UP board Class- 10th Drawing (चित्रकला) मुगल चित्रकला Mughal Chitrakala
प्रिय पाठक! इस पोस्ट के माध्यम से हम आपको कक्षा 10वीं की चित्रकला के अंतर्गत मुगल चित्रकला (Mughal Chitrakala) के बारे मे बताएंगे जो की UP Board आधारित प्रश्न हैं। आशा करते हैं आपको यह पोस्ट पसंद आई होगी और आप इसे अपने दोस्तों के साथ भी शेयर करेंगे।
Class | 10th |
Subject | Drawing (चित्रकला) |
Board Name | UP Board (UPMSP) |
Topic Name | मुगल चित्रकला (Mughal Chitrakala) |
मुगल चित्रकला
दिल्ली सल्तनतकाल में चित्रकला के क्षेत्र में विशेष प्रगति न हो सकी। इसका प्रमुख कारण सुल्तानों की चित्रकला की ओर से उदासीनता थी। यद्यपि कुछ स्थापत्यकला कृतियों पर बने चित्र मिलते हैं, किन्तु इनके अतिरिक्त चित्रकला के विकास का कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं है। मध्यकालीन भारत में चित्रकला का वास्तविक विकास मुगलों के शासनकाल में हुआ। उन्होंने कला के अन्य क्षेत्रों की भाँति चित्रकला की ओर भी विशेष ध्यान दिय।
बाबर एवं हुमायूँ
बाबर एक कुशल योद्धा के साथ-साथ एक महान कला-प्रेमी तथा साहित्यकार भी था। कला के अन्तर्गत चित्रकला में उसकी विशेष रुचि थी। उसने अपनी आत्मकथा ‘तुजुके-बाबरी’ में बेहज़ाद की चित्रकारी की बड़ी प्रशंसा की है, किन्तु साथ ही साथ उसकी आलोचना भी की है। बेहज़ाद के अतिरिक्त बाबर ने शाह मुज़फ्फ़र की भी प्रशंसा की है। बाबर की यह इच्छा थी कि वह भी बेहज़ाद जैसे चित्रकारों को अपने राज्य में आमंत्रित करे तथा चित्रकला को विकसित करे, किन्तु समय के अभाव के कारण वह इस क्षेत्र में कोई विशेष कार्य न कर सका तथा इस संसार से विदा हो गया।
बाबर के पश्चात् उसका पुत्र हुमायूँ सिंहासनारूढ़ हुआ। वह भी कला तथा साहित्य प्रेमी था, किन्तु अपने शासनकाल के प्रथम चरण में कठिनाइयों में निरंतर घिरे रहने के कारण इस क्षेत्र में कोई विशेष कार्य न कर सका। उसकी चित्रकला के प्रति रुचि का वर्णन करते हुए उसका समकालीन लेखक जौहर लिखता है कि जब बादशाह कठिनाइयों से घिरा हुआ अमरकोट के किले में ठहरा हुआ था तो एक दिन एक खूबसूरत फाख्ता उधर दिखाई दिया जिसे बादशाह ने किसी न किसी तरह से पकड़ लिया और चित्रकारों को बुलवाकर उसका चित्र बनवाया तथा फिर उस पक्षी को मुक्त कर दिया। शेरशाह के विरुद्ध असफल होकर उसे ईरान में शरण लेनी पड़ी। उस समय ईरान में शाह तहमास्प का शासन था तथा उसके दरबार में उच्चकोटि के चित्रकार एकत्रित थे जिनमें आगा मीरक तथा मुजफ्फर अली आदि प्रमुख थे जो अब भी बेहजाद के नाम को जीवित किये हुए थे। मंसूर तथा उसका पुत्र मीर सैयद अली, बेहजाद के सर्वप्रिय शिष्यों में से थे। हुमायूँ ने उन दोनों से भेंट की तथा उनको काबुल आने का निमन्त्रण दिया था। अस्तु वे लोग हुमायूँ के कहने पर काबुल आये और ‘दास्ताने अमीर हम्जा’ को चित्रित करने का कार्य उन्हें सौंपा गया। हुमायूँ ने प्रसन्न होकर मीर सैयद अली को ‘नादिर-उल-अस्र’ की उपाधि से विभूषित किया था। यहीं से चित्रकला की एक नवीन संस्था का विकास हुआ जो भविष्य में ‘मुगल चित्रकला’ के नाम से प्रसिद्ध हुई।
इस प्रकार मंसूर तथा मीर सैयद अली के आगमन के पश्चात् अनेक अन्य चित्रकारों का भी आगमन हुआ। अब्दुल समद ‘शीरी कलम’ भी आकर इस संस्था में मिल गये। इसके अतिरिक्त मुल्ला दोस्त भी शाह तहमास्प के दरबार को छोड़ कर भारत चले आये। इनके पश्चात् मुल्ला फख्र भी चले आये। इन चित्रकारों में मीर सैयद अली तथा अब्दुल समद ने ऐसे चमत्कार दिखाये हैं कि वे दर्शकों को आश्चर्यचकित कर देते हैं। इन दोनों चित्रकारों ने चावल के एक दाने पर चौगानबाजी (चौगान के खेल) का सम्पूर्ण मैदान प्रदर्शित किया है जिसको देखने के लिये चारों ओर दर्शकगण मौजूद हैं। हुमायूँ के काल की प्रमुख चित्रकला-कृति ‘दास्ताने-अमीर हम्ज़ा’ का चित्रित करना है। अब्दुल समद ‘शीरी कलम’ ने अन्य चित्रकारों की सहायता से यह कार्य पूर्ण किया था। इसमें कुल मिलाकर 1,375 चित्र हैं। इन चित्रों की कला शैली को देखने से ज्ञात होता है कि इनमें ईरानी तथा भारतीय दोनों शैलियों का प्रयोग किया गया है। इन चित्रों में ‘लालाजारों’ का दिखाया जाना तथा कालीनों की व्याख्या ईरानी शैली का परिचय प्रदान करती है, किन्तु इसके साथ ही साथ हल्के रंग का प्रयोग विशुद्ध भारतीय चित्रकारों की शैली का प्रभाव है।
अकबर
अकबर यद्यपि एक अशिक्षित व्यक्ति था, किन्तु कला एवं साहित्य के क्षेत्र में उसकी विशेष रुचि थी। उसके शासनकाल में कला के प्रत्येक क्षेत्र में प्रगति हुई। अकबर ने योग्य एवं कुशल शिल्पकारों तथा चित्रकारों को संरक्षण एवं प्रोत्साहन दिया। यद्यपि इस्लाम में चित्रकला का निषेध है, किन्तु फिर भी अकबर ने चित्रकारों को प्रश्रय दिया। अकबर का समकालीन लेखक तथा दरबारी अबुल फ़ज़्ल अल्लामी लिखता है कि बादशाह को चित्रकला के प्रति विशेष रुचि थी और वह इसके सम्बन्ध में कहा करता था कि “अधिक संख्या में लोग चित्रकला से घृणा करते हैं, किन्तु मैं ऐसे लोगों को पसन्द नहीं करता, क्योंकि मेरे अनुसार एक चित्रकार के पास ईश्वर को पहचानने के विशेष साधन हैं, चित्रकार किसी जानदार वस्तु का चित्र बनाने तथा अंग-प्रत्यंग चित्रित करने में यह अवश्य अनुभव करेगा कि यह अपनी कृति को जीवन प्रदान नहीं कर सकता, तथास्तु जीवनदाता ईश्वर के सम्बन्ध में सोचने को विवश हो जायेगा और इस प्रकार उसके ज्ञान में वृद्धि होगी।”
अकबर ने चित्रकारों को केवल संरक्षण एवं प्रोत्साहन ही प्रदान नहीं किया, वरन् उनको अनेक अन्य सुविधायें भी प्रदान कीं। अबुल फ़ज़्ल लिखता है कि “वह (अकबर) हर प्रकार से प्रोत्साहन प्रदान करता है, क्योंकि वह इसे (चित्रकला) अध्ययन तथा मनोरंजन दोनों का साधन समझता है। अस्तु कला विकसित हो रही है तथा बहुत से चित्रकारों को ख्याति प्राप्त हुई है। सभी चित्रकारों की कृतियाँ प्रत्येक सप्ताह दारोगा तथा लिपिकों द्वारा बादशाह के समक्ष रखी जाती हैं, तब वह कार्य के अनुसार पुरस्कृत करता है अथवा उनके मासिक वेतन में वृद्धि करता है। चित्रकारों के चित्र सम्बन्धी वस्तुओं में विशेष प्रगति हुई है तथा उनका उचित मूल्य निर्धारित किया गया है। इस प्रकार चित्रों का अब तक कोई अन्त नहीं है। अब सर्वोत्तम चित्रकार मिलते हैं। बेहजाद की सर्वोत्कृष्ट कृतियों को विश्व-विख्यात यूरोपीय चित्रकारों की आश्चर्यजनक कृतियों के साथ रख सकते हैं। विस्तार में सूक्ष्मता, सामान्य अन्त, साहसिक रचना आदि जो अब चित्रों में अतुलनीय दिखायी पड़ती है। यहाँ तक कि निर्जीव वस्तुएँ भी सजीव दिखाई पड़ती हैं। सौ से अधिक चित्रकार कला के प्रसिद्ध स्वामी हो गये हैं, उनमें पूर्णता को प्राप्त करने वालों अथवा मध्य के लोगों की संख्या भी अधिक है। यह विशेषकर हिन्दुओं के साथ सत्य है, उनके चित्र हमारी वस्तु-कल्पना को लाँघ जाते हैं। वास्तव में सम्पूर्ण विश्व में कुछ ही उनकी समानता कर सकते हैं।”
अकबर के दरबार में अनेक कुशल चित्रकार थे। अबुल फ़ज़्ल ने अपनी सुप्रसिद्ध रचना ‘आईन-ए-अकबरी’ में चित्रकारों के नाम इस प्रकार दिये हैं-मीर सैयद अली, ख्वाजा अब्दुल समद, फर्रुख कलम, मिस्कीन, दसवन्त, बसावन, केशव लाल, कुकुन्द जगन्नाथ, माधव, महेश, खेम करन, तारा, सानवाला, हरिवंश, राम इत्यादि। मीर सैयद अली तबरीज का निवासी तथा एक कुशल चित्रकार था। ख्वाजा अब्दुल समद शीराज का निवासी था। हुमायूँ ने समद को ‘शीरी कलम’ की उपाधि से विभूषित किया था। अकबर ने भी उसे उपाधि से सम्मानित किया था क्योंकि अकबर ने भी समद से चित्रकारी सीखी थी। अन्त में उसको मुल्तान का दीवान नियुक्त किया गया। समद अपने काल का एक सुप्रसिद्ध एवं कुशल चित्रकार था। फर्रुख बेग भी सुन्दर चित्रकारी में निपुण था। दसवन्त, अब्दुल समद के प्रिय शिष्यों में से था। दसवन्त जाति का कहार था तथा अकबर ने उसे टकसाल में पद भी प्रदान किया, किन्तु कुछ समय पश्चात् उसका मानसिक संतुलन बिगड़ गया और उसने आत्महत्या कर ली। वह भी अकबर के काल के कुशल चित्रकारों में था। बसावन आकृतियों के चित्रण तथा रंगों के प्रयोग में कुशल था जिसे लोग दसवन्त से भी श्रेष्ठ मानते हैं।
अकबर ने अनेक ग्रन्थों को चित्रित करवाया था। इनमें सर्वप्रथम ‘दास्ताने-अमीर हम्जा’ है। यह हुमायूँ के काल से चित्रित होना प्रारम्भ हुआ और अकबर के शासनकाल में पूर्ण हुआ। अकबर के समकालीन इतिहासकार मौलाना अब्दुल कादिर बदायूँनी के अनुसार इसको चित्रित कराने में काफी रुपया व्यय हुआ। इसमें मानव, पशु-पक्षी, पृथ्वी, आकाश एवं अन्य वस्तुओं का सजीव चित्रण है। अकबर ने ‘तारीखे-खानदाने तैमूरिया’ को चित्रित करवाया जिसमें तैमूर वंश के आरम्भ से अकबर के शासन के बाईसवें वर्ष (1577 ई0) तक का इतिहास प्रस्तुत किया गया है। इसमें दसवन्त ने अपनी कुशल चित्रकारी का परिचय दिया। इनके अतिरिक्त अकबर ने अनेक अन्य ग्रन्थों को भी चित्रित करवाया। इनमें ‘रज्मनामा (महाभारत), ‘रामायण’, ‘वाकयात बाबरी’, ‘अकबरनामा’, ‘अनवारे-सुहेली’, ‘तारीखे रशीदी’, ‘खम्सा निजामी’, ‘बहरिस्ताने जामी’ आदि प्रमुख चित्रित ग्रन्थ हैं। स्मिथ लिखते हैं कि “केवल साउथ कैनसिंगटन में ही अकबरनामा के जो हस्ताक्षरयुक्त चित्र हैं वही अकबर के शासनकाल के प्रत्येक मुख्य चित्रकार के गुणों के आलोचनात्मक परीक्षण के लिए पर्याप्त हैं।”
जहाँगीर
जहाँगीर की चित्रकला के प्रति केवल रुचि ही नहीं थी वरन् वह एक कुशल चित्रकार भी था। अस्तु उसने चित्रकला के विकास के लिए अनेक चित्रकारों को प्रश्रय दिया। पर्सी ब्राउन के अनुसार “अकबर के मस्तिष्क में मुगल चित्रकला की स्थापना का विचार आया तथा जहाँगीर ने इसको इस रूप में लाने के लिए सामग्री एकत्रित की।” जहाँगीर अपनी आत्मकथा ‘तुजुके-जहाँगीरी’ में लिखता है कि “मेरी चित्रकला के प्रति रुचि तथा पहचानने की निपुणता इस सीमा तक पहुँच गयी थी कि जब किसी मृत अथवा आज के चित्रकारों का कोई भी चित्र बिना उसका नाम बताये मेरे सामने आता है तो मैं तत्क्षण ही बता देता हूँ कि यह चित्र अमुक व्यक्ति का है। यदि एक चित्र में कई आकृति-चित्र हैं तथा प्रत्येक पर अलग-अलग उस्तादों ने काम किया हो तो मैं बता सकता हूँ कि कौन चेहरा किसने बनाया है। यदि एक ही चेहरे में आँखें किसी ने तथा भौंहें किसी ने बनायी हैं तो मैं समझ जाता हूँ कि मुख्य चेहरा किसने चित्रित किया तथा आँख और भौंहें किसने बनायी हैं।” इससे यह ज्ञात होता है कि जहाँगीर की चित्रकला में विशेष रुचि थी। उसने देश के विभिन्न भागों से चित्रकारों को आमन्त्रित किया। देश के सुदूर प्रान्तों में निवास करने वाले चित्रकार बादशाह की सेवा में अपनी कृतियों को भेजते थे तथा वह कृतियों के अनुसार उन्हें पुरस्कृत करता तथा समय- समय पर चित्र सम्बन्धी विशेष निर्देशन भी दिया करता था। जहाँगीर की चित्रकला सम्बन्धी योग्यता पर प्रकाश डालते हुए विदेशी-यात्री सर टॉमस रो लिखता है कि “बादशाह को मैंने एक चित्र दिया तथा मुझे विश्वास था कि हिन्दुस्तान में उसकी नकल होना असम्भव है। एक दिन बादशाह ने मुझे बुलाकर पूछा कि उस चित्र को दुबारा बनाने वाले को क्या दोगे? मैंने कहा-चित्रकार का पुरस्कार पचास रुपया है। उत्तर मिला कि मेरा चित्रकार मनसबदार है उसके लिये यह पुरस्कार बहुत कम है। रात्रि में पुनः बुलाया गया तथा मुझे मेरे चित्र जैसे छह चित्र दिखाये गये और अपना चित्र छाँटने के लिये कहा गया। कठिनता से मैं चित्र पहचान पाया तथा मैंने प्रतिकृतियों के अन्तर बताए। तत्पश्चात् पुरस्कार के सम्बन्ध में पुनः बातचीत प्रारम्भ हुई।”
उसके दरबार के सुप्रसिद्ध चित्रकारों में अबुल हसन, उस्ताद मसूर, फर्रुख बेग तथा बिशनदास के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं। अबुल हसन जहाँगीर का सर्वप्रिय चित्रकार था और बादशाह ने उसे ‘नादिर-उज़-ज़माँ’ की उपाधि से विभूषित किया था। उसने जहाँगीर के सिंहासनारोहण के अवसर का एक चित्र बनाया था जिसे बाद में बादशाह जहाँगीर की आत्मकथा ‘तुजुके जहाँगीरी’ में मुखचित्र के रूप में लगा दिया गया। बादशाह इस चित्र को प्रत्येक दृष्टि से पूर्ण समझता था तथा उसे युग के सर्वश्रेष्ठ चित्रों में मानता था। उस्ताद मंसूर भी एक कुशल चित्रकार था। जहाँगीर ने उसे ‘नादिर-उल-अस्त्र’ की उपाधि से विभूषित किया था। इसके अतिरिक्त जहाँगीर के काल के अन्य प्रमुख चित्रकारों में आगा रजा, बिशनदास, मोहम्मद नादिर, मोहम्मद मुराद, मनोहर, माधव तथा गोवर्धन के नाम उल्लेखनीय हैं। जहाँगीर बिशनदास के सम्बन्ध में अपनी आत्मकथा ‘तुजुके जहाँगीरी’ में लिखता है कि “मेरे भाई शाह अब्बास की उसने ऐसी सच्ची शबीह लगाई कि मैंने जब उसे शाह के नौकरों को दिखाया तो वे मान गये। मैंने बिशनदास को एक हाथी तथा बहुत कुछ पुरस्कार दिया।”
इस प्रकार जहाँगीर ने कुशल चित्रकारों को प्रोत्साहन प्रदान कर चित्रकला को समुत्राहीर प्रकिाबनाया। उसमें अब वास्तविकता के दर्शन होने लगे। इस काल की चित्रकला शैली सूक्ष्मता में अकबर के काल की शैली से कहीं अधिक बढ़ गयी। इस काल के चित्रों में शिकार तथा विभिन्न प्रकार के दृश्यों को दर्शाया जाने लगा। उहाँगीर एक सौन्दर्य-प्रेमी बादशाह था। अस्तु उसने प्रकृति के विभिन्न रूपों का चित्रण करवाया जिसे उसके कुशल चित्रकारों ने अत्यन्त स्वाभाविक चित्रण प्रस्तुत किया। इस काल के चित्रों में यथार्थता के साथ-साथ सजीवता भी स्पष्ट दृष्टिगोचर होती है। चित्रकारों ने अपने चित्रों में छाया एवं प्रकाश को भी दिखाने की चेष्टा की है जो उन चित्रकारों की सूक्ष्म दृष्टि का परिचय देती है। इन चित्रों को सुसज्जित एवं अलंकृत करने के लिए विभिन्न प्रकार के रंगों का प्रयोग बड़ी सावधानी एवं कुशलता के साथ हुआ है। इस प्रकार जहाँगीर के काल में मुगल चित्रकला अपनी पराकाष्ठा को पहुँच गयी। दूसरे शब्दों में जहाँगीर के काल को हम ‘मुगल चित्रकला का स्वर्ण युग’ कह सकते हैं।
शाहजहाँ
यद्यपि शाहजहाँ की रुचि स्थापत्यकला के विकास की ओर अधिक थी,किन्तु फिर भी उसने चित्रकला के क्षेत्र में अपने पिता की परम्पराओं को जारी रखा। उसके दरबार में अनेक कुशल चित्रकार थे जो चित्रकला के विभिन्न क्षेत्रों में निपुण थे। इनमें मोहम्मद फकीरुल्लाह सर्वप्रमुख चित्रकार था जिसके हाथ में चित्रकला संस्था का कार्य-भार था तथा मीर हाशिम इसका सहायक था। मीर हाशिम भी उस काल का एक प्रमुख चित्रकार था। बादशाह के अतिरिक्त चित्रकला के अन्य पोषकों में शहज़ादा दारा शिकोह तथा वकील आसफ खाँ के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं। इस काल की चित्रकला में अनेक परिवर्तन दृष्टिगोचर होते हैं। प्रथम, इसमें स्वाभाविकता तथा स्वच्छन्दता का अभाव है। जहाँगीर के काल के चित्रों में स्वाभाविकता थी, किन्तु इस काल के चित्रों में स्वाभाविकता के स्थान पर सादृश्यता थी। दूसरे, इन चित्रों में अधिक तड़क-भड़क के कारण कृत्रिमता आ
गयी। तीसरे, इस काल में किनारे (बार्डर) की सुन्दर चित्रकला का विकास हुआ जिसके बिना इस काल में चित्र को पूर्ण नहीं समझा जाता था। कभी-कभी इन किनारों पर पुष्प सम्बन्धी सुन्दर चित्रों की योजना प्रस्तुत की गयी, किन्तु दूसरे छोटे पशु-पक्षियों की आकृतियों का भी चित्रण किया गया।
औरंगजेब
औरंगजेब की चित्रकला में कोई रुचि न होने के कारण अब चित्रकारों को राजकीय संरक्षण एवं प्रोत्साहन मिलना बन्द हो गया। अस्तु बहुत से दरबारी चित्रकारों ने अब या तो अमीरों के यहाँ शरण ली या बाजारों में चले गये। वे अब जनता की रुचि के चित्र बनाते और उन्हें बाजार में बेचते थे। इस प्रकार चित्रकला अब दरबार से निकलकर सामान्य जनता तक पहुँच गयी। इसके अतिरिक्त बहुत से चित्रकारों ने विभिन्न राज्यों में भी शरण ली। इस प्रकार औरंगजेब के शासनकाल में मुगल चित्रकला पतनोन्मुख हो चली और उसमें न अब जहाँगीर के काल की सूक्ष्मता रह गयी और न ही शाहजहाँ का वैभव।