हिंदी वर्तनी के महत्त्वपूर्ण नियम – Hindi Vartani ke Niyam – Shabd Shuddhikaran – शुद्ध और अशुद्ध शब्द
हिंदी वर्तनी के महत्त्वपूर्ण नियम – Hindi Vartani ke Niyam – Shabd Shuddhikaran
हिंदी वर्तनी के महत्त्वपूर्ण नियम
लिखने की रीति को ‘वर्तनी’ या ‘अक्षरी’ कहते हैं। यह ‘हिज्जे’ (spelling) भी कहलाती है। किसी भी भाषा की समस्त ध्वनियों को सही ढंग से उच्चरित करने के लिए ही वर्तनी की एकरूपता स्थिर की जाती है। जिस भाषा की वर्तनी में अपनी भाषा के साथ अन्य भाषाओं की ध्वनियों को ग्रहण करने की जितनी अधिक शक्ति होगी, उस भाषा की वर्तनी उतनी ही समर्थ समझी जाएगी। अतः, वर्तनी का सीधा संबंध भाषागत ध्वनियों के उच्चारण से है।
भारत सरकार के शिक्षा मंत्रालय की ‘वर्तनी समिति’ ने १९६२ में जो उपयोगी और सर्वमान्य निर्णय किए, वे निम्नलिखित हैं-
१. हिंदी के विभक्ति – चिह्न, सर्वनामों को छोड़ शेष सभी प्रसंगों में, शब्दों से अलग लिखे जाएँ; जैसे— राम ने कहा, स्त्री को; सर्वनाम में – उसने, मुझमें, हममें, तुमसे, किसपर, आपको ।
अपवाद – (क) यदि सर्वनाम के साथ दो विभक्तिचिह्न हों, तो उनमें पहला सर्वनाम से मिला हुआ हो और दूसरा अलग लिखा जाए; जैसे—उसके लिए, इनमें से । (ख) सर्वनाम और उसकी विभक्ति के बीच ‘ही’, ‘तक’ आदि अव्यय का निपात हो, तो विभक्ति अलग लिखी जाए; जैसे- आप ही के लिए, मुझ तक को ।
२. संयुक्त क्रियाओं में सभी अंगभूत क्रियाएँ अलग रखी जाए; जैसे— पढ़ा करता है; आ सकता है।
३. ‘तक’, ‘साथ’ आदि अव्यय अलग लिखे जाए; जैसे- आपके साथ, यहाँ तक ।
४. पूर्वकालिक प्रत्यय ‘कर’ क्रिया से मिलाकर लिखा जाए; जैसे— मिलाकर, रोकर, खाकर, सोकर ।
५. द्वंद्वसमास में पदों के बीच हाइफन (- योजकचिह्न) लगाया जाए; जैसे— राम-लक्ष्मण, शिव-पार्वती आदि ।
६. ‘सा’, ‘जैसा’ आदि सारूप्यवाचकों के पूर्व हाइफन का प्रयोग किया जाना चाहिए; जैसे – तुम-सा, राम- जैसा, चाकू से तीखे ।
७. तत्पुरुषसमास में हाइफन का प्रयोग केवल वहीं किया जाए, जहाँ उसके बिना भ्रम होने की संभावना हो, अन्यथा नहीं; जैसे- भू-तत्त्व ।
८. अब, प्रश्न उठता है कि ‘ये’ और ‘ए’ का प्रयोग कहाँ होना चाहिए। यह प्रश्न न केवल विद्यार्थियों को, बल्कि बड़े-बड़े विद्वानों को भी भ्रम में डालता है। जहाँ तक उच्चारण का प्रश्न है, दोनों के उच्चारण-भेद इस प्रकार हैं ये = य् + ए, श्रुतिरूप; तालव्य अर्द्धस्वर (अंतः स्थ) + ए; ए अग्र अर्द्धसंवृत दीर्घ स्वर ।
‘ये’ और ‘ए’ का प्रयोग अव्यय, क्रिया तथा शब्दों के बहुवचन बनाने में होता है। ये प्रयोग क्रियाओं के भूतकालिक रूपों में होते हैं। लोग इन्हें कई तरह से लिखते हैं; जैसे—आई-आयी, आए-आये, गई गयी, गए-गये, हुवा हुए हुवे इत्यादि । एक ही क्रिया की दो अक्षरी आज भी चल रही है। इस संबंध में कुछ आवश्यक नियम बनने चाहिए । कुछ नियम इस प्रकार स्थिर किए जा सकते हैं-
(क) जिस क्रिया के भूतकालिक पुंलिंग एकवचन रूप में ‘या’ अंत में आता है, उसके बहुवचन का रूप ‘ये’ और तद्नुसार एकवचन स्त्रीलिंग में ‘यी’ और बहुवचन में ‘यीं’ का प्रयोग होना चाहिए। उदाहरण के लिए, ‘गया-आया’ का स्त्रीलिंग में ‘गयी आयी’ होगा, ‘गई’ और ‘आई’ नहीं। इसी प्रकार, बहुवचन के रूप ‘गये आये’ होंगे, ‘गए आए’ नहीं। इसी रीति से अन्य क्रियाओं के रूपों का निर्धारण करना चाहिए।
(ख) जिस क्रिया के भूतकालिक पुंलिंग एकवचन के अंत में ‘आ’ आता है उसके पुंलिंग बहुवचन में ‘ए’ होगा और स्त्रीलिंग एकवचन में ‘ई’ तथा बहुवचन में ‘ईं’। ‘हुआ’ का स्त्रीलिंग एकवचन ‘हुई’, बहुवचन ‘हुईं’, और पुंलिंग बहुवचन ‘हुए’ होगा; ‘हुये हुवे’, ‘हुयी-हुये’ आदि नहीं ।
(ग) दे, ले, पी, कर— इन चार धातुओं को ह्रस्व इकार कर, फिर दीर्घ करने पर और ‘इए’ प्रत्यय लगाने पर उनकी विधि क्रियाएँ इस प्रकार बनती हैं?
- दे (दि) + ज् + इए = दीजिए
- ले (लि) + ज् + इए = लीजिए
- पी + ज् + इए = पीजिए
- कर (कि) + ज् + इए = कीजिए
(घ) अव्यय को पृथक् रखने के लिए ‘ए’ का प्रयोग होना चाहिए; जैसे— इसलिए, चाहिए। संप्रदान-विभक्ति के लिए’ में भी ‘ए’ का व्यवहार होना चाहिए; जैसे—राम के लिए आम लाओ।
(ङ) विशेषण शब्द का अंत जैसा हो, वैसा ही ‘ये’ या ‘ए’ का प्रयोग होना चाहिए; जैसे- ‘नया’ है, तो बहुवचन में ‘नए’ और स्त्रीलिंग में नयी; ‘जाता हुआ’ आदि है तो बहुवचन में ‘जाते हुए’ और स्त्रीलिंग में ‘जाती हुई’।
इन नियमों से यह निष्कर्ष निकलता है कि भूतकालिक क्रियाओं में ‘ये’ का और अव्ययों में ‘ए’ का प्रयोग होता है। विशेषण का रूप अंतिम वर्ण के अनुरूप ‘ये’ या ‘ए’ होना चाहिए। अच्छा यह होता कि दोनों के लिए कोई एक सामान्य नियम बनता। भारत सरकार की वर्तनी समिति ‘ए’ के प्रयोग का समर्थन करती है।
९. संस्कृतमूलक तत्सम शब्दों की वर्तनी में सामान्यतः संस्कृतवाला रूप ही रखा जाए। परंतु, जिन शब्दों के प्रयोग में हिंदी में हलंत का चिह्न लुप्त हो चुका है, उनमें हलंत लगाने की कोशिश न की जाए; जैसे—महान, विद्वान, जगत। किंतु संधि या छंद समझाने की स्थिति हो, तो इन्हें हलंतरूप में ही रखना होगा; जैसे— जगत् + नाथ।
१०. जहाँ वर्गों के पंचमाक्षर के बाद उसी के वर्ग के शेष चार वर्णों में से कोई वर्ण हो वहाँ अनुस्वार का ही प्रयोग किया जाए; जैसे― वंदना, नंद, नंदन, अंत, गंगा, संपादक आदि ।
११. नहीं, मैं, हैं, में इत्यादि के ऊपर लगी मात्राओं को छोड़कर शेष आवश्यक स्थानों पर चंद्रबिंदु का प्रयोग करना चाहिए, नहीं तो हंस और हँस तथा अँगना और अंगना का अर्थभेद स्पष्ट नहीं होगा।
१२. अरबी-फारसी के वे शब्द जो हिंदी के अंग बन चुके हैं और जिनकी विदेशी ध्वनियों का हिंदी ध्वनियों में रूपांतर हो चुका है, उन्हें हिंदी रूप में ही स्वीकार किया जाए; जैसे—जरूर, कागज आदि । किंतु, जहाँ उनका शुद्ध विदेशी रूप में प्रयोग अभीष्ट हो, वहाँ उनके हिंदी में प्रचलित रूपों में यथास्थान ‘नुक्ते’ लगाए जाएँ, ताकि उनका विदेशीपन स्पष्ट रहे; जैसे— राज़, नाज़ ।
१३. अँगरेजी के जिन शब्दों में अर्द्ध ‘ओ’ ध्वनि का प्रयोग होता है, उनके शुद्ध रूप का हिंदी में प्रयोग अभीष्ट होने पर ‘आ’ की मात्रा पर अर्द्धचंद्र का प्रयोग किया जाए; जैसे- डॉक्टर, कॉलेज, हॉस्पिटल |
१४. संस्कृत के जिन शब्दों में विसर्ग का प्रयोग होता है, वे यदि तत्सम रूप में प्रयुक्त हों तो विसर्ग का प्रयोग अवश्य किया जाए; जैसे- स्वांतः सुखाय, दुःख । परंतु, यदि उस शब्द के तद्भव में विसर्ग का लोप हो चुका हो, तो उस रूप में विसर्ग के बिना भी काम चल जाएगा; जैसे – दुख-सुख ।
१५. हिंदी में ‘ऐ’ ( ) और ‘औ’ ( ) का प्रयोग दो प्रकार की ध्वनियों को व्यक्त करने के लिए होता है। पहले प्रकार की ध्वनियाँ ‘है’, ‘और’ आदि में हैं तथा दूसरे प्रकार की ‘गवैया’, ‘कौआ’ आदि में इन दोनों ही प्रकार की ध्वनियों को व्यक्त करने के लिए इन्हीं चिह्नों (ऐ, ै; औ, 1) का प्रयोग किया जाए। गवय्या, कव्वा आदि संशोधनों की व्यवस्था ठीक नहीं है।
वर्तनी की विशेष अशुद्धियाँ और उनके निदान एवं उपचार
हमारी देवनागरी लिपि संसार की अन्य लिपियों से अधिक वैज्ञानिक मानी गई है; क्योंकि इसमें सभी ध्वनियों को व्यक्त करने की क्षमता तो है ही, साथ ही एक ध्वनि को व्यक्त करने के लिए एक ही लिपि चिह्न है। फिर भी, विद्यार्थी प्रायः वर्तनी-संबंधी अशुद्धियाँ किया करते हैं। इनमें विशेष अशुद्धियाँ निम्नलिखित हैं-
‘ण’ और ‘न’ की अशुद्धियाँ – ‘ण’ और ‘न’ के प्रयोग में सावधानी बरतने की आवश्यकता है। ‘ण’ अधिकतर संस्कृत शब्दों में आता है। जिन तत्सम शब्दों में ‘ण’ होता है, उनके तद्भव रूप में ‘ण’ के स्थान पर ‘न’ प्रयुक्त होता है; जैसे-रण-रन, फण-फन, कण-कन, विष्णु – बिसुन । खड़ीबोली की प्रकृति ‘न’ के पक्ष में है। खड़ीबोली में ‘ण’ और ‘न’ का प्रयोग संस्कृत नियमों के आधार पर होता है। पंजाबी और राजस्थानी भाषा में ‘ण’ ही बोला जाता है। ‘न’ का प्रयोग करते समय निम्नांकित नियमों को ध्यान में रखना चाहिए-
(क) संस्कृत की जिन धातुओं में ‘ण’ होता है, उनसे बने शब्दों में भी ‘ण’ रहता है; जैसे- क्षण, प्रण, वरुण, निपुण, गण, गुण ।
(ख) किसी एक ही पद में यदि ॠ, र्, और ष् के बाद ‘न्’ हो तो ‘न्’ के स्थान पर ‘ण्’ हो जाता है, भले ही इनके बीच कोई स्वर, य्, व्, ह्, कवर्ग, पवर्ग का वर्ण तथ अनुस्वार आया हो; जैसे—ऋण, कृष्ण, विष्णु, भूषण, उष्ण, रामायण, श्रवण इत्यादि ।
किंतु, यदि इनसे कोई भिन्न वर्ण आए, तो ‘न’ का ‘ण’ नहीं होता; जैसे – अर्चना, मूर्च्छना, रचना, प्रार्थना ।
(ग) कुछ तत्सम शब्दों में स्वभावतः ‘ण’ होता है; जैसे—कण, कोण, गुण, गण, गणिका, चाणक्य, मणि, माणिक्य, बाण, वाणी, वणिक, वीणा, वेणु, वेणी, लवण, क्षण, क्षीण इत्यादि ।
‘छ’ और ‘क्ष’ की अशुद्धियाँ – ‘छ’ यदि एक स्वतंत्र व्यंजन है, तो ‘क्ष’ संयुक्त व्यंजन | यह क् और ष् के मेल से बना है। ‘क्ष’ संस्कृत में अधिक प्रयुक्त होता है; जैसे- शिक्षा, दीक्षा, समीक्षा, प्रतीक्षा, परीक्षा, क्षत्रिय, निरीक्षक, अधीक्षक, साक्षी, क्षमा, क्षण, अक्षय, तीक्ष्ण, क्षेत्र, क्षीण, नक्षत्र, अक्ष, समक्ष, क्षोभ इत्यादि ।
‘ब’ और ‘व’ की अशुद्धियाँ – ‘ब’ और ‘व’ के प्रयोग के बारे में हिंदी में प्रायः अशुद्धियाँ होती हैं। इन अशुद्धियों का कारण है अशुद्ध उच्चारण। शुद्ध उच्चारण के आधार पर ही ‘ब’ और ‘व’ का भेद किया जाता है। ‘ब’ के उच्चारण में दोनों होंठ जुड़ जाते हैं, पर ‘व’ के उच्चारण में निचला होंठ ऊपरवाले दाँतों के अगले हिस्से के निकट चला जाता है और दोनों होंठों का आकार गोल हो जाता है, वे मिलते नहीं हैं। ठेठ हिंदी में ‘ब’ वाले शब्दों की संख्या अधिक है, ‘व’ वालों की कम। ठीक इसका उलटा संस्कृत में है। संस्कृत में ‘व’ वाले शब्दों की अधिकता है। संस्कृत से अनेक शब्द हिंदी ने प्राप्त किए है। संस्कृत के ‘ब’ वाले कुछ शब्द हैं—बंध, बंधु, बर्बर, बलि, बहु, बाधा, बीज, बृहत, ब्रह्म, ब्राह्मण, बुभुक्षा। संस्कृत के ‘व’ वाले प्रमुख शब्द हैं – वहन, वंश, वाक्, वक्र, वंचना, वत्स, वदन, वधू, वचन, वपु, वर्जन, वर्ण, वन्य, व्याज, व्यवहार, वसुधा, वायु, विलास, विजय |
विशेष – संस्कृत में कुछ शब्द ऐसे हैं, जो ‘व’ और ‘ब’ दोनों में लिखे जाते हैं और दोनों शुद्ध माने जाते हैं। पर, हिंदी बोलियों में इस प्रकार के शब्दों में ‘ब’ वाला रूप ही अधिक चलता है।
प्रायः ‘व’ का ‘व’ होने पर या ‘व’ का ‘व’ होने पर अर्थ बदल जाता है; जैसे – वहन – बहन, शव-शब, वार-बार, रव-रब, वली-बली, वाद-बाद, वात-बात ।
‘श’, ‘ष’ और ‘स’ की अशुद्धियाँ – ‘श’, ‘ष’ और ‘स’ भिन्न-भिन्न अक्षर हैं। इन तीनों की उच्चारण-प्रक्रिया भी अलग-अलग है। उच्चारण-दोष के कारण ही वर्तनी – संबंधी अशुद्धियाँ होती हैं। इनके उच्चारण में निम्नांकित बातों की सावधानी रखी जाए-
(क) ‘ष’ केवल संस्कृत शब्द में आता है; जैसे—कषा, संतोष, भाषा, गवेषणा, द्वेष, मूषक, कषाय, पौष, चषक, पीयूष, पुरुष, शुश्रूषा, भाषा, षट्।
(ख) जिन संस्कृत शब्दों की मूल धातु में ‘ष’ होता है, उनसे बने शब्दों में भी ‘ष’ रहता है, जैसे— ‘शिष्’ धातु से शिष्य, शिष्ट, शेष आदि । (ग) संधि करने में क, ख, ट, ठ, प, फ के पूर्व आया हुआ विसर्ग (:) हमेशा ‘ष’ हो जाता है।
(घ) यदि किसी शब्द में ‘स’ हो और उसके पूर्व ‘अ’ या ‘आ’ के सिवा कोई भिन्न स्वर हो तो ‘स’ के स्थान पर ‘प’ होता है।
(ङ) टवर्ग के पूर्व केवल ‘ष’ आता है; जैसे- षोडश, षडानन, कष्ट, नष्ट।
(च) ॠ के बाद प्रायः ‘ष’ ही आता है, जैसे- ऋषि, कृषि, वृष्टि, तृषा ।
(छ) संस्कृत शब्दों में च, छ के पूर्व ‘श्’ ही आता है, जैसे- निश्चल, निश्छल ।
(ज) जहाँ ‘श’ और ‘स’ एक साथ प्रयुक्त होते हैं, वहाँ ‘श’ पहले आता है; जैसे- शासन, शासक, प्रशंसा, नृशंस।
(झ) जहाँ ‘श’ और ‘ष’ एक साथ आते हैं, वहाँ ‘श’ के पश्चात् ‘ष’ आता है; जैसे- शोषण, शीर्षक, शेष विशेष इत्यादि ।
(ञ) उपसर्ग के रूप में निः वि आदि आने पर मूल शब्द का ‘स’ पूर्ववत् बना रहता है; जैसे- निःसंशय, निस्संदेह, विस्तृत विस्तार।
(ट) यदि तत्सम शब्दों में ‘श’ हो, तो उसके तद्भव में ‘स’ होता है; जैसे- शूली-सूली, शाक-साग, शूकर- सूअर, श्वसुर-ससुर, श्यामल-साँवला।
(ठ) कभी-कभी ‘स्’ के स्थान पर ‘स’ लिखकर और कभी शब्द के आरंभ में ‘सू’ के साथ किसी अक्षर का मेल होने पर अशुद्धियाँ होती हैं जैसे—स्त्री (शुद्ध) -इस्त्री (अशुद्ध), स्नान (शुद्ध) अस्नान (अशुद्ध), परस्पर (शुद्ध) – परसपर (अशुद्ध) |
(ड) कुछ शब्दों के रूप वैकल्पिक होते हैं; जैसे- कोश- कोष, केशर – केसर, कौशल्या कौसल्या, केशरी केसरी, कशा-कषा वशिष्ठ वसिष्ठ। ये दोनों शुद्ध हैं।
इस प्रकार वर्तनी – संबंधी अनेक प्रकार की अशुद्धियाँ होती हैं। नीचे हम इस प्रकार की अशुद्धियों की एक सूची दे रहे हैं जिसके निरंतर अभ्यास से शुद्ध वर्तनी लिखी जा सकती है।
सामान्य अशुद्धियाँ
हिंदी एक अत्यंत सरल भाषा है, किंतु कोई भी भाषा सीखने से आती है। यह बात मन से निकाल देनी चाहिए कि हिंदी सीखने की आवश्यकता नहीं है। निर्दोष और अच्छी हिंदी लिखने-बोलने के लिए यह आवश्यक है कि हम शब्दों और वाक्यों का शुद्ध प्रयोग सीखें। भ्रम और अज्ञान के कारण भाषा में अनेक अशुद्धियाँ होती हैं। कभी-कभी एक छोटी-सी लकीर अथवा बिंदु अर्थ का अनर्थ कर बैठता है। शुद्ध-शुद्ध लिखने के लिए शुद्ध-शुद्ध बोलना भी जरूरी है। हिंदी के हरेक छात्र को बोलते या लिखते समय प्रत्येक वर्ण या अक्षर की ध्वनि अथवा शब्द ध्वनि पर ध्यान देना चाहिए। ऐसी अशुद्धियों की तालिका आगे दी गई है- यहाँ क्लिक करे