हैं, लिखित भाषा के नहीं ।
उत्तर- (क) जन्म मेरा लखनऊ के जफरीन अस्पताल में 1938, 4 फरवरी, शुक्रवार, सुबह 8 बजे।
(ख) आपको मंच का कुछ अनुभव या संस्मरण बचपन के हैं।
(ग) आपको आगे बढ़ाने में अम्मा जी का बहुत बड़ा हाथ है।
(घ) अब तुम हो इतने अर्से से।
(ङ) शाश्वती लगी हुई है।
(च) लड़कों में कृष्णमोहन, राममोहन को उतना ध्यान नहीं है।
(छ) आपको संगीत नाटक अकादेमी अवार्ड कब मिला।
(ज) केशवभाई और मैं साथ ही रहते थे।
(अ) शागिर्द मैं बाबूजी का हूँ।
- निम्नलिखित वाक्यों से अव्यय का चुनाव करें
(क) जब अंडा कहकर पूछें तो नहीं खाता था, पर जब मूंग की दाल कहें तो बड़े मजे से खा लेता था ।
उत्तर- जब, तो, पर, तो आदि।
(ख) एक सीताराम बागला करके लड़का था अमीर घर का ।
उत्तर- एक, करके।
(ग) बिलकुल पैसा नहीं था घर में कि उनका दसवाँ किया जा सके ।
उत्तर-बिलकुल, जा आदि
(घ) फिर जब एक साल हो गया तो कहने लगे कि अब तुम परमानेंट हो गए।
उत्तर-फिर, जब, एक, तो, अब आदि।
शब्द निधि
क्रोड़स्थ:गोद या अंक में स्थित
हलकारे: संदेशवाहक, कारिंदा
साफा: साफ लंबा वस्त्र जिसे नर्तक कंधे से लेकर कमर तक लपेट लेता है
अचकन: पोशाक विशेष
मेजरमेंट:नाप, माप
मस्का:मक्खन (मस्का लगाना या मक्खन लगाना मुहावरा भी है)
परन: तबले के वे बोल जिन पर नर्तक नाचता और ताल देता है
बंदिश:ठुमरी या अन्य प्रकार के गायन के बोल, स्थायी
दाल का चिल्ला :उबले हुए दाल को मसलकर बनाया गया व्यंजन
गण्डा बाँधना: दीक्षित करना, शिष्य स्वीकार करना
नजराना: भेंट, उपहार, गुरुदक्षिणा
नागा: अनुपस्थित, हाजिर नहीं होना, गायब रहना
गिरहकट: पैंतरेबाज, गाँठ काट लेनेवाला, पाकेटमार विशेष
परमानेंट: स्थायी
चरण: छंद की एक इकाई
टुकड़े: किसी पद की पंक्ति
तिहाइयाँ: तीसरे हिस्से
बैले: यूरोपीय नृत्य विशेष जिसमें कथानक, भावाभिनय और नृत्य तीनों शामिल होते हैं
अरसा: समय, अवधि
गलीचा: फर्श या बिस्तर जो नरम हो
मिजराब: सितार बजाने का एक तरह का छल्ला
लहरा: छंदमय आरोही गति जो भावप्रसंग के साथ हो
शागिर्द:शिष्य
लाजवाब:जिसका जवाब न हो, अद्वितीय, अनुपम