UP Board and NCERT Solution of Class 10 Science [विज्ञान] ईकाई 2 जैव जगत –Chapter- 8 Heredity (आनुवंशिकता ) दीर्घ उत्तरीय प्रश्न
प्रिय पाठक! इस पोस्ट के माध्यम से हम आपको कक्षा 10वीं विज्ञान ईकाई 2 जैव जगत (Organic world) के अंतर्गत चैप्टर 8 Heredity (आनुवंशिकता )पाठ के दीर्घ उत्तरीय प्रश्न प्रदान कर रहे हैं। UP Board आधारित प्रश्न हैं। आशा करते हैं हमारी मेहनत की क़द्र करते हुए इसे अपने मित्रों में शेयर जरुर करेंगे।
विभिन्नताएँ, आनुवंशिक लक्षणों की वंशागति का आण्विक आधार
मेण्डल : आनुवंशिकता के जनक, मेण्डल के नियम, लिंग निर्धारण
Class | 10th | Subject | Science (Vigyan) |
Pattern | NCERT | Chapter- | Heredity |
दीर्घ उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1. मेण्डल ने मटर के पौधों पर किन लक्षणों का अध्ययन किया? विस्तार में लिखिए।
उत्तर -मेण्डल ने मटर के पौधे के अनेक विपर्यासी (विकल्पी) लक्षणों का अध्ययन किया जो स्थूल रूप से दिखाई देते हैं। उदाहरणतः गोल/झुर्रीदार बीज, लम्बे/बौने पौधे, सफेद/बैंगनी फूल इत्यादि। उसने विभिन्न लक्षणों वाले मटर के पौधों को लिया जैसे कि लम्बे पौधे तथा बौने पौधे। इससे प्राप्त संतति पीढ़ी में लम्बे एवं बौने पौधों के प्रतिशत की गणना की।
प्रथम संतति पीढ़ी अथवा F, में कोई पौधा बीच की ऊँचाई का नहीं था। 1 सभी पौधे लम्बे थे। इसका अर्थ था कि दो लक्षणों में से केवल एक पैतृक जनकीय लक्षण ही दिखाई देता है, उन दोनों का मिश्रित प्रभाव दृष्टिगोचर नहीं होता। मेण्डल ने अपने प्रयोगों में दोनों प्रकार के पैतृक पौधों एवं F’, पीढ़ी के पौधों को स्वपरागण द्वारा उगाया। पैतृक पीढ़ी के पौधों से प्राप्त सभी संतति भी 1 लम्बे पौधों की थी। परन्तु F, पीढ़ी के लम्बे पौधों की दूसरी पीढ़ी अर्थात् F पीढ़ी के सभी पौधे लम्बे नहीं थे वरन् उनमें से एक चौथाई संतति बौने पौधे थे। 2 यह इंगित करता है कि F, पौधों द्वारा लंबाई एवं बौनेपन दोनों विशेषकों (लक्षणों) की वंशानुगति हुई। परन्तु केवल लंबाई वाला लक्षण ही व्यक्त हो पाया। अतः लैंगिक जनन द्वारा उत्पन्न होने वाले जीवों में किसी भी लक्षण की दो प्रतिकृतियों (स्वरूप) की वंशानुगति होती है। ये दोनों एकसमान हो सकते हैं अथवा भिन्न हो सकते हैं जो उनके जनक पर निर्भर करता है।
इस व्याख्या में “TT” एवं “Tt’ दोनों ही लम्बे पौधे हैं जबकि केवल ‘tt’ बौने पौधे हैं। दूसरे शब्दों में, “T” की एक प्रति ही पौधे को लम्बा बनाने के लिए पर्याप्त है जबकि बौनेपन के लिए ‘t’ की दोनों प्रतियाँ ‘t’ ही होनी चाहिए। “T” जैसे लक्षण ‘प्रभावी’ लक्षण कहलाते हैं जबकि जो लक्षण ‘t’ की तरह व्यवहार करते हैं ‘अप्रभावी’ कहलाते हैं।
मटर के पौधों के स्थान पर अगर गोल बीज वाले लम्बे पौधों का झुरींदार बीजों वाले बौने पौधों से संकरण करने पर गोल संकरण F, पीढ़ी के सभी पौधे लम्बे एवं गोल बीज वाले होंगे। अतः लम्बाई तथा गोल बीज ‘प्रभावी’ लक्षण है। मेण्डल द्वारा किए गए पहले प्रयोग के आधार पर हम कह सकते हैं कि F संतति के कुछ पौधे गोल बीज वाले लम्बे पौधे होंगे तथा कुछ झुर्रीदार बीज वाले बौने पौधे। परन्तु की संतति के कुछ पौधे नए संयोजन प्रदर्शित करेंगे। उनमें से कुछ पौधे लम्बे परन्तु झुरीदार बीज तथा कुछ पौधे बौने परन्तु गोल बीज वाले होंगे। अतः लम्बे/बौने लक्षण तथा गोल झुर्रीदार लक्षण स्वतंत्र रूप से वंशानुगत होते हैं।
प्रश्न 2. आनुवंशिकता से आप क्या समझते हैं? मेण्डल के आनुवंशिकता नियमों की उदाहरण सहित विवेचना कीजिए।
अथवा मेण्डल के नियमों को एक-एक उदाहरण देकर समझाइए
अथवा मेण्डल के नियम क्या हैं? उचित चित्रों के माध्यम से स्पष्ट कीजिए।
अथवा मेण्डल के आनुवंशिकता नियमों का विस्तार से वर्णन कीजिए।
अथवा मेण्डल के नियमों की उदाहरण सहित व्याख्या कीजिए।
उत्तर- आनुवंशिकता या वंशागति (Heredity) वे लक्षण जो जनक से सन्तानों में पीढ़ी-दर-पीढ़ी पहुँचते हैं, आनुवंशिक लक्षण कहलाते हैं। इन लक्षणों की वंशागति को आनुवंशिकता कहते हैं।
`विज्ञान की वह शाखा जिसके अन्तर्गत आनुवंशिक लक्षणों के माता-पिता से सन्तान में पीढ़ी-दर-पीढ़ी पहुँचने की विधियों तथा आनुवंशिक लक्षणों की उपस्थिति एवं विभिन्नताओं के कारणों का अध्ययन किया जाता है, आनुवंशिकी कहलाती है। ग्रेगर जॉन मेण्डल को आनुवंशिकता का जनक कहते हैं।
मेण्डल द्वारा प्रतिपादित नियम निम्नवत् हैं-
- प्रभाविता का नियम- जब तुलनात्मक लक्षणों को ध्यान में रखकर संकरण कराया जाता है तो प्रथम पुत्रीय पीढ़ी (F, पीढ़ी) में प्रभावी लक्षण अप्रभावी लक्षण को प्रदर्शित नहीं होने देता है।
व्याख्या- जब समयुग्मजी लाल पुष्प (RR) वाले पौधों का समयुग्मजी सफेद पुष्प (rr) वाले पौधों से संकरण कराया जाता है तो F2 पीढ़ी के सभी पौधे लाल पुष्प (Rr) वाले होते हैं। ‘R’ लाल रंग तथा ‘x’ सफेद रंग के जीन हैं। ‘R’ प्रभावी जीन की उपस्थिति में ” अप्रभावी जीन अपने को व्यक्त नहीं कर पाता। इसे ‘प्रभाविता का नियम’ कहते हैं।
- पृथक्करण का नियम या युग्मकों की शुद्धता का नियम- युग्मक निर्माण के समय जोड़े के जीन्स पृथक हो जाते हैं और युग्मक में प्रत्येक जीन जोड़े का एक जीन ही पहुँचता है अर्थात् युग्मक में प्रत्येक लक्षण के लिए एक जीन ही होता है। इसे ‘युग्मक की शुद्धता का नियम‘ या पृथक्करण का नियम कहते हैं।
व्याख्या- जब लाल (RR) एवं सफेद पुष्प (rr) वाले पौधों का क्रास कराया जाता है तो F1 पीढ़ी के सभी संकर पौधे (Rr) लाल पुष्प वाले होते हैं। F1 पीढ़ी के पौधों में युग्मक निर्माण के समय R और r जीन अलग-अलग हो 1 जाते हैं और प्रत्येक युग्मक में इनमें से केवल एक जीन पहुँचता है। युग्मकों के संयुग्मन से F2 पीढ़ी में लाल एवं सफेद दोनों प्रकार के पुष्प वाले पौधे 3:1 के अनुपात में उत्पन्न होते हैं। (चित्र) इससे मेण्डल ने यह निष्कर्ष निकाला कि संकर (hybrid) में तुलनात्मक लक्षण परस्पर मिश्रित नहीं होते हैं। युग्मक निर्माण के समय ये पृथक हो जाते हैं।
- स्वतन्त्र अपव्यूहन का नियम- दो या दो से अधिक तुलनात्मक लक्षणों वाले जीनों के जोड़े के जीन्स एक-दूसरे से स्वतन्त्र होकर युग्मकों में आ जाते हैं और निषेचन के समय युग्मक आपस में अनियमित ढंग से संयोजित होते हैं। इसके फलस्वरूप नये-नये संयोग बनते हैं।
व्याख्या- इस नियम की व्याख्या द्विसंकर क्रॉस के आधार पर की जा सकती है। जब पीले-गोल तथा हरे-झुरींदार बीज वाले समयुग्मजी पौधों में क्रास कराया जाता है तो F1 पीढ़ी में सभी संकर पौधे पीले-गोल बीज वाले होते हैं (यह प्रभाविता के नियम को प्रदर्शित करता है)। F1 पीढ़ी के पौधों में स्वपरागण कराने पर F2 पीढ़ी में निम्न चार प्रकार के बीज वाले पौधे प्राप्त होते हैं-
(क) गोल-पीले (round-yellow),
(ख) गोल-हरे (round-green),
(ग) झुर्रीदार पीले (wrinkled-yellow)
(घ) झुर्रीदार हरे (wrinkled-green)
ये बीज क्रमशः 9:3:3:1 के अनुपात में प्राप्त होते हैं। इससे स्पष्ट होता है कि आनुवंशिक लक्षण स्वतंत्र रूप से अपव्यूहन करते हैं क्योंकि पीला रंग गोल बीजों तक और हरा रंग झुर्रीदार बीजों तक सीमित नहीं रहता।
प्रश्न 3. आनुवंशिकी का गुणसूत्र सिद्धान्त का वर्णन कीजिए।
उत्तर- आनुवंशिकी का गुणसूत्र सिद्धान्त (Chromosomal Theory of Inheritance)- मेण्डल के समय कोशिका की संरचना का ज्ञान नहीं था, अतः उन्होंने ‘कारक’ को लक्षणों की वंशागति के लिए उत्तरदायी माना। सर्वप्रथम कार्ल नागेली (Karl Nageli, 1842), फ्लेमिंग (Flemming, 1879) ने गुणसूत्रों को देखा। वाल्डेयर (Waldeyer, 1888) ने धागेनुमा रचनाओं को गुणसूत्र नाम दिया। वाल्टर सटन (Walter Sutton) तथा थियोडर बोवेरी (Theodor Boveri, 1902) ने गुणसूत्र सिद्धान्त प्रतिपादित किया। इसकी मुख्य विशेषताएँ निम्नवत् हैं-
- द्विगुणित युग्मनज (zygote) से उत्पन्न सभी दैहिक कोशिकाएँ द्विगुणित होती हैं।
- द्विगुणित कोशिकाओं में गुणसूत्र जोड़े (pair) में होते हैं। इनमें से एक गुणसूत्र नर जनक (पिता) से तथा दूसरा गुणसूत्र मादा जनक (माता) से प्राप्त होता है।
- समान संरचना वाले गुणसूत्र (समजात गुणसूत्र) जोड़े बनाते हैं।
- प्रत्येक गुणसूत्र पर विशिष्ट मेण्डेलियन कारक या जीन उपस्थित होते हैं।
- गुणसूत्र पर जीन पंक्तिबद्ध होते हैं।
किसी एक जाति के सभी जीवों की कोशिकाओं में गुणसूत्र संख्या, गुणसूत्रों का आयाप, आकृति एवं रचना समान होती है। इनको जीवधारी का जातीय गुणसूत्र समूह (कैरिमोटाइप-Karyotype) कहते हैं।
गुणसूत्र दो प्रकार के होते हैं
(i) दैहिक गुणसूत्र (autosomes), तथा
(ii) लिंग गुणसूत्र (Box chromosomes)
दैहिक गुणसूत्र विभित्र शारीरिक एवं क्रियात्मक लक्षणों का निर्धारण
करते हैं। लिंग गुणसूत्र लिंग का निर्धारण करते हैं।
प्रश्न 4. लिंग-सहलग्न रोग (लक्षण) से क्या तात्पर्य है? लिंग- सहलग्न लक्षणों की वंशागति को उदाहरण सहित रेखाचित्रों से स्पष्ट कीजिए।
अथवा लिंग-सहलरन लक्षण किसे कहते हैं? मनुष्य में पाये जाने वाले किन्हीं दो लिंग-सहलग्न रोगों का नाम लिखिए तथा उनमें से किसी एक का वर्णन कजिए।
अथवा लिंग-सहलग्न रोग किसे कहते हैं? मनुष्य में वर्णान्धता की वंशागति को समझाइए। यदि वर्णान्ध पुरुष सामान्य स्त्री से विवाह करता है तो उनसे उत्पन्न सन्तानों में वर्णान्धता की वंशागति को स्पष्ट कीजिए।
अथवा मनुष्य में किन्हीं दो लिंग सहलग्नी रोग की व्याख्या कीजिए।
उत्तर- लिंग-सहलग्न लक्षण– सामान्यतया लिंग गुणसूत्र लिंग निर्धारण के लिए उत्तरदायी होते हैं। लिंग गुणसूत्रों पर कुछ कायिक लक्षणों के जीन (genes) भी पाये जाते हैं। इन लक्षणों को लिंग-सहलग्न गुण तथा इनकी वंशागति को लिंग-सहलग्न वंशागति कहते हैं। मनुष्य में लगभग 100 लिंग सहलग्न लक्षण ज्ञात हो चुके हैं। लिंग- सहलग्न लक्षणों को निम्न तीन समूहों में बाँटा गया है-
(क) X-सहलग्न लक्षण- इनके जीन X लिंग-गुणसूत्र के असमजात भाग में स्थित होते हैं। इनका समजात जीन Y लिंग-गुणसूत्र पर नहीं पाया जाता। ये सुप्त या प्रभावी होते हैं। वर्णान्धता, हीमोफीलिया, रतौंधी आदि।
(ख) Y-सहलग्न लक्षण- कुछ लिंग-सहलग्न लक्षणों के जीन Y गुणसूत्र पर स्थित होते हैं। ये लक्षण केवल, पुरुषों में विकसित होते हैं। ये लक्षण पिता से पुत्र में पहुँचते रहते हैं, जैसे हाइपरट्राइकोसिस ।
(ग) XY-सहलग्न लक्षण- इन लिंग-सहलग्न लक्षणों के जीन X तथा Y गुणसूत्र के समजात खण्डों पर स्थित होते हैं। इनकी वंशागति सामान्य दैहिक लक्षणों की तरह होती है।
लिंग-सहलग्न लक्षणों की वंशागति- लिंग-सहलग्न लक्षणों की वंशागति को स्पष्ट करने के लिए हीमोफीलिया या वर्णान्धता का उदाहरण सामान्य रूप से दिया जाता है। अधिकतर X-सहलग्न लक्षण अप्रभावी होते हैं। इनका प्रभावी जीन रोगहीन दशा को स्थापित करता है। पुरुष में केवल एक X लिंग-गुणसूत्र होने के कारण रोग के लक्षण विकसित हो जाते हैं जबकि ये रोग संकर या विषमयुग्मी स्त्रियों में विकसित नहीं होते हैं। लेकिन सुप्त जीन के लिए समयुग्मी या शुद्ध नस्ली स्त्रियों में ये लक्षण विकसित हो जाते हैं। सामान्यतया स्त्रियाँ रोग की वाहक होती हैं।
उदाहरण 1. वर्णान्ध पुरुष एवं सामान्य स्त्री की सन्तानों में सभी पुत्र सामान्य तथा पुत्रियाँ रोम की वाहक होती हैं, क्योंकि वर्णान्धता का जीन केवल X लिंग-गुणसूत्र पर होता है। पुत्रों को X-लिंग गुणसूत्र सामान्य माता से प्राप्त होता है। यह सामान्य या प्रभावी होता है। पुत्रियों को एक X लिग गुणसूत्र माता से तथा दूसरा पिता से प्राप्त होता है। पिता से प्राप्त X लिंग-गुणसूत्र पर वार्णान्धला का जीन स्थित होता है। पुत्रों में 23वीं जोड़ी लिंग गुणसूत्र XY होने के कारण रोग के लक्षण प्रदर्शित नहीं होते हैं। पुत्रियों में 23वीं जोड़ी लिंग गुणसूत्र XX* होने के कारण पुत्रियाँ रोगवाहक होती हैं क्योंकि प्रभावी X जीन अप्रभावी X* जीन को प्रदर्शित नहीं होने देता है। रोगवाहक पुत्रियाँ रोग के लक्षणों को अगली पीढ़ी में पहुँचाने में सहायता करती है।
उदाहरण 2. सामान्य पुरुष तथा रोगवाहक स्वी की सन्तानों में 50 प्रतिशत पुत्र वर्णान्ध तथा 50 प्रतिशत पुत्रियों रोगवाहक होती हैं जबकि शेष पुत्र एवं पुत्रियाँ सामान्य होती हैं।
विषमयुग्मी पुत्रियों की जीन संरचना XX* तथा समयुग्मी पुत्रियों की जीन संरचना XX होती है। पुत्रों में अप्रभावी जीन का तुलनात्मक जीन न होने के कारण वर्णान्धता के लक्षण प्रदर्शित होते हैं। वर्णान्ध पुत्रों की जीन संरचना X*Y होती है। सामान्य पुत्रों की जीन संरचना XY होती है
उदाहरण 3. वाहक स्वी और वर्णान्ध पुरुष की सन्तानों में 50 प्रतिशत पुत्र वर्णान्ध तथा 50 प्रतिशत पुत्र सामान्य और 50 प्रतिशत पुत्रियाँ वर्णान्ध तथा 50 प्रतिशत पुत्रियाँ रोगवाहक होती हैं। समयुग्मी वर्णान्ध पुत्रियों में दोनों अप्रभावी जीन्स X*X* के कारण रोग के लक्षण प्रकट होते हैं जबकि विषमयुग्मी पुत्रियों में जीन संरचना X X* होने के कारण रोग के लक्षण प्रकट नहीं होते हैं. ये रोगवाहक (carrier) होती हैं। वर्णान्ध पुत्र में अप्रभावी जीन का तुलनात्मक जीन न होने के कारण रोग के लक्षण प्रदर्शित होते हैं, उसकी जीन संरचना X*Y होती है। सामान्य पुत्र में वर्णान्धता का जीन नहीं होता है, उसकी जीन संरचना XX होती है।
प्रश्न 5. DNA अणु की संरचना तथा महत्त्व का वर्णन कीजिए।
अथवा DNA के वाटसन एवं क्रिक मॉडल का सचित्र वर्णन कीजिए। इसका महत्त्व भी बताइए।
अथवा DNA कहाँ पाया जाता है? इसका मुख्य कार्य क्या है?
उत्तर- डीऑक्सीराइबोन्यूक्लिक अम्ल- इसकी संरचना का प्रतिरूप तैयार करने के लिए वाटसन, क्रिक तथा विल्किन्स को 1962 में नोबेल पुरस्कार दिया गया था। डी.एन.ए. वो प्रतिसमानान्तर पॉलीन्यूक्लियोटाइड श्रृंखलाओं से बनी कुण्डलित संरचना होती है। प्रत्येक पॉलीन्यूक्लियोटाइड श्रृंखला का निर्माण हजारों-लाखों न्यूक्लियोटाइड्स से होता है। न्यूक्लियोटाइड स्वयं एक जटिल कार्बनिक अणु होता है। इसका निर्माण निम्न तीन अणुओं से होता है.
(i) डीऑक्सीराइबोज शर्करा।
(ii) नाइट्रोजन समाक्षार से निम्न प्रकार के होते हैं-
(अ) प्यूरीन समाक्षार-एडीनीन व ग्वातीन।
(ब) पिरिमिहीन समाक्षार-थायमीन व साइटोसीन।
(iii) फॉस्फोरिक अम्ल।
बीऑक्सीराइबोज शर्करा का एक अणु नाइट्रोजन बेस से मिलकर न्यूक्लियोसाइड बनाता है। न्यूक्लियोसाइड तथा फॉस्फोरिक अम्ल मिलकर न्यूक्लियोटाइड बनाते हैं। प्रत्येक न्यूक्लियोटाइड में नाइट्रोजन बेस का अणु सदैव शर्करा के अणु से जुड़ा रहता है। फॉस्फोरिक अम्ल का अणु भी शर्करा से जुड़ता है।
डी.एन.ए. में दोनों पॉलीन्यूक्लियोटाइड श्रृंखलाएँ, एक-दूसरे के प्रति समानान्तर (antiparallel) होती हैं। इनकी एक श्रृंखला में कार्बन 5’→ 3’ दिशा में और दूसरी श्रृंखला में कार्बन 3′ → 5′ दिशा में होती हैं।
डी.एन.ए. अणु की दोनों पॉलीन्यूक्लियोटाइड श्रृंखलाओं के नाइट्रोजन बेस अणु आपस में हाइड्रोजन बन्धों द्वारा जुड़े रहते हैं। इसके फलस्वरूप डी.एन.ए. अणु सीढ़ी जैसी रचना प्रतीत होती है। सीड़ी के दोनों समानान्तर डण्डे शर्करा तथा फॉस्फेट अणुओं से बने होते हैं। सीढ़ी के आहे डण्डे (cross bars) नाइट्रोजन बेसों के बने होते हैं। डी.एन.ए. अणु एक अक्ष के चारों ओर सर्पिल रूप में लिपटा रहता है। डी.एन.ए. अणु का एक चक्कर 344 का होता है। इसमें दस नाइट्रोजन बेस जोड़े होते हैं अर्थात् नाइट्रोजन बेस के मध्य की दूरी 3.4A होती है। डी.एन.ए. अणु का व्यास 20A होता है। नाइट्रोजन बेस के जोड़े में एक प्यूरीन तथा एक पिरीमिडीन होता है। एडीनीन तथा थायमीन के मध्य दो हाइड्रोजन आबन्ध (A = T) तथा ग्वानीन और साइटोसीन के मध्य तीन हाइड्रोजन आबन्ध (bonds) (G = C) होते हैं अर्थात् एडीनीन, वायमीन एवं ग्वानीन साइटोसीन के परिपूरक होते हैं। विभित्र डी.एन.ए. अणुओं के नाइट्रोजन बेस का अनुक्रम भिन्न-भिन्न होता है।
S 13, E. Coliphage virus तथा × 174 Coliphage virus * का डी.एन.ए. एकसूत्री होता है।
महत्त्व-
(i) डी.एन.ए. के स्वः द्विगुणन के कारण ही जीवधारियों में जनन क्रिया सम्भव होती है। जाति विशेष के लक्षण पीढ़ी-दर-पीढ़ी वंशागत होते रहते हैं।
(ii) गुणसूत्रों की संख्या पीढ़ी-दर-पीढ़ी निश्चित बनी रहती है।
(iii) यह जैविक क्रियाओं का नियन्त्रण तथा नियमन करता है।
(iv) यह आर.एन.ए. का संश्लेषण करता है।
प्रश्न 6. गुणसूत्र की संरचना का सचित्र वर्णन कीजिए।
अथवा गुणसूत्र की रचना का नामांकित सचित्र वर्णन कीजिए तथा कार्यों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर- गुणसूत्र (Chromosomes)- गुणसूत्र की सर्वप्रथम खोज स्ट्रॉसबर्गर (Strasburger, 1875) ने की थी। वाल्वेयर (Waldeyer, 1888) ने केन्द्रक में पायी जाने वाली तन्तु रूपी रचनाओं को गुणसूत्र (chromosomes) नाम दिया था। ये सामान्यतया 0.5-30µ लम्बी तथा 0.2-3µ व्यास की रचनायें होती हैं। कोशिका विभाजन के समय गुणसूत्र स्पष्ट दिखाई देते हैं। प्रत्येक जाति में गुणसूत्रों की संख्या, आकृति एवं आकार सुनिश्चित होता है। गुणसूत्र जोड़ों (pairs) में पाये जाते हैं।
जाति | गुणसूत्रों की संख्या |
मटर | 14 या 7 जोड़े |
प्याज | 16 या 8 जोड़े |
गेहू | 22 या 11 जोड़े |
आलू | 42 या 21 जोड़े |
मेंढक | 24 या 12 जोड़े |
ड्रॉसोफिला | 8 या 4 |
चिम्पूँजी | 48 या 24 जोड़े |
मनुष्य | 46 या 23 जोड़े |
प्रत्येक गुणसूत्र में हिस्टोन प्रोटीन अणुओं = के समूहों को घेरे हुए एक DNA अणु की अत्यन्त कुण्डलित संरचना होती है। प्रत्येक गुणसूत्र में निश्चित स्थान पर एक छोटा अल्परंजित क्षेत्र सेन्ट्रोमीयर (centromere) होता है। यह कोशिका विभाजन के समय गुणसूत्रों के क्रोमेटिड्स की गति को नियन्त्रित रखता है। प्रत्येक गुणसूत्र पर सैकड़ों हजारों जीन्स हो सकते हैं।
संरचना- गुणसूत्र में निम्नलिखित भाग पाये जाते हैं-
(i) आवरण (पैलिकल Pellicle)- गुणसूत्र एक झिल्ली सदृश, आनुवंशिकी दृष्टि से निष्क्रिय आवरण (pellicle) से घिरा होता है। इससे घिरा गाढ़ा तरल मैट्रिक्स (matrix) कहलाता है। मैट्रिक्स में अर्धगुणसूत्र (chromatids) पाये जाते हैं।
(ii) अर्धगुणसूत्र या क्रोमेटिड्स (Chromatids or Chromonemata)- प्रत्येक गुणसूत्र में दो अर्धगुणसूत्र (chromatids) होते हैं। ये आपस में लिपटे रहते हैं। अर्धगुणसूत्र या क्रोमेटिड्स पर अनेक क्रोमोमीअर्स (chromomeres) पाये जाते हैं। क्रोमोमीअर्स पर जीन्स स्थित होते हैं।
(iii) सेन्ट्रोमीयर (Centromere)- गुणसूत्र के दोनों क्रोमोटिड्स या अर्धगुणसूत्र सेन्ट्रोमीयर द्वारा आपस में जुड़े होते हैं। सेन्ट्रोमीयर की स्थिति के आधार पर गुणसूत्र विभिन्न प्रकार के होते हैं, जैसे टीलोसैन्ट्रिक, एक्रोसैन्ट्रिक, सबमेटासैन्ट्रिक तथा मेटासैन्ट्रिक ।
(iv) सैटेलाइट गुणसूत्र (Satellite Chromosomes)- कुछ गुणसूत्रों में द्वितीयक संकीर्णन होता है। इसके फलस्वरूप बना गुणसूत्र का छोटा गोलाकार भाग सैटेलाइट कहलाता है। इस प्रकार के गुणसूत्र को सैट गुणसूत्र (SAT-chromosome) कहते हैं। गुणसूत्र का रासायनिक संघटन-गुणसूत्र न्यूक्लियोप्रोटीन्स (nucleoproteins) से बना होता है। इसमें हिस्टोन (histone) प्रोटीन 37.5% लगभग, अन्य प्रोटीन लगभग 10.4%, राइबोन्यूक्लिक अम्ल (ribonucleic acid) 9.6%, डीऑक्सीराइबोन्यूक्लिक अम्ल लगभग 36.5% होता है।
गुणसूत्र के कार्य- गुणसूत्र आनुवंशिक लक्षणों को पीढ़ी दर पीढ़ी पहुँचाने में सहायता करते हैं। इनको वंशागति का भौतिक आधार (physical basis of heredity) कहते हैं।
प्रश्न 7. (क) समयुग्मजी तथा विषमयुग्मजी में अन्तर बताइए।
(ख) नर तथा मादा मनुष्य में गुणसूत्रों की संख्या और प्रकार बताइए।
(ग) मेण्डल ने मटर के पौधे पर प्रयोग के दौरान सात जोड़ी विपर्यासी लक्षणों को चुना।
इसमें तने की लम्बाई तथा फलों के रूप का प्रभावी तथा अप्रभावी लक्षण बताइए।
उत्तर- (क) यदि किसी जीव में उपस्थित किसी लक्षण के दोनों कारक समान 2 हों तो उसे समयुग्मजी कहते हैं। जैसे – TT अथवा tt अवस्था। दूसरी ओर जब किसी जीव में किसी लक्षण के कारक असमान हों तो उसे विषमयुग्मजी कहते है। जैसे – Tt जीनोटाइप वाले जीव।
(ख) 46, (नर में XY तथा मादा में XX)
(ग) प्रभावी लक्षण अप्रभावी लक्षण
तने की लम्बाई लम्बा बौना
फली का रूप चपटा संकीर्णित
UP Board and NCERT Solution of Class 10 Science Chapter- 8 Heredity ( आनुवंशिकता ) Notes in hindi