हिंदी भाषा की उत्पत्ति – Hindi Bhasha Ki Utpatti – Hindi Vyakarana
Hindi Vyakaran ॥ Hindi Grammar ॥ हिंदी व्याकरण ॥ सामान्य हिंदी ॥ भाषा की उत्पत्ति || Bhasa ki Utpatti
हिंदी भाषा की उत्पत्ति
भाषा नदी की धारा के प्रवाह की तरह चंचल है। वह विराम नहीं जानती। यदि कोई इसे ताकत से रोकना भी चाहे, तो यह (भाषा) उसके बंधन को तोड़ आगे निकल जाती है। यह उसकी स्वाभाविक प्रकृति और प्रवृत्ति है। हर देश की भाषा के इतिहास में ऐसी बात देखी जाती है।
भारत एक प्राचीन सनातन देश है। यहाँ के लोग विभिन्न कालों में भिन्न-भिन्न भाषाएँ बोलते और लिखते आए हैं। संस्कृत इस देश की सबसे पुरानी भाषा है, जिसका व्यवहार हमारे पुराने ऋषि-मुनियों, विद्वानों और कवियों ने समय-समय किया है। इसका प्राचीनतम रूप संसार की सर्वप्रथम कृति ‘ऋग्वेद’ में देखने को मिलता है। संस्कृत को ‘आर्यभाषा’ या ‘देवभाषा’ भी कहते हैं। यह आर्यभाषा, अनुमान है, लगभग ३५०० वर्ष पुरानी है। हिंदी इसी आर्यभाषा ‘संस्कृत’ की उत्तराधिकारिणी है, जिसकी उत्पत्ति की कथा निम्नलिखित है।
भारतीय आर्यभाषा संस्कृत का इतिहास ३५०० वर्षों का है ।
इसको तीन कालों में बाँटा गया है-
- १. प्राचीन भारतीय आर्यभाषा – काल (१५०० ई० पू० से ५०० ई० पू० तक),
- २. मध्यकालीन भारतीय आर्यभाषा – काल (५०० ई० पू० से १००० ई० तक),
- ३. आधुनिक भारतीय आर्यभाषा – काल (१००० ई० से आज तक ) ।
इन तीन कालों का संक्षिप्त भाषिक परिचय इस प्रकार है- प्रथम काल में चारों वेद, ब्राह्मण और उपनिषदों की रचना हुई, जो वैदिक संस्कृत में लिखे गए हैं। इन ग्रंथों की भाषा का रूप एक नहीं है। भाषा का सबसे पुराना रूप ‘ऋग्वेदसंहिता’ में पाया जाता है। लोगों का कहना है कि वैदिक संस्कृत का सबसे पुराना रूप तब का है जब आर्य पंजाब के आसपास निवास करते थे। फिर आर्य आगे बढ़े। इसी तरह वे पूरब की ओर बढ़ते गए और वैदिक भाषा का क्रमशः विकास होता गया। यह भाषा बोलचाल की नहीं, साहित्यिक थी, विद्वानों और मनीषियों की थी।
दर्शन – ग्रंथों के अतिरिक्त संस्कृत का उपयोग साहित्य में भी हुआ है। इसे ‘लौकिक संस्कृत’ कहते हैं। इसमें रामायण, महाभारत, नाटक, व्याकरण आदि लिखे गए। पाणिनि और कात्यायन ने संस्कृत भाषा के बिगड़ते रूप का नवीन संस्कार किया, उसे परिनिष्ठित किया और पंडितों के लिए मानक रूप प्रस्तुत किया। विदेशी विद्वानों (हार्नली, ग्रियर्सन तथा वेबर) ने इस संस्कृत को बोलचाल की भाषा नहीं माना, किंतु डॉ. भांडारकर और डॉ. गुणे ने इस मत का खंडन किया है। सच तो यह है कि साहित्य की भाषा बोलचाल की भाषा से थोड़ी भिन्न होती है । इस दृष्टि से लौकिक संस्कृत भाषा बोलचाल की भाषा से निश्चय ही दूर थी। किंतु, शिष्ट भाषा ‘बोली’ से बिलकुल अलग नहीं होती। दोनों का आदान-प्रदान होता रहता है।
प्रथम काल की प्राचीन भारतीय आर्यभाषा की कुछ भाषागत विशेषताएँ इस प्रकार हैं-
- (१) भाषा योगात्मक थी,
- (२) शब्दों में धातुओं का अर्थ प्रायः सुरक्षित था,
- (३) भाषा अपेक्षाकृत अधिक नियमबद्ध थी,
- (४) भाषा संगीतात्मक थी,
- (५) तीन लिंग और तीन वचन थे,
- (६) पदों का स्थान निश्चित नहीं था,
- (७) शब्द – भांडार में तत्सम शब्दों की संख्या अधिक थी,
- (८) दक्षिण के अनेक द्रविड़ शब्दों का उपयोग होने लगा था।
५०० ई० पू० से १००० ई० तक भारतीय आर्यभाषा एक नए युग में प्रवेश कर नई भाषा की सृष्टि एवं विकास करती रही । मूलतः इस काल में लोकभाषा का विकास हुआ। इस विकास के फलस्वरूप भाषा का जो रूप सामने आया, उसे प्राकृत कहते हैं। वैदिक संस्कृत और लौकिक संस्कृत के काल में बोलचाल की जो भाषा दबी पड़ी थी, उसने अनुकूल समय पाकर सिर उठाया और उसी का प्राकृतिक विकास ‘प्राकृत’ में हुआ।
उस काल में यह प्राकृत तीन अवस्थाओं से होकर विकसित हुई। प्रथम अवस्था में (५०० ई० पू० से ईसवीं-सन् के आरंभ तक) पालि और शिलालेखी प्राकृत सामने आई। दूसरी अवस्था में (ईसवी-सन् के आरंभ से ५०० ई० तक) अनेक प्रकार की प्राकृतों का और तीसरी अवस्था में (५०० ई० से १००० ई० तक) अपभ्रंशों का विकास हुआ।
पालि भारत की प्रथम ‘देशभाषा’ है। इसे सबसे पुरानी प्राकृत भी कहते हैं। इसी भाषा में भगवान बुद्ध और उनके अनुयायियों ने जनसाधारण को उपदेश दिए थे। सिंहल या श्रीलंका के लोग ‘पालि’ को ‘मागधी’ कहते हैं, क्योंकि इस भाषा की सृष्टि मगध में हुई थी। इसमें तत्कालीन अनेक बोलियों के तत्त्व वर्तमान हैं। इसमें तद्भव शब्दों का प्रयोग अधिक हुआ है।
पहली सदी से ५०० ई० तक उत्तर भारत के भिन्न-भिन्न भागों में जिस भाषा का व्यवहार अधिक हुआ, उसे ‘प्राकृत’ भाषा कहते हैं। आचार्य हेमचंद्र इसे संस्कृत से निकली भाषा मानते हैं। सामान्य मत यह है कि वह भाषा, जो असंस्कृत थी, बोलचाल की थी, पंडितों में प्रचलित नहीं थी, सहज ही बोली और समझी जाती थी, स्वभावतः ‘प्राकृत’ कहलाई।
भाषाविज्ञान ने प्राकृत के पाँच प्रमुख भेद स्वीकार किए हैं-
(१) शौरसेनी, -शौरसेनी प्राकृत मथुरा या शूरसेन – जनपद के आसपास बोली जाती थी। यह ‘मध्यदेश’ की प्रमुख भाषा थी, जिसपर संस्कृत का प्रभाव था । ‘मध्यदेश’ संस्कृत का मुख्य केंद्र था। बाद में यही हिंदी का मूल केंद्र या गढ़ बना ।
(२) पैशाची-पैशाची प्राकृत उत्तर-पश्चिम में कश्मीर के आसपास की भाषा थी । महाराष्ट्री प्राकृत का मूल स्थान महाराष्ट्र है।
(३) महाराष्ट्री- मराठी का विकास इसी पैशाची से हुआ है।
(४) अर्द्धमागधी – अर्द्धमागधी प्राकृत का क्षेत्र मागधी और शौरसेनी के बीच का है। यह प्राचीन कोशल के आसपास प्रचलित थी। इस भाषा का उपयोग अधिकतर जैनसाहित्य में हुआ है।
(५) मागधी – मागधी प्राकृत मगध के आसपास प्रचलित थी ।
१००० ई० से भारतीय आर्यभाषा नए युग में प्रवेश करती है। मध्यकालीन भारतीय आर्यभाषा का चरम विकास ‘अपभ्रंश’ में हुआ। जब वररुचि जैसे प्राकृत के वैयाकरणों ने प्राकृतों को व्याकरण के साँचे में ढाल दिया, लोकभाषा (अपभ्रंश) ने परिनिष्ठित प्राकृतों के विरुद्ध विद्रोह किया। यह वस्तुतः पंडितों की भाषा पर जनता की भाषा की विजय थी, जो अपभ्रंशों में फलवती हुई।
अपभ्रंश के अनेक नाम प्रचलित हैं— ग्रामीण भाषा, देशी, देशभाषा, अपभ्रंश, अवहंस, अवहत्थ, अवहट्ठ, अवहठ, अवहट्ट आदि । अपभ्रंश का अर्थ ही है बिगड़ा हुआ, गिरा हुआ, भ्रष्ट । ये नाम पंडितों द्वारा दिए गए थे, जिन्हें लोकभाषा सदा इसी रूप में दिखाई पड़ती रही।
भारतीय भाषा के इतिहास में ५०० ई० से १००० ई० तक के काल को ‘अपभ्रंशकाल’ कहा गया है। आधुनिक आर्यभाषाओं (हिंदी, बँगला, गुजराती, मराठी, पंजाबी, उर्दू, उड़िया आदि) की उत्पत्ति इन्हीं अपभ्रंशों से हुई ” है। एक प्रकार से ये अपभ्रंश भाषाएँ प्राकृत भाषाओं और आधुनिक भारतीय भाषाओं के बीच की कड़ियाँ हैं । प्राकृत भाषाओं की तरह अपभ्रंश के परिनिष्ठित रूप का विकास भी ‘मध्यदेश’ में ही हुआ था । इसपर अन्य रूपों का प्रभाव भी पड़ा है। हिंदी का जन्म इसी मध्यदेश में संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश के योग से हुआ ।
उत्तर भारत में अपभ्रंश के सात भेद या रूप प्रचलित थे, जिनसे आधुनिक भारतीय भाषाओं का जन्म हुआ। ये सात प्रकार के अपभ्रंश इस प्रकार हैं, जिनके सामने उससे जन्मी आधुनिक भाषाओं के नामों का उल्लेख किया गया है-
अपभ्रंश |
आधुनिक भारतीय भाषाएँ |
१. शौरसेनी अपभ्रंश |
पश्चिमी हिंदी, राजस्थानी, ब्रजभाषा, खड़ीबोली |
२. पैशाची अपभ्रंश | लहँदा, पंजाबी |
३. ब्राचड अपभ्रंश | सिंधी |
४. खस अपभ्रंश | पहाड़ी, कुमाऊँनी, गढ़वाली |
५. महाराष्ट्री अपभ्रंश | मराठी |
६. अर्द्धमागधी अपभ्रंश | पूर्वी हिंदी, अवधी, बोघली, छत्तीसगढ़ी |
७. मागधी अपभ्रंश | बिहारी, बँगाली, उड़िया, असमिया |
अपभ्रंश में लगभग वे ही ध्वनियाँ थीं, जिनका प्रयोग प्राकृत में होता था। स्वरों का अनुनासिक रूप संस्कृत, पालि और प्राकृत जैसा ही था। कुछ बातों में समानताएँ रहते हुए भी अपभ्रंश संस्कृत और प्राकृत से बहुत दूर चली गई और प्राचीन की अपेक्षा आधुनिक भारतीय भाषाओं के काफी नजदीक चली आई। भाषा अधिक सरल हो गई। संस्कृत, पालि तथा प्राकृत संयोगात्मक भाषाएँ थीं, किंतु अपभ्रंश भाषा वियोगात्मक हो गई। संज्ञा, सर्वनाम से संयोगात्मक भाषाओं में विभक्तियाँ साथ लगती थीं, किंतु अपभ्रंश में अलग से लगने लगीं। हिंदी में अपभ्रंश की ये सारी प्रवृत्तियाँ चली आई। नपुंसकलिंग प्राय: समाप्त हो गया । तद्भवों की संख्या बढ़ गई।
११०० के आसपास अपभ्रंश का काल समाप्त हो गया और इसके बाद आधुनिक भाषाओं का युग आरंभ हुआ । १४वीं शताब्दी से आधुनिक भाषाओं का स्पष्ट रूप सामने आया । कुछ समय तक अपभ्रंश की प्रवृत्तियाँ आधुनिक भाषाओं में मिली-जुली रहीं, फिर धीरे-धीरे कम होती गई। भाषा-परिवर्तन के इस संक्रांतिकाल में ‘संदेशरासक’, ‘प्राकृतपैंगलम्’, ‘उक्ति-व्यक्ति प्रकरण’, ‘वर्णरत्नाकर’, ‘कीर्तिलता’ तथा ‘ज्ञानेश्वरी’ जैसे कुछ ग्रंथों की रचना हुई, जिनके अध्ययन से अपभ्रंश से प्रभावित ‘पुरानी हिंदी’ के रूप देखे जा सकते हैं। इस काल की भाषा को कुछ लोगों ने ‘अवहट्ट’ नाम से इस काल के कवि ज्योतिरीश्वर ठाकुर, विद्यापति और वंशीधर ने तत्कालीन भाषा को कुछ पुकारा है। ‘अवहट्ट’ की संज्ञा दी है। ‘अवहट्ट’ अपभ्रंश का ही विकृत रूप है। सच पूछा जाए तो संक्रांतिकाल में जिस नई भाषा की सृष्टि हो रही थी, उसे पुरानी हिंदी, पुरानी बँगला, पुरानी (जूनी) गुजराती आदि कहना ही उचित होगा।
उक्त बातों से स्पष्ट है कि अपभ्रंश के विभिन्न रूपों से हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं की उत्पत्ति हुई। ये सभी भाषाएँ सरलता की ओर हैं। संस्कृत, पालि आदि की तुलना में अपभ्रंश के शब्दरूप कम हो गए। आधुनिक भाषाओं में अपभ्रंश की तुलना में शब्दरूप और भी कम हो गए। इस प्रकार भाषा सरल होती गई। संस्कृत में आठों कारकों के तीन वचनों में २४ रूप बनते थे, प्राकृत में १२ रूप हो गए, अपभ्रंश में ६ और आधुनिक भाषाओं में दो रूप – मूल और विकृत हो गए। क्रिया के रूपों में काफी कमी हो गई। संस्कृत में वचन तीन थे। अब केवल दो ही वचन रह गए। संस्कृत में तीन लिंग थे। आधुनिक भाषाओं में दो ही लिंग रह गए।
१००० ई० के लगभग हिंदी अन्य आधुनिक भारतीय भाषाओं की तरह अपने अस्तित्व में आ चुकी थी । भाषा के रूप में हिंदी की प्रकृति रचनात्मक है। इस विषय में यह जर्मन से मिलती-जुलती है। हिंदी जर्मन की तरह अपने ही प्रत्ययों से नवीन शब्दों का निर्माण कर लेती है। यह विशेषता अँगरेजी की नहीं है। डॉ. उदयनारायण तिवारी हिंदी को उधार लेनेवाली भाषा न कहकर रचनात्मक भाषा कहना ठीक समझते हैं। इस दृष्टि से आर्यभाषाओं में हिंदी का अपना अलग व्यक्तित्व है। हिंदी की दूसरी विशेषता यह है कि आरंभ से ही इसमें तद्भवों की अधिकता रही। ये तद्भव हिंदी के प्राण हैं। वस्तुतः, हिंदी जनता की भाषा है। जनजीवन की गोद में इसका जन्म हुआ। अतः, इसे जनता के गले का हार बना रहना है। इसकी स्वाभाविक शोभा पर तत्समों के बोझिल अलंकार लादना इसकी प्राकृतिक सुषमा को नष्ट-भ्रष्ट करना होगा। यह बात हिंदी के प्रेमियों को ध्यान में रखनी चाहिए। हिंदी में वैदिक युग लेकर आजतक हजारों-लाखों चलते शब्द ऐसे प्रयुक्त होते हैं, जिन्हें समय-समय सर्वसाधारण ने अपनी धरोहर समझा।
हिंदी की मूल उत्पत्ति शौरसेनी अपभ्रंश (पश्चिमी हिंदी) से मानी गई है। हिंदी के अंतर्गत उसके ये रूप प्रचलित हैं-
- पश्चिमी हिंदी – ब्रजभाषा, कन्नौजी, बुंदेली, खड़ीबोली, बाँगरू और राजस्थानी
- पूर्वी हिंदी – अवधी, बघेली, छत्तीसगढ़ी, बिहारी
- पहाड़ी प्रदेश की बोलियाँ – कुमाऊँनी, गढ़वाली
हिंदी में अनेक उपबोलियों के रहते हुए भी खड़ीबोली ही उसकी मूल भाषा बन गई जो पिछले दो सौ वर्षों से विकसित होती रही है। इसकी समृद्धि में इसकी सभी बोलियाँ योगदान करती रही हैं और इस प्रकार यह देश के कोने-कोने में फैलती गई ।
जॉन बीम्स ने आधुनिक आर्यभाषाओं में हिंदी को सर्वाधिक महत्त्व दिया है। उन्होंने अंतर्वेद (मध्यदेश) को हिंदी का मुख्य क्षेत्र बताते हुए लिखा है कि यों तो हिंदी की अनेक बोलियाँ हैं, किंतु उसका एक सर्वमान्य व्यापक रूप भी है, जिसका विकास दिल्ली के आसपास के क्षेत्र में हुआ था और जो सर्वत्र शिक्षितों के द्वारा एक रूप से (खड़ीबोली) बोली और समझी जाती है । ” बीम्स महोदय ने हिंदी के महत्त्व को प्रतिपादित करते हुए यह भी लिखा है कि हिंदी संस्कृत की वास्तविक उत्तराधिकारिणी है और आधुनिक युग में इसका अन्यान्य भाषाओं में वही स्थान है, जो प्राचीनकाल में संस्कृत का था।