Bihar Board (बिहार बोर्ड) Solution of Class-10 Hindi (हिन्दी) Gadya Chapter-9 Avinyo (आविन्यों) गोधूलि

Bihar Board (बिहार बोर्ड) Solution of Class-10 Hindi Gadya Chapter-9  Avinyo (आविन्यों) अशोक वाजपेयी 

Dear Students! यहां पर हम आपको बिहार बोर्ड  कक्षा 10वी के लिए हिन्दी गोधूलि  भाग-2 का पाठ-9 आविन्यों अशोक वाजपेयी  Bihar Board (बिहार बोर्ड) Solution of Class-10 Hindi (हिन्दी) Gadya Chapter-9 Avinyo संपूर्ण पाठ  हल के साथ  प्रदान कर रहे हैं। आशा करते हैं कि पोस्ट आपको पसंद आयेगी और आप इसे अपने दोस्तों में शेयर जरुर करेंगे।

Chapter Name Avinyo (आविन्यो)
Chapter Number Chapter- 9  
Board Name Bihar Board  (B.S.E.B.)
Topic Name संपूर्ण पाठ 
Part
भाग-2 Gadya Khand (गद्य खंड )

Avinyo (आविन्यों)

अशोक वाजपेयी

अशोक वाजपेयी का जन्म 16 जनवरी 1941 ई० में दुर्ग, छत्तीसगढ़ में हुआ, किंतु उनका मूल निवास सागर, मध्यप्रदेश है। उनकी माता का नाम निर्मला देवी और पिता का नाम परमानंद वाजपेयी है । उनकी प्रारंभिक शिक्षा गवर्नमेंट हायर सेकेंड्री स्कूल, सागर से हुई। फिर सागर विश्वविद्यालय से उन्होंने बी० ए० और सेंट स्टीफेंस कॉलेज, दिल्ली से अंग्रेजी में एम० ए० किया। उन्होंने वृत्ति के रूप में भारतीय प्रशासनिक सेवा को अपनाया । वे भारतीय प्रशासनिक सेवा के कई पदों पर रहे और महात्मा गाँधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के प्रथम कुलपति पद से सेवानिवृत्त हुए। संप्रति, वे दिल्ली में भारत सरकार की कला अकादमी के निदेशक हैं।

अशोक वाजपेयी की लगभग तीन दर्जन मौलिक और संपादित कृतियाँ प्रकाशित हैं। ‘शहर अब भी संभावना है’, ‘एक पतंग अनंत में’, ‘तत्पुरुष’, ‘कहीं नहीं वहीं’, ‘बहुरि अकेला’, थोड़ी सी जगह’, ‘दुख चिट्ठीरसा है’ आदि उनके कविता संकलन हैं। ‘फिलहाल, ‘कुछ पूर्वग्रह’, ‘समय से बाहर’, ‘कविता का गल्प’, ‘कवि कह गया है’ आदि उनकी आलोचना की पुस्तकें हैं। उनके द्वारा संपादित पुस्तकों की सूची भी लंबी है. ‘तीसरा साक्ष्य’, ‘साहित्य विनोद’, ‘कला विनोद’, ‘कविता का जनपद’, मुक्तिबोध, २० मशेर और अज्ञेय की चुनी हुई कविताओं का संपादन आदि। उन्होंने कई पत्रिकाओं का भी संपादन किया है जिनमें ‘समवेत’, ‘पहचान’, ‘पूर्वग्रह’, ‘बहुवचन’, ‘कविता एशिया’, ‘समास’ आदि प्रमुख हैं। अशोक वाजपेयी को साहित्य अकादमी पुरस्कार, दयावती मोदी कवि शेखर सम्मान, फ्रेंच सरकार का ऑफिसर आव् द आर्डर आव् क्रॉस 2004 सम्मान आदि प्राप्त हो चुके हैं।

सर्जक साहित्यकार अशोक वाजपेयी द्वारा रचित प्रस्तुत पाठ में एक संश्लिष्ट रचनाधर्मिता की अंतरंग झलक है। यह पाठ उनके ‘आविन्यों’ नामक गद्य एवं कविता के सर्जनात्मक संग्रह से संकलित है। इसी नाम के संग्रह में उनकी सर्जनात्मक गद्य की कुछ रचनाएँ और कविताएँ हैं जिनमें से दोनों विधाओं की दो रचनाओं के साथ पुस्तक की भूमिका भी किंचित संपादित रूप में यहाँ प्रस्तुत है। आविन्यों दक्षिणी फ्रांस का एक मध्ययुगीन ईसाई मठ है जहाँ लेखक ने बीस-एक दिनों तक एकांत रचनात्मक प्रवास का अवसर पाया था। प्रवास के दौरान लगभग प्रतिदिन गद्य और कविताएँ लिखी गई। इस तरह हिंदी ही नहीं, भारत से भिन्न स्थान और परिवेश के एकांत प्रवास में एक निश्चित स्थान और समय से अनुबद्ध मानस के सर्जनात्मक अनुष्ठान का साक्षी यह पाठ एक वैश्विक जागरूकता और संस्कृतिबोध से परिपूर्ण रचनाकार के मानस की अंतरंग झलक पेश करते हुए यह दिखाता है कि रचनाएँ कैसे रूप-आकार ग्रहण करती हैं। कोई भी रचना महज एक शब्द व्यवस्था भर नहीं होती, उसकी निर्माण प्रक्रिया में रचनाकार की प्रतिभा, उसके जटिल मानस के साथ स्थान और परिवेश की भूमिका भी महत्त्वपूर्ण होती है।

आविन्यों

लगभग दस बरस पहले पहली बार आविन्यों गया था । दक्षिण फ्रांस में रोन नदी के किनारे बसा एक पुराना शहर है जहाँ कभी कुछ समय के लिए पोप की राजधानी थी और अब गर्मियों में फ्रांस और यूरोप का एक अत्यन्त प्रसिद्ध और लोकप्रिय रंग-समारोह हर बरस होता है। उस बरस वहाँ भारत केन्द्र में था। पीटर ब्रुक का विवादास्पद ‘महाभारत’ पहले पहल प्रस्तुत किया जानेवाला था और उन्होंने मुझे निमंत्रण भेजा था । पत्थरों की एक खदान में, आविन्यों से कुछ मिलोमीटर दूर, वह भव्य प्रस्तुति हुई थीः सच्चे अर्थों में महाकाव्यात्मक। कुछ दिनों और ठहरा रहा था कुमार गन्धर्व आए थे और उन्होंने एक आर्कबिशप के पुराने आवास के बड़े से आँगन में गाया था। एक बन्दिश भी याद है द्रुमद्रुम लता-लता । इस समारोह के दौरान वहाँ के अनेक चर्च और पुराने स्थान रंगस्थलियों में बदल जाते हैं।

रोन नदी के दूसरी ओर आविन्यों का एक और हिस्सा है जो लगभग स्वतन्त्र है। नाम है वीलनव्व ल आविन्यों अर्थात् आविन्यों का नया गाँव या शायद कहना चाहिए नई बस्ती। वहाँ दरअसल फ्रेंच शासकों ने पोप की गतिविधियों पर नजर रखने के लिए किला बनवाया था। उसी में कार्भूसियन सम्प्रदाय का एक ईसाई मठ बना ला शत्रूज़ । चौदहवीं सदी से फ्रेंच क्रांति तक उसका धार्मिक उपयोग होता रहा। यह सम्प्रदाय मौन में विश्वास करता है सो सारा स्थापत्य एक तरह से मौन का ही स्थापत्य था । क्रांति होने पर इस स्थान और उसकी सभी इमारतों पर साधारण लोगों ने कब्जा कर लिया और वे उसमें रहने लगे। इस सदी की शुरुआत में तो ला शत्रूज़ के जीर्णोद्धार की शुरुआत हुई और धीरे-धीरे अधिकांश पुराने स्थानों और इ‌मारतों को वापस खरीद कर उनका बहुत सम्वेदनशील और सुघर जीर्णोद्धार कर उन्हें यथासंभव पहले जैसा करने की सफल कोशिश की गई। उसे एक संरक्षित स्मारक बनाए रखकर भी उसमें एक कलाकेन्द्र की स्थापना की गई। यह केन्द्र इन दिनों रंगमंच और लेखन से जुड़ा हुआ है। रंगकर्मी, रंगसंगीतकार, अभिनेता, नाटककार आदि वहाँ आते हैं और पुराने ईसाई सन्तों के चैम्बर्स में कुछ अवधि के लिए रहकर सारा समय अपना रचनात्मक काम करने में बिताते हैं। दो-दो कमरों के चैम्बर सुसज्जित हैं। उसमें फर्नीचर चौदहवीं सदी जैसा है पर सर्वथा आधुनिक रसोईघर और नहानघर हैं। एक अत्याधुनिक संगीत व्यवस्था भी है। चैम्बरों के मुख्य द्वार कब्रगाह के चारों ओर बने गलियारों में खुलते हैं पर पीछे आँगन भी हैं और पिछवाड़े से एक दरवाजा भी। सप्ताह के पाँच दिनों में शाम को सबको एक स्थान पर रात का भोजन करने की सुविधा है: बाकी हर दिन ‘का नाश्ता और दोपहर का भोजन अपनी सुविधा से, जहाँ चाहें वहाँ, अपने ही चैम्बर में. खुद बनाकर । दिन में औसतन पचासेक सैलानी यह जगह देखने आते हैं। अन्यथा बेहद शान्त और नीरव स्थान है।

वीलनव्व एक छोटा सा गाँव है जहाँ एक पुस्तकों-पत्रिकाओं की दुकान, एक डिपार्टमेंटल स्टोर, एक कब्रगाह, कई रेस्तराँ और बार आदि हैं। आलिन्यों और आस-पास के अन्य शहरों-कस्बों से बस-व्यवस्था सुलभ है ।

फ्रेंच सरकार के सौजन्य से ला शत्रूज़ में रहकर अपना कुछ काम करने का एक न्यौता मुझे पिछली गर्मियों में मिला था। तब नहीं जा पाया था। यों अवधि तो एक महीने की थी पर इतना समय निकालना कठिन था। सो कुछ उन्नीस दिन वहाँ रहा, 24 अक्टूबर से 10 नवम्बर 1994 की दोपहर तक । अपने साथ हिन्दी का टाइपराइटर, तीन-चार पुस्तकें और कुछ संगीत के टेप्स भर ले गया था। सिर्फ अपने में रहने और लिखने के अलावा प्रायः कुछ और करने की कोई विवशता न होने का जीवन में यह पहला ही अवतर था । इतने निपट एकान्त में रहने का भी कोई अनुभव नहीं था । कुल उन्नीस दिनों में पैंतीस कविताएँ और सत्ताईस गद्य रचनाएँ लिखी गईं।

आविन्यों फ्रांस का एक प्रमुख कलाकेन्द्र रहा है। पिकासो की विख्यात कृति का शीर्षक है ‘ल मादामोजेल द आविन्यों’। कभी अति यथार्थवादी कवित्रयी आन्द्रे ब्रेताँ, रेने शॉ और पाल -एजुआर ने मिलकर लगभग तीस संयुक्त कविताएँ आविन्यों में साथ रहकर लिखी थीं । ला शत्रूज़ के निदेशक ने जब इस पुस्तक की सामग्री देखी थी तो उन्हें इतनी अल्पावधि में इतने काम पर अचरज हुआ था । अचरज मुझे भी कम नहीं है। वे सुन्दर, निविड़, सघन, सुनसान दिन और रातें थींः भय, पवित्रता और आसक्ति से भरी हुई। यह पुस्तक उन सबकी स्मृति का दस्तावेज है। आविन्यों को, उसी के एक मठ में रहकर लिखी गई, कविप्रणति भी। हर जगह हम कुछ पाते, बहुत सा गँवाते हैं। ला शत्रूज़ में जो पाया उसके लिए गहरी कृतज्ञता मन में है और जो गँवाया उसकी गहरी पीड़ा भी ।

प्रतीक्षा करते हैं पत्थर

किसी देवता या काल की नहीं

पता नहीं किसकी प्रतीक्षा करते हैं पत्थर-

धीरज से

रेशा-रेशा झिरते हुए,

शिरा-शिरा छिलते हुए,

प्रतीक्षारत रहते हैं पत्थर ।

मेंह गिरता है, सूखी पत्तियाँ, धूप गिरती है,

गिरती हैं आवाजें,

भाँय-भाँय करतां रात का बियाबान और अँधेरा-

अपने अभेद्य हृदय में

कोई प्राचीन धुन दुहराते हुए,

प्रतीक्षा में बैठे रहते हैं पत्थर ।

हरे सपने भूरी पहेलियाँ पीला पड़ता समय

छीजती भाषा आदिम अँधेरा

सब घेरता है पत्थरों को-

पर अपलक बाट अगोरते

एक बेहद्दी चौगान में खड़े रहते हैं पत्थर ।

बिना भाथा झुकाये प्रार्थना करते हैं पत्थर,

बिना पसीजे कामना करते हैं पत्थर,

बिना शब्द कविता लिखते हैं पत्थर ।

पता नहीं किसकी प्रतीक्षा करते हैं पत्थर-

नदी के किनारे भी नदी है

यहाँ पास में ही रोन नदी है। इस तरफ वीलनंव्व और दूसरी ओर आविन्यों । अभी नहीं पर पिछले वर्ष हम बहुत देर तक उसके तट पर बैठे थे। अगर जलप्रवाह को एकटक देखते रहो तट पर बैठे तो कई बार लगता है कि जल स्थिर है और तट ही बह रहा है। नदी तट पर बैठना भी नदी के साथ बहना है: कई बार नदी स्थिर होती है, हम तट पर बैठे रहते हैं। नदी के पास होना नदी होना है । विनोद कुमार शुक्ल अपनी एक कविता में ‘नदी चेहरा लोगों’ से मिलने जाने की बात कहते हैं। शायद सिर्फ नदी किनारे रहने वाले ही नदी चेहरा नहीं हो जाते, हम जो कभी-कभार और थोड़ी देर के लिए नदी किनारे जा-बैठ पाते हैं हम भी कुछ देर के लिए ही सही, नदी-चेहरा हो जाते हैं। नदी किसी को अनदेखा नहीं करतीः वह सबको भिंगोती है, अपने साथ करती है। थोड़ी सी देर के लिए भी गए नदी की बिरादरी में शामिल हो जाते हैं। नदी के समान ही कविता सदियों से हमारे साथ रही है। उसमें न जाने कहाँ-कहाँ से जल आकर मिलते और विलीन होते रहते हैं: वह सागर में समाहित होती रहती है हर दिन ही, पर उसमें जल का टोटा नहीं पड़ता। कविता में भी न जाने कहाँ से कैसी-कैसी बिम्बमालाएँ, शब्द भंगिमाएँ, जीवन छवियाँ और प्रतीतियाँ आकर मिलती और तदाकार होती रहती हैं। जैसे नदी जल-रिक्त नहीं होती, वैसे ही कविता शब्द-रिक्त नहीं होती । न नदी के किनारे, न ही कवि के पास हम तटस्थ रह पाते हैं: अगर हम खुलेपन से गए हैं तो हम उसकी अभिभूति से तच नहीं सकते । नदी और कविता में हम बरबस ही शामिल हो जाते हैं। जैसे हमारे चेहरों पर नदी की आभा आती है, वैसे ही हमारे चेहरों पर कविता की चमक । निरन्तरता, नदी और कविता दोनों में हमारी नश्वरता का अनन्त से अभिषेक करती है ।

एक कविता-पंक्ति हैः “कैसी तुम नदी हो ?” उत्तर हो सकता है: “जैसी तुम कविता हो !”

बोध और अभ्यास

पाठ के साथ

  1. आविन्यों क्या है और वह कहाँ अवस्थित है?

उत्तर- आविन्यों एक स्थान का नाम है। दक्षिण फ्रांस में रोन नदी के किनारे बसा एक पुराना शहर है।।

2.हर बरस आविन्यों में कब और कैसा समारोह हुआ करता है?

उत्तर- गर्मियों में फ्रांस और यूरोप का एक अत्यन्त प्रसिद्ध और लोकप्रिय रंग-समारोह हर बरस होता है।

3.लेखक आविन्यों किस सिलसिले में गए थे? वहाँ उन्होंने क्या देखा-सुना?

उत्तर- पीटर ब्रुके का विवादास्पद ‘महाभारत’ पहले पहल प्रस्तुत किया जाने वाला था। उसी के निमन्त्रण पर लेखक आविन्यों गये थे। वहाँ उन्होंने देखा कि समारोह के दौरान वहाँ के अनेक चर्च और पुराने स्थान रंगस्थलियों में बदल जाते हैं।

4.ला शत्रूज़ क्या है और वह कहाँ अवस्थित है? आजकल उसका क्या उपयोग होता है?

उत्तर– दरअसल फ्रेंच शासकों ने पोप की गतिविधियों पर नजर रखने के लिए किला बनवाया था। यह आविन्यों में है। उसमें एक कलाकेन्द्र की स्थापना की गई है। यह केन्द्र इन दिनों रंगमंच और लेखन से जुड़ा हुआ है।

5.ला शत्रूज़ का अंतरंग विवरण अपने शब्दों में प्रस्तुत करते हुए यह स्पष्ट कीजिए कि लेखक ने उसके स्थापत्य को ‘मौन का स्थापत्य’ क्यों कहा है?

उत्तर- ला शत्रूज फ्रेंच शासकों द्वारा निर्मित किला में काथूसियन सम्प्रदाय का एक ईसाई मठ है। उसके भीतरी भाग में ईसाई सन्तों के चैम्बर्स बने हुए हैं। दो-दो कमरों के चैम्बर सुसज्जित हैं। चौदहवीं सदी के फर्नीचर लगे हैं। चैम्बरों के मुख्य द्वार कब्रगाह के चारों ओर बने गलियारों में खुलते हैं। कार्थसियन सम्प्रदाय मौन में विश्वास करता है। उसके द्वारा ला शत्रूज में सारा स्थापत्य मौन का ही स्थापत्य है। अतः लेखक ने इसे ‘मौन का स्थापत्य’ की संज्ञा दी है।

6.लेखक आविन्यों क्या साथ लेकर गए थे और वहाँ कितने दिनों तक रहे? लेखक की उपलब्धि क्या रही ?

उत्तर- लेखक आविन्यों अपने साथ हिन्दी का टाइपराइटर, तीन चार पुस्तकें और कुछ संगीत के टेप्स लेकर गए थे और वहाँ वे उन्नीस दिन 24 अक्टूबर से 10 नवम्बर, 1994 की दोपहर तक रहे। कुल उन्नीस दिनों में वहाँ रहकर उन्होंने पैंतीस कविताएँ और सत्ताईस गद्य की रचना की।

7.’प्रतीक्षा करते हैं पत्थर’ शीर्षक कविता में कवि क्यों और कैसे पत्थर का मानवीकरण करता है?

उत्तर- कवि महोदय का एकान्त वास मौन में विश्वास रखने वाले सम्प्रदाय के स्थान में था। उनके ऊपर भी मौन साधना का प्रभाव हुआ। वे एकाएक मौन रूप से प्रतीक्षा कर रहे पत्थर को ही मानवीकरण कर डाला।

8.आविन्यों के प्रति लेखक कैसे अपना सम्मान प्रदर्शित करते हैं?

उत्तर- वे सुन्दर, निविड़, सघन, सुनसान दिन और रातें थीं, भय, पवित्रता और आसक्ति से भरी हुई। यह पुस्तक उन सबकी स्मृति का दस्तावेज है। आविन्यों को उसी के मठ में रहकर लिखी गई, कवि प्रजाति भी। जो पाया उसके लिए गहरी कृतज्ञता मन में है।

9.मनुष्य जीवन से पत्थर की क्या समानता और विषमता है?

उत्तर- मानवीय जीवन में सुख और दुःख के समय व्यतीत होते हैं। जीवन परिवर्तनशील पथ पर अग्रसर होता है। मानव उतार-चढ़ाव देखता है। पत्थर भी मानव की तरह परिवर्तनशील समय का सामना करता है। पत्थर भी शीत और ताप दोनों का सान्निध्य पाता है। मानव अपनी प्राचीन गाथा को गाता है। पत्थर भी प्राचीनता को अपने में सहेजे रखता है। मानव अपनी भावनाओं को प्रकट करता है। अपने अनुभव को व्यक्त करता है। परन्तु पत्थर मूक रहता है। हर स्थिति से गुजरते हुए अभिव्यक्त नहीं करता है। मनुष्य की कविता में शब्द होते हैं लेकिन पत्थर निःशब्द कविता रचता है। मनुष्य झुककर नमन करता है लेकिन पत्थर बिना माथा झुकाए प्रार्थना करता है। इस प्रकार मनुष्य जीवन से पत्थरों की समानता और विषमता दोनों है।

  1. इस कविता से आप क्या सीखते हैं?

उत्तर- इस कविता से हमलोग सीखते हैं कि अपने लक्ष्य के प्रति मौन रहकर कर्म करना। अनेक प्रकार के झंझावातों को सहन करते हुए लक्ष्य को प्राप्त करना।

11.नदी के तट पर बैठे हुए लेखक को क्या अनुभव होता है?

उत्तर- नदी के तट पर बैठे हुए लेखक को लगता है कि जल स्थिर है और तट ही बह रहा है। उन्हें अनुभव हो रहा है कि वे नदी के साथ बह रहे हैं। नदी के पास रहने से लगता है कि स्वयं नदी हो गये हैं। स्वयं में नदी की झलक देखते हैं।

12.नदी तट पर लेखक को किसकी याद आती है और क्यों?

उत्तर-नदी तट पर लेखक को विनोद कुमार शुक्ल की एक कविता याद आती है। क्योंकि लेखक नदी तट पर बैठकर अनुभव करते हैं कि वे स्वयं नदी हो गये हैं। इसी बात की पुष्टि करते हुए शुक्ल जी ने “नदी-चेहरा लोगों” से मिलने जाने की बात कहते हैं। उनकी रचना लेखक को प्रासंगिक लगी। अतः लेखक को शुक्ल की कविता याद आती है।

13.नदी और कविता में लेखक क्या समानता पाता है?

उत्तर- जिस प्रकार नदी सदियों से हमारे साथ रही है उसी प्रकार कविता भी मानव की जीवन-संगिनी रही है। नदी में विभिन्न जगहों से जल आकर मिलते हैं और वह प्रवाहित होकर सागर में समाहित होते रहते हैं। हर दिन सागर में समाहित होने के बावजूद उसमें जल का टोटा नहीं पड़ता। कविता में भी विभिन्न विडम्बनाएँ, शब्द भंगिमाओं, जीवन छवियों और प्रतीतियाँ आकर मिलती हैं और तदाकार होती रहती हैं। जैसे नदी जल-रिक्त नहीं होती, वैसे ही कविता शब्द-रिक्त नहीं होती। इस प्रकार नदी और कविता में लेखक अनेक समानता पाता है।

14.किसके पास तटस्थ रह पाना संभव नहीं हो पाता और क्यों?

उत्तर- नदी और कविता के पास रहकर तटस्थ रह पाना संभव नहीं है। नदी किसी को अनदेखा नहीं करती वह सबको भिगोती है, अपने साथ करती है। कविता में भी न जाने कहाँ से कैसी-कैसी बिम्बमालाएँ शब्द भंगिमाएँ, जीवन छवियाँ और प्रतीतियाँ आकर मिलती और तदाकार होती रहती हैं। हम इसकी अभिभूति से बच नहीं सकते।

भाषा की बात
  1. निम्नांकित के लिंग-निर्णय करते हुए वाक्य बनाएँ

खदान, आवास, बन्दिश, इमारत, रंगकर्मी, अवधि, नहानघर, आँगन, आसक्ति, प्रणति

उत्तर- बन्दिश = बन्दिश याद है।

इमारत = इमारत पुरानी है।

रंगकर्मी = रंगकर्मी आते हैं।

अवधि = अवधि लंबी है।

नहानघर = नहानघर आधुनिक है।

ऑगन = ऑगन बड़ा है।

आसक्ति = आसक्ति बढ़ गई है।

प्रणति = प्रणति किया जाता है।

  1. निम्नांकित के समास-विग्रह करते हुए भेद बताएँ

यथासंभव, पहले-पहल, लोकप्रिय, रंगकर्मी, पचासेक, कवित्रयी, कविप्रणति, प्रतीक्षारत, अपलक, तदाकार

उत्तर- यथासंभव = संभव भर (अव्ययीभाव)

पहले-पहल = पहला-पहला (अव्ययीभाव)

लोकप्रिय = लोगों में प्रिय (सप्तमी तत्पुरूष)

रंगकर्मी = नाटक करने वाला (कर्मधारय)

पचासेक = पचास का समूह (द्विगु)

कवियित्री = कविता करने वाली (कर्मधारय)

कविप्रणति = कवि का प्रणम (षष्ठी तत्पुरूष)

प्रतीक्षारत = प्रतीक्षा में रत (सतत्पुरूष)

अपलक = न पलक (नब)

तदाकार = वस्तु के आकार (षष्ठी तत्पुरूष)

  1. पाठ से अहिन्दी स्रोत के शब्द एकत्र कीजिए ।

उत्तर- आविन्यों, रोन, पीटर बुक, आर्कबिशप, वीलननव्व, कार्यसियन, ला शत्रूज, चैम्बर्स, डिपार्टमेंटल स्टोर, रेस्तराँ, ल मादामोजेल द आविन्यों, आन्द्रे ब्रेता, रेने शॉ, पालएलुआर, आदि।

4.. निम्नलिखित शब्दों के वचन बदलें

रंगकर्मी, कविताएँ, उसकी, सामग्री, अनेक, सुविधा, अवधि, पीड़ा, पत्तियाँ, यह

उत्तर- रंगकर्मी = रंगकर्मियों

कविताएँ = कविता

उसकी = उसके

सामग्री = सामग्रियों

अनेक = एक

सुविधा = सुविधाएँ

अवधि = अवाधियों

पीड़ा = पीड़ाएँ

पत्तियाँ = पत्ती

यह = ये

शब्द निधि :

महाकाव्यात्मक : महाकाव्य की तरह व्यापक और गहरा

रंगस्थल: जहाँ नाटक मंचित हो

दुम :पेड़-पौधा

स्थापत्य :वास्तु-रचना, भवन-निर्माण की कला

जीर्णोद्धार :पुराने को नया करना

सुघर : सुंदर

चैम्बर्स : प्रकोष्ठ, कमरे

नीरव : शब्दहीन, ध्वनिहीन

निपट : नंगा, निरा, स्पष्ट

निविड़ : घना, सघन,

आसक्ति : गहरा भावात्मक लगाव

दस्तावेज : ऐसे कागजात जिनमें किसी वस्तु का सारा विवरण हो

कविप्रणति : कवि का कृतज्ञतापूर्ण प्रणाम

बियाबान : निर्जन, सुनसान

बेहद्दी चौगान: सीमाहीन खुला मैदान

तदाकार : किसी वस्तु के आकार में ढल जाना

अभिभूति : पराजय, अत्यंत प्रभावित होना

नश्वरता : भंगुरता, नाशशीलता

Bihar Board (बिहार बोर्ड) Solution of Class-10 Hindi (हिन्दी) Gadya Chapter-10 Machhli (मछली) गोधूलि

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