UP board Class- 10th Drawing (चित्रकला) राजस्थानी चित्रकला (Rajasthani Chitrakala), भारतीय चित्रकला (Bhartiya Chitrakala) , कांगड़ा चित्रकला (Kangra Chitrakala) बाघ की चित्रकला (Bagh ki Chitrakala)
प्रिय पाठक! इस पोस्ट के माध्यम से हम आपको कक्षा 10वीं की चित्रकला के अंतर्गत राजस्थानी चित्रकला (Rajasthani Chitrakala), भारतीय चित्रकला (Bhartiya Chitrakala) , कांगड़ा चित्रकला (Kangra Chitrakala) बाघ की चित्रकला (Bagh ki Chitrakala) के बारे मे बताएंगे जो की UP Board आधारित प्रश्न हैं। आशा करते हैं आपको यह पोस्ट पसंद आई होगी और आप इसे अपने दोस्तों के साथ भी शेयर करेंगे।
Class | 10th |
Subject | Drawing (चित्रकला) |
Board Name | UP Board (UPMSP) |
Topic Name | राजस्थानी चित्रकला, भारतीय चित्रकला, कांगड़ा चित्रकला, बाघ की चित्रकला |
राजस्थानी चित्रकला
राजस्थानी चित्रकला शैली का सम्बन्ध मध्यकालीन सुलिपि शैली से है। 15वीं शताब्दी में हिन्दू धर्म ने उन्नति की, भक्ति का जोर बढ़ा और फिर इस शैली ने धर्म का अवलम्बन करके उन्नति-पथ पर चलना आरम्भ किया। इससे चित्रकला को अधिक लाभ हुआ। राजस्थानी शैली के राग-रागनियों अथवा धार्मिक कहानियों के जो चित्र देखने को मिलते हैं, उनकी शैली सबसे अलग है। इनमें प्राकृतिक रंग भरा है। इन चित्रों में नारियों के वस्त्रों तथा आभूषणों का, जिनको उपयोग में लाया जाता था, वैसा ही चित्रण किया गया है। कुछ विद्वानों का मत है कि यह अजन्ता शैली की एक शाखा है। राजस्थानी शैली के चित्र उसी प्रकार के हैं जैसे कि अजन्ता के हैं। इन चित्रों में अजन्ता के चित्रों के से रंग भरे गये हैं। इनके चित्र भी सुन्दर व सजीव हैं। राजस्थानी शैली के चित्रों का मुख्य विषय धार्मिक है, इसी कारण जनता ने इन चित्रों का आदर किया और अपनाया।
भारतीयों के घरेलू जीवन के चित्र जितने सुन्दर और चित्ताकर्षक इस शैली के हैं, उतने किसी अन्य शैली के नहीं मिलते हैं। पनघट, गाँव का बाजार, खेत- खलिहान, शिल्पकारी तथा घरेलू काम इस शैली के मुख्य विषय हैं।
यात्रा के चित्र तथा ठहरने के स्थलों के चित्र बनाने में इस शैली के चित्रकारों ने बड़ी चतुरता से काम लिया है। एक चित्र जिसमें कुछ यात्री थककर एक बरगद के पेड़ के नीचे विश्राम कर रहे हैं, बड़ा ही सुन्दर है। यात्रियों के विश्राम करने के ढंग को भली प्रकार अंकित किया गया है। दूसरे चित्र में एक भारवाहक (कुली) अपने भार को उतारकर विश्राम कर रहा है। दूसरा पथिक हुक्का पी रहा है। एक बालक दर्पण की सहायता से अपने केशों को ठीक कर रहा है। एक नारी पंखा झल रही है और दूसरी पैर दबा रही है। इसी प्रकार अनेक चित्रों को चित्रकारों ने बड़ी चतुराई से बनाया है।
राजस्थानी शैली पर अजन्ता के भित्तिचित्रों का बड़ा ही गहरा प्रभाव पड़ा है। यदि इनको ध्यानपूर्वक देखा जाय तो दोनों शैलियों की उम्र एक समान प्रतीत होती हैं। राजस्थानी शैली की उम्र का एक बड़ा भाग रामायण और महाभारत की कथाओं का चित्रण करने में लगा है। देवताओं के चित्र बड़े मनोहर हैं। इस शैली के अधिकतर चित्र श्रीकृष्ण की लीलाओं के हैं।
पशुओं के चित्र भी इस शैली के मुख्य विषय बन गये। श्रीकृष्ण के चित्रों के साथ- साथ उनकी गायें भी हैं, जिनको बड़ी सुन्दरता से बनाया गया है। जंगली पशुओं के आखेट, हाथियों, हिरनों और भेड़ियों की लड़ाई के चित्र भी बड़े सुन्दर हैं।
भारतीय चित्रकला की विशेषताएँ
भारतीय चित्रकला में विविध विशेषताएँ परिलक्षित होती हैं l
(1) भाव पूर्ण मुद्रा– भारतीय कला में भावपूर्ण मुद्राओं के चित्रण का अत्यधिक महत्त्व है। ये मुद्राएँ हृदय के विभिन्न भावों को व्यक्त करती हुई दर्शक को मन्त्र-मुग्ध कर देती हैं। मानव के बाहरी रूप की अभिव्यक्ति से उसके मनोभावों का सुन्दर चित्रण अधिक प्रभावी होता है जिसे भावपूर्ण मुद्राओं द्वारा बड़ी कुशलता से चित्रित किया गया है। मानव मन के मनोभावों को इन भावभरी मुद्राओं में बड़ी कुशलता से अभिव्यक्त किया गया है। अजन्ता का सम्पूर्ण चित्रण भावपूर्ण मुद्राओ से अनुप्राणित है। नाट्यशास्त्र में अंगों के विभित्र प्रयोगों द्वारा मुद्राओं की अभिव्यओं वर्णित है। इस प्रकार भारतीय कला का एक कौशल भावपूर्ण मुद्राएँ भी हैं।
(2) सजीव रेखांकन–भारतीय कला में सजीव रेखांकन की बड़ी महत्ता है। आदिकालीन कलाकारों ने रेखाओं के प्रभावी प्रयोग के द्वारा आने वाले कलाकारों को दिशा दिखायी है। भारत का सजीव रेखांकन मानव मन के विभिन्न भावों और उद्वेगों को अभिव्यक्त करने की क्षमता रखता है। यहाँ के रेखांकन में अद्भुत लय व गति की अनुभूति होती है। रेखाओं की लय और गति मानव मन की मनोदशाओं को अभिव्यक्त करने में समर्थ है। स्थितिजन्य परिप्रेक्ष्य और स्थिति लाघव के चित्रण में भी भारतीय रेखांकन ने अपूर्व कुशलता दिखायी है। रेखाओं के अटूट प्रवाह से सौन्दर्य और लावण्य प्रस्तुत करने में हमारे कलाकार बड़े निपुण रहे हैं। इस प्रकार सजीव रेखांकन में भारतीय चित्रकला अद्वितीय है।
(3) आलंकारिकता–भारतीय कला में अलंकार की प्रवृत्ति की बहुलता पायी जाती है। भारतीय कलाकारों ने प्रकृति के मोहक रूपों को अपनी कृतियों में सँजोकर उन्हें सुन्दर बनाने का प्रयत्न किया है। उन्होंने मृग, मीन और कमल जैसी आँखें, कदली जैसी जंघाएँ, सुराही जैसी गर्दन, तोते जैसी नाक, सिंह व डमरू जैसा कटिभाग और कमल की पंखुड़ियों जैसे होंठ आदि प्राकृतिक उपादानों से अपनी कृतियों को अलंकृत करने का प्रयोग किया है। अजन्ता के आलेखनों में तो आलंकारिकता का प्रचुर प्रयोग हुआ। अजन्ता के अतिरिक्त काँगड़ा और बसौली शैली के चित्रों में भी अलंकरण की प्रधानता है। मुगल शैली में भी यह प्रवृत्ति देखने को मिलती है। इस प्रकार भारत का सम्पूर्ण चित्रण अलंकार-प्रधान है।
(4) आदर्शवादिता–भारतीय चिन्तन में यथार्थ से अधिक आदर्श की महत्ता है। यही कारण है कि भारतीय कला आदर्शवाद की ओर उन्मुख रही है। आदर्श सौन्दर्य को अभिव्यक्त करने के लिए भारतीय कलाकारों ने मानव- कल्याण को सर्वोपरि माना है। हमारे चिन्तकों के अनुसार आदर्शवाद से सामाजिक हित की परिकल्पना की गयी है। भगवान राम और कृष्ण का आदर्शवादी जीवन जन-जन का प्रेरणा-स्रोत है। भारतीय कलाकारों ने राजा और प्रजा, परमात्मा और देवता आदि के चित्रण में आदर्शवाद का पूर्णतः पालन किया है। इस प्रकार भारत की कला में आदर्शवाद की सफल अभिव्यक्ति हुई है।
(5) कल्पनाशीलता–कल्पनाशीलता भारतीय चित्रकला की दूसरी प्रमुख विशेषता है। हमारे कलाकारों ने यथार्थ को महत्त्व न देकर कल्पना को प्रधानता दी है जिसके कारण उनकी अभिव्यक्ति यथार्थ की अपेक्षा कल्पना-प्रधान है। अनेक देवी-देवताओं और उनके विविध रूपों की कल्पना करके इन कलाकारों ने भारतीय कला को कल्पना-प्रधान बनाया है। नटराज के स्वरूप चित्रण में अद्भुत कल्पना का प्रयोग किया गया है। गणेशजी का गजमुख रूप, ब्रह्माजी का चतुर्मुख रूप, शक्ति का अष्ट्भुजाधारी रूप और लक्ष्मी का उलूकवाहिनी रूप इसी कल्पनाशीलता के परिचायक हैं। इस प्रकार नित नूतन कल्पनाओं से अनुभूति के सौन्दर्य तत्त्व को अभिव्यक्त करके भारतीय कलाकारों ने अपनी कल्पनाप्रियता का परिचय दिया है। इस प्रकार भारतीय चित्रकला कल्पना- प्रधान है।
(6) धार्मिकता–भारत एक धर्मप्रधान देश है जिसके कारण यहाँ की चित्रकला में धार्मिकता की प्रधानता है। धार्मिक भावनाओं से प्रेरित कलाकारों ने धर्मप्रधान कला की साधना की है। यहाँ के धार्मिक ग्रन्थों में भी कला के तत्त्वों तथा अंगों का सविस्तार वर्णन किया गया है। हमारी आध्यात्मिकता का मूल आधार धार्मिकता, नैतिकता और आदर्शवाद है। इसी कारण यहाँ का सम्पूर्ण चित्रण धार्मिकता की अभिव्यक्ति से ओतप्रोत है। लोक-चित्रों के रूप में आज भी उत्सवों एवं पर्वों पर धार्मिक चित्रों का प्रयोग होता है। हमारे सभी गुफा-वित्र धार्मिकता से सम्बद्ध हैं। धर्म के प्रचार यार में भी धार्मिक चित्रों की भूमिका महत्त्वपूर्ण रही है। हिन्दू, बाँके प्रचार व प्रसार में भी धार्मिकता का महत्वपूर्ण योगदान रहा है।
कांगड़ा चित्र शैली
18वीं शताब्दी के मध्यकाल के दौरान परवर्ती मुगल शैली में प्रशिक्षित कई कलाकार परिवार नए संरक्षकों तथा सुरक्षित जीवन की खोज में दिल्ली से पहाड़ियों की ओर पलायन कर गये। औरंगजेब के कट्टर इस्लामिक होने के कारण कलाकारों एवं चित्रकारों ने राजस्थान तथा पंजाब की पहाड़ियों की ओर पलायन किया। यहाँ इनकी कला को प्रोत्साहन मिला और चित्रकला की विभिन्न शैलियाँ जैसे राजस्थानी शैली और पहाड़ी शैली विकसित हुई।
एक छोटी सतह पर चित्रित की गयी कृतियों को ‘सूक्ष्म चित्रकारी’ कहा जाने लगा। इन चित्रों के प्रायः विषय राधा-कृष्ण के प्रेम पर आधारित प्रसंग, बाराहमासा वर्णन, रास-मंजरी, रामायण, गीत-गोविन्द तथा रागमाला आदि पर आधारित हैं।
पहाड़ी कला के अन्तर्गत कई उपशैलियाँ विकसित हुईः जैसे-बसोली, काँगड़ा, गुलेर, चंबा, गढ़वाल आदि।
बसोली शहर हिमाचल की रावी नदी के किनारे स्थित है। बसोली कला शैली में मुगल चित्रण शैली का प्रभाव देखने को मिलता है। कलाकार देवीदास ने राजा किरनपाल के संरक्षण में ‘रासमंजरी’ का शानदार चित्रण किया है।
इस शैली की चित्रकला में ज्यामितीय पैटर्न, उज्ज्वल रंग, पहाड़ी दृश्य, दो मंजिला इमारतें, झरने, बादल, कमल आदि का सजावटी अंकन किया गया है।
चंबा शैली के चित्रों में मुगलशैली का प्रभाव काफी हद तक दिखायी देता है। इस शैली के चित्रों में कोमल, असाधारण, मंत्र मुग्ध करने वाली नारी का चित्रण किया गया है। चंबा शैली के चित्रकारों ने लाल और नीले रंग को अपने चित्रों में प्रमुखता दी है।
कांगड़ा चित्र शैली राजा संसार चन्द के संरक्षण में विकसित हुई। राजा संसार चन्द ने कांगड़ा चित्रकला शैली को उच्च शिखर तक पहुँचाया।
कांगड़ा चित्र शैली में पहाड़ी चित्रकला की महिमा का दर्शन होता है। इन चित्रों में इस जगह की मिट्टी की खुशबू को देखा जा सकता है। चित्रों में नारी के आकर्षण को कोमलता से उकेरा हुआ है। केशवदास के काव्यग्रन्थ ‘रसिक प्रिया’ को चित्रों के माध्यम से दिखाया गया है। इन चित्रों में राधा-कृष्ण को प्रेमी-प्रेमिका के रूप में चित्रित किया गया है। इन चित्रों में प्राथमिक रंगों (लाल, पीला तथा नीले) को बहुत ही सौम्यता से अलंकृत किया गया है। चित्रण में इमारतें, हाशिया, प्राकृतिक दृश्य, पेड़-पौधों आदि का चित्रण भव्यता से किया गया जो प्रशंसनीय व नयनाभिराम है।
बाघ की चित्रकला
मध्य प्रदेश के धार से 80 किलोमीटर तथा इन्दौर से उत्तर-पश्चिम 144 किलोमीटर दूर नर्मदा की सहायक बाघिनी नदी के बायें तट पर बाघ की पहाड़ी स्थित है। अजन्ता के समान यहाँ भी बौद्ध विहार बनवाये गये। स्मिथ का अनुमान है कि अजन्ता में गुहा निर्माण कार्य समाप्त होने के बाद बाघ में गुहायें उत्कीर्ण की गयीं। फर्गुसन तथा बर्गेस जैसे कलाविद् इनका काल 350-450 ई. अथवा 450-500 ई. निर्धारित करते हैं। बाघ पहाड़ी के निकटवर्ती क्षेत्र से प्राप्त कुछ ताम्रपत्रों पर ब्राह्मी लिपि में लेख अंकित है जिनका समय चौथी-पाँचवी शती निर्धारित किया जाता है। संभव है इस क्षेत्र में शासन करने वाले गुप्तों के सामन्तों द्वारा इन गुफाओं का निर्माण करवाया गया हो।
बाघ की गुफायें विन्ध्य पहाड़ियों को काटकर बनाई गयी हैं। सर्वप्रथम 1818 हैं. में इनका पता डेंजर फील्ड ने लगाया था। इन गुफाओं की संख्या नौ है। मूलतः सभी गुंफाओं में चित्र बनाये गये होंगे किन्तु प्राकृतिक प्रकोप एवं मानव असावधानी के फलस्वरूप अधिकांश चित्र नष्ट-भ्रष्ट हो गये तथा चौथी-पाँचवीं गुफाओं के भित्ति चित्र सबसे अधिक सुरक्षित अवस्था में हैं। ये चित्र अजन्ता के चित्रों से इस अर्थ में भिन्न हैं कि इनका विषय धार्मिक न होकर लौकिक जीवन से सम्बन्धित है। ए. के. हाल्दार, एस. एन. सरकार, नन्द लाल बोस, कचडोरियन जैसे प्रसिद्ध चित्रकारों ने कठिन परिश्रम के बाद बाघ के गुफा चित्रों की अनुकृतियां तैयार की हैं जिनके आधार पर यहाँ की चित्रकला का अध्ययन किया जा सकता है। अधिकांश चित्रों की प्रतिकृतियाँ ग्वालियर के गूजरी महल संग्रहालय में सुरक्षित हैं।
बाघ की चौथी-पाँचवी गुफाओं को संयुक्त रूप से ‘रंग महल’ कहा जाता है। इनका बरामदा परस्पर मिला हुआ है। इनके बरामदे तथा भीतरी दीवारों पर सर्वाधिक चित्र बनाये गये हैं। छः दृश्य विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। पहला दृश्य राजभवन के एक खुले मण्डप में बैठी हुई दो युवतियों का है जिनमें एक राजकुमारी तथा दूसरी उसकी सेविका लगती है। राजकुमारी का शरीर आभूषणों से युक्त है। वह अपना हाथ सेविका के कंधों पर रखकर उसकी बातें ध्यान से सुन रही है। छत्र पर कबूतरों के दो जोड़े चित्रित किये गये हैं।
दूसरा दृश्य दो जोड़ों का है जो एक दूसरे के सम्मुख बैठकर शास्त्रार्थ में लीन प्रतीत होते हैं। बायीं ओर एक पुरुष-स्त्री है जिनके सिर पर मुकुट होने से उनका राजा-रानी होना सूचित होता है। दायीं ओर दूसरा जोड़ा सामान्य जन है। पृष्ठ भाग पर वनस्पतियों का अंकन है।
तीसरा एक संगीत का दृश्य है। इसमें पुरुषों तथा स्त्रियों के दो अलग-अलग समूह हैं। पाँच या छः पुरुषों का समूह स्त्रियों के संगीत का आनन्द उठा रहा है। वे अपना हाथ ऊपर किये हुए हैं। उनके सिर मुण्डित हैं तथा शरीर पर कोई आभूषण नहीं है। स्त्री समूह के मध्य एक स्त्री वीणा बजाते हुए चित्रित है । एक के सिर पर मुकुट है जिससे वह नायिका लगती है। सभी अलंकृत वस्त्र एवं आभूषण धारण किये हुए हैं।
चौथा दृश्य संगीत युक्त नृत्य के अभिनय का है। इसमें स्त्रियों और पुरुषों को अलंकृत वेषभूषा में स्वच्छन्दतापूर्वक नृत्य करते हुए चित्रित किया गया है। उनके हाथों में मृदंग, करताल, कांस्यताल आदि वाद्य यन्त्र हैं। बायीं ओर सात स्त्रियों के बीच विचित्र वेषभूषा वाली कोई नर्तकी (अथवा नर्तक) है जो मोतियों की माला पहने है। तीन स्त्रियां डंडे बजा रही हैं, एक मृदंग तथा तीन मजीरा बजाते हुए दिखाई गयी हैं। दायें समूह में छः स्त्रियों के घेरे में भी एक नर्तक अथवा नर्तकी है। दोनों समूहों की स्त्रियों-पुरुषों की वेषभूषा अत्यन्त मनोहर है। स्त्रियों के केश विन्यास आकर्षक हैं। इस चक्राकार नृत्य को भारतीय परम्परा में ‘हल्लीसक’ कहा गया है जिसकी उत्पत्ति भगवान कृष्ण की रासलीला से माना जाता है। भारतीय संगीत का यह रूप गुप्तकाल के आमोदपूर्ण नगर जीवन के सर्वथा उपयुक्त था।