UP Board Solution of Class 9 Social Science इतिहास (History) Chapter- 5 आधुनिक विश्व में चरवाहे (Aadhunik Vishwa men Charvahe) Long Answer

UP Board Solution of Class 9 Social Science [सामाजिक विज्ञान] History [इतिहास] Chapter- 5 आधुनिक विश्व में चरवाहे (Aadhunik Vishwa men Charvahe ) दीर्घ उत्तरीय प्रश्न Long Answer

प्रिय पाठक! इस पोस्ट के माध्यम से हम आपको कक्षा 9वीं की सामाजिक विज्ञान  इकाई-1: इतिहास भारत और समकालीन विश्व-1  खण्ड-2  जीविका, अर्थव्यवस्था एवं समाज के अंतर्गत चैप्टर-5 आधुनिक विश्व में चरवाहे (Aadhunik Vishwa men Charvahe ) पाठ के दीर्घ उत्तरीय प्रश्न प्रदान कर रहे हैं। जो की UP Board आधारित प्रश्न हैं। आशा करते हैं आपको यह पोस्ट पसंद आई होगी और आप इसे अपने दोस्तों के साथ भी शेयर करेंगे।

Subject Social Science [Class- 9th]
Chapter Name आधुनिक विश्व में चरवाहे (Aadhunik Vishwa men Charvahe )
Part 3  History [इतिहास]
Board Name UP Board (UPMSP)
Topic Name भारत और समकालीन विश्व-1

आधुनिक विश्व में चरवाहे (Aadhunik Vishwa men Charvahe )

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1. स्पष्ट कीजिए कि घुमंतू समुदायों को बार-बार एक जगह से दूसरी जगह क्यों जाना पड़ता है? इस निरन्तर आवागमन से पर्यावरण को क्या लाभ है?

उत्तर- ऐसे लोगों को घुमतू या खानाबदोश कहते हैं जो एक स्थान पर टिक कर नहीं रहते बल्कि अपनी जीविका के निमित्त एक स्थान से दूसरे स्थान पर घूमते रहते हैं। इन घुमंतू लोगों का जीवन इनके पशुओं पर निर्भर होता है। वर्ष भर किसी एक स्थान पर पशुओं के लिए पेयजल और चारे की व्यवस्था सुलभ नहीं हो पाती ऐसे में ये एक स्थान से दूसरे स्थान पर भ्रमणशील रहते हैं। जब तक एक स्थान पर चरागाह उपलब्ध रहता है तब तक ये वहाँ रहते हैं, परन्तु चरागाह समाप्त होने पर पुनः दूसरे नए स्थान की ओर चले जाते हैं। घुमंतू लोगों के निरन्तर आवागमन से पर्यावरण को निम्नलिखित लाभ होते हैं-

  1. निरन्तर स्थान परिवर्तन के कारण किसी एक स्थान की वनस्पति का अत्यधिक दोहन नहीं होता है।
  2. यह खानाबदोश कबीलों को बहुत-से काम जैसे कि खेती, व्यापार एवं पशुपालन करने का अवसर प्रदान करता है।
  3. यह चरागाहों को पुनः हरा-भरा होने और अति-चारण से बचाने में सहायता करता है क्योंकि चरागाहें अतिचारण एवं लम्बे प्रयोग के कारण बंजर नहीं बनतीं।
  4. निरन्तर स्थान परिवर्तन से भूमि की उर्वरता बनी रहती है।
  5. उनके पशु मृदां को खाद उपलब्ध कराने में मदद करते हैं।
  6. चरागाहों की गुणवत्ता बनी रहती है।
  7. यह विभिन्न क्षेत्रों की चरागाहों के प्रभावशाली प्रयोग में मदद करता है।

प्रश्न 2. इस बारे में चर्चा कीजिए कि औपनिवेशिक सरकार ने निम्नलिखित कानून क्यों बनाए? यह भी बताइए कि इन कानूनों से चरवाहों के जीवन पर क्या असर पड़ा?

(1) परती भूमि नियमावली

(2) वन अधिनियम

(3) अपराधी जनजाति अधिनियम

(4) चराई कर।

उत्तर- 1. परती भूमि नियमावली- अंग्रेज सरकार परती भूमि को बेकार मानती थी, क्योंकि परती भूमि से उसे कोई लगान प्राप्त नहीं होती थी। साथ ही परती भूमि का उत्पादन में कोई योगदान नहीं होता था। यही कारण था कि अंग्रेज सरकार ने परती भूमि का विकास करने के लिए अनेक नियम बनाए जिन्हें परती भूमि नियमावली के नाम से जाना जाता है।

परती भूमि नियमावली का चरवाहों के जीवन पर प्रभाव

(i) चरागाहों का आकार सिमटकर बहुत छोटा रह गया।

(ii) चरवाहे अपने पशुओं को अब निश्चित चरागाहों में ही चराते थे जिससे चारा कम पड़ने लगा।

(iii) बचे हुए चरागाहों पर पशुओं का दबाव बहुत अधिक बढ़ गया।

(iv) चारे की कमी के कारण पशुओं की सेहत और संख्या घटने लगी।

  1. वन अधिनियम – अंग्रेज वन अधिकारी ऐसा मानते थे कि वनों में पशुओं को चराने के अनेक नुकसान हैं। पशुओं के चरने से छोटे जंगली पौधों और वृक्षों की नई कोपलें नष्ट हो जाती हैं जिससे नए पेड़ों का विकास रुक जाता है। इसलिए औपनिवेशिक सरकार ने अनेक वन अधिनियम पारित किए जिसके द्वारा वनों को आरक्षित तथा पशुचारण को नियमित किया जा सके।

वन अधिनियम का चरवाहों पर प्रभाव

(i) घने वन जो बहुमूल्य चारे के स्रोत थे, उनमें पशुओं को चराने पर रोक लगा दी गई।

(ii) वनों में उनके प्रवेश और वापसी का समय निश्चित कर दिया गया।

(iii) कम घने वनों में पशुओं को चराने के लिए परमिट होना अनिवार्य कर दिया गया।

(iv) वन नियमों का उल्लंघन करने पर भारी जुर्माने की व्यवस्था लागू की गई।

  1. अपराधी जनजाति अधिनियम- अंग्रेज अधिकारी घुमंतू लोगों को शक की निगाह से देखते थे। अंग्रेजों का मानना था कि इन लोगों के बार-बार स्थान परिवर्तन के कारण इन लोगों की पहचान करना तथा इनका विश्वास करना कठिन कार्य है। घुमंतू लोगों से कर संग्रह करना और कर निर्धारण दोनों कठिन कार्य हैं। उक्त कारणों से प्रेरित होकर अंग्रेज सरकार ने सन् 1871 में अनेक घुमंतू समुदायों को अपराधी समुदायों की सूची में डाल दिया और उनके बिना परमिट आवागमन को प्रतिबन्धित कर दिया।

अपराधी जनजाति अधिनियम का घुमंतू लोगों पर प्रभाव

(i) अनेक समुदायों ने पशुपालन के स्थान पर वैकल्पिक व्यवसायों को अपनाना शुरू कर दिया।

(ii) अपराधी सूची में शामिल किए गए घुमंतू समुदाय एक स्थान पर स्थायी रूप से रहने के लिए विवश हो गए।

(iii) स्थायी रूप से बसने के कारण अब वे स्थानीय चरागाहों पर ही निर्भर हो गए जिसके कारण उनके पशुओं की संख्या में बड़ी तेजी से कमी आई।

  1. चराई कर- अंग्रेज सरकार ने अपनी आय बढ़ाने के लिए यथासम्भव प्रयास किया। इसी क्रम में चरवाहों पर चराई कर लगाया गया। चरवाहों से चरागाहों में चरने वाले एक-एक जानवर पर कर वसूल किया जाने लगा। देश के अधिकतर चरवाही इलाकों में 19वीं सदी के मध्य से ही चरवाही कर लागू कर दिया गया था। प्रति मवेशी कर की दर तेजी से बढ़ती चली गई और कर वसूली की व्यवस्था दिनोंदिन सुदृढ़ होती गई। 1850 से 1880 के दशकों के बीच कर वसूली का काम बाकायदा बोली लगाकर ठेकेदारों को सौंपा जाता था। ठेकेदारी पाने के लिए ठेकेदार सरकार को जो पैसा देते थे उसे वसूल करने और साल भर में ज्यादा-से-ज्यादा लाभ कमाने के लिए वे जितना चाहे उतना कर वसूल सकते थे। 1880 के दशक तक आते-आते सरकार ने अपने कारिंदों के माध्यम से सीधे चरवाहों से ही कर वसूलना शुरू कर दिया। प्रत्येक चरवाहे को एक ‘पास’ जारी कर दिया गया। किसी भी चरागाह में प्रविष्ट होने के लिए चरवाहों को पास दिखाकर पहले कर अदा करना पड़ता था। चरवाहे के साथ कितने जानवर हैं और उसने कितना कर चुकाया है, इस बात को उसके पास में दर्ज कर दिया जाता था।

चरवाहों पर चराई कर का प्रभाव – प्रति मवेशी कर लागू होने पर चरवाहों ने पशुओं की संख्या को सीमित कर दिया। अनेक चरवाहों ने अवर्गीकृत चरागाहों की खोज में स्थान परिवर्तन कर लिया। अनेक चरवाहा समुदायों ने पशुपालन के साथ-साथ वैकल्पिक व्यवसायों को अपनाना आरम्भ कर दिया। इससे पशुपालन करने वालों की कठिनाई को समझा जा सकता है।

प्रश्न 3. मासाई समुदाय के चरागाह उनसे क्यों छिन गए? कारण बताएँ।

उत्तर- ‘मासाई’, पूर्वी अफ्रीका का एक प्रमुख चरवाहा समुदाय है। औपनिवेशिक शासनकाल में मासाई समुदाय के चरागाहों को सीमित कर दिया गया। अन्तर्राष्ट्रीय सीमाओं तथा प्रतिबन्धों ने उनकी चरवाही एवं व्यापारिक दोनों ही गतिविधियों पर विपरीत प्रभाव डाला। मासाई समुदाय के अधिकतर चरागाह उस समय छिन गए जब यूरोपीय साम्राज्यवादी शक्तियों ने अफ्रीका को सन् 1885 में विभिन्न उपनिवेशों में बाँट दिया। श्वेतों के लिए बस्तियाँ बनाने के लिए मासाई लोगों की सर्वश्रेष्ठ चरागाहों को छीन लिया गया और मासाई लोगों को दक्षिण केन्या एवं उत्तर तंज़ानिया के छोटे से क्षेत्र में धकेल दिया। उन्होंने अपने चरागाहों का लगभग 60 प्रतिशत भाग खो दिया। औपनिवेशिक सरकार ने उनके आवागमन पर विभिन्न बंदिशें लगाना प्रारम्भ कर दिया। चरवाहों को भी विशेष आरक्षित स्थानों में रहने के लिए बाध्य किया गया। विशेष परमिट के बिना उन्हें उन सीमाओं से बाहर निकलने की अनुमति नहीं थी।

क्योंकि मासाई लोगों को एक निश्चित क्षेत्र में सीमित कर दिया गया था, इसलिए वे सर्वश्रेष्ठ चरागाहों से कट गए और एक ऐसी अर्द्ध-शुष्क पट्टी में रहने पर मजबूर कर दिया गया जहाँ सूखे की आशंका हमेशा बनी रहती थी।

उन्नीसवीं सदी के अन्त में पूर्व अफ्रीका में औपनिवेशिक सरकार ने स्थानीय किसान समुदायों को अपनी खेती की भूमि बढ़ाने के लिए प्रोत्साहित किया। जिसके परिणामस्वरूप मासाई लोगों के चरागाह खेती के जमीन में तब्दील हो गए।

मासाई लोगों के रेवड़ (भेड़-बकरियों वाले लोग) चराने के विशाल क्षेत्रों को शिकारगाह बना दिया गया (उदाहरणतः कीनिया में मासाई मारू व साम्बूरू नेशनल पार्क और तंज़ानिया में सेरेन्गेटी पार्क। इन आरक्षित जंगलों में चरवाहों को आना मना था। वे इन इलाकों में न तो शिकार कर सकते थे और न अपने जानवरों को ही चरा सकते थे। लगभग 14,760 वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल में फैला सेरेन्ोटी नेशनल पार्क भी मासाइयों के चरागाहों पर कब्जा करके बनाया गया था।

प्रश्न 4. आधुनिक विश्व ने भारत और पूर्वी अफ्रीकी चरवाहा समुदायों के जीवन में जिन परिवर्तनों को जन्म दिया उनमें कई समानताएँ थीं। ऐसे दो परिवर्तनों के बारे में लिखिए जो भारतीय चरवाहों और मासाई गड़रियों, दोनों के बीच समान रूप से मौजूद थे।

उत्तर- भारत और पूर्वी अफ्रीका दोनों ही उस समय औपनिवेशिक शक्तियों के अधीन थे, इसलिए उन पर शासन करने वाली औपनिवेशिक शक्तियाँ टनें सन्देह की दृष्टि से देखती थीं। इन दोनों देशों में औपनिवेशिक शोषण के तरीके में भी समानता थी। मासाई गड़रियों और भारतीय चरवाहों को हम निम्नलिखित रूप में प्रस्तुत कर सकते हैं-

  1. भारत और अफ्रीका दोनों में ही जंगल यूरोपीय शासकों द्वारा आरक्षित कर दिए गए और चरवाहों का इन जंगलों में प्रवेश निषेध कर दिया गया। ये आरक्षित जंगल इन दोनों देशों में अधिकतर उन क्षेत्रों में थे जो पारम्परिक रूप से खानाबदोश चरवाहों की चरागाह थे। इस प्रकार, दोनों ही मामलों में औपनिवेशिक शासकों ने खेतीबाड़ी को प्रोत्साहन दिया जो अंततः चरवाहों की चरागाहों के पतन का कारण बनी।
  2. भारत और पूर्वी अफ्रीका के चरवाहा समुदाय खानाबदोश थे और इसलिए उन पर शासन करने वाली औपनिवेशिक शक्तियाँ उन्हें अत्यधिक सन्देह की दृष्टि से देखती थीं। यह उनके और अधिक पतन का कारण बना।
  3. दोनों स्थानों के चरवाहा समुदाय अपनी-अपनी चरागाहें कृषि-भूमि को तरजीह दिए जाने के कारण खो बैठे। भारत में चरागाहों को खेती की जमीन में तब्दील करने के लिए उन्हें कुछ चुनिन्दा लोगों को दिया गया। जो जमीन इस प्रकार दी गई थी वे अधिकतर चरवाहों की चरागाहें थीं। ऐसे बदलाव चरागाहों के पतन एवं चरवाहों के लिए बहुत-सी समस्याओं का कारण बन गए। इसी प्रकार अफ्रीका में भी मासाई लोगों की चरागाहें श्वेत बस्ती बसाने वाले लोगों द्वारा उनसे छीन ली गईं और उन्हें खेती की जमीन बढ़ाने के लिए स्थानीय किसान समुदायों को हस्तान्तरित कर दिया गया।

प्रश्न 5. अफ्रीका में चरवाही पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।

उत्तर – विश्व की आधे से अधिक चरवाही जनसंख्या अफ्रीका में निवास करती है। आज भी अफ्रीका के लगभग सवा दो करोड़ लोग रोजी-रोटी के लिए किसी-न-किसी तरह की चरवाही गतिविधियों पर ही आश्रित हैं। इनमें बेदुईन्स, बरबेर्स, मासाई, सोमाली, बोरान और तुर्काना जैसे जाने-माने समुदाय भी शामिल हैं। इनमें से अधिकतर अब अर्द्ध-शुष्क घास के मैदानों या सूखे रेगिस्तानों में रहते हैं जहाँ वर्षा आधारित खेती करना बहुत कठिन है। यहाँ के चरवाहे गाय, बैल, ऊँट, बकरी, भेड़ व गधे पालते हैं। ये लोग दूध, मांस, पशुओं की खाल व ऊन आदि बेचते हैं। कुछ चरवाहे व्यापार और यातायात सम्बन्धी काम भी करते हैं। कुछ लोग आमदनी बढ़ाने के लिए चरवाही के साथ-साथ खेती भी करते हैं। कुछ लोग चरवाही से होने वाली मामूली आय से गुजर नहीं हो पाने पर कोई भी धन्धा कर लेते हैं। अफ्रीकी चरवाहों का जीवन औपनिवेशिक काल में बहुत अधिक बदल गया है। उन्नीसवीं सदी के अन्तिम वर्षों से ब्रिटिश औपनिवेशिक सरकार पूर्वी अफ्रीका में भी स्थानीय किसानों को अपनी खेती के क्षेत्रफल को अधिक से अधिक फैलाने के लिए प्रोत्साहित करने लगी। जैसे-जैसे खेती का प्रसार हुआ वैसे-वैसे चरागाह खेतों में परिवर्तित होने लगे। ये चरवाहों के लिए ढेरों कठिनाइयाँ लेकर आए। उनका जीवन बहुत कठिन बन गया।

प्रश्न 6. मासाई समुदाय के सामाजिक जीवन का विवरण प्रस्तुत कीजिए।

उत्तर- मासाई लोगों की वास्तविक सम्पत्ति इनके पशु होते हैं। प्रत्येक मासाई परिवार में बड़ी संख्या में पशुपालन किया जाता है। पशुओं से दूध निकालने का कार्य महिलाएं करती हैं। यह कार्य दिन निकलने से पहले और सूर्य डूबने से पहले किया जाता है। ये लोग प्रायः कच्चे दूध का ही उपयोग करते हैं। केवल रोगग्रस्त मासाई ही उबालकर दूध का उपयोग करते हैं। दूध को हिलाकर मक्खन बनाया जाता है किन्तु ये लोग पनीर बनाना नहीं जानते। मासाई लोग भेड़ पालन भी करते हैं। इनसे दूध, ऊन तथा मांस प्राप्त होता है। परन्तु भेड़ों का स्थान इनके सामाजिक जीवन में अधिक महत्त्व का नहीं है, भेड़ों के साथ कुछ बकरियाँ भी पाली जाती हैं। बकरियों से दूध और मांस दोनों प्राप्त होते हैं। अधिकांश परिवारों में कुछ गधे भी पाले जाते हैं, जिन पर बोझा ढोने का काम लिया जाता है। कुछ लोग इस कार्य के लिए ऊँट भी रखते हैं। कुत्तों का प्रयोग पशुओं की देखभाल के लिए किया जाता है।

मासाई समुदाय के सभी सदस्य पशुपालन का कार्य नहीं करते हैं। प्रायः 16 से 30 वर्ष के लोगों को युद्ध के लिए रखा जाता है। इनका कर्त्तव्य अपने दल के लोगों तथा पशुओं की रक्षा करना है। ये सिपाही बड़े आनन्द से जीवन बिताते हैं। ये लोग तेज धार वाले बछें, लोहे की तलवार और हड्डी की बनी ढाल का प्रयोग करते हैं।

मासाई समाज की एक महत्त्वपूर्ण बात यह है कि समय-समय पर युवकों को योद्धाओं के दल में भेजा जाता है। ये उन लोगों का स्थान ग्रहण करते हैं जो प्रौढ़ हो जाते हैं और उन्हें शादी करके परिवार बसाने का अधिकार प्राप्त हो जाता है। युवकों को योद्धा वर्ग में सम्मिलित होने से पूर्व योद्धाओं के सब गुण अपनाने पड़ते हैं और बाद में उनका मुंडन संस्कार होता है। प्रत्येक वर्ग को कुछ नाम दिया जाता है, जैसे-‘लुटेरा’, ‘सफेद तलवार’ इत्यादि। योद्धाओं का आयु के अनुसार वर्गीकरण किया जाता है। मासाई लोग सदा अपनी सम्पत्ति को बढ़ाने का प्रयत्न करते हैं, जिसमें ये योद्धा बड़े सहायक होते हैं। मासाई के जीवन की तीन मुख्य अवस्थाएँ होती हैं- 1. बालपन, 2. योद्धापन और 3. वृद्ध।

प्रश्न 7. भारत के पठारी क्षेत्र में रहने वाले धंगर चरवाहा समुदाय का विवरण प्रस्तुत कीजिए।

उत्तर– धंगर महाराष्ट्र का प्रमुख चरवाहा समुदाय है। ये लोग महाराष्ट्र के मध्य पठारी क्षेत्रों में रहते हैं। 20वीं सदी के आरंभ में इनकी जनसंख्या 4,67,000 थी। इस समुदाय के अधिकांश लोग पशुचारण पर आश्रित हैं परन्तु कुछ लोग कम्बल और चादरें भी बनाते हैं। महाराष्ट्र का यह भाग कम वर्षा वाला क्षेत्र होने के कारण अर्द्ध-शुष्क प्रदेश है। यहाँ प्राकृतिक वनस्पति के रूप में काँटेदार झाड़ियाँ मिलती हैं जो पशुओं को चारा जुटाती है। अक्टूबर में यहाँ बाजरा की फसल काटने के उपरान्त ये लोग पश्चिम में कोकण क्षेत्र में पहुँच जाते थे। इस यात्रा में लगभग एक महीना लग जाता था। कोंकण एक उपजाऊ प्रदेश हैं और यहाँ वर्षा भी पर्याप्त होती है। अतः यहाँ के किसान चावल की खेती करते थे। वे धंगर चरवाहों का स्वागत करते थे जिसके मुख्य कारण निम्नलिखित थे-

जिस समय धंगर किसान कोंकण पहुँचते थे उस समय तक खरीफ (चावल) की फसल कट चुकी होती थी। अब किसानों को अपने खेत रबी की फसल के लिए तैयार करने होते थे। उनके खेतों में धान के दूँठ अभी मिट्टी में फँसे होते थे। धंगरों के पशु इन दूँठों को खा जाते थे और मिट्टी साफ हो जाती थी। धंगरों के पशुओं का गोबर तथा मलमूत्र मिट्टी में मिल जाता था। अतः मिट्टी फिर से उर्वरता प्राप्त कर लेती थी। प्रसन्न होकर कोंकणी किसान धंगरों को चावल देते थे जो वे वापसी पर अपने साथ ले जाते थे।

प्रश्न 8. भारत के पहाड़ी क्षेत्रों में रहने वाले चरवाहा समुदाय का विवरण प्रस्तुत कीजिए।

उत्तर- भारत के पर्वतीय क्षेत्रों में अनेक चरवाहा समुदाय रहते हैं जिनमें से कुछ प्रमुख समुदायों का विवरण इस प्रकार है-

  1. गद्दी समुदाय – हिमाचल प्रदेश के निवासी गद्दी समुदाय के लोग बकरवाल समुदाय की तरह अप्रैल और सितम्बर के महीने में ऋतु परिवर्तन के साथ अपना निवास स्थान परिवर्तित कर लेते हैं। सर्दियों में जब ऊँचे क्षेत्रों में बर्फ जम जाती है, तो ये अपने पशुओं के साथ शिवालिक की निचली पहाड़ियों में आ जाते हैं। मार्ग में वे लाहौल और स्पीति में रुककर अपनी गर्मियों की फसल को काटते हैं तथा सर्दियों की फसल की बुवाई करते हैं। अप्रैल के अन्त में पुनः लाहौल और स्पीति पहुँच जाते हैं और अपनी फसल काटते हैं। इसी बीच बर्फ पिघलने लगती है और दरें साफ हो जाते हैं इसलिए गर्मियों में अपने पशुओं के साथ ऊँचे पर्वतीय क्षेत्रों में पहुँच जाते हैं। गद्दी समुदाय में भी पशुओं के रूप में भेड़ तथा बकरियों को ही पाला जाता है।
  2. गुज्जर बक्करवाल- इन लोगों ने 19वीं शताब्दी में जम्मू-कश्मीर और लद्दाख में बसना आरम्भ कर दिया। ये लोग भेड़-बकरियों के बड़े-बड़े झुण्ड पालते हैं जिन्हें रेवड़ कहा जाता है। बक्करवाल लोग अपने पशुओं के साथ मौसमी स्थानान्तरण करते हैं। सर्दियों में ऊँचे क्षेत्र बर्फ से ढक जाते हैं इसलिए उनके पशुओं के लिए चारे का अभाव होने लगता है जबकि हिमालय के दक्षिण में स्थित शिवालिक पहाड़ियों में बर्फ न होने के कारण उनके पशुओं को पर्याप्त मात्रा में चारा उपलब्ध हो जाता है। सर्दियों के समाप्त होने के साथ ही अप्रैल माह में यह समुदाय अपने काफिले को लेकर उत्तर की ओर चलना शुरू कर देते हैं। पंजाब के दरों को पार करके जब ये समुदाय कश्मीर की घाटी में पहुँचते हैं तब तक गर्मी के कारण बर्फ पिघल चुकी होती है तथा चारों तरफ नई घास उगने लगती है। सितम्बर के महीने तक ये इस घाटी में ही डेरा डालते हैं और सितम्बर महीने के अन्त में पुनः दक्षिण की ओर लौटने लगते हैं। इस प्रकार यह समुदाय प्रति वर्ष दो बार स्थानान्तरण करता है। हिमालय पर्वत में ये ग्रीष्मकालीन चरागाहें, 2,700 मीटर से लेकर 4,120 मीटर तक की ऊँचाई पर स्थित हैं।
  3. गुज्जर समुदाय – मूलतः उत्तराखण्ड के निवासी गुज्जर लोग गाय और भैंस पालते हैं। ये हिमालय के गिरिपाद क्षेत्रों (भाबर क्षेत्र) में रहते हैं। ये लोग जंगलों के किनारे झोंपड़ीनुमा आवास बना कर रहते हैं। पशुओं को चराने का कार्य पुरुष करते हैं। पहले दूध, मक्खन और घी इत्यादि को स्थानीय बाजार में बेचने का कार्य महिलाएँ करती थीं परन्तु अब ये इन उत्पादों को परिवहन के साधनों (टैंपो, मोटरसाइकिल आदि) की सहायता से निकटवर्ती शहरों में बेचते हैं। इस समुदाय के लोगों ने इस क्षेत्र में स्थायी रूप से बसना आरम्भ कर दिया है परन्तु अभी भी अनेक परिवार गर्मियों में अपने पशुओं को लेकर ऊँचे पर्वतीय घास के मैदानों (बुग्याल) की ओर चले जाते हैं। इस समुदाय को स्थानीय नाम ‘वन गुज्जर’ के नाम से भी जाना जाता है। अब इस समुदाय में पशुचारण के साथ-साथ स्थायी रूप से कृषि करना भी आरम्भ कर दिया है। हिमाचल के अन्य प्रमुख चरवाहा समुदाय भोटिया, शेरपा तथा किन्नौरी हैं।

प्रश्न 9. मासाई समुदाय को औपनिवेशिक शासन ने किस प्रकार प्रभावित किया?

उत्तर- मासाई समुदाय के जीवन को औपनिवेशिक शासन ने निम्न प्रकार से प्रभावित किया-

  1. चरागाहों का कम होना- औपनिवेशिक शासन से पहले मासाई लैण्ड का इलाका उत्तरी कीनिया से तंज़ानिया के घास के मैदानों (स्टेपीज) तक फैला हुआ था। उन्नीसवीं सदी के आखिर में यूरोप की साम्राज्यवादी ताकतों ने अफ्रीका में कब्जे के लिए मारकाट शुरू कर दी और बहुत सारे इलाकों को छोटे-छोटे उपनिवेशों में परिवर्तित करके अपने-अपने नियंत्रण में ले लिया। 1885 ई. में ब्रिटिश, कीनिया और जर्मन के बीच एक अन्तर्राष्ट्रीय तांगान्यिका सीमा खींचकर मासाई लैण्ड के दो बराबर-बराबर टुकड़े कर दिए गए। बाद के सालों में सरकार ने गोरों को बसाने के लिए बेहतरीन चरागाहों को अपने कब्जे में ले लिया। मासाइयों को दक्षिणी कीनिया और उत्तरी तंज़ानिया के छोटे से इलाके में समेट दिया गया। औपनिवेशिक शासन से पहले मासाइयों के पास जितनी जमीन थी उसका लगभग 60 प्रतिशत हिस्सा उनसे छीन लिया गया। उन्हें ऐसे सूखे इलाकों में कैद कर दिया गया जहाँ न तो अच्छी बारिश होती थी और न ही हरे-भरे चरागाह थे।
  2. सामाजिक हस्तक्षेप – औपनिवेशिक शासन ने मासाई समाज की सामाजिक संरचना को भी प्रभावित किया। उन्होंने कई मासाई उपसमूहों के मुखिया तय कर दिए तथा उनके कबीलों की समस्त जिम्मेदारी उन्हें सौंप दी। विभिन्न समुदायों के मध्य होने वाले युद्धों पर पाबन्दी लगा दी गई जिसके कारण योद्धा वर्ग तथा वरिष्ठ जनों की परम्परागत सत्ता कमजोर हो गई। मासाई समाज धीरे-धीरे अमीर तथा गरीब में बँटने लगा क्योंकि मुखिया की नियमित आमदनी के अनेक स्त्रोत थे परन्तु साधारण चरवाहों की आय बहुत सीमित थी जिसके कारण उनके बीच का अन्तर निरन्तर बढ़ता गया।
  3. शिकार के लिए चराई क्षेत्र का आरक्षण – मासाइयों के विशाल चराई क्षेत्र पर औपनिवेशिक शासकों ने पशुओं के शिकार के लिए पार्क बना दिए। इन पार्कों में कीनिया के मासाई मारा तथा सांबूरू नेशनल पार्क तथा तंज़ानिया का सेरेन्गटी नेशनल पार्क के नाम लिए जा सकते हैं। सेरेन्गटी नेशनल पार्क 14,760 किमी से भी अधिक क्षेत्र पर बनाया गया था। मासाई लोग इन पार्कों में न तो पशु चरा सकते थे और न ही शिकार कर सकते थे।

अच्छे चराई क्षेत्रों के छिन जाने तथा जल संसाधनों के अभाव से शेष बचे चराई क्षेत्र की गुणवत्ता पर भी बुरा प्रभाव पड़ा। चारे की आपूर्ति में भारी कमी आई। फलस्वरूप पशुओं के लिए आहार जुटाने की समस्या गम्भीर हो गई।

 

UP Board Solution of Class 9 Social Science इतिहास (History) Chapter- 4 वन्य समाज और उपनिवेशवाद (Vanya Samaj aur Upniveshvad) Long Answer

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