UP Board Solution of Class 9 Hindi Gadya Chapter 3 – Guru Nanak Dev – गुरु नानकदेव (डॉ० हजारीप्रसाद द्विवेदी) Jivan Parichay, Gadyansh Adharit Prashn Uttar Summary – Copy
Dear Students! यहाँ पर हम आपको कक्षा 9 हिंदी गद्य खण्ड के पाठ 3 गुरु नानकदेव का सम्पूर्ण हल प्रदान कर रहे हैं। यहाँ पर गुरु नानकदेव सम्पूर्ण पाठ के साथ डॉ० हजारीप्रसाद द्विवेदी का जीवन परिचय एवं कृतियाँ, गद्यांश आधारित प्रश्नोत्तर अर्थात गद्यांशो का हल, अभ्यास प्रश्न का हल दिया जा रहा है।
Dear students! Here we are providing you complete solution of Class 9 Hindi Prose Section Chapter 3 Guru Nanak Dev. Here, along with the complete text, biography and works of Hazari Prasad Dwivedi, passage based quiz i.e. solution of the passage and practice questions are being given.
Chapter Name | Guru Nanak Dev -गुरु नानकदेव (डॉ० हजारीप्रसाद द्विवेदी) Hazari Prasad Dwivedi |
Class | 9th |
Board Name | UP Board (UPMSP) |
Topic Name | जीवन परिचय,गद्यांश आधारित प्रश्नोत्तर,गद्यांशो का हल(Jivan Parichay, Gadyansh Adharit Prashn Uttar Summary ) |
जीवन परिचय
डॉ० हजारीप्रसाद द्विवेदी
स्मरणीय तथ्य
जन्म | सन् 1907 ई०। |
मृत्यु | 18 मई, 1979 ई० । |
जन्म | आरत दुबे का छपरा, जिला बलिया (उ० प्र०) में। |
शिक्षा | इण्टर, ज्योतिष तथा साहित्य में आचार्य। |
रचनाएँ | ‘हिन्दी साहित्य की भूमिका’, ‘सूर साहित्य’, ‘कबीर’, ‘अशोक के फूल’, ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’, ‘हिन्दी साहित्य का इतिहास’, ‘विचार और वितर्क’, ‘विश्व-परिचय’, ‘लाल कनेर’, ‘चारु चन्द्रलेख’। |
वर्ण्य–विषय | भारतीय संस्कृति का इतिहास, ज्योतिष साहित्य, विभिन्न धर्म तथा सम्प्रदाय । |
शैली | सरल तथा विवेचनात्मक । |
जीवन–परिचय
डॉ० हजारीप्रसाद द्विवेदी का जन्म बलिया जिले के ‘आरत दुबे का छपरा‘ नामक ग्राम में एक प्रतिष्ठित हरयूचारोण ब्राहाण-परिवार में सन् 1907 ई० में हुआ था। इनकी शिक्षा का प्रारम्भ संस्कृत से ही हुआ था। सन् 1930 ई० में इन्होंने काशी विश्वविद्यालय से ज्योतिषाचार्य की परीक्षा उत्तीर्ण की और उसी वर्ष प्रधानाध्यापक होकर शान्ति निकेतन चले गये। सन् 1940 ई० से 1950 ई० तक वे वहाँ हिन्दी भवन के डायरेक्टर के पद पर काम करते रहे; तदुपरान्त वे काशी विश्वविद्यालय में हिन्दी-विभाग के अध्यक्ष के रूप में नियुक्त हुए। लखनऊ विश्वविद्यालय ने इनकी हिन्दी की महत्त्वपूर्ण सेवाओं के लिए 1949 ई० में इन्हें डॉ० लिट्० को उपाधि प्रदान की। सन् 1957 ई० में इनकी विद्वत्ता पर इन्हें ‘पद्मभूषण’ की उपाधि से अलंकृत किया गया। 1960 ई० में ये चण्डीगढ़ विश्वविद्यालय में विभागाध्यक्ष होकर चले गये और वहाँ से सन् 1968 ई० में पुनः काशी विश्वविद्यालय में’ डायरेक्टर’ होकर आ गये। कुछ दिन तक उत्तर प्रदेश ग्रन्थ अकादमी के अध्यक्ष पद पर कार्य करने के उपरान्त 18 मई, 1979 ई० को इनका देहावसान हो गया।
कृतियाँ
- आलोचना – ‘सूर-साहित्य’, ‘हिन्दी साहित्य की भूमिका’, ‘हिन्दी साहित्य का आदिकाल’, ‘कालिदास की लालित्य- योजना’, ‘सूरदास और उनका काव्य’, ‘कबीर’, ‘हमारी साहित्यिक समस्याएँ’, ‘साहित्य का मर्म’, ‘भारतीय वाड्मय’, ‘साहित्य- सहचर’, ‘नखदर्पण में हिन्दी कविता’ आदि।
- निबन्ध–संग्रह -‘ अशोक के फूल’, ‘कुटज’, ‘विचार-प्रवाह’, ‘विचार और वितर्क’, ‘कल्पलता’, ‘आलोक-पर्व’ आदि।
- उपन्यास – ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’, ‘चारु चन्द्रलेख’, ‘पुनर्नवा’ तथा ‘अनामदास का पोथा’।
- अनूदित साहित्य – ‘पुरातन-प्रबन्ध-संग्रह’, ‘प्रबन्ध-कोष’, ‘विश्व-परिचय’, ‘लाल कनेर’, ‘मेरा वचन” प्रबन्ध-चिन्तामणि’, आदि। द्विवेदी जी मूल रूप से शुक्ल जी की परम्परा के आलोचक होते हुए भी आलोचना-साहित्य में अपनी एक मौलिक दिशा प्रदान करते हैं।
भाषा और शैली– द्विवेदी जी की भाषा संस्कृतनिष्ठ शुद्ध खड़ी बोली है। एवं शैली सरल तथा विवेचनात्मक है।
गुरु नानकदेव
कार्तिकी पूर्णिमा इस देश की बहुत पवित्र तिथि है। इस दिन सारे भारतवर्ष में कोई-न-कोई उत्सव, मेला, स्नान या अनुष्ठान होता है। शरत्काल का पूर्ण चन्द्रमा इस दिन अपने पूरे वैभव पर होता है, आकाश निर्मल, दिशाएँ प्रसन्न, वायुमण्डल शान्त, पृथ्वी हरी-भरी, जलप्रवाह मृदुमन्थर हो जाता है। कुछ आश्चर्य नहीं कि इस दिन मनुष्य का सामूहिक चित्त उद्वेलित हो उठे। इसी दिन महान् गुरु नानकदेव के आविर्भाव का उत्सव मनाया जाता है। आकाश में जिस प्रकार षोडश कला से पूर्ण चन्द्रमा अपनी कोमल स्निग्ध किरणों से प्रकाशित होता है, उसी प्रकार मानव चित्त में भी किसी उज्ज्वल प्रसन्न ज्योतिपुंज का आविर्भाव होना स्वाभाविक है। गुरु नानकदेव ऐसे ही षोडश कला से पूर्ण स्निग्ध ज्योति महामानव थे। लोकमानस में अर्से से कार्तिकी पूर्णिमा के साथ गुरु के आविर्भाव का सम्बन्ध जोड़ दिया गया है। गुरु किसी एक ही दिन को पार्थिव शरीर में आविर्भूत हुए होंगे, पर भक्तों के चित्त में वे प्रतिक्षण प्रकट हो सकते हैं। पार्थिव रूप को महत्त्व दिया जाता है, परन्तु प्रतिक्षण आविर्भूत होने को आध्यात्मिक दृष्टि से अधिक महत्त्व मिलना चाहिए। इतिहास के पण्डित गुरु के पार्थिव शरीर के आविर्भाव के विषय में वाद- विवाद करते रहें, इस देश का सामूहिक मानव चित्त उतना महत्त्व नहीं देता।
गुरु जिस किसी भी शुभ क्षण में चित्त में आविर्भूत हो जायें, वही क्षण उत्सव का है, वही क्षण उल्लसित कर देने के लिए पर्याप्त है। नवो नवो भवसि जायमान गुरु– तुम प्रतिक्षण चित्तभूमि में आविर्भूत होकर नित्य नवीन हो रहे हो। हजारों वर्षों से शरत्काल की यह सर्वाधिक प्रसन्न तिथि प्रभामण्डित पूर्णचन्द्र के साथ उतनी ही मीठी ज्योति के धनी महामानव का स्मरण कराती रही है। इस चन्द्रमा के साथ महामानवों का सम्बन्ध जोड़ने में इस देश का समष्टि चित्त आह्लाद अनुभव करता है। हम ‘रामचन्द्र’, ‘कृष्णचन्द्र’ आदि कहकर इसी आह्लाद को प्रकट करते हैं। गुरु नानकदेव के साथ इस पूर्णचन्द्र का सम्बन्ध जोड़ना भारतीय जनता के मानस के अनुकूल है।आज वह अपना आह्वाद प्रकट करती है।
गुरु नानकदेव का आविर्भाव आज से लगभग पाँच सौ वर्ष पूर्व हुआ। भारतवर्ष की मिट्टी में युग के अनुरूप महापुरुषों को जन्म देने का अद्भुत गुण है। आज से पाँच सौ वर्ष पहले का देश अनेक कुसंस्कारों में उलझा था। जातियों, सम्प्रदायों, धर्मों और संकीर्ण कुलाभिमानों से वह खण्ड-विच्छिन्न हो गया था। देश में नये धर्म के आगन्तुकों के कारण एक ऐसी समस्या उठ खड़ी हुई थी, जो इस देश के हजारों वर्षों के लम्बे इतिहास में अपरिचित थी। ऐसे ही दुर्घट काल में इस देश की मिट्टी ने ऐसे अनेक महापुरुषों को उत्पन्न किया, जो सड़ी रूढ़ियों, मृतप्राय आचारों, बासी विचारों और अर्थहीन संकीर्णताओं के विरुद्ध प्रहार करने में कुण्ठित नहीं हुए और इन जर्जर बातों से परे सबमें विद्यमान सबको नयी ज्योति और नया जीवन प्रदान करनेवाले महान् जीवन-देवता की महिमा प्रतिष्ठित करने में समर्थ हुए। इन सन्तों की ज्योतिष्क मण्डली में गुरु नानकदेव ऐसे सन्त हैं, जो शरत्काल के पूर्णचन्द्र की तरह ही स्निग्ध, उसी प्रकार शान्त-निर्मल, उसी प्रकार रश्मि के भण्डार थे। कई सन्तों ने कस-कस के चोटें मारी; व्यंग्य-बाण छोड़े, तर्क की छुरी चलायी, पर महान् गुरु नानकदेव ने सुधा-लेप का काम किया। यह आश्चर्य की बात है कि विचार और आचार की दुनिया में इतनी बड़ी क्रान्ति ले आनेवाला यह सन्त इतने मधुर, इतने स्निग्ध, इतने मोहक वचनों का बोलनेवाला है। किसी का दिल दुखाये बिना, किसी पर आघात किये बिना, कुसंस्कारों को छिन्न करने की शक्ति रखनेवाला, नयी संजीवनी धारा से प्राणिमात्र को उल्लसित करनेवाला यह सन्त मध्यकाल की ज्योतिष्क मण्डली में अपनी निराली शोभा से शरत् पूर्णिमा के पूर्णचन्द्र की तरह ज्योतिष्मान् है। आज उसकी याद आये बिना नहीं रह सकती। वह सब प्रकार से लोकोत्तर है। उसका उपचार प्रेम और मैत्री है। उसका शास्त्र सहानुभूति और हित-चिन्ता है। वह कुसंस्कारों के अन्धकार को अपनी स्निग्ध ज्योति से भेदता है, मुमूर्षु प्राणधारा को अमृत का भाण्ड उँड़ेलकर प्रवाहशील बनाता है। वह भेदों में अभेद देखता है, नानात्व में एक का सन्धान बताता है, वह सब प्रकार से निराला है। इस कार्तिक पूर्णिमा को अनायास उसके चरणों में नत हो जाने की इच्छा होती है।
गुरु नानक ने प्रेम का सन्देश दिया है। उनका कथन था कि ईश्वर नाम के सम्मुख जाति और कुल के बन्धन निरर्थक हैं, क्योंकि मनुष्य जीवन का जो चरम प्राप्तव्य है वह स्वयं प्रेमरूप है। प्रेम ही उसका स्वभाव है, प्रेम ही उसका साधन है। अरे ओ मुग्ध मनुष्य, सच्ची प्रीति से ही तेरा मान-अभिमान नष्ट होगा, तेरी छोटाई की सीमा समाप्त होगी, परम मंगलमय शिव तुझे प्राप्त होगा। उसी सच्चे प्रेम की साधना तेरे जीवन का परम लक्ष्य है। बाह्य आडम्बरों को तू धर्म समझ रहा है। मूल संस्कारों को तू आस्था मानता है? नहीं प्यारे, यह सब धर्म नहीं है। धर्म तो स्वयं रूप होकर भगवान् के रूप में तेरे भीतर विराजमान है। उसी अगम-अगोचर प्रभु की शरण पकड़। क्या पड़ा है इन छोटे अहंकारों में। ये मुक्ति के नहीं, बन्धन के हेतु हैं। उनका मत था कि विश्व का परित्याग कर संन्यास लेना ईश्वर की दृष्टि में आवश्यक नहीं है, उसके लिए तो धार्मिक संन्यास तथा भक्त व गृहस्थ सभी समान हैं। उन्होंने मृत्यु पर्यन्त, हिन्दू-मुसलमानों के तीव्र मतभेदों को दूर करने की सफल चेष्टा की। इनके शिष्यों में हिन्दू व मुसलमान दोनों ही थे। इनके अनुयायी बाद में सिख कहलाये और उन्होंने उनके सिद्धान्तों को ‘ग्रन्थ-साहब’ में संगृहीत किया।
धन्य हो, हे अगम, अगोचर, अलख, अपार देव, तुम्हीं मेरी चिन्ता करो। जहाँ तक देखता हूँ वहाँ तक जल में, थल में, पृथ्वी में सर्वत्र तुम्हारी ही लीला व्याप्त है, घट-घट में तुम्हारी ज्योति उद्भासित हो रही है-
अगम अगोचर अलख अपारा, चिन्ता करहु हमारी।
जलि थलि माही अलि भरिपुरि ला, घट-घट ज्योति तुम्हारी।।
अद्भुत है गुरु की बानी की सहज बेधक शक्ति। कहीं कोई आडम्बर नहीं, कोई बनाव नहीं, सहज हृदय से निकली हुई सहज प्रभावित करने की अपार शक्ति। सहज जीवन बड़ी कठिन साधना है। सहज भाषा बड़ी बलवती आस्था है। सीधी लकीर खींचना टेढ़ा काम है। गुरु का आडम्बर सहज धर्म ऐसे ही सहजवाणी से प्रचारित हो सकता था। कितनी अद्भुत निरभिमान शैली है। कहीं भी पाण्डित्य का दुर्धर बोझ नहीं और फिर भी पण्डितों को आन्दोलित करनेवाली यह वाणी धन्य है-
कोई पढ़ता सहसा किरता कोई पढ़े पुराना
कोई नामु जपै जपमाली-लागे तिसै धियाना
अब ही कब ही किछु न जाना।
तेरा एको नाम पेछाना
न जाना हरे मेरी कवण गती
हम मूरख अगियान सरन प्रभु तेरी
कोई किरपा राखहु मेरी लाज पते।
ऐसी मीठी निरहंकारी सीधी वाणी से गुरु ने भटकती जनता को उसका लक्ष्य बताया। आज विद्वान् चकित हैं, पण्डित अचरज में हैं-कितनी बड़ी ताकत और कैसा निरीह रूप? कालिदास ने ठीक ही कहा था-ध्रुवं वपुः काञ्चनपद्मनिर्मितम् मृदुप्रकृत्या च ससारमेव च। जो रूप से स्वर्णकमल के धर्मवाला होता है वह निश्चय ही स्वभाव से मृदु होता है। किन्तु सारवान् भी होता है। गुरु नानकदेव ऐसे ही कांचन पद्मधर्मी महामानव थे-मृदुप्रकृत्या च ससारमेव च।
किसी लकीर को मिटाये बिना छोटी बना देने का उपाय है बड़ी लकीर खींच देना। क्षुद्र अहमिकाओं और अर्थहीन संकीर्णताओं की क्षुद्रता सिद्ध करने के लिए तर्क और शास्त्रार्थ का मार्ग कदाचित् ठीक नहीं है। सही उपाय है बड़े सत्य को प्रत्यक्ष कर देना। गुरु नानक ने यही किया। उन्होंने जनता को बड़े-से-बड़े सत्य के सम्मुखीन कर दिया, हजारों दीये उस महाज्योति के सामने स्वयं फीके पड़ गये।
भगवान् जब अनुग्रह करते हैं तो अपनी दिव्य ज्योति ऐसे महान् सन्तों में उतार देते हैं। एक बार जब यह ज्योति मानव देह को आश्रय करके उतरती है तो चुपचाप नहीं बैठती। वह क्रियात्मक होती है, नीचे गिरे हुए अभाजन लोगों को वह प्रभावित करती है, ऊपर उठाती है। वह उतरती है और ऊपर उठाती है। इसे पुराने पारिभाषिक शब्दों में कहें तो कुछ इस प्रकार होगा कि एक ओर उसका ‘अवतार’ होता है, दूसरी ओर औरों का ‘उद्धार’ होता है। अवतार और उद्धार की यह लीला भगवान् के प्रेम का सक्रिय रूप है, जिसे पुराने भक्तजन ‘अनुग्रह’ कहते हैं। आज से लगभग पाँच सौ वर्ष से पहले परम प्रेयान् हरि का यह ‘अनुग्रह’ सक्रिय हुआ था, वह आज भी क्रियाशील है। आज कदाचित् गुरु की वाणी की सबसे अधिक तीव्र आवश्यकता अनुभूत हो रही है।
महागुरु, नयी आशा, नयी उमंग, नये उल्लास की आशा में आज इस देश की जनता तुम्हारे चरणों में प्रणति निवेदन कर रही है। आशा की ज्योति विकीर्ण करो, मैत्री और प्रीति की स्निग्ध धारा से आप्लावित करो। हम उलझ गये हैं, भटक गये हैं, पर कृतज्ञता अब भी हम में रह गयी है। आज भी हम तुम्हारी अमृतोपम वाणी को भूल नहीं गये हैं। कृतज्ञ भारत का प्रणाम अंगीकार करो।
हजारीप्रसाद द्विवेदी
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निम्नलिखित गद्यांशों के नीचे दिये गये प्रश्नों के उत्तर दीजिए–
(1) आकाश में जिस प्रकार षोडश कला से पूर्ण चन्द्रमा अपनी कोमल स्निग्ध किरणों से प्रकाशित होता है, उसी प्रकार मानव चित्त में भी किसी उज्ज्वल प्रसन्न ज्योतिपुंज का आविर्भाव होना स्वाभाविक है। गुरु नानकदेव ऐसे ही षोडश कला से पूर्ण स्निग्ध ज्योति महामानव थे। लोकमानस में अर्से से कार्तिकी पूर्णिमा के साथ गुरु के आविर्भाव का सम्बन्ध जोड़ दिया गया है। गुरु किसी एक ही दिन को पार्थिव शरीर में आविर्भूत हुए होंगे, पर भक्तों के चित्त में वे प्रतिक्षण प्रकट हो सकते हैं। पार्थिव रूप को महत्त्व दिया जाता है, परन्तु प्रतिक्षण आविर्भूत होने को आध्यात्मिक दृष्टि से अधिक महत्त्व मिलना चाहिए। इतिहास के पण्डित गुरु के पार्थिव शरीर के आविर्भाव के विषय में बाद- विवाद करते रहें, इस देश का सामूहिक मानव चित्त उतना महत्त्व नहीं देता।
प्रश्न (i) उपर्युक्त गद्यांश का संदर्भ लिखिए।
उत्तर– सन्दर्भ – प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘हिन्दी गद्य’ के ‘गुरु नानकदेव’ पाठ से उद्धृत किया गया है। इसके लेखक संस्कृत एवं हिन्दी के मूर्द्धन्य विद्वान् आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी हैं। नियत गद्यांश में आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने गुरु नानकदेव के जन्म-दिन का महत्त्व बताते हुए उनके प्रति भक्तों की असीम श्रद्धा को व्यक्त किया है। गुरु तो भक्तों के हृदय में प्रतिक्षण प्रकट होते रहते हैं- इस भावना का सहज आध्यात्मिक रूप प्रस्तुत किया है।
(ii) रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।
उत्तर– रेखांकित अंश की व्याख्या– प्रस्तुत गद्यांश में लेखक ने यह बताया है कि आकाश में जिस प्रकार सोलह कलाओं से युक्त चन्द्रमा प्रकाशित होता है ठीक उसी प्रकार मानव के मस्तिष्क में किसी ज्योतिपुंज का उत्पन्न होना अत्यन्त स्वाभाविक है। गुरुनानक देव ऐसे ही सोलह कलाओं से युक्त स्निग्ध ज्योति महामानव थे। हमारे देश की जनता बहुत समय से गुरु नानकदेव के जन्म को कार्तिक महीने की पूर्णिमा के दिन मनाती आ रही है। गुरु नानकदेव तो किसी एक ही दिन अपने भौतिक शरीर से प्रकट हुए होंगे, किन्तु श्रद्धालु भक्तगणों के हृदय में तो वे सदैव ही आध्यात्मिक रूप से प्रकट होते रहते हैं। यद्यपि भौतिक रूप से जन्म लेने को महत्त्व दिया जाता रहा है, फिर भी प्रतिक्षण आध्यात्मिक दृष्टि से जन्म लेने का अधिक महत्त्व समझा जाना चाहिए-ऐसा लेखक का मत है।
यद्यपि इतिहास के विद्वानों के मत में उनकी जन्म तिथि सम्बन्धी विवाद है, किन्तु इस देश की जनता का सामूहिक मन इस बात पर विशेष ध्यान नहीं देता। उसके मन में जो जन्म सम्बन्धी धारणा बन गयी है, उसके लिए वही सत्य है। उसे तो इसके माध्यम से अपने गुरु को पूजना है, सो वह कार्तिक पूर्णिमा को पूज लेता है।
(iii) लेखक की दृष्टि में गुरु के पार्थिव शरीर के आविर्भाव के स्थान पर किसको महत्त्व मिलना चाहिए?
उत्तर– लेखक की दृष्टि में गुरु के पार्थिव शरीर के आविर्भाव के स्थान पर उनके आध्यात्मिकता को महत्त्व मिलना चाहिए।
(iv) चन्द्रमा कितनी कलाओं से परिपूर्ण होता है?
उत्तर– चन्द्रमा षोडश कलाओं से परिपूर्ण होता है।
(v) कार्तिक पूर्णिमा का सम्बन्ध किस महामानव से है?
उत्तर– कार्तिक पूर्णिमा का सम्बन्ध महामानव गुरु नानकदेव से है।
(2) गुरु जिस किसी भी शुभ क्षण में चित्त में आविर्भूत हो जायें, वही क्षण उत्सव का है, वही क्षण उल्लसित कर देने के लिए पर्याप्त है। नवो नवो भवसि जायमानः गुरु, तुम प्रतिक्षण चित्तभूमि में आविर्भूत होकर नित्य नवीन हो रहे हो। हजारों वर्षों से शरत्काल की यह सर्वाधिक प्रसन्न तिथि प्रभामण्डित पूर्णचन्द्र के साथ उतनी ही मीठी ज्योति के धनी महामानव का स्मरण कराती रही है। इस चन्द्रमा के साथ महामानवों का सम्बन्ध जोड़ने में इस देश का समष्टि चित्त, आह्वाद अनुभव करता है। हम ‘रामचन्द्र’, ‘कृष्णचन्द्र’ आदि कहकर इसी आह्लाद को प्रकट करते हैं। गुरु नानकदेव के साथ इस पूर्णचन्द्र का सम्बन्ध जोड़ना भारतीय जनता के मानस के अनुकूल है। आज वह अपना आह्वाद प्रकट करती है।
प्रश्न (i) उपर्युक्त गद्यांश का संदर्भ लिखिए।
उत्तर– सन्दर्भ – पूर्ववत्
(ii) रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।
उत्तर– रेखांकित अंश की व्याख्या– लेखक का मत है कि गुरु जिस किसी भी शुभ मुहूर्त में हृदय में उत्पन्न हो जायें वही समय वही मुहूर्त आनन्द का है, प्रसन्नता का है। वह ऐसा समय है जो जीवन में हर्षोल्लास भर देनेवाला होता है। परमात्मा की ये महान् विभूतियाँ प्रतिक्षण भक्तों के हृदय में जन्म लेकर नित्य नया रूप धारण करती रहती हैं। सच है कि गुरु तो हर क्षण चित्तभूमि अर्थात् मन में उत्पन्न होकर नये नये होते रहते हैं। भक्तों के लिए ऐसा हर क्षण उत्सव का है, उल्लास का है। हजारों वर्षों से शरदकाल की यह तिथि प्रभामंडित पूर्णचन्द्र के साथ उस महामानव का याद कराती रही है। इस चन्द्रमा के साथ महामानवों का तादात्म्य करने से इस देश का समष्टि चित्त प्रसन्नता का अनुभव करता है। हम लोग ‘रामचन्द्र’ कृष्णचन्द्र इत्यादि कहकर इसी प्रसन्नता का अनुभव करते हैं। गुरु नानकदेव के साथ इस पूर्णचन्द्र का सम्बन्ध जोड़ना भारतीय जन-मानस के अत्यन्त अनुकूल है। आज भारतीय जनता गुरु नानकदेव को स्मरण करके प्रसन्नता का अनुभव करती है।
(iii) शरदकाल की यह तिथि किसकी याद कराती रही है?
उत्तर– शरदकाल की यह तिथि प्रभामंडित पूर्णचन्द्र के साथ गुरुनानक जी की याद कराती रही है।
(iv) उत्सव का क्षण कौन–सा है?
उत्तर– गुरु जिस किसी भी शुभ क्षण में चित्त में आविर्भूत हो जायें, वह क्षण उत्सव का है।
(v) शरद पूर्णिमा किसका स्मरण कराती है?
उत्तर–शरद पूर्णिमा महामानव गुरु नानकदेव का स्मरण कराती है।
(3) विचार और आचार की दुनिया में इतनी बड़ी क्रान्ति ले आनेवाला यह सन्त इतने मधुर, इतने स्निग्ध, इतने मोहक वचनों को बोलनेवाला है। किसी का दिल दुखाये बिना, किसी पर आघात किये बिना, कुसंस्कारों को छिन्न करने की शक्ति रखनेवाला, नयी संजीवनी धारा से प्राणिमात्र को उल्लसित करनेवाला यह सन्त मध्यकाल की ज्योतिष्क मण्डली में अपनी निराली शोभा से शरत् पूर्णिमा के पूर्णचन्द्र की तरह ज्योतिष्मान् है। आज उसकी याद आये बिना नहीं रह सकती। वह सब प्रकार से लोकोत्तर है। उसका उपचार प्रेम और मैत्री है। उसका शास्त्र सहानुभूति और हित–चिन्ता है।
प्रश्न (i) उपर्युक्त गद्यांश का संदर्भ लिखिए।
उत्तर– सन्दर्भ – पूर्ववत्
(ii) रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।
उत्तर–रेखांकित अंश की व्याख्या– गुरु नानकदेव एक महान् सन्त थे। उनके समय के समाज में अनेक प्रकार की बुराइयाँ विद्यमान थीं। समाज का आचरण दूषित हो चुका था। इन बुराइयों को दूर करने और सामाजिक आचरणों में सुधार लाने के लिए गुरु नानकदेव ने न तो किसी की निन्दा की और न ही तर्क-वितर्क द्वारा किसी की विचारधारा का खण्डन किया। उन्होंने अपने आचरण और मधुर वाणी से ही दूसरों के विचारों और आचरण में परिवर्तन करने का प्रयास किया और इस दृष्टि से उन्होंने आश्चर्यजनक सफलता प्राप्त की। बिना किसी का दिल दुखाये और बिना किसी को किसी प्रकार की चोट पहुँचाये, उन्होंने दूसरों के बुरे संस्कारों को नष्ट कर दिया। उनकी सन्त वाणी को सुनकर दूसरों का हृदय हर्षित हो जाता था और लोगों को नवजीवन प्राप्त होता था। लोग उनके उपदेशों को जीवनदायिनी औषध की भाँति ग्रहण करते थे। मध्यकालीन सन्तों के बीच गुरु नानकदेव इसी प्रकार प्रकाशमान दिखायी पड़ते हैं, जैसे आकाश में आलोक बिखेरने वाले नक्षत्रों के मध्य; शरद पूर्णिमा का चन्द्रमा शोभायमान होता है। विशेषकर शरद पूर्णिमा के अवसर पर ऐसे महान् सन्त का स्मरण हो आना स्वाभाविक है। वे सभी दृष्टियों से एक अलौकिक पुरुष थे। प्रेम और मैत्री के द्वारा ही वे दूसरों की बुराइयों को दूर करने में विश्वास रखते थे। दूसरों के प्रति सहानुभूति का भाव रखना और उनके कल्याण के प्रति चिन्तित रहना ही उनका आदर्श था। गुरु नानकदेव का सम्पूर्ण जीवन, उनके इन्हीं आदर्शों पर आधारित था।
(iii) गुरुनानक जी का उपचार क्या है?
उत्तर– गुरुनानक जी का उपचार प्रेम और मैत्री है।
(iv) क्रान्ति लाने वाले यहाँ किस सन्त का वर्णन है?
उत्तर– क्रान्ति लाने वाले यहाँ सन्त गुरु नानकदेव का वर्णन है।
(v) शरद पूर्णिमा के पूर्ण चन्द्र की तरह कौन ज्योतिष्मान है?
उत्तर–शरद पूर्णिमा पूर्ण चन्द्र की तरह गुरु नानकदेव ज्योतिष्मान हैं।
(vi) गुरु नानक देव ने किस प्रकार दूसरों की बुरे संस्कारों को नष्ट कर दिया?
उत्तर–बिना किसी का दिल दुखाये और बिना किसी को किसी प्रकार की चोट पहुंचाए गुरु नानक देव ने दूसरों की बुराई को नष्ट कर दिया।
(vii) मध्यकालीन संतों के मध्य गुरु नानक किस प्रकार दिखाई पड़ते हैं?
उत्तर–मध्यकालीन संतों के मध्य गुरु नानक इसी प्रकार प्रकाशमान दिखाई पड़ते हैं,जैसे आकाश में आलोक बिखेरने वाले नक्षत्रों के मध्य शरद पूर्णिमा का चंद्रमा शोभायमान होता है
(4) किसी लकीर को मिटाये बिना छोटी बना देने का उपाय है बड़ी लकीर खींच देना। क्षुद्र अहमिकाओं और अर्थहीन संकीर्णताओं की क्षुद्रता सिद्ध करने के लिए तर्क और शास्त्रार्थ का मार्ग कदाचित् ठीक नहीं है। सही उपाय है बड़े सत्य को प्रत्यक्ष कर देना। गुरु नानक ने यही किया। उन्होंने जनता को बड़े-से-बड़े सत्य के सम्मुखीन कर दिया, हजारों दीये उस महाज्योति के सामने स्वयं फीके पड़ गये।
प्रश्न (i) उपर्युक्त गद्यांश का संदर्भ लिखिए।
उत्तर– सन्दर्भ – पूर्ववत्
(ii) रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।
उत्तर– रेखांकित अंश की व्याख्या– हम किसी रेखा को मिटाये बिना यदि उसे छोटा करना चाहते हैं तो उसका एक ही उपाय है कि उस रेखा के पास उससे बड़ी रेखा खींच दी जाय। ऐसा करने पर पहली रेखा स्वयं छोटी प्रतीत होने लगेगी। इसी प्रकार यदि हम अपने मन के अहंकार और तुच्छ भावनाओं को दूर करना चाहते हैं, तो उसके लिये भी हमें महानता की बड़ी लकीर खींचनी होगी। अहंकार, तुच्छ भावना, संकीर्णता आदि को शास्त्रज्ञान के आधार पर वाद-विवाद करके या तर्क देकर छोटा नहीं किया जा सकता; उसके लिये व्यापक और बड़े सत्य का दर्शन आवश्यक है। इसी उद्देश्य से मानव जीवन की संकीर्णताओं और क्षुद्रताओं को छोटा सिद्ध करने के लिए गुरु नानकदेव ने जीवन की महानता को प्रस्तुत किया। गुरु की वाणी ने साधारण जनता को परम सत्य का प्रत्यक्ष अनुभव कराया। परमसत्य के ज्ञान एवं प्रत्यक्ष अनुभव से अहंकार और संकीर्णता आदि इस प्रकार तुच्छ प्रतीत होने लगे, जैसे महाज्योति के सम्मुख छोटे दीपक आभाहीन हो जाते हैं। गुरु की वाणी ऐसी महाज्योति थी, जिसने जन साधारण के मन से अहंकार, क्षुद्रता, संकीर्णता आदि के अन्धकार को दूर कर उसे दिव्य ज्योति से प्रकाशित कर दिया।
(iii) हजारो दीये किसके सामने स्वयं फीके पड़ गये?
उत्तर– हजारों दीये गुरु नानकदेव की महाज्योति के सामने फीके पड़ गये।
(iv) छोटी लकीर के सामने बड़ी लकीर खींच देने का क्या तात्पर्य है?
उत्तर– किसी लकीर को मिटाये बिना छोटी बना देने का उपाय है बड़ी लकीर खींच देना।
(v) अहमिकाओं और कार्यहीन संकीर्णताओं की क्षुद्रता सिद्ध करने का सही उपाय क्या है?
उत्तर– अहमिकाओं और अर्थहीन संकीर्णताओं की क्षुद्रता सिद्ध करने के लिए सही उपाय है बड़े सत्य को प्रत्यक्ष कर देना।
(5) भगवान् जब अनुग्रह करते हैं तो अपनी दिव्य ज्योति ऐसे महान् सन्तों में उतार देते हैं। एक बार जब यह ज्योति मानव देह को आश्रय करके उतरती है तो चुपचाप नहीं बैठती। वह क्रियात्मक होती है, नीचे गिरे हुए अभाजन लोगों को वह प्रभावित करती है, ऊपर उठाती है। वह उतरती है और ऊपर उठाती है। इसे पुराने पारिभाषिक शब्दों में कहें तो कुछ इस प्रकार होगा कि एक ओर उसका ‘अवतार’ होता है, दूसरी ओर औरों का ‘उद्धार’ होता है। अवतार और उद्धार की यह लीला भगवान् के प्रेम का सक्रिय रूप है, जिसे पुराने भक्तजन ‘अनुग्रह’ कहते हैं। आज से लगभग पाँच सौ वर्ष से पहले परम प्रेयान् हरि का यह ‘अनुग्रह’ सक्रिय हुआ था, वह आज भी क्रियाशील है। आज कदाचित् गुरु की वाणी की सबसे अधिक तीव्र आवश्यकता अनुभूत हो रही है।
प्रश्न (1) उपर्युक्त गद्यांश का संदर्भ लिखिए।
उत्तर– सन्दर्भ – पूर्ववत्
(ii) रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।
उत्तर–रेखांकित अंश की व्याख्या– द्विवेदी जी का मत है कि जब संसार पर ईश्वर की विशेष कृपा होती है तो उसकी अलौकिक ज्योति किसी सन्त के रूप में इस संसार में अवतरित होती है। तात्पर्य यह है कि ईश्वर अपनी दिव्य ज्योति को किसी महान् सन्त के रूप में प्रस्तुत करके उसे इस जगत् का उद्धार करने के लिए पृथ्वी पर भेजता है। वह महान् सन्त ईश्वर की ज्योति से आलोकित होकर संसार का मार्गदर्शन करता है। ईश्वर निरीह लोगों के कष्टों को दूर करना चाहता है, इसलिए उसकी यह दिव्य ज्योति मानव शरीर प्राप्त करके चैन से नहीं बैठती, वरन् अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए सक्रिय हो उठती है। मानव रूप में जब भी ईश्वर अवतार लेता है, तभी इस विश्व का उद्धार तथा कल्याण होता है। प्राचीन भक्ति-साहित्य में ईश्वर की दिव्य ज्योति का मानव रूप में जन्म ‘ अवतार और उद्धार’ कहा गया है। इस दिव्य ज्योति का ‘अवतार’ अर्थात् उतरना होता है और सांसारिक प्राणियों का ‘उद्धार’ अर्थात् ऊपर उठना होता है। आचार्य द्विवेदी अन्त में कहते हैं कि ईश्वर का अवतार लेना और प्राणियों का उद्धार करना ईश्वर के प्रेम का सक्रिय रूप है। भक्तजन इसे ईश्वर की विशेष कृपा मानकर ‘अनुग्रह’ की संज्ञा बताते हैं।
(iii) भगवान के प्रेम में क्या सक्रिय रूप है?
उत्तर–भगवान् के प्रेम में अवतार और उद्धार की यह लीला सक्रिय रूप है।
(iv) सन्तजन क्या कार्य करते हैं?
उत्तर–सन्तजन लोगों का उद्धार करते हैं।
(v) अनुग्रह का क्या तात्पर्य है?
उत्तर–भगवान का अवतार लेकर गिरे जनों का उद्धार करने की लीला को अनुग्रह करते हैं।
(6) महागुरु, नयी आशा, नयी उमंग, नये उल्लास की आशा में आज इस देश की जनता तुम्हारे चरणों में प्रणति निवेदन कर रही है। आशा की ज्योति विकीर्ण करो, मैत्री और प्रीति की स्निग्ध धारा से आप्लावित करो। हम उलझ गये हैं, भटक गये हैं, पर कृतज्ञता अब भी हम में रह गयी है। आज भी हम तुम्हारी अमृतोपम वाणी को भूल नहीं गये हैं। कृतज्ञ भारत का प्रणाम अंगीकार करो।
प्रश्न (i) उपर्युक्त गद्यांश का संदर्भ लिखिए।
उत्तर –सन्दर्भ – पूर्ववत्
(ii) रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।
उत्तर – रेखांकित अंश की व्याख्या– लेखक गुरु से प्रार्थना करता है कि वे भटके हुए भारतवासियों के हृदय में प्रेम, मैत्री एवं सदाचार का विकास करके उनमें नयी आशा, नये उल्लास व नयी उमंग का संचार करें। इस देश की जनता उनके चरणों में अपना प्रणाम निवेदन करती है। लेखक का कथन है कि वर्तमान समाज में रहनेवाले भारतवासी कामना, लोभ, तृष्णा, ईर्ष्या, ऊँच- नीच, जातीयता एवं साम्प्रदायिकता जैसे दुर्गुणों से ग्रसित होकर भटक गये हैं, फिर भी इनमें कृतज्ञता का भाव विद्यमान है। इस कृतज्ञता के कारण ही आज भी ये भारतवासी आपकी अमृतवाणी को नहीं भूले हैं। हे गुरु! आप कृतज्ञ भारतवासियों के प्रणाम को स्वीकार करने की कृपा करें।
(iii) ‘कृतज्ञ भारत का प्रणाम अंगीकार करो‘ का क्या मतलब है?
उत्तर – कृतज्ञ भारत का प्रणाम अंगीकार करो का मतलब आप कृतज्ञ भारतवासियों के प्रणाम को स्वीकार करने की कृपा करे।
(iv) कृतज्ञता से आप क्या समझते हैं?
उत्तर – किसी के उपकार को अंगीकार करके सम्मान देना और उसके प्रति न्यौछावर होना कृतज्ञता है।
(v) लेखक गुरु से किस प्रकार की ज्योति विकीर्ण करने का निवेदन कर रहा है?
उत्तर –लेखक गुरु से आशा की ज्योति विकीर्ण करने का निवेदन कर रहा है।