UP Board and NCERT Solution of Class 10 Science [विज्ञान] ईकाई 2 जैव जगत –Chapter- 6 Control and Coordination ( नियंत्रण एवं समन्वय ) दीर्घ उत्तरीय प्रश्न
प्रिय पाठक! इस पोस्ट के माध्यम से हम आपको कक्षा 10वीं विज्ञान ईकाई 2 जैव जगत (Organic world) के अंतर्गत चैप्टर 6 -नियंत्रण एवं समन्वय पाठ के दीर्घ उत्तरीय प्रश्न प्रदान कर रहे हैं। UP Board आधारित प्रश्न हैं। आशा करते हैं हमारी मेहनत की क़द्र करते हुए इसे अपने मित्रों में शेयर जरुर करेंगे।
मानव में समन्वयन, तंत्रिका तंत्र की सामान्य संरचना, प्रतिवर्ती क्रिया, जंतुओं में रासायनिक समन्वय: अंतः स्रावी ग्रंथियां एवं हॉर्मोन्स, पौधों में समन्वय: पादप हॉर्मोन्स
Class | 10th | Subject | Science (Vigyan) |
Pattern | NCERT | Chapter- | Control and Coordination |
दीर्घ उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1. पिट्यूटरी हॉर्मोन ग्रन्थि की अग्रपालि से कौन-कौन से हॉर्मोन निकलते हैं?
उत्तर- पिट्यूटरी हॉर्मोन ग्रन्थि की अग्रपालि से चार प्रकार के महत्त्वपूर्ण हॉर्मोन उत्पन्न होते हैं जो इस प्रकार हैं
(i) वृद्धि हॉर्मोन (GH)- इस हॉर्मोन को सोमेटोट्रॉफिक हॉमॉन भी कहते हैं। यह हॉमौन सामान्य वृद्धि के लिए आवश्यक है। इसके अधिक था कम उत्पन्न होने से निम्नलिखित स्थितियाँ पैदा हो जाती है-
(a) सोमेटोट्रॉफिक हॉर्मोन के कम उत्पन्न होने से बचपन में इस हॉर्मोन की अल्पत्ता के कारण बौनापन आ जाता है। ये बीने आयु में पूर्ण वृद्धि प्राप्त होते हैं, लेकिन इनका शरीर अनुपात में बच्चे के बराबर ही होता है।
(b) सोमेटोट्रॉफिक हॉमौन के अधिक उत्पन्न होने से बचपन में इस हॉर्मोन के अतिस्राव से भीमकायता पैदा हो जाती है, जिसके कारण लंबी अस्थियाँ सामान्य से अधिक लंबी हो जाती हैं और मनुष्य की लंबाई 8 से लेकर 9 फुट तक हो जाती है।
(ii) थायराइड उद्दीपक (प्रेरक) हॉर्मोन(TSH)- यह हॉर्मोन थायरोक्सिन का स्राव करने के लिए थायरॉइड ग्रन्थि को प्रेरित करता है।
(iii) ऐड्रीनोकॉर्टिकोट्रॉपिक हॉर्मोन (ACTH)- यह हॉर्मोन ऐड्रीनल वल्कुट के क्रियाकलापों का नियमन करता है।
(iv) जनद प्रेरक हॉर्मोन (GSH)- इस हॉर्मोन को गोनेडोट्रॉफिक हॉर्मोन भी कहते हैं। यह हॉर्मोन वृषणों और अंडाशयों के क्रियाकलाप का नियमन करता है। यह हॉर्मोन तीन प्रकार के होते हैं-
(a) पुटिका प्रेरक हॉर्मोन (FSH)- ये हॉर्मोन स्त्रियों के अंडाशय में पूरक विकास का और पुरुषों के वृषण में जनन- एपीथीलिय के विकास (अंडाणु निर्माण) यानी शुक्राणु निर्माण को प्रेरित करता है।
(b) प्रोलेक्टिन (Prolactin) ये हॉर्मोन स्तन ग्रंथियों में दूध उत्पादन को प्रेरणा देते हैं।
(c) ल्यूटिनकारी हॉर्मोन (LH)- ये हॉर्मोन स्त्रियों के अंडाशय में से अंडे को बाहर निकलने के लिए प्रेरित करते हैं, जिसके बाद कॉर्पस ल्यूटियम बन जाता है। पुरुषों में यह हॉर्मोन वृषण की अंतराली कोशिकाओं को प्रेरित करता है, ताकि वे नर-हॉर्मोन टेस्टोस्टेरॉन पैदा कर सके। इसलिए इसे अंतराली कोशिका प्रेरक हॉर्मोन भी कहते हैं।
प्रश्न 2. पादप हॉर्मोन क्या हैं? किन्हीं तीन पादप हॉर्मोनों के नाम लिखिए तथा उनके कार्यों का भी वर्णन कीजिए।
अथवा विभिन्न पादप हॉर्मोनों के नाम बताइए। साथ ही पादप वृद्धि और परिवर्धन पर उनके क्रियात्मक प्रभावों की चर्चा कीजिए।
उत्तर- पादप हॉर्मोन्स (Plant Hormones)- पादप हॉर्मोन्स वे पदार्थ हैं जो पौधे के किसी भी एक भाग में बहुत कम मात्रा में उत्पन्न होते हैं, वहाँ से पौधे के अन्य भागों में स्थानान्तरित होकर, विभिन्न कार्यिकी क्रियाओं पर विशिष्ट विधि से प्रभाव डालते हैं।
विभिन्न प्रकार के पादय हॉर्मोन
(Different Types of Plant Hormones)
पौधों में पादप हॉर्मोन का पता सर्वप्रथम एफ. डब्ल्यू. वेन्ट (F. W. Went, 1928) ने लगाया था। रासायनिक संरचना के आधार पर पादप हॉर्मोन्स को निम्नलिखित समूहों में बाँट सकते हैं-(i) ऑक्सिन, (ii) जिबरेलिन, (iii) साइटोकाइनिन, (iv) ऐब्सिसिक अम्ल, (v) एथिलीन।
(i) ऑक्सिन (Auxins)-
(a) ये मुख्यतया कोशिका विभाजन एवं दीपकरण को प्रभावित करते हैं।
(d) इनके कारण सामान्यतया पाश्वीय कलिकाओं की वृद्धि नहीं होती। इसे शीर्ष प्रमुखता कहते हैं।
(c) ये अनुवर्षांनी गति के लिए उत्तरदायी होते हैं। ऑक्सिन की सान्द्रता तने में वृद्धि की दर को बढ़ा देती है, जबकि जड़ में वृद्धि दर को कम करती है।
(d) ऑक्सिन के कारण कटे हुए तनी पर जड़े शीघ्र निकलती हैं।
(e) ऑक्सिन के कारण अण्डाशय से बिना निषेचन के फल बन जाते हैं। इसे अनिषेकफलन (parthenocarpy) कहते हैं। ये फल बीजरहित होते हैं।
(f) ऑक्सिन का छिड़काव करके फल एवं पत्तियों को समय से पूर्व गिरने से रोका जा सकता है।
(g) ऑक्सिन का उपयोग करके द्विबीजपत्री खरपतवार को नष्ट किया जा सकता है।
(h) ऑक्सिन का उपयोग करके कन्द, प्रकन्द, धनकन्द आदि भूमिगत तनों की प्रसुप्तता (dormancy) को बढ़ाया जा सकता है।
(ii) जिबरेलिन (Gibberellin)- इसकी खोज कुरोसावा (Kurosawa, 1926) ने की थी। यह पादप शरीर की अनेक क्रियाओं को प्रभावित करता है, जैसे-
(a) यह कोशिका दीधींकरण को प्रभावित करता है।
(b) यह प्रसुप्ति (dormancy) को भंग करता है। बीजों के अंकुरण को प्रेरित करता है।
(c) इसके उपयोग से नाटे पौधे लम्बे हो जाते हैं और द्विवर्षी पौधे प्रथम वृद्धिकाल में ही पुष्पन करने लगते हैं। इसे बोल्टिंग प्रभाव (Bolting effect) कहते हैं।
(d) इसके उपयोग से अनिषेकफलन को प्रेरित किया जाता है।
(e) यह एथा (cambium) की क्रियाशीलता को बढ़ा देता है। इसके फलस्वरूप द्वितीयक वृद्धि होती है। (f) जिबरेलिन के प्रयोग से अंगूर के गुच्छे तथा फल लम्बे हो जाते हैं।
(iii) साइटोकाइनिन (Cytokinins)- ये कोशिका विभाजन एवं पाश्वीय कलिकाओं को प्रेरित करते हैं। ये कोशिका विभेदीकरण को प्रेरित करते हैं। कृत्रिम संवर्धन माध्यम में उचित साइटोकाइनिन्स तथा ऑक्सिन अनुपात के फलस्वरूप कैलस (कोशिकाओं के समूह) से जड़ तथा प्ररोह दोनों विकसित होते हैं संवर्धन द्वारा कृत्रिम रूप से नये पादप विकसित किए जा सकते हैं।
(iv) ऐब्सिसिक अम्ल (Abscisic Acid)- यह ऑक्सिन तथा जिबरेलिन विरोधी होता है। इसे डॉरमिन (dormin) भी कहते हैं। यह प्रसुप्तता को बनाए रखता है। यह कलिकाओं की वृद्धि को रोकता है।
(v) एथिलीन (Ethylene)- यह गैस रूप में पाया जाने वाला (एकमात्र पादप हॉर्मोन है। यह मुख्यतया फलों को पकाने में सहायक होता है। यह विलगन प्रक्रिया को तीव्र करता है। यह अनत्रास (pineapple) में पुष्यन को प्रेरित करता है। अन्य पौधों में पुष्पन का संदमन करता है।
प्रश्न 3. प्रतिवर्ती क्रिया से आप क्या समझते हैं? यह कितने प्रकार की होती है? चित्र की सहायता से स्पष्ट कीजिए।
अथवा प्रतिवर्ती क्रिया से आप क्या समझते हैं? उदाहरण सहित समझाइए। इसका महत्त्व बताइए।
अथवा प्रतिवर्ती क्रिया पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए। इसका महत्त्व लिखिए।
उत्तर- प्रतिवर्ती किया-प्रतिवर्ती क्रियायें दैहिक या आंतरांगीय होती हैं। इनका नियवण मेरुरज्जु द्वारा होता है। ये क्रियायें यन्त्रवत्, सरलतम तथा अनायास होती हैं। पकवान को देखकर मुँह में पानी आना, पलक झपकना, गर्म वस्तु पर हाथ पड़ने पर हाथ का हट जाना आदि प्रतिवर्ती क्रियाओं के उदाहरण हैं।
प्रतिवर्ती क्रियाओं की क्रियाविधि- रज्जु तन्विका का निर्माण पृष्ठ तथा अधर मूल से होता है। पृष्ठ मूल संवेदी तथा अधर मूल चालक तन्तुओं से बनी होती है। बाह्य संवेदी अंगों से उद्दीपन दैहिक संवेदी तन्तुओं द्वारा पृष्ठ मूल में होता हुआ अधर मूल में स्थित चालक तन्त्रिका तन्तुओं में प्रेरणा रूप में स्थानान्तरित हो जाता है। चालक तन्विका तन्तु प्रेरणा को कार्यकारी अंग की पेशियों में पहुँचाता है। पेशियों के संकुचन से प्रतिक्रिया होने लगती है। यह सम्पूर्ण कार्य परावर्तन की तरह होता है इसलिए इसे प्रतिवतों या परावतीं प्रतिक्रिया कहते हैं।
प्रतिवती क्रियायें तीव्र गति से होती है। इसमें मेरुरज्जु संवेदी प्रेरणाओं को दर्पण की तरह ज्यों की त्यों तुरन्त चालक प्रेरणा के रूप में लौटा देता है।
प्रतिवर्ती प्रतिक्रियाओं के प्रकार– ये 2 प्रकार की होती है-
- अबन्धित प्रतिवर्ती प्रतिक्रियाएँ- ये जन्मजात एर्व वंशागत होती हैं। ये जन्तु की प्राकृतिक प्रवृत्ति कहलाती हैं, जैसे देशान्तरण, प्रणय निवेदन, किसी विशेष मौसम में जनन करना आदि।
- अनुबन्धित प्रतिवर्ती प्रतिक्रियाएँ– ये प्रतिवर्ती क्रियायें प्रशिक्षण के कारण होने लगती हैं, जैसे साइकिल चलाना, तैरना, नाचना, भोजन को देखकर मुँह में पानी आना आदि।
प्रतिवर्ती क्रिया का महत्त्व– बाह्य तथा आन्तरिक उद्दीपनों के फलस्वरूप होने वाली ये क्रियाएँ मेरुरज्जु द्वारा नियन्त्रित होती हैं। इससे मस्तिष्क का कार्यभार कम हो जाता है। कार्य सम्पत्र होने के पश्चात् मस्तिष्क को सूचना प्रेषित कर दी जाती है।
प्रश्न 4. मेरुरज्जु की अनुप्रस्थ काट का नामांकित चित्र बनाइए तथा संक्षेप में वर्णन कीजिए। इसके कार्यों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर- मेरुरज्जु (Spinal Cord)- यह कशेरुक दण्ड में स्थित होता है। यह दृढ़तानिका (duramater), बालतानिका (arachnoid) तथा मृदुतानिका (piamater) से घिरा रहता है। झिल्लियों के मध्य स्थित तरल मेरुरज्जु को बाह्य आघातों से बचाता है। मेरुरज्जु के मध्य पृष्ठ तथा मध्य अधर पर स्थित विदर मेरुरज्जु को दो भागों में बाँटता प्रतीत होता है।
मेरुरज्जु की आन्तरिक संरचना (Internal Structure of Spinal Cord)- मेरुरज्जु के मध्य एक तरल से भरी संकरी केन्द्रीय नाल या न्यूरोसील (neurocoel) होती है। यह मस्तिष्क की गुहा से जुड़ी रहती है। केन्द्रीय नाल के बाहर मेरुरज्जू दो स्तरों से बनी होती है। भीतर की ओर घूसर द्रव्य (grey matter) तथा बाहर की ओर श्वेत द्रव्य (white matter) का स्तर होता है धूसर द्रव्य के पृष्ठ तथा अधर तल से क्रमशः पृष्ठ श्रृंग (dorsal horn) तथा प्रतिपृष्ठ श्रृंग (ventral horn) निकले रहते हैं। पृष्ठ तथा प्रतिपृष्ठ श्रृंग परस्पर मिलकर रीढ़ तन्त्रिका ( spinal nerve) बनाते हैं
मेरुरज्जु के कार्य-
(i) बेरुरज्जू मस्तिष्क से आने-जाने वाली प्रेरणाओं के लिए मार्ग बदल करती है।
(ii) मेरुरज्जु प्रतिवती हियाओं (reflex actions) का संचालन त नियमन करती है। इसके कारण मस्तिष्क का कार्यभार कम हो जा
(iii) अनेक अनैच्छिक क्रियाओं का नियमन करती है।
प्रश्न 5. तन्त्रिका कोशिका (न्यूरॉन) की संरचना का सचित्र वर्णन कीजिए।
अथवा तन्त्रिका कोशिका (न्यूरॉन) का चित्र बनाकर उसके कार्य लिखिए।
उत्तर- तन्त्रिका कोशिका की संरचना- तन्त्रिका कोशिका 0.1mm एक मीटर या अधिक लम्बी होती है। इसके दो मुख्य भाग होते हैं
- कोशाकाय या साइटॉन– कोशिका के इस मुख्य भाग में कोश अंगकों सहित निसल कण भी होते हैं। सेन्ट्रोसोम के अभाव के कारण इन कोशिकाओं में विभाजन नहीं होता है।
- कोशा प्रवर्ध- ये दो प्रकार के होते हैं-
(अ) वृक्षिकाएँ, तथा (ब) तन्त्रिकाक्ष।
(अ) वृक्षिकाएँ- ये संख्या में अधिक, आधारीय भाग में मोटे परन्तु सिरों की ओर क्रमशः पतले होते हैं। इनमें निसल कण पाये जाते हैं। ये उद्दीपन को कोशाकाय की ओर लाते हैं।
(ब) तन्त्रिकाक्ष– कोशाकाय से एक, काफी लम्बा लगभग समान मोटाई का प्रवर्ध निकलता है जो स्वतन्त्र छोर पर शास्त्रा में बंट जाता है। इन शाखाओं के अन्तिम सिरे घुण्डीदार होते हैं, इनको संयुग्मन बटन कहते हैं। ये प्रेरणाओं को साइटॉन से अन्य तन्विका कोशिका, ऊतक, अन्थि या पेशी में से जाते हैं।
तन्त्रिकाक्ष न्यूरीलेमा से घिरा होता है। न्यूरीलेमा का निर्माण इ कोशिकाओं से होता है। न्यूरीलेमा स्थान-स्थान पर रैन्वियर नोड द्वारा विचित्र जाती है। तन्त्रिकाक्ष तथा न्यूरीलेमा के मध्य जाती है। तन्त्रिकाक्ष तथा न्यूरीलेग के मध्य माइएलिन नामक वसीय पदार्थ पाया जाता है। इन तन्त्रिका कोशाओं को मेड्यूलेटेड कहते हैं। जिन तन्त्रिका कोशाओं में माइएलिन नहीं होता, उन्हें नॉन मेड्यूलेटेड कहते हैं। तन्त्रिका ऊतक प्रेरणाओं को शरीर के एक भाग से दृझे भागों तक लाने और ले जाने का कार्य करते हैं।
प्रश्न 6. पीयूष ग्रन्धि मानव शरीर में कहाँ पायी जाती है? इससे खावित होने वाले हॉर्मोन्नर के नाम व कार्य लिखिए।
अथवा पीयूष ग्रन्धि की संरचना तथा कार्यों का वर्णन कीजिए।
उत्तर- पीयूष ग्रन्धि (Pituitary Gland) की स्थिति एवं इससे स्रावित हॉर्मोन्स– यह मस्तिष्क के हाइपोथैलेमस (hypothal amus) में लगी रहती है। इसका निर्माण तीन पिण्डों से होता है- (क) पश्च पिण्ड, (ख) अग्र पिण्ड, तथा (ग) दोनों के मध्य एक संकरा भाग मध्य पिण्ड होता है।
(क) पश्च पिण्ड (Pars Nervosa)- यह वास्तव में तन्त्रिका साबी कोशिकों से बना होता है। इससे दो हॉरमोन्स वैसोप्रेसिन तथा ऑक्सीटोसिन साबित होते हैं।
(i) वैसोप्रेसिन– यह वृक्क नलिकाओं में जल के अवशोषण को बढ़ाता है। हॉर्मोन्स की कमी से उदकमेह या बहुमूत्र रोग या डायबिटीज इन्सिपिड्स रोग हो जाता है। रक्तदाब कम हो जाता है। हॉर्मोन की अधिकता से रक्तदाब बढ़ आता है।
(ii) ऑक्सीटोसिन- यह गर्भावस्था के अन्तिम समय में गर्भाशय की पेशियों को सिकोड़कर प्रसव पीड़ा उत्पन्न करता है. और स्तन अन्धि को सक्रिय करता है।
(ख) अग्न पिण्ड- यह पीयूष अन्धि का 3/4 भाग बताता है। इससे अन्तःस्रावी ग्रन्थियों को प्रेरित करने वाले हॉर्मोन स्रावित होते हैं
(i) वृद्धि हॉर्मोन- यह वृद्धि के लिए अति आवश्यक होता है। यह RNA. DNA तथा प्रोटीन संश्लेषण को बढ़ाता है। यह ऊतकों के क्षय को रोकता है। बचपन में हॉर्मोन की कमी से व्यक्ति बौना रह जाता है, और अधिकता से आनुपातिक रूप से भीमकाय हो जाता है। वयस्क अवस्था में हॉर्मोन की कमी को पीयूष मिक्सीडीमा कहते हैं। वयस्क अवस्था में हॉर्मोन की अधिकता से कुरूप भीमकाय या अश्रतिकायता रोग हो जाता है।
(ii) प्रोलैक्टिन- यह गर्भकाल में स्तनों की वृद्धि को प्रेरित करता है।
(iii) पुटिक प्रेरक हॉर्मोन- यह युग्मक जनन (gametogenesis) को प्रेरित करने वाले हॉर्मोन्स के सावण को प्रेरित करता है।
(iv) ल्यूटीनाइजिंग हॉर्मोन- यह द्वितीयक लिंगी लक्षणों के लिए उत्तरदायी हॉर्मोन्स के स्रावण को नियन्वित करता है। (v) ऐड्रीनोकॉर्टिकोट्रॉपिक हॉर्मोन यह अधिवृक्क ग्रन्थि के वल्कलीय (cortical) भाग को स्रावण के लिए प्रेरित करता है।
(vi) थाइरोट्रॉपिक हॉर्मोन- यह थाइरॉइड ग्रन्थि के स्रावण को प्रेरित करता है।
(vii) मिलैनोसाइट प्रेरक हॉर्मोन- यह निम्न कशेरुकी जन्तुओं में त्वचा के रंग परिवर्तन को प्रेरित करता है।
प्रश्न 7. थाइरॉइड ग्रन्थि की संरचना तथा उसके कार्यों का वर्णन कीजिए।
उत्तर- थाइरॉइड ग्रन्थि (Thyroid Gland)- यह स्वरयन्व (larynx) के समीप स्थित ‘H’ के आकार की द्विपालित ग्रन्थि है। इसका औसत भार 25-30 g होता है। दोनों पालियाँ संयोजी ऊतक की एक संकरी संयोजक पट्टी (isthmus) द्वारा जुड़ी होती हैं। अन्थि का निर्माण शैलीनुमा पुटिकाओं (follicles) से। से होता है। इससे मुख्यतया थाइरॉक्सिन हॉर्मोन स्रावित होता है। इसमें लगभग 65% आयोडीन होती है।
वाइरॉइड हॉर्मोन्स के कार्य-
- ये ऑक्सीकरणीय उपापचय (oxidative metabolism). को प्रेरित करके कोशाओं में ऊर्जा उत्पादन और उपापचय दर को बढ़ाते हैं और जीवन की रफ्तार को बनाये रखते हैं। ये हृदय स्यन्दन दर, प्रोटीन संश्लेषण, एवं ग्लूकोस की खपत आदि को बढ़ाते हैं।
- बाइरॉक्सिन कायान्तरण (metamorphosis) के लिए आवश्यक होता है।
- ये शीत रुधिर वाले जन्तुओं में त्वकपतन (moulting) को नियन्त्रित करते हैं।
थाइरॉइड ग्रन्थि का नियन्त्रण- अन्धि की स्रावण दर पीयूष अन्धि द्वारा स्स्रावित थाइरॉइड प्रेरक हॉर्मोन (thyroid stimulating hormone) द्वारा नियन्त्रित होती ।
प्रश्न 8. अन्तःस्रावी ग्रन्थियाँ क्या हैं? ये किस प्रकार बहिःस्रावी ग्रन्थियों से भिन्न होती हैं? मनुष्य में पायी जाने वाली विभिन्न अन्तःस्त्रावी ग्रन्थियों के नाम एवं स्थिति बताइए।
उत्तर- अन्तःस्त्रावी ग्रन्थियाँ (Endocrine Glands)- ये नलिकाविहीन होती हैं। इनसे स्रावित विशिष्ट रसायन हॉमॉन्स का वितरण रक्त के माध्यम से होता है। हॉर्मोन्स केवल लक्ष्य कोशिकाओं की कार्यिकी को प्रभावित करते हैं
बहिःस्त्रावी एवं अन्तः स्त्रावी ग्रन्थियों में अन्तर
बहिःस्त्रावी (Exocrine) |
अन्तःस्रावी (Endocrine) |
1. ये सम्बन्धित एपिथीलियमी स्तरों से संकरी नलिकाओं द्वारा जुड़ी रहती हैं। | 1. ये सम्बन्धित एपिथीलियम से जुड़ी रहती हैं। |
2. स्स्रावित पदार्थों को नलिकाओं द्वारा अंग विशेष में पहुँचाती हैं। | 2. स्रावित पदार्थों को रक्त के माध्यम से वितरित करती हैं। |
3. इन्हें नलिकायुक्त ग्रन्थियाँ (ducted glands) भी कहते हैं। | 3. इन्हें नलिकाविहीन (ductless) ग्रन्थियाँ कहते हैं। |
4. ग्रन्थियों से विभिन्न पदार्थ स्वेद, लार, दुग्ध, सीकम, कर्णमोम, एन्जाइम्स आदि स्रावित होते हैं। | 4. ग्रन्थियों में ‘हॉर्मोन्स’ स्रावित होते हैं।
|
मनुष्य में पायी जाने वाली अन्तःस्त्रावी ग्रन्थियाँ-
(क) नलिकाविहीन ग्रन्थियाँ-
(1) थाइरॉइड ग्रन्थि- यह स्वरयन्त्र के समीप स्थित द्विपालित ग्रन्थि है।
(2) पीयूष ग्रन्थि- यह मस्तिष्क के हाइपोथैलेमस से लगी होती है।
(3) पैराथाइरॉइड ग्रन्थियाँ- यह थाइरॉइड ग्रन्थि से लगी होती है।
(4) अधिवृक्क ग्रन्थियाँ- यह वृक्क से लगी होती है।
(ख) मिश्रित ग्रन्थि-
अग्न्याशय- यह ग्रहणी के दोनों भुजाओं के मध्य स्थित होती है।
(ग) अन्य संरचनाएँ-
(1) जनन अंग- वृषण एवं अण्डाशय
(2) जरायु- जरायु।
(3) आहारनाल श्लेष्मिका- आहारनाल की श्लेष्मिका।