UP Board and NCERT Solution of Class 10 Science [विज्ञान] ईकाई 5 प्राकृतिक संसाधन-Chapter- 13 Our Environment ( हमारा पर्यावरण) दीर्घ उत्तरीय प्रश्न
प्रिय पाठक! इस पोस्ट के माध्यम से हम आपको कक्षा 10वीं विज्ञान ईकाई 5 प्राकृतिक संसाधन (Natural Resources) के अंतर्गत चैप्टर 13 Our Environment ( हमारा पर्यावरण) पाठ के दीर्घ उत्तरीय प्रश्न प्रदान कर रहे हैं। UP Board आधारित प्रश्न हैं। आशा करते हैं हमारी मेहनत की क़द्र करते हुए इसे अपने मित्रों में शेयर जरुर करेंगे।
पारितन्त्र के प्रकार, खाद्य जाल, पारितन्त्र के घटक, जैविक आवर्धन या जैव आवर्धन, खाद्य श्रृंखला, मानव का प्राकृतिक पर्यावरण पर प्रभाव, ठोस अपशिष्ट तथा इनका प्रवन्धन
Class | 10th | Subject | Science (Vigyan) |
Pattern | NCERT | Chapter- | Our Environment |
दीर्घ उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1. जीवमण्डल से क्या तात्पर्य है? जीवमण्डल के जैविक घटकों का वर्णन कीजिए।
उत्तर- जीवमण्डल (Biosphere)
जीव का तात्पर्य है सृष्टि की ऐसी संरचना जिसमें जीवन के लक्षण विद्यमान हों, उदाहरणार्थ जीव में श्वसन, पाचन, पोषण, उत्सर्जन, वृद्धि, जनन आदि क्रियायें सम्पन्न होती हैं। ये जीव विभिन्न प्रकार के आवासों (habitats) में रहते हैं, जैसे- जल, थल, वायु। अतः पृथ्वी के वायुमण्डल, जलमण्डल एवं थलमण्डल के जितने भाग में जीव निवास करते हैं उसे जीवमण्डल (Biosphere) कहते हैं।
जीवमण्डल की सीमाएँ (Limitation of Biosphere)- जीव-जन्तु समुद्र तल से 7-8 km की ऊँचाई तक वायु में तथा लगभग 5 km तक की गहराई पर समुद्र के नीचे पाये जाते हैं। अतः पृथ्वी पर जीवों को पोषण देने वाला 12-13 km का क्षेत्रफल जीवमण्डल का निर्माण करता है। अधिकतर जीव वायुमण्डल में 100m ऊपर तक तथा 150 m तक नीचे समुद्र में जलमण्डल में निवास करते हैं।
जीवमण्डल के घटक (Components of Biosphere)- जीवमण्डल एक जैविक तन्त्र है इसकी संरचना तथा अनेक कार्य बहुत कुछ पारितन्त्र की संरचना तथा कार्यों से मिलते-जुलते हैं। जीवमण्डल के दो मुख्य घटक हैं-(क) जैविक घटक (Biotic Components), (ख) अजैविक घटक (Abiotic Components)।
(क) जैविक घटक (Biotic Components)- जैविक घटक सभी प्रकार के जीवित पादप, जन्तुओं और सूक्ष्म जीवों को कहते हैं। पोषण विधि के अनुसार इन पादप जन्तुओं और सूक्ष्म जीवों को निम्न तीन वर्गों में बाँटा जा सकता है-उत्पादक, उपभोक्ता तथा अपघटक।
- उत्पादक (Producers or Autotrophs)- प्राथमिक उत्पादक स्वपोषी (Autotrophs) हैं। ये खाद्य पदार्थों का उत्पादन करते हैं, अतः उत्पादक कहलाते हैं। ये उत्पादक सूर्य के प्रकाश में कार्बन-डाइऑक्साइड, जल व पर्णहरिम (Chlorophyll) की सहायता से भोजन निर्माण करते हैं। इनकी इस उपापचयी जैविक क्रिया (Metabolic activity) को प्रकाश संश्लेषण कहते हैं। उदाहरण-हरे पौधे, शैवाल (Algae), साइनोबैक्टीरिया।
- उपभोक्ता या परपोषी (Consumers or Heterotro-phs)- खाद्य पदार्थों का उपभोग करने वाले जीवों को उपभोक्ता या परपोषी (Heterotrophs) कहते हैं। उदाहरण- समस्त जन्तु मानव कवक (Fungi) आदि।
उपभोक्ता तीन प्रकार के होते हैं-
(i) प्राथमिक उपभोक्ता (Primary Consumers)- इस श्रेणी में वे जन्तु आते हैं ओ सीधे हरे पौधे का भक्षण करते हैं इसीलिए ये जन्तु शाकाहारी (Herbivorous) कहलाते हैं। जैसे- गाय, भैंस, अॅट, बकरी, खरगोश, हिरण, टिका, एफिड (Aphids), पादप सूत्रकृमि (Plant Nematodes) । जैसे हेटेरोडेरा (Heterodera) उरादि।
(ii) द्वितीयक उपभोक्ता (Secondary Consumers)- इम श्रेणी में वे जन्तु आते हैं, जो शाकाहारी जन्तुओं का उपभोग करते हैं इसलिए ये जन्तु मांसाहारी कहलाते हैं, जैसे जॉक (Leech). मेंढक, टोड, छिपकली, चिड़िया, बिल्ली, भेड़िया, मलेरिया फैलाने वाली मादा मच्छर (ऐनोफेलीज)।
(iii) तृतीयक उपभोक्ता (Tertiary Consumers)- इस श्रेणी में वे जन्तु आते हैं जो द्वितीयक उपभोक्ताओं (मांसाहारी) जन्तुओं को अपना शिकार बनाते है, जैसे सर्प, बाज, सिंह, बाघ आदि।
- अपघटक एवं अपरदभोजी (Decomposers and Detritus Feeders)- ये परपोषी/मृतपोषी जीव मृत पौधों व जन्तुओं के शरीर का अपघटन करते हैं अर्थात जटिल पदाथों को सरल पदार्थों में परिवर्तित करके वक्रण में सहायता करते हैं। इन्हें अपघटक कहते हैं परन्तु कुछ जीव मृत पौधे या जन्तु का तब तक उपभोग नहीं करते जब तक कि वह छोटे टुकड़ों या भागों (Fragments of detritus) में न विभाजित हो जाएँ। इन जीतों को अपरदभोजी (डेट्रीट्स फीडर) व अपरवाहारी (Detritivores) कहते हैं।
उदाहरण- जब (फफूंदी), जीवाणु, प्रोटोजोआ, मृदा सूत्रकृमि (Soil Nematodes), केंचुआ, जूलस (Millipede), स्प्रिंग-टेल्स आदि।
(ख) अजैविक घटक (Abiotic Components)- जीवमण्डल के अजैविक घटकों को दो वगों में बाँटा जा सकता है- भौतिक व रासायनिक घटक।
(i) भौतिक घटक (Physical Components)- जलवायु सम्बन्धी कारक जैसे सूर्य का प्रकाश, ताप, दाब, मृदा, वायु, वर्षा, जल तरंगें, आर्द्रता आदि भौतिक घटक हैं। ये कारक जैविक घटकों के आवास, प्रकृति, जीवन शैली तथा व्यवहार में परिवर्तन ला देते हैं। जो जीव इन कारकों के प्रभाव में सफलतापूर्वक जीवन जीते हैं वे ही जीवित रह सकते हैं।
(ii) रासायनिक घटक (Chemical Components)- बल, खनिज, लवण, गैस, आदि कार्बनिक तथा अकार्बनिक (N2, 02.H₂O, CO2, S, P, Ca) रासायनिक घटक होते हैं, इनका वातावरण में चक्रण होता रहता है। जीवों की मृत्यु से कार्बनिक पदार्थ प्रोटीन, वसा, कार्बोहाइड्रेट, केन्द्रकीय अम्ल (DNA, RNA) वातावरण में आते हैं तथा इनके अपघटन से अकार्बनिक पदार्थ प्राप्त होते हैं।
प्रश्न 2. ‘जीवमण्डल’ का अर्थ स्पष्ट कीजिए। वायुमण्डल का वर्णन कीजिए।
उत्तर-जीवमण्डल (Biosphere)- पृथ्वी का वह भाग जहाँ पारितन्त्र प्रणाली कार्यरत है- – जीवमण्डल कहलाता है। समुद्र तल से से 8 km ऊपर तथा 9 km गहराई तक जीव पाये जाते हैं, अर्थात् 16-17 km तक जल, थल एवं वायु का वह भाग जिसमें जीव स्वतन्व रूप से रहते हैं जीवमण्डल कहलाता है। इस प्रकार जीवमण्डल जीवन को पतला-सा आवरण है जो पृथ्वी को ढके रहता है। विश्व के सभी जीयोम मिलकर ही जीवमण्डल बनाते हैं। जीवमण्डल में अनेक पारितन्य हो सकते हैं जैसे तालाब, मरुस्थल आदि। जीवमण्डल को तीन भागों में बाँटा गया है-
(1) अलमण्डल, (2) वायुमण्डल (3) स्थलमण्डल।
जलमण्डल, वायुमण्डल, स्थलमण्डल व जीवमण्डल को मिलाकर पारिस्थितिक मण्डल बनता है। जीवमण्डल में लगभग 10 लाख से अधिक प्रकार के जीव पाये जाते हैं। ये सभी जीव पदार्थ एवं ऊर्जा के लिए क्रमशः पृथ्वी तथा सूर्य के प्रकाश पर निर्भर करते हैं। पारितन्त्र के समान जीवमण्डल में भी दो प्रमुख क्रियायें होती है-
(1) पदार्थों का चक्रीकरण (Cyclying of matter)
(2) ऊर्जा का प्रवाह (Energy flow)
जीवमण्डल में ऊर्जा का प्रवाह (Flow of Energy in Biosphere)- सजीवों का शरीर कभी भी निष्क्रिय नहीं रहता है। उनके शरीर में सदैव विभिन्न प्रक्रियाएँ होती रहती हैं। इन प्रकियाओं को संचालित करने के लिए ऊर्जा की आवश्यकता होती है। ऊर्जा का आदि स्रोत सूर्य है जिसकी ऊर्जा को सौर ऊर्जा कहते हैं।
सूर्य से विकिरित ऊर्जा का लगभग 65 प्रतिशत भाग ही हरे पौधे अवशोषित कर सकते हैं। शेष ऊर्जा की मात्रा पृथ्वी पर पहुँचने से पूर्व ही वातावरण द्वारा अवशोषित कर ली जाती है। अवशोषित ऊर्जा का आधे से भी कम भाग हरित लवक ग्रहण करते हैं और प्रकाश संश्लेषण की क्रिया पूर्ण करते हैं जिसमें इस अवशोषित सौर ऊर्जा का 1-5 प्रतिशत भाग ही रासायनिक ऊर्जा में परिवर्तित होता है। शेष प्रकाश को पत्तियाँ परावर्तित कर देती हैं।
प्रकाश-संश्लेषण से प्राप्त रासायनिक ऊर्जा में कार्बनिक पदार्थों (उदाहरणार्थ-स्टॉर्च, चीनी अथवा शर्करा, सेलुलोस, तेल, प्रोटीन आदि) के रूप में एकत्र होकर उनके भार में वृद्धि करती है। ऊर्जा का कुछ भाग श्वसन तथा अन्य जैव क्रियाओं में खर्च हो जाता है और शेष ऊष्मा के रूप में नष्ट हो जाता है।
पौधों द्वारा संश्लेषित इस ऊर्जा को उपभोक्ता भोजन के रूप में ग्रहण करते हैं तथा कार्बनिक पदार्थों का थोड़ा बहुत अंश वे अपने शरीर में संचित कर पाते हैं। शेष ऊर्जा ऊष्मा तथा ताप के रूप में वापस वायुमण्डल में चली जाती है। इस प्रकार ऊर्जा का प्रवाह चक्रीकृत न होकर एक ही दिशा में होता है। यह ऊर्जा विभित्र पोषण स्तरों पर संचारित होती रहती है। प्रत्येक पोषण स्तर पर लगभग 90 प्रतिशत ऊर्जा नष्ट हो जाती है और केवल 10 प्रतिशत ऊर्जा ही उपयोग से आ जाती है। ऊर्जा की इस प्रकार से हानि ही विभिन्न पारितन्त्रों की भोजन की (आहार) श्रृंखला की उपस्थिति पोषण-स्तरों की संख्या को सीमित कर देती है।
प्रश्न 3. पारितन्त्र किसे कहते है? इसके विभिन्न घटकों का वर्णन कीजिए।
अथवा पारितन्त्र क्या है? पारितन्त्र शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम किसने किया था?
उत्तर- पारिस्थितिक तन्त्र (Ecosystem)- किसी स्थान पर पाथी जाने वाली विभिन्न जीव-जातियों की आबादी मिलकर वीय समुदाय बनाती है। ये सभी जीवधारी परस्पर एक-दूसरे को प्रभावित करते हैं। ये वातावरण से विभिन्न तत्त्वों तथा ऊर्जा का लेन-देन करते हैं और प्रतिक्रिया करते हैं। जैवीय समुदायों के जीवों की संरचना, कार्य एवं उनके वातावरण से पारस्परिक सम्बन्ध को पारितन्त्र कहते हैं। पारितना शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम टैन्सले (Tansley, 1935) ने किया था।
पारितन्त्र सीमित एवं निक्षित भौतिक वातावरण का प्राकृतिक तन्त्र है जिसमें जैवीय तथा अजैवीय घटकों में पारस्परिक सम्बन्ध एक निशित नियमानुसार गतिज सन्तुलन में रहता है। भारत में पान तथा ऊर्जा का प्रवाह सुनियोजित प्रकार से होता रहता है। इस प्रकार रचना तथा कार्य की दृष्टि से समुदाय एवं वातावरण एक तन्त्र की तरह कार्य करते हैं। तालाब, चरागाह, वन, जलजीवशाला आदि पारितत्व के उदाहरण है। पृथ्वी स्वयं एक विशाल पारितन्व है। एक आत्मनिर्भर पारितन्य के लिए निम्नलिखित का होना आवश्यक है-
(i) ऊर्जा का स्रोत जिसका उपयोग जैवीय घटक करने में समक्ष हों।
(ii) पर्याप्त मात्रा में पोषक पदार्थों की पूर्ति तथा इन पदार्थों को जीवित तथा अजीवित वातावरण में सन्तुलित बनाये रखने की क्रिया-विधि अर्थात् विभित्र पदार्थों का चक्रीय प्रवाह।
पारितन्त्र के संरचनात्मक घटक (Structural Components of Ecosystem)- पारितन्त्र में दो मुख्य घटक होते हैं-1. जैवीय घटक, तथा 2. अजैवीय घटक।
- जैवीय घटक (Biotic Components)- इसके अन्तर्गत उत्पादक, उपभोक्ता तथा अपघटक आते हैं। पारितन्त्र के सभी जैवीय घटक पारस्परिक भोजन सम्बन्धों के अनुसार सन्तुलित बने रहते हैं। जैवीय घटक निम्न तीन प्रकार के होते हैं-
(क) उत्पादक (Producers)- इनके अन्तर्गत हरे पौधे आते हैं। पौधे जल तथा कार्बन डाइऑक्साइड से पर्णहरिम तया प्रकाश की उपस्थिति में प्रकाश-संश्लेषण क्रिया द्वारा कार्बनिक भोजन का निर्माण करते हैं। प्रकाश- संश्लेषण क्रिया में प्रकाश ऊर्जा कार्बनिक भोज्य पदार्थों में रासायनिक ऊर्जा के रूप में संचित हो जाती है। हरे पौधे उत्पादक कहलाते हैं।
जन्तु हरे पौधों द्वारा बनाये गये भोजन पर प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से आश्रित होते हैं अर्थात् पौधे समुदाय के समस्त जीवों के लिए खाद्य पदार्थों का निर्माण करते हैं।
(ख) उपभोक्ता (Consumers)- समस्त जीवधारी जो प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से भोजन के लिए हरे पौधों पर निर्भर होते हैं, उपभोक्ता कहलाते है। सभी जन्तु उपभोक्ता की श्रेणी में आते हैं। उपभोक्ता निम्न प्रकार के होते हैं-
(i) प्राथमिक उपभोक्ता (Primary Consumers)- इसके अन्तर्गत शाकाहारी जन्तु आते हैं। ये अपना भोजन सीधे पौधों से प्राप्त करते हैं, जैसे-कीड़े-मकोड़े, खरगोश, बकरी, गाय, हिरन आदि।
(ii) द्वितीयक उपभोक्ता (Secondary Consumers)- प्राथमिक उपभोक्ता अर्थात् शाकाहारी जन्तुओं से भोजन प्राप्त करने वाले मांसाहारी जन्तु द्वितीयक उपभोक्ता कहलाते हैं, जैसे-मेंढक, बिल्ली, भेड़िया आदि।
(iii) तृतीयक उपभोक्ता (Tertiary Consumers)- द्वितीयक उपभोक्ताओं से भोजन प्राप्त करने वाले मांसाहारी जन्तु तृतीयक उपभोक्ता कहलाते हैं, जैसे साँप, मोर, शेर, चीता आदि।
तृतीयक श्रेणी के उपभोक्ता जो सभी शाकाहारी तथा मांसाहारी जन्तुओं से भोजन प्राप्त कर सकते हैं लेकिन उनको मारकर अन्य जन्तु भोजन ग्रहण नहीं करते, सर्वोच्च मांसाहारी (top carnivores) कहलाते हैं जैसे-मोर, शेर, चीता आदि। ऐसे जन्तु जो अपना भोजन किसी भी पोषक स्तर से प्राप्त कर सकते हैं, सर्वाहारी (omnivores) कहलाते हैं-जैसे मनुष्य।
(ग) अपघटक (Decomposers)- इसके अन्तर्गत ऐसे सूक्ष्मजीव आते हैं जो उत्पादक एवं उपभोक्ताओं के उत्सर्जी पदार्थों और उनके मृत शरीर का अपघटन कर देते हैं। इस प्रक्रिया के फलस्वरूप जटिल कार्बनिक पदार्थ सरल तत्थों में बदल जाते हैं। ये सरल तत्व पुनः जीवधारियों द्वारा प्रमुक्त कर लिए जाते हैं। अपघटन करने वाले सूक्ष्मजीवों को अपघटक कहते हैं। अपघटक के अन्तर्गत मृत्तोपजीबी कवक तथा जीवाणु आते हैं। अपघटकों को प्राकृतिक सफाईकर्ता भी कहते हैं।
- अजैवीय घटक (Abiotic Components)-ओडम (Odum. 1971) के अनुसार अत्रैवीय घटकों को निम्न तीन समूहों में विभाजित किया जाता है-
(i) जलवायवीय कारक (Climatic Factors)-जैसे-जल, प्रकाश, ताप आदि। सूर्य से प्राप्त होने वाली सौर ऊर्जा प्रकाश ऊर्जा के रूप में पृथ्वी तक पहुँचती है। ऊर्जा नष्ट नहीं होती, इसका स्वरूप बदलता रहता है। प्रकाश ऊर्जा प्रकाश-संश्लेषण प्रक्रिया में रासायनिक ऊर्जा में बदलकर कार्बनिक पदार्थों में संचित हो जाती है। श्वसन प्रक्रिया में भोज्य पदार्थों में संचित रासायनिक ऊर्जा गतिज ऊर्जा तथा ताप में बदल जाती है। गतिज ऊर्जा के द्वारा जैविक क्रियाओं का संचालन होता है।
(ii) अकार्बनिक पदार्थ (Inorganic Compounds)-जैसे ऑक्सीजन, नाइट्रोजन, कार्बन डाइऑक्साइड, हाइड्रोजन, खनिज लवण आदि।
(iii) कार्बनिक पदार्थ (Organic Compounds)- जैसे-प्रोटीन्स, वसा, कार्बोहाइड्रेट आदि।
पारितन्त्र (ecosystem) में जैव समुदाय और अजैव वातावरण के मध्य पदार्थों का निरन्तर निर्माण और विनिमय होता रहता है। जीवधारी वायुमण्डल से निरन्तर अर्जव पदार्थों को ग्रहण करके कार्बनिक पदार्थों का निर्माण करते हैं। ये जीवधारियों की वृद्धि और विकास के लिए आवश्यक होते हैं। जीवधारियों की मृत्यु के पश्चात कार्बनिक पदार्थों का विघटन सरल अकार्बनिक पदार्थों में हो जाता है जिससे ये पदार्थ पुनः मृदा या वायुमण्डल में मिल जाते हैं। इस प्रकार पदार्थों का पारितन्त्र में चक्रीकरण होता रहता है।
प्रश्न 4. खाद्य श्रृंखला से आप क्या समझते हैं? उत्पादक, उपभोक्ता एवं अपघटनकर्ता में क्या सम्बन्ध है? यह खाद्य जाल से किस प्रकार भिन्न हैं? उदाहरण सहित लिखिए।
अथवा आहार श्रृंखला तथा खाद्य जाल में अन्तर लिखिए। अथवा खाद्य श्रृंखला से आप क्या समझते हैं ? पोषण पर आधारित एक खाद्य श्रृंखला (घास के मैदान) को रेखाचित्र द्वारा स्पष्ट कीजिए। इसमें ऊर्जा का प्रवाह किस ओर होता है?
उत्तर- खाद्य श्रृंखला (Food Chain)- किसी पारितन्व में खाद्य श्रृंखला विभिन्न प्रकार के जीवधारियों का यह क्रम है जिसमें जीवधारी भोज्य एवं भक्षक के रूप में सम्बन्धित रहते हैं। खाद्य श्रृंखला के जीवों में खाद्य ऊर्जा का प्रवाह एक दिशा में होता रहता है।
प्रत्येक खाद्य श्रृंखला में उत्पादक तथा उपभोक्ता होते हैं।
प्राथमिक उत्पादक (हरे पौधे) प्रथम, द्वितीय व तृतीय श्रेणी के उपभोक्ता एवं अपघटनकर्ता (जीवाणु, कवक आदि) आपस में मिलकर खाद्य श्रृंखला बनाते हैं। खाद्य श्रृंखला में ऊर्जा एवं विभिन्न पदार्थ-उत्पादक, उपभोक्ता, अपघटनकर्ता द्वारा अजैव जगत में प्रवेश करते हैं और चक्रीकरण द्वारा पुनः जैव जगत में प्रवेश कर जाते हैं।
घास-स्थलीय पारितन्त्र (grassland ecosystem) की खाद्य श्रृंखला में घास (उत्पादक), कीड़े-मकोड़े (प्राथमिक उपभोक्ता), मेंढक (द्वितीयक उपभोक्ता), साँप (तृतीयक उपभोक्ता) तथा मोर या बाज (सर्वोच्च उपभोक्ता) क्रमानुसार आते हैं। खाद्य श्रृंखला के प्रत्येक स्तर को पोषक स्तर ऊर्जा स्तर कहते हैं। प्रत्येक पोषक स्तर लगभग 90% ऊर्जा जैविक क्रियाओं में खर्च हो जाती है, केवल 10% ऊर्जा ही अगले पोषक स्तर पर पहुँचती है। इस प्रकार हर पोषक स्तर पर ऊर्जा कम होती जाती है।
खाद्य श्रृंखला और खाद्य जाल में अन्तर
खाद्य श्रृंखला (Food Chain) |
खाद्य जाल (Food Web) |
1. पारितन्त्र के जीवधारियों का वह क्रम जिसमें भोज्य पदार्थों तथा ऊर्जा का प्रवाह होता है, खाद्य श्रृंखला कहलाता है। | 1. पारितन्त्र की विभिन्न खाद्य श्रृंखलायें परस्पर मिलकर खाद्य जाल (food web) बनाती हैं। |
2. खाद्य श्रृंखला में एक जीव केवल एक ही प्रकार के किसी अन्य जीव का उपयोग भोजन के रूप में करता है। | 2. खाद्य जाल में एक जीव अनेक प्रकार के जीवों का उपयोग भोजन के रूप में करता है। |
3. खाद्य श्रृंखला में ऊर्जा का प्रवाह एकदिशीय (unidirectional) होता है। | 3. खाद्य जाल में ऊर्जा का प्रवाह एक दिशा में होते हुए भी अनेक रास्तों (multi-direction) से होकर गुजरता है। |
4. खाद्य श्रृंखलायें सरल होती हैं। | 4. खाद्य जाल जटिल होता है। |
प्रश्न 5. नगरपालिका के ठोस अपशिष्ट प्रबन्धन पर लेख लिखिए।
उत्तर- नगरपालिका (स्थानीय निकाय) का ठोस अपशिष्ट प्रबन्धन- घरों, कार्यालयों, विद्यालयों, अस्पतालों, उद्योगों तथा सड़क आदि की सफाई के कारण उत्पन्न कचरा नगरपालिका कर्मचारियों द्वारा संग्रहीत किया जाता है। सामान्यतः नगरपालिका कर्मचारी इस कचरे को एकत्र करके आबादी से दूर खुले स्थानों पर ढेर लगा देते हैं। इस प्रकार लगाया गया कचरे का ढेर रोगाणुओं के पनपने का स्थान बन जाता है। यह स्थान मक्खियों और चूहों के लिए प्रजनन-स्थल का कार्य करता है। इस प्रकार यह युक्ति सामुदायिक स्वास्थ्य के दृष्टिकोण से हानिकारक है।
कुछ स्थानों पर कूड़े को जला दिया जाता है, जलाने से अपशिष्ट की मात्रा तो कम हो जाती है, लेकिन यह वायु प्रदूषण का एक प्रमुख स्रोत बन जाता है। अपशिष्ट पदार्थों को जलाने से मुक्त होने वाली विषाक्त गैसें स्वास्थ्य के लिए हानिकारक तो होती ही हैं, इसके साथ ही वातावरण में ऑक्सीजन की मात्रा भी कम हो जाती है।
महानगरों में कूड़े-कचरे के निपटारे के लिए सैनिटरी लैंडफिल्स (Sanitary landfills) तकनीक उपयोग की जाती है। इसमें बड़े-बड़े गड्ढों में ठोस अपशिष्टों को डाला जाता है, इसके आयतन को कम करने के लिए समय-समय पर इस पर बुलडोजर चलाया जाता है और नियमित अन्तराल पर कूड़े-करकट को मिट्टी से ढकते रहते हैं। सैनिटरी लैंडफिल्स में कार्बनिक पदार्थों का अवायवीय अपघटन होता रहता है। इस विधि से मक्खियों, चूहों, पक्षियों का अतिक्रमण भी नियन्त्रित रहता है।
अनेक उद्योगों और ताप विद्युत गृहों में कोयले के दहन से अपशिष्ट के रूप में फ्लाई ऐश (fly ash) प्राप्त होती है। इसका उपयोग ईंट, टाइल्स तथा सीमेन्ट उद्योगों में किया जाता है। इसका उपयोग लैंडफिल्स के रूप में भी किया जाता है। लैंडफिल्स से विभिन्न रसायनों के रिसाव के कारण भूजल संसाधनों के प्रदूषित होने का खतरा बना रहता है।
पर्यावरण संरक्षण की दृष्टि से कूड़े-करकट को तीन श्रेणियों में वर्गीकृत किया जाना चाहिए-
(क) जैव निम्नीकरणीय योग्य कचरा – इसका उपयोग ह्यूमस (खाद) बनाने में किया जाना चाहिए।
(ख) पुनःचक्रण योग्य कचरा- इसका पुनःचक्रण करके इसे उपयोगी वस्तुओं में बदला जा सकता है।
(ग) जैव निम्नीकरण अयोग्य कचरा- इसका निपटारा लैंडफिल्स विधि से किया जा सकता है। पर्यावरण संरक्षण के लिए यह आवश्यक है कि जैव निम्नीकरण अयोग्य कचरा कम-से-कम उत्पादित हो। प्लास्टिक, पॉलिथीन पैकिंग आदि का बहिष्कार किया जाना चाहिए। पर्यावरण हितैषी (ecofriendly) पैकिंग का ही प्रयोग किया जाना चाहिए।
प्रश्न 6. ग्रीन-हाउस प्रभाव से क्या तात्पर्य है? इसके कारणों एवं प्रभाव का उल्लेख कीजिए।
उत्तर- ग्रीन-हाउस प्रभाव (Green House Effect)- सूर्य की ऊष्मा से पृथ्वी गर्म हो जाती है पृथ्वी के ठण्डा होते समय ऊष्मा पृथ्वी के बाहर विसरित हो जाती है। कुछ ग्रीन हाउस गैसें, जैसे कार्बन डाइऑक्साइड, क्लोरोफ्लुओरोकार्बन्स, नाइट्रिक ऑक्साइड, मेथेन, क्लोरो ऑक्साइड आदि इस ऊष्मा का कुछ भाग अवशोषित कर लेती हैं और शेष को वातावरण में वापस कर देती हैं। इन ऊष्मारोधी गैसों के कारण वायुमण्डल ताप बढ़ जाता है, ताप बढ़ने की प्रक्रिया को ही ग्रीन हाउस प्रभाव कहते हैं। प्रकाश- संश्लेषण की क्रिया ग्रीन हाउस प्रभाव को कम करती है जबकि वनों के विनाश के कारण ग्रीन हाउस प्रभाव की मात्रा बढ़ जाती है।
नासा (NASA – नेशनल एरोनॉटिक्स एण्ड स्पेस एडमिनिस्ट्रेशन) के जेम्स हैनसन ने 1958 से 1990 तक के CO, की सान्द्रता एवं तापमान 2 रिकॉर्ड का विश्लेषण किया और पाया कि इस अवधि में औसतन तापमान में 0.5 से 0.7°C की वृद्धि हुई थी।
ग्रीन हाउस प्रभाव के कारण-
- औद्योगीकरण- जीवाश्म ईंधन (कोयला, पेट्रोलियम आदि) के उपयोग से वायुमण्डल में CO, की मात्रा में तेजी से वृद्धि हो रही है। वातावरण के तापमान में वृद्धि हो रही है।
- वन अपरोपण या वनोन्मूलन – यदि वनों के उपयोग (दुरुपयोग) की गति यही बनी रही तो शताब्दी के अन्त में कुल भूमि के 5% भूभाग पर ही वन रह जायेंगे और वर्तमान जीव-जातियों में से 20% विलुप्त हो जायेंगी। वनों के नष्ट होने से प्रतिवर्ष लगभग दो अरब टन अतिरिक्त CO, वायुमण्डल में पहुँचने से ग्रीन-हाउस प्रभाव बढ़ा है।
- क्लोरोफ्लुओरोकार्बन्स का प्रयोग- फ्रेऑन (जिससे क्लोरो- फ्लुओरोकार्बन्स मुक्त होती है) का प्रयोग रेफ्रिजरेटरों, एयरकण्डीशनरों, फोम तथा ऐरोसॉल स्प्रे के निर्माण में किया जाता है। क्लोरोफ्लुओरोकार्बन्स ओजोन परत को क्षति पहुँचाकर ग्रीन- हाउस प्रभाव में वृद्धि करता है।
कार्बन डाइऑक्साइड (CO₂), नाइट्रस ऑक्साइड (N₂O), मेथेन (CH4), क्लोरोफ्लुओरोकार्बन्स (CFCs), हैलोन्स (हैलोकार्बन्स) आदि ग्रीन- हाउस प्रभाव उत्पन्न करने वाली गैसें हैं।
दुष्प्रभाव या दुष्परिणाम- ग्रीन हाउस प्रभाव के कारण वायुमण्डल में लगभग 36 लाख टन CO₂ की वृद्धि हो चुकी है और वायुमण्डल की O2 की मात्रा में लगभग 24 लाख टन की कमी आ गयी है। पृथ्वी के तापमान में लगभग 1°C की वृद्धि हो चुकी है, अगर यही स्थिति बनी रहती है तो 2050 तक तापमान में 4°C की वृद्धि हो जायेगी, इसके फलस्वरूप विशाल हिमखण्ड पिघल जायेंगे जिससे समुद्र में जलस्तर बढ़ जायेगा और अनेक तटवर्तीय क्षेत्र जलमग्न हो जायेंगे। ग्रीन हाउस प्रभाव से पृथ्वी के तापमान में अत्यधिक वृद्धि होगी, मौसम बदल जायेगा, कहीं सूखा, कहीं बाढ़ और कही भीषण तूफान आयेंगे। इसके अतिरिक्त ग्रीन हाउस प्रभाव के कारण फसलें प्रभावित होंगी, जीवधारियों में शारीरिक विकार उत्पन्न होंगे।