UP Board Solution of Class 9 Social Science इतिहास (History) Chapter- 4 वन्य समाज और उपनिवेशवाद (Vanya Samaj aur Upniveshvad) Long Answer

UP Board Solution of Class 9 Social Science [सामाजिक विज्ञान] History [इतिहास] Chapter- 4 वन्य समाज और उपनिवेशवाद (Vanya Samaj aur Upniveshvad) दीर्घ उत्तरीय प्रश्न Long Answer

प्रिय पाठक! इस पोस्ट के माध्यम से हम आपको कक्षा 9वीं की सामाजिक विज्ञान  इकाई-1: इतिहास भारत और समकालीन विश्व-1  खण्ड-2  जीविका, अर्थव्यवस्था एवं समाज के अंतर्गत चैप्टर-4 वन्य समाज और उपनिवेशवाद (Vanya Samaj aur Upniveshvad) पाठ के दीर्घ उत्तरीय प्रश्न शब्द प्रदान कर रहे हैं। जो की UP Board आधारित प्रश्न हैं। आशा करते हैं आपको यह पोस्ट पसंद आई होगी और आप इसे अपने दोस्तों के साथ भी शेयर करेंगे।

Subject Social Science [Class- 9th]
Chapter Name वन्य समाज और उपनिवेशवाद (Vanya Samaj aur Upniveshvad)
Part 3  History [इतिहास]
Board Name UP Board (UPMSP)
Topic Name भारत और समकालीन विश्व-1

वन्य समाज और उपनिवेशवाद (Vanya Samaj aur Upniveshvad)

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1. औपनिवेशिक काल के वन प्रबंधन में आए परिवर्तनों ने इन समूहों को कैसे प्रभावित किया :

(1) झूम खेती करने वालों को।

(2) घुमन्तू और चरवाहा समुदायों को।

(3) लकड़ी और वन-उत्पादों का व्यापार करने वाली कंपनियों को।

(4) बागान मालिकों को।

(5) शिकार खेलने वाले राजाओं और अंग्रेज अफसरों को।

उत्तर- (1) झूम खेती करने वालों को – झूम कृषि पद्धति में वनों के कुछ क्षेत्रों को बारी-बारी से काटा जाता है और जलाया जाता था। मानसून की पहली बारिश के पश्चात् इस राख में बीज बो दिए जाते हैं और अक्टूबर-नवम्बर तक फसल काटी जाती है। इन खेतों पर दो-एक वर्ष कृषि करने के बाद इन भूखण्डों को 12 से 18 वर्ष के लिए परती छोड़ दिया जाता था। इन भूखण्डों में मिश्रित फसलें उगायी जाती थीं जैसे मध्य भारत और अफ्रीका में ज्वार-बाजरा, ब्राजील में कसावा और लैटिन अमेरिका के अन्य भागों में मक्का व फलियाँ।

औपनिवेशिक काल में यूरोपीय वन रक्षकों की दृष्टि में यह तरीका वनों के लिए नुकसानदेह था। उन्होंने अनुभव किया कि जहाँ कुछेक वर्षों के अंतराल पर खेती की जा रही हो ऐसी भूमि पर रेलवे के लिए इमारती लकड़ी वाले पेड़ नहीं उगाए जा सकते। साथ ही, वनों को जलाते समय शेष बहुमूल्य पेड़ों के भी फैलती लपटों की चपेट में आ जाने का खतरा बना रहता है। झूम खेती के कारण सरकार के लिए लगान का हिसाब रखना भी कठिन था। इसलिए सरकार ने झूम खेती पर रोक लगाने का फैसला किया। इसके परिणामस्वरूप अनेक समुदायों को जंगलों में उनके घरों से जबरन विस्थापित कर दिया गया। कुछ को अपना पेशा बदलना पड़ा तो कुछ और ने छोटे-बड़े विद्रोहों के जरिए प्रतिरोध किया।

(2) घुमंतू और चरवाहा समुदायों को – उनके दैनिक जीवन पर नए वन कानूनों का बहुत बुरा प्रभाव पड़ा। वन प्रबंधन द्वारा लाए गए परिवर्तनों के कारण नोमड एवं चरवाहा समुदाय के लोग वनों में पशु नहीं चरा सकते थे, कंदमूल व फल एकत्र नहीं कर सकते थे और शिकार तथा मछली नहीं पकड़ सकते थे। यह सब गैरकानूनी घोषित कर दिया गया था। इसके फलस्वरूप उन्हें लकड़ी चोरी करने को विवश होना पड़ता और यदि पकड़े जाते तो उन्हें वन रक्षकों को घूस देनी पड़ती। इनमें से कुछ समुदायों को अपराधी कबीले भी कहा जाता था।

(3) लकड़ी और वन- उत्पादों का व्यापार करने वाली कंपनियों को-19वीं सदी के प्रारम्भ में इंग्लैण्ड के बलूत वन लुप्त होने लगे थे जिससे शाही नौसेना के लिए लकड़ी की आपूर्ति में कमी आयी। सन् 1820 के दशक में अंग्रेज खोजी दस्ते भारत की वन संपदा का अन्वेषण करने के लिए भेजे गए। एक दशक के भीतर बड़ी संख्या में पेड़ों को काट डाला गया और अत्यधिक मात्रा में भारत से लकड़ी का निर्यात किया गया। लकड़ी निर्यात व्यापार पूरी तरह से सरकारी अधिनियम के अंतर्गत संचालित किया जाता था। ब्रिटिश प्रशासन ने यूरोपीय कंपनियों को विशेष अधिकार दिए कि वे ही कुछ निश्चित क्षेत्रों में वन्य उत्पादों में व्यापार कर सकेंगे। लकड़ी/वन्य उत्पादों का व्यापार करने वाली कुछ कंपनियों के लिए लाभदायक सिद्ध हुआ। वे अपने लाभ के लिए अंधाधुंध वन काटने में लग गए।

(4) बागान मालिकों को – भारत में औपनिवेशिक काल में लागू की गयी विभिन्न वन नीतियों का बागान मालिकों पर उचित प्रभाव पड़ा। इस काल में वैज्ञानिक वानिकी के नाम पर बड़े पैमाने पर जंगलों को साफ करके उस पर बागानी कृषि शुरू की गयी। इन बागानों के मालिक अंग्रेज होते थे, जो भारत में चाय, कहवा, रबड़ आदि के बागानों को लगाते थे। इन बागानों में श्रमिकों की पूर्ति प्रायः वन क्षेत्रों को काटने से बेरोजगार हुए वन निवासियों द्वारा की जाती थी। बागान के मालिकों ने मजदूरों को लंबे समय तक और वह भी कम मजदूरी पर काम करवाकर बहुत लाभ कमाया। नए वन्य कानूनों के कारण मजदूर इसका विरोध भी नहीं कर सकते थे क्योंकि यही उनकी आजीविका कमाने का एकमात्र माध्यम था।

(5) शिकार खेलने वाले राजाओं और अंग्रेज अफसरों को- औपनिवेशिक भारत में बनाए गए वन कानूनों ने वनवासियों के जीवन पर व्यापक प्रभाव डाला। पहले जंगल के निकटवर्ती क्षेत्रों में रहने वाले लोग हिरण, तीतर जैसे छोटे-मोटे शिकार करके अपना जीवनयापन करते थे। किन्तु शिकार की यह प्रथा अब गैरकानूनी हो गयी थी। शिकार करते हुए पकड़े जाने पर अवैध शिकार करने वालों को दण्डित किया जाने लगा। जहाँ एक ओर वन कानूनों ने लोगों को शिकार के परंपरागत अधिकार से वंचित किया, वहीं बड़े जानवरों का आखेट एक खेल बन गया। औपनिवेशिक शासन के दौरान शिकार का चलन इस पैमाने तक बढ़ा कि कई प्रजातियाँ लगभग पूरी तरह लुप्त हो गईं। अंग्रेजों की नजर में बड़े जानवर जंगली, बर्बर और आदि समाज के प्रतीक चिह्न थे। उनका मानना था कि खतरनाक जानवरों को मारकर वे हिंदुस्तान को सभ्य बनाएँगे। बाघ, भेड़िए और दूसरे बड़े जानवरों के शिकार पर यह कहकर पुरस्कार दिए गए कि इनसे किसानों को खतरा है। सन् 1875 से 1925 के बीच इनाम के लालच में लगभग 80,000 से अधिक बाघ, 1,50,000 तेंदुए और 2,00,000 भेड़िये मार गिराए गए। धीरे-धीरे बाघ के शिकार को एक खेल की ट्रॉफी के रूप में देखा जाने लगा। अकेले जॉर्ज यूल नामक अंग्रेज अधिकारी ने 400 बाघों की हत्या की थी। शुरू में वन के कुछ इलाके शिकार के लिए ही आरक्षित थे। सरगुजा के महाराज ने सन् 1957 तक अकेले ही लगभग 1,157 बाघों और 2,000 तेंदुओं का शिकार किया था।

प्रश्न 2. बस्तर और जावा के औपनिवेशिक वन प्रबन्धन में क्या समानताएँ हैं?

उत्तर- बस्तर में वन प्रबन्धन का उत्तरदायित्व अंग्रेजों के और जावा में डचों के हाथ में था। लेकिन अंग्रेज व डच दोनों सरकारों के उद्देश्य समान थे।

दोनों की सरकारें अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए लकड़ी चाहती थीं और उन्होंने अपने एकाधिकार के लिए काम किया। दोनों ने ही ग्रामीणों को घुमंतू खेती करने से रोका। दोनों ही औपनिवेशिक सरकारों ने स्थानीय समुदायों को विस्थापित करके वन्य उत्पादों का पूर्ण उपयोग कर उनको पारंपरिक आजीविका कमाने से रोका।

बस्तर के लोगों को आरक्षित वनों में इस शर्त पर रहने दिया गया कि वे लकड़ी का काम करने वाली कंपनियों के लिए काम मुफ्त में किया करेंगे। इसी प्रकार के काम की माँग जावा में ब्लैन्डाँगडिएन्स्टेन प्रणाली के अंतर्गत पेड़ काटने और लकड़ी ढोने के लिए ग्रामीणों से की गई। जब दोनों स्थानों पर जंगली समुदायों को अपनी भूमि छोड़नी पड़ी तो विद्रोह हुआ जिन्हें अंततः कुचल दिया गया। जिस प्रकार सन् 1770 ई में जावा में कलांग विद्रोह को दबा दिया गया उसी प्रकार सन् 1910 में बस्तर का विद्रोह भी अंग्रेजों द्वारा कुचल दिया गया।

प्रश्न 3. सन् 1880 से 1920 ई. के बीच भारतीय उपमहाद्वीप के वनाच्छादित क्षेत्र में 97 लाख हेक्टेयर की गिरावट आयी। पहले के 10.86 करोड़ हेक्टेयर से घटकर यह क्षेत्र 9.89 करोड़ हेक्टेयर रह गया था। इस गिरावट में निम्नलिखित कारकों की भूमिका बताएँ-

(1) रेलवे

(2) जहाज निर्माण

(3) कृषि-विस्तार

(4) व्यावसायिक खेती

(5) चाय-कॉफी के बागान

(6) आदिवासी और किसान

उत्तर-(1) रेलवे – 1850 के दशक में रेल लाइनों के प्रसार ने लकड़ी के लिए एक नयी माँग को जन्म दिया। शाही सेना के आवागमन तथा औपनिवेशिक व्यापार हेतु रेलवे लाइनों की अनिवार्यता अनुभव की गयी। रेल इंजनों को चलाने के लिए ईंधन के तौर पर और रेल की पटरियों को जोड़े रखने के लिए ‘स्लीपरों’ के रूप में लकड़ी की बड़े पैमाने पर जरूरत थी। एक मील लम्बी रेल की पटरी के लिए 1760 से 2000 स्लीपरों की जरूरत पड़ती थी। भारत में 1860 के दशक में रेल लाइनों का जाल तेजी से फैला। जैसे-जैसे रेलवे पटरियों का भारत में विस्तार हुआ, अधिकाधिक मात्रा में पेड़ काटे गए। 1850 के दशक में अकेले मद्रास प्रेसीडेंसी में स्लीपरों के लिए लगभग 35,000 पेड़ प्रतिवर्ष काटे जाते थे। आवश्यक संख्या में आपूर्ति के लिए सरकार ने निजी ठेके दिए। इन ठेकेदारों ने बिना सोचे-समझे पेड़ काटना शुरू कर दिया और रेल लाइनों के आस-पास जंगल बड़ी तेजी से समाप्त होने लगे।

(2) जहाज निर्माण – 19वीं सदी के शुरू तक इंग्लैण्ड में बलूत के जंगल समाप्त होने लगे थे। इससे इंग्लैण्ड की शाही जलसेना के लिए लकड़ी की आपूर्ति की समस्या उत्पन्न हो गयी क्योंकि समुद्री जहाजों के अभाव में शाही सत्ता को बनाए रखना संभव नहीं था। इसलिए, सन् 1820 ई. में तक अंग्रेजी खोजी दस्ते भारत की वन-संपदा का अन्वेषण करने के लिए भेजे गए। एक दशक के अंदर बड़ी संख्या में पेड़ों को काट डाला गया और बहुत अधिक मात्रा में लकड़ी का भारत से निर्यात किया गया।

(3) कृषि विस्तार-19वीं सदी की शुरुआत में औपनिवेशिक सरकार ने वनों को अनुत्पादक समझा। उनकी दृष्टि में इस व्यर्थ के वियावान पर कृषि करके उससे राजस्व और कृषि उत्पाद प्राप्त किया जा सकता है और इस तरह राज्य में अन्न की वृद्धि की जा सकती है। इसी सोच का परिणाम था कि सन् 1880 से 1920 के बीच कृषि योग्य जमीन के क्षेत्रफल में 67 लाख हेक्टेयर की वृद्धि हुई। उन्नीसवीं सदी में बढ़ती नगरीय जनसंख्या के लिए वाणिज्यिक फसलों; जैसे-जूट, चीनी, गेहूँ एवं कपास की माँग बढ़ गई और औद्योगिक उत्पादन के लिए कच्चे माल की जरूरत पड़ी। इसलिए अंग्रेजों ने सीधे तौर पर वाणिज्यिक फसलों को बढ़ावा दिया। इस प्रकार भूमि को जुताई के अंतर्गत लाने के लिए वनों को काट दिया गया।

(4) व्यावसायिक कृषि-19वीं शताब्दी में यूरोप की जनसंख्या में तेजी से वृद्धि हुई। इसलिए यूरोपीय जरूरतें की पूर्ति के लिए औपनिवेशिक सरकार ने भारतीय किसानों को व्यावसायिक कृषि फसलों; यथा-गन्ना, पटसन, कपास आदि का उत्पादन करने हेतु प्रोत्साहित किया। इस कार्य हेतु अतिरिक्त भूमि प्राप्त करने के लिए वनों को बड़े पैमाने पर साफ किया गया।

(5) चाय-कॉफी के बागान – औपनिवेशिक सरकार ने यूरोपीय बाजार में चाय-कॉफी की जरूरत को पूरा करने के लिए भारत में इनकी कृषि को प्रश्रय दिया। उत्तर-पूर्वी और दक्षिणी भारत के ढलानों पर वनों को काटकर चाय और कॉफी के बागानों के लिए भूमि प्राप्त की गयी।

(6) आदिवासी और किसान – आदिवासी सामान्यतः घुमंतू खेती करते थे जिसमें वनों के हिस्सों को बारी-बारी से काटा एवं जलाया जाता है। मानसून की पहली बरसात के बाद राख में बीज बो दिए जाते हैं। यह प्रक्रिया वनों के लिए हानिकारक थी। इसमें हमेशा जंगल की आग का खतरा बना रहता था।

प्रश्न 4. युद्धों से जंगल क्यों प्रभावित होते हैं?

उत्तर- युद्ध से वनों पर निम्न प्रभाव पड़ता है-

(1) स्थल सेना को अनेक आवश्यकताओं के लिए बड़े पैमाने पर लकड़ियों की आवश्यकता होती है।

(2) जावा में जापानियों के कब्जा करने से पहले, डचों ने ‘भस्म कर भागो नीति’ अपनाई जिसके तहत आरा मशीनों और सागौन के विशाल लड्डों के ढेर जला दिए गए जिससे वे जापानियों के हाथ न लगें। इसके बाद जापानियों ने वन्य-ग्रामवासियों को जंगल काटने के लिए बाध्य करके वनों का अपने युद्ध कारखानों के लिए निर्ममता से दोहन किया। बहुत-से गाँव वालों ने इस अवसर का लाभ उठाकर जंगल में अपनी खेती का विस्तार किया। युद्ध के बाद इंडोनेशियाई वन सेवा के लिए इन जमीनों को वापस हासिल कर पाना कठिन था।

(3) नौसेना की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए बनने वाले जहाजों के लिए बड़े पैमाने पर लकड़ी की आवश्यकता होती है जिसे जंगलों को काट कर पूरा किया जाता है।

(4) भारत में वन विभाग ने ब्रिटेन की लड़ाई की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए अंधा-धुंध वन काटे। इस अंधा-धुंध विनाश एवं राष्ट्रीय लड़ाई की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए वनों की कटाई वनों को प्रभावित करती है क्योंकि वे बहुत तेजी से खत्म होते हैं जबकि ये दोबारा पैदा होने में बहुत समय लेते हैं।

प्रश्न 5. वनों के अधीन क्षेत्र बढ़ाने की क्या जरूरत है? कारण बताइए।

उत्तर- भारत में वनों के अधीन क्षेत्र बहुत कम है जितना कि वैज्ञानिक माँग के अनुसार होना चाहिए। हमें प्रत्येक स्थिति में इस क्षेत्र में बढ़ोतरी करनी चाहिए जिसके मुख्य कारण निम्नलिखित हैं-

  1. वन्य जीवों को प्राकृतिक निवास स्थान प्रदान करना- वन अनेक प्रकार से वन्य जीव-जन्तुओं को प्राकृतिक निवास-स्थान उपलब्ध कराते हैं और इस प्रकार उन्हें आने वाली पीढ़ियों के लिए सुरक्षित रखते हैं।
  2. मृदा का सरंक्षण करना – वनों में पाए जाने वाले अनेक वृक्ष अपनी जड़ों के कारण मृदा को जकड़े रहते हैं और जल के साथ बहने नहीं देते। इस प्रकार वे मृदा के सरंक्षण में सहायक होते हैं।
  3. पारिस्थितिक-तन्त्र को बनाए रखने के लिए वायु प्रदूषण मानव- जीवन के लिए बड़ा हानिकारक है। इस हानि से बचने में वन हमारी बड़ी सहायता करते हैं। वे पारिस्थितिक-सन्तुलन को बनाए रखते हैं। उपर्युक्त सभी कारणों से वनों के अधीन क्षेत्र को बढ़ाने की आवश्यकता है।
  4. नदियों के प्रवाह को नियमित करना – वन वर्षा में और शुष्क महीनों में नदियों के पानी के प्रवाह को नियमित करते हैं। वर्षा के दिनों में वे पानी को सोख लेते हैं और शुष्क महीनों में वे पानी को धीरे-धीरे छोड़ देते हैं। इस प्रकार वे बाढ़ और अकाल दोनों की सम्भावनाओं पर नियन्त्रण रखते हैं।
  5. वातावरण के तापमान को नियन्त्रित करना- वातावरण के तापमान को आवश्यकता से अधिक बढ़ाने से रोकने में वन बड़े उपयोगी सिद्ध होते हैं। अन्यथा तापमान के बढ़ने से पहाड़ों की सभी बर्फ पिघल जाएगी और परिणामस्वरूप समुद्रों का पानी इतना बढ़ जाएगा कि समुद्र-तट के साथ लगने वाले निचले क्षेत्र पानी में डूब जाएँगे।
  6. वर्षा के लिए महत्त्वपूर्ण – वनों का वर्षा लाने में भी बड़ा योगदान होता है। वे जल-कणों को ठण्डा करके उन्हें वर्षा की बूंदों में बदल देते हैं। इस प्रकार वे दमें अकाल से बचाते हैं।

प्रश्न 6. भारत में वनों का प्रथम इंस्पेक्टर जनरल कौन था? वन प्रबंधन के विषय में उसके क्या विचार थे? इसके लिए उसने क्या किया?

उत्तर- भारत में वनों का प्रथम इंस्पेक्टर जनरल डायट्रिच ब्रैडिस (Dietrich Brandis) था। वह एक जर्मन विशेषज्ञ था। वन प्रबंधन के संबंध में उसके निम्नलिखित विचार थे-

  1. वन संसाधनों के संबंध में नियम बनाने होंगे।
  2. वनों के प्रबंध के लिए एक उचित प्रणाली अपनानी होगी और लोगों को वन-सरंक्षण विज्ञान में प्रशिक्षित करना होगा।
  3. जो व्यक्ति नई प्रणाली की परवाह न करते हुए वृक्ष काटता है, उसे दंडित करना होगा।
  4. इस प्रणाली के अंतर्गत कानूनी प्रतिबंध लगाने होंगे। 5. वनों को इमारती लकड़ी के उत्पादन के लिए संरक्षित करना होगा। इस

उद्देश्य से वनों में वृक्ष काटने तथा पशु चराने को सीमित करना होगा। अपने विचारों को कार्य रूप देने के लिए ब्रैंडिस ने सन् 1864 में ‘भारतीय वन सेवा’ की स्थापना की और सन् 1865 के ‘भारतीय वन अधिनियम’ पारित होने में सहायता पहुँचाई। सन् 1906 में ‘देहरादून में ‘द इंपीरियल फॉरेस्ट रिसर्च इंस्टीट्यूट’ की स्थापना की गई। यहाँ वैज्ञानिक वानिकी का अध्ययन कराया जाता था। परंतु बाद में पता चला कि इस अध्ययन में विज्ञान जैसी कोई बात नहीं थी।

प्रश्न 7. भारत में व्यावसायिक वानिकी कब और क्यों आई? इसे व्यवहार में लाने पर इसने भारत के वनों में निवास करने वाले लोगों पर क्या प्रभाव डाला?

उत्तर- अंग्रेजों को इस बात की चिंता थी कि स्थानीय लोगों द्वारा जंगलों का उपयोग व व्यापारियों द्वारा पेड़ों की अंधाधुंध कटाई से जंगल नष्ट हो जाएँगे। इसलिए उन्होंने डायट्रिच ब्रैडिस नामक जर्मन विशेषज्ञ को इस विषय पर राय लेने के लिए बुलाया और उसे देश का पहला वन महानिदेशक नियुक्त किया। ब्रैंडिस ने अनुभव किया कि लोगों को संरक्षण विज्ञान में प्रशिक्षित करना और जंगलों के प्रबंधन के लिए एक व्यवस्थित तंत्र विकसित करना होगा।

इसलिए ब्रेडिस ने सन् 1864 में भारतीय वन सेवा की स्थापना की और सन् 1865 के भारतीय वन अधिनियम को सूत्रबद्ध करने में सहयोग दिया। नियम बनाए गए और इस तरह पूरी प्रणाली कानूनी रूप से बाध्यकारी बना दी गई। पेड़ों की कटाई और पशुओं को चराने जैसी गतिविधियों पर पाबंदी लगा दी गई ताकि लकड़ी के उत्पादन हेतु वनों को संरक्षित किया जा सके। यदि कोई इस तंत्र की अवमानना करके पेड़ काटते पाया जाता तो उसे दण्डित किया जाता।

इम्पीरियल फॉरेस्ट रिसर्च इंस्टीट्यूट की स्थापना सन् 1906 में देहरादून में हुई। यहाँ जिस पद्धति की शिक्षा दी जाती थी उसे ‘वैज्ञानिक वानिकी’ कहा गया। वैज्ञानिक वानिकी में प्राकृतिक वनों में मौजूद विभिन्न प्रकार के पेड़ों को काट दिया गया। उनके स्थान पर एक ही प्रकार के पेड़ सीधी लाइन में लगाए गए। इन्हें  बागान कहा जाता है।

वन अधिकारियों ने जंगलों का सर्वेक्षण किया, विभिन्न प्रकार के पेड़ों के अंतर्गत आने वाले क्षेत्र का आकलन किया और वन प्रबंधन के लिए कार्य-योजना बनाई। उन्होंने यह भी तय किया कि बागान का कितना क्षेत्र प्रतिवर्ष काटा जाए। इन्हें कीटे जाने के पश्चात् इनके स्थान पर ‘व्यवस्थित’ वन लगाए जाने थे। कटाई के बाद खाली भूमि पर पुनः पेड़ लगाए जाने थे ताकि कुछ ही वर्षों में यह क्षेत्र पुनः कटाई के लिए तैयार हो जाए।

भारतीय वन अधिनियम ने भारतीय वन के निवासियों के जीवन को कई प्रकार से प्रभावित किया-

  1. पुलिस वाले एवं वन-रक्षक अपने लिए मुफ्त खाने की माँग करके लोगों को सताते।
  2. उनके सभी दैनिक कार्य- अपने घरों के लिए लकड़ी काटना, अपने पशुओं को चराना, कंद-मूल एकत्र करना, शिकार एवं मछली पकड़ना-सभी गैरकानूनी हो गए।
  3. घुमंतू या झूम खेती करने वालों को अपने व्यवसाय बदलने पर मजबूर किया गया जबकि कुछ ने परिवर्तन का विरोध करने के लिए बड़े और छोटे विद्रोहों में भाग लिया।
  4. अब लोग वनों से लकड़ी चुराने पर विवश हो गए, और यदि वे पकड़े जाते, तो वे वन संरक्षकों की दया पर होते थे जो उनसे रिश्वत वसूल करता था।
  5. समुदायों को बलपूर्वक वनों में उनके घरों से विस्थापित कर दिया गया।
  6. सरकार ने घुमंतू या झूम खेती पर प्रतिबंध लगा दिया। वे इसे उपजाऊ भूमि की बरबादी समझते थे जो इसकी अपेक्षा रेलवे के लिए लकड़ी का उत्पादन करने के लिए प्रयोग की जा सकती थी।

प्रश्न 8. वन विनाश के प्रमुख कारणों को स्पष्ट कीजिए।

उत्तर- वन का तेजी से काटा जाना या लुप्त होना वन विनाश कहलाता है। मानव प्राचीन काल से ही प्राकृतिक संसाधनों की प्राप्ति हेतु वनों पर निर्भर रहा है। वनों से उसे लकड़ी, जलावन, पशुचारण, शिकार तथा दुर्लभ जड़ी-बूटियों की प्राप्ति होती है। औपनिवेशिक शासनकाल में भारत में तेजी से वनों की कटाई और लकड़ी का निर्यात शुरू हुआ। वन विनाश के प्रमुख कारण इस प्रकार हैं-

  1. कृषि भूमि का विस्तार

आधुनिक काल में भारत की जनसंख्या में तीव्र गति से वृद्धि हुई। जनसंख्या में वृद्धि के साथ-साथ खाद्य पदार्थों की माँग में भी तीव्र वृद्धि हुई जिसकी पूर्ति के लिए सीमावर्ती वनों को साफ करके कृषि क्षेत्रों का विस्तार किया गया।

औपनिवेशिक शासन काल में स्थिति और बिगड़ गई क्योंकि भारतीय कृषि को भारतीय आवश्यकताओं की पूर्ति करने के साथ-साथ यूरोपीय आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए भी बाध्य होना पड़ा।

19वीं शताब्दी तक कृषि ही राजस्व का प्रमुख स्रोत थी तथा वनों का महत्त्व मानव समाज के लिए गौण था। अतः कृषि क्षेत्रों को बढ़ाने के अत्यधिक प्रयास किए गए। सन् 1880 से 1920 के मध्य मात्र 40 वर्षों में ही कृषि योग्य भूमि के क्षेत्रफल में 67 लाख हेक्टेयर की वृद्धि हुई।

मध्यकाल में कृषि का स्वरूप खाद्यान्न फसलों के उत्पादन तक ही सीमित था परंतु ब्रिटिश शासन में यूरोपीय उद्योगों की आवश्यकताओं की पूर्ति करने के लिए व्यावसायिक कृषि का प्रचलन आरंभ हुआ। पटसन, नील, कपास तथा गन्ना जैसी फसलों के उत्पादन को अधिक प्रोत्साहित किया गया जिसके कारण कृषि क्षेत्रों की वृद्धि की आवश्यकता पड़ी और अधिक-से-अधिक पेड़ काटकर भूमि प्राप्त करने के प्रयास किए गए।

  1. व्यावसायिक वानिकी का आरंभ

भारत में अंग्रेज शासक 19वीं शताब्दी के मध्य में यह बात अच्छी तरह समझ गए कि यदि व्यापारियों और स्थानीय निवासियों द्वारा इसी तरह पेड़ों को काटा जाता रहा तो वन शीघ्र ही समाप्त हो जाएँगे। वनों की अंधाधुंध कटाई के स्थान पर एक व्यवस्थित प्रणाली की आवश्यकता महसूस की। अतः ब्रिटिश सरकार ने डायट्रिच ब्रैडिस नामक एक जर्मन वन विशेषज्ञ को भारत का पहला वन महानिदेशक नियुक्त किया।

ब्रैडिस ने सन् 1864 में भारतीय वन सेवा की स्थापना की और सन् 1865 के भारतीय वन अधिनियम को सूत्रबद्ध करने में सहयोग दिया। इम्पीरियल फॉरेस्ट रिसर्च इंस्टीट्यूट की स्थापना सन् 1906 में देहरादून में हुई। यहाँ जिस पद्धति की शिक्षा दी जाती थी उसे ‘वैज्ञानिक वानिकी’ (साइंटिफिक फॉरेस्ट्री) कहा गया। आज पारिस्थितिकी विशेषज्ञों सहित अधिकतर लोग मानते हैं कि यह पद्धति कतई वैज्ञानिक नहीं है।

वैज्ञानिक वानिकी के नाम पर विविध प्रजाति वाले प्राकृतिक वनों को काट डाला गया। इनकी जगह सीधी पंक्ति में एक ही किस्म के पेड़ लगा दिए गए। इसे बागान कहा जाता है। वन विभाग में अधिकारियों ने वनों का सर्वेक्षण किया, विभिन्न किस्म के पेड़ों वाले क्षेत्र की नाप-जोख की और वन-प्रबंधन के लिए योजनाएँ बनायीं। उन्होंने यह भी तय किया कि बागान का कितना क्षेत्र प्रतिवर्ष काटा जाएगा।

  1. रेल लाइनों का विकास

भारत में सन् 1860 के दशक में रेलवे का विकास आरंभ हुआ। भारतीय कच्चे माल को बंदरगाहों तक पहुँचाने के लिए तथा भारत में ब्रिटिश शासन को मजबूती प्रदान करने के लिए सेना को देश के विभिन्न भागों में तेजी से पहुँचाने के लिए अंग्रेजों ने रेलवे के विकास को सर्वोच्च प्राथमिकता दी। मात्र 30 वर्षों में ही (1860-1890) भारत में 25,500 किमी रेलवे लाइनों का विस्तार किया गया। सन् 1946 तक इन रेल लाइनों की लंबाई बढ़कर 7,65,000 किमी हो गई। रेल की लाइन बिछाने के लिए रेल की दोनों पटरियों को जोड़ने के लिए उनके नीचे लकड़ी के स्लीपरों (लकड़ी के लगभग 10 फुट लंबे तथा 10 इंच × 5 इंच मोटे लड्डे) को बिछाया जाता था। एक मील लंबी रेल की पटरी बिछाने के लिए 1,760 से 2,000 तक स्लीपर की जरूरत होती थी। एक औसत कद के पेड़ से 3 से 5 स्लीपर तक बन सकते हैं। हिसाब लगाइए कि भारत में 7,65,000 किमी लंबी रेल लाइनों को बिछाने के लिए कितनी बड़ी मात्रा में पेड़ों को काटा गया होगा।

  1. बागानी कृषि को प्रोत्साहन

यूरोप में चाय, कॉफी और रबड़ की बढ़ती माँग को पूरा करने के लिए इन वस्तुओं के बागान बने और इनके लिए भी प्राकृतिक वनों का एक भारी हिस्सा साफ किया गया। औपनिवेशिक सरकार ने वनों को अपने अधिकार में लेकर उनके विशाल हिस्सों को बहुत ही सस्ती दरों पर यूरोपीय बागानी मालिकों को सौंप दिया। इन क्षेत्रों की बाड़ाबंदी करके वनों को साफ कर दिया गया और चाय-कॉफी की खेती की जाने लगी। पश्चिम बंगाल, असम, केरल, कर्नाटक में बड़े पैमाने पर वनों को काटा गया।

  1. सैन्य आवश्यकता की पूर्ति

औपनिवेशिक काल में देश के विभिन्न भागों में सैनिक क्षेत्रों की स्थापना की गयी जिनके निर्माण के लिए बड़ी संख्या में पेड़ों को काटा गया। 19वीं सदी के आरंभ तक ब्रिटेन में ओक के वन प्रायः लुप्त होने लगे थे जिसके कारण सेना के लिए समुद्री जहाजों का निर्माण कार्य बाधित होने लगा था। ब्रिटिश सेना जो मुख्यतः एक समुद्री सेना ही थी उसके सम्मुख अस्तित्व का प्रश्न उपस्थित होने लगा। अतः ब्रिटिश नौसेना की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए बड़ी मात्रा में कीमती भारतीय लकड़ी का विदेशों में निर्यात किया गया।

 

UP Board Solution of Class 9 Social Science इतिहास (History) Chapter- 3 नात्सीवाद और हिटलर का उदय (Natsivad aur Hitlar ka Uday) Long Answer

 

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