UP Board Solution of Class 10 Social Science [सामाजिक विज्ञान] History [इतिहास] Chapter 4 औद्योगीकरण का युग (Audhogikaran ka Yug) लघु उत्तरीय प्रश्न एवं दीर्घ उत्तरीय प्रश्न Notes
प्रिय पाठक! इस पोस्ट के माध्यम से हम आपको कक्षा 10वीं की सामाजिक विज्ञान ईकाई 1 इतिहास भारत और समकालीन विश्व-2 खण्ड-2 जीविका, अर्थव्यवस्था एवं समाज के अंतर्गत चैप्टर 4 औद्योगीकरण का युग पाठ के लघु उत्तरीय प्रश्न एवं दीर्घ उत्तरीय प्रश्न प्रदान कर रहे हैं। जो की UP Board आधारित प्रश्न हैं। आशा करते हैं आपको यह पोस्ट पसंद आई होगी और आप इसे अपने दोस्तों के साथ भी शेयर करेंगे।
Subject | Social Science [Class- 10th] |
Chapter Name | औद्योगीकरण का युग |
Part 3 | इतिहास (History) |
Board Name | UP Board (UPMSP) |
Topic Name | जीविका, अर्थव्यवस्था एवं समाज |
औद्योगीकरण का युग Audhogikaran ka Yug
लघु उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1. विक्टोरियाकालीन ब्रिटेन में हाथ से तैयार माल का क्या महत्त्व था?
उत्तर- विक्टोरियाकालीन ब्रिटेन में मानव श्रम की कोई कमी नहीं थी। अधिकांश उत्पाद केवल हाथ से ही तैयार किए जा सकते थे। मशीनों से एक जैसे तय किस्म के उत्पाद ही बडी संख्या में बनाए जा सकते थे। लेकिन बाजार में अक्सर बारीक डिजाइन और खास आकारों वाली चीजों की अधिक माँग रहती थी; जैसे-ब्रिटेन में 19वीं सदी के मध्य में 500 तरह के हथौड़े और 45 तरह की कुल्हाड़ियाँ बनाई जा रही थीं। इन्हें बनाने के लिए इन्सानी निपुणता की आवश्यकता थी। इस समय ब्रिटेन में उच्च वर्ग के लोग, कुलीन और पूँजीपति वर्ग, हाथों से बनी चीजों को प्राथमिकता देते थे। हाथ से बनी चीजों को परिष्कार और सुरुचि का प्रतीक माना जाता था। उनकी फिनिशिंग अच्छी होती थी। उनको एक-एक करके बनाया जाता था और उनका डिज़ाइन अच्छा होता था। मशीनों से बनने वाले उत्पादों को उपनिवेशों में निर्यात कर दिया जाता था।
प्रश्न 2. 19वीं सदी में भारत के सूती कपड़ा उद्योग की गिरावट के मुख्य कारण क्या थे?
उत्तर- 19वीं सदी में भारत के सूती कपड़ा उद्योग की गिरावट के मुख्य कारण निम्नलिखित थे-
- विदेशी वस्त्र उत्पादों के आयात से बुनकरों का निर्यात बाजार धराशायी हो गया।
- भारतीय बाजारों में मैनचेस्टर निर्मित वस्त्र उत्पादों के बड़े पैमाने पर आयात से इनका स्थानीय बाजार तेजी से सिकुड़ने लगा।
- कम लागत पर मशीनों से बनने वाले कपास उत्पाद इतने सस्ते होते थे कि भारतीय बुनकर उनका मुकाबला नहीं कर सकते थे।
- अमेरिका में गृहयुद्ध प्रारम्भ होने के कारण जब वहाँ से कपास आना बन्द हो गया तो ब्रिटेन भारत से कच्चा माल मँगाने लगा।
भारत से कच्चे कपास के निर्यात में इस वृद्धि से उसकी कीमतें आसमान छूने लगीं। भारतीय बुनकरों को कच्चे माल के लाले पड़ गए। उन्हें अधिक मूल्य पर कच्चा कपास खरीदना पड़ता था। ऐसी दशा में बुनकर कला से परिवार का भरण-पोषण करना कठिन था।
प्रश्न 3. ईस्ट इंडिया कंपनी के नियंत्रण का बुनकरों पर क्या प्रभाव पड़ा?
उत्तर- ईस्ट इंडिया कंपनी ने बुनकरों पर नियंत्रण रखने के लिए गुमाश्तों को नियुक्त किया था। इससे पहले आपूर्ति सौदागर अक्सर बुनकर गाँवों में ही रहते थे और बुनकरों से उनके नजदीकी संबंध होते थे। वे बुनकरों की जरूरतों का ख्याल रखते थे और संकट के समय उनकी मदद करते थे। नए गुमाश्ता बाहर के लोग थे। उनका गाँवों से पुराना सामाजिक संबंध नहीं था। वे दंभपूर्ण • व्यवहार करते थे, सिपाहियों व चपरासियों को लेकर आते थे और माल समय पर तैयार न होने की स्थिति में बुनकरों को सजा देते थे। सजा के तौर पर बुनकरों को अक्सर पीटा जाता था और कोड़े बरसाए जाते थे। इस स्थिति में बुनकर न तो दाम पर मोल-भाव कर सकते थे और न ही किसी और को माल बेच सकते थे। उन्हें कंपनी से जो कीमत मिलती थी वह बहुत कम थी। वे कर्जा की वजह से कंपनी से बँधे हुए थे। कई स्थानों पर कंपनी और उसके अफसरों का विरोध करते हुए गाँव के व्यापारियों के साथ मिलकर बुनकरों ने बगावत कर दी। कुछ समय बाद अधिकांश बुनकरों ने कर्जा लौटाने से मना कर दिया। उन्होंने करघे बंद कर दिए और खेतों में मजदूरी करने लगे।
प्रश्न 4. उद्योगों पर विज्ञापनों का क्या प्रभाव पड़ा?
उत्तर- विज्ञापनों का प्रयोग नए उपभोक्ता पैदा करने के लिए किया जाता है। विज्ञापन विभिन्न उत्पादों को जरूरी और वांछनीय बना लेते हैं। वे लोगो की सोच बदल देते हैं और नयी जरूरतें पैदा कर देते हैं। औद्योगीकरण की शुरुआत से ही विज्ञापनों ने विभिन्न उत्पादों के बाजार को फैलाने में और एक नई उपभोक्ता संस्कृति रचने में अपनी भूमिका निभाई है। जब मैनचेस्टर के उद्योगपतियों ने भारत में कपड़ा बेचना शुरू किया तो वे कपड़े के बंडलों पर लेबल लगाते थे। लेबल का फायदा यह होता था कि खरीददारों को कंपनी का नाम व उत्पादन की जगह के बारे में पता चल जाता था। लेबल ही चीजों की गुणवत्ता का प्रतीक भी था। भारतीय निर्माताओं ने विज्ञापन बनाए तो उनमे राष्ट्रवादी संदेश साफ दिखाई देता था। ये विज्ञापन स्वदेशी के राष्ट्रवादी संदेश के वाहक बन गए थे।
प्रश्न 5. प्रथम विश्वयुद्ध के समय भारत का औद्योगिक उत्पादन क्यों बढ़ा?
उत्तर- प्रथम विश्व युद्ध के समय भारत का औद्योगिक उत्पादन बढ़ा। इसके लिए निम्नलिखित कारण उत्तरदायी थे-
(i) ब्रिटिश कारखाने सेना की जरूरतों को पूरा करने के लिए युद्ध संबंधी उत्पादन में व्यस्त थे। इसलिए भारत में मैनचेस्टर के माल का आयात कम हो गया। भारतीय बाजारों को रातों-रात एक विशाल देशी बाजार मिल गया।
(ii) भारतीय कारखानों में भी फौज के लिए जूट की बोरियाँ, फौजियों के लिए वर्दी के कपड़े, टेंट और चमड़े के जूते, घोड़े व खच्चर की जीन तथा अनेक अन्य सामान बनने लगे।
(iii) नए कारखाने लगाए गए। पुराने कारखाने कई पालियों में चलने लगे। अनेक नये मजदूरों को काम मिल गया। उद्योगपतियों के साथ-साथ मजदूरों को भी फायदा हुआ, उनके वेतन में बढ़ोतरी होने से उनकी कायापलट हो गई।
(iv) प्रथम विश्वयुद्ध में ब्रिटिश सरकार को फँसा देखकर राष्ट्रवादी नेताओं ने भी स्वदेशी चीजों के प्रयोग पर बल देना शुरू कर दिया जिससे भारतीय उद्योगों को और अधिक बढ़ावा मिला।
इस प्रकार प्रथम विश्वयुद्ध के कारण विदेशी उत्पादों को हटाकर स्थानीय उद्योगपतियों ने घरेलू बाजारों पर कब्जा कर लिया और धीरे-धीरे अपनी स्थिति मजबूत बना ली।
प्रश्न 6. आदि-औद्योगीकरण का मतलब बताइए।
उत्तर- औद्योगीकरण का इतिहास प्रारंभिक फैक्ट्रियों की स्थापना से शुरू होता है। इंग्लैंड और यूरोप में फैक्टियों की स्थापना से भी पहले ही अंतर्राष्ट्रीय बाजार के लिए बड़े पैमाने पर औद्योगिक उत्पादन होने लगा था। यह उत्पादन फैक्ट्रियों में नहीं होता था। अधिकांश इतिहासकार औद्योगीकरण के इस चरण को पूर्व-औद्योगीकरण कहते हैं। इस पूर्व-औद्योगीकरण की अवस्था में व्यावसायिक आदान-प्रदान होता था। इस पर सौदागरों का नियंत्रण था और चीजों का उत्पादन कारखानों की बजाय घरों पर होता था। उत्पादन के प्रत्येक चरण में प्रत्येक सौदागर 20-25 मजदूरों से काम करवाता था। इस प्रकार औद्योगीकरण से पहले, फैक्ट्रियों की स्थापना से पहले के उत्पादन कार्य को आदि-औद्योगीकरण कहा जाता था।
दीर्घ उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1. भारतीय वस्त्र व्यापार का वर्णन कीजिए। इस व्यापार को यूरोपीय कंपनियों ने किस प्रकार प्रभावित किया?
उत्तर- मशीनी उद्योगों के युग से पहले अंतर्राष्ट्रीय कपड़ा बाजार में भारत के रेशमी और सूती उत्पादों का ही दबदबा रहता था। अधिकांश देशों में मोटा कपास पैदा होता था लेकिन भारत में पैदा होने वाला कपास महीन किस्म का था। आर्मीनियन और फारसी सौदागर पंजाब से अफगानिस्तान, पूर्वी फारस और मध्य एशिया के रास्ते यहाँ की चीजें लेकर जाते थे। यहाँ के बने महीन कपड़ों के थान ऊँटों की पीठ पर लादकर पश्चिमोत्तर सीमा से पहाड़ी दर्रों और रेगिस्तान के पार ले जाए जाते थे। मुख्य पूर्व औपनिवेशिक बंदरगाहों से फलता-फूलता समुद्री व्यापार चलता था। गुजरात के तट पर स्थित सूरत बंदरगाह के जरिए भारत खाड़ी और लाल सागर के बंदरगाहों से जुड़ा हुआ था। कोरोमंडल तट पर मछलीपट्टनम् और बंगाल में हुगली के माध्यम से भी दक्षिण-पूर्व एशियाई बंदरगाहों के साथ खूब व्यापार चलता था।
निर्यात व्यापार में अधिकांश भारतीय व्यापारी और बैंकर सक्रिय थे। वे उत्पादन में पैसा लगाते थे, चीजों को लेकर जाते थे और निर्यातकों को पहुँचाते थे। माल भेजने वाले आपूर्ति सौदागरों के जरिए बंदरगाह नगर देश के भीतरी इलाकों से जुड़े हुए थे। ये सौदागर बुनकरों को पेशगी देते थे, बुनकरों से तैयार कपड़ा खरीदते थे और उसे बंदरगाहों तक पहुँचाते थे। 1750 तक भारतीय सौदागरों का नियंत्रण कम होने लगा था।
यूरोपीय कंपनियों का प्रभाव – यूरोपीय कंपनियों की ताकत बढ़ती जा रही थी। पहले उन्होंने स्थानीय दरबारों से कई तरह की रियायतें हासिल कीं और उसके बाद उन्होंने व्यापार पर इजारेदारी अधिकार प्राप्त कर लिए। इससे सूरत व हुगली बंदरगाह कमजोर पड़ गए। इन बंदरगाहों में होने वाले निर्यात में कमी आई। पहले जिस कर्जे से व्यापार चलता था वह खत्म होने लगा। धीरे-धीरे स्थानीय बैंकर दिवालिया हो गए। पुराने बंदरगाहों की जगह नए बंदरगाहों का बढ़ता महत्त्व औपनिवेशिक सत्ता की बढ़ती ताकत का संकेत था। नए बंदरगाहों के जरिए होने वाला व्यापार यूरोपीय कंपनियों के नियंत्रण में था और यूरोपीय जहाजों के जरिए होता था। ज्यादातर पुराने व्यापारिक घराने ढह चुके थे। जो बचे रहना चाहते थे उनके पास भी यूरोपीय कंपनियों के नियंत्रण में काम करने के अलावा कोई चारा नहीं था।
प्रश्न 2. भारत में प्रारंभिक उद्योग किसने लगाया? उनके लिए पूँजी कहाँ से आ रही थी?
उत्तर- देश के विभिन्न भागों में तरह-तरह के लोग उद्योग लगा रहे थे। अधिकांश व्यावसायिक समूहों का इतिहास चीन के साथ कई वर्षों से चला आ रहा था। 18वीं सदी के अंत से ही अंग्रेज भारतीय अफीम का निर्यात चीन को करने लगे थे। उसके बदले में वे चीन से चाय खरीदते थे जो इंग्लैंड जाती थी। इस व्यापार में अधिकतर भारतीय कारोबारी सहायक की हैसियत से पहुँच गए थे। वे पैसा उपलब्ध कराते थे, आपूर्ति तय करते थे और माल को जहाजों में लादकर रवाना करते थे। व्यापार में पैसा कमाने के बाद उनमें से कुछ व्यवसायी भारत में औद्योगिक उद्यम स्थापित करना चाहते थे। बंगाल में द्वारकानाथ टैगोर ने चीन के साथ व्यापार में पैसा कमाया और वे उद्योगों में निवेश करने लगे। उन्होंने 1830-40 के दशकों में 6 संयुक्त उद्यम कंपनियाँ लगा ली थीं। बंबई में डिनशॉ पेटिट और आगे चलकर देश में विशाल औद्योगिक साम्राज्य स्थापित करने वाले जमशेदजी टाटा जैसे पारसियों ने चीन और इंग्लैंड को कच्ची कपास निर्यात करके पैसा कमा लिया था। 1917 में कलकत्ता में देश की पहली जूट मिल लगाने वाले मारवाडी सेठ हुकुमचंद ने भी चीन के साथ व्यापार किया था। यही काम प्रसिद्ध उद्योगपति जी०डी० बिड़ला के दादा और पिता ने किया। मद्रास (चेन्नई) के कुछ सौदागर बर्मा से व्यापार करते थे जबकि कुछ के मध्य-पूर्व और पूर्वी अफ्रीका में संबंध थे। इनके अलावा भी कुछ वाणिज्यिक समूह थे लेकिन वे विदेश व्यापार से नहीं जुड़े थे। वे भारत में ही व्यवसाय करते थे। जब उद्योगों में निवेश के अवसर आए तो उनमें से अधिकांश ने फैक्ट्रियाँ लगा लीं।
जैसे-जैसे भारतीय व्यापार पर औपनिवेशिक शिकंजा कसता गया, वैसे-वैसे भारतीय व्यवसायियों के लिए जगह सिकुड़ती गई। उन्हें अपना तैयार माल यूरोप में बेचने से रोक दिया गया। अब वे मुख्य रूप से कच्चे माल और अनाज, कच्ची कपास, अफीम, गेहूँ और नील का ही निर्यात कर सकते थे, जिनकी अंग्रेजों को जरूरत थी। धीरे-धीरे उन्हें जहाजरानी व्यवसाय से भी बाहर कर दिया गया।
प्रश्न ३. नए उपभोक्ता पैदा करने के लिए उद्योगपतियों ने किन तरीकों को अपनाया? उदाहरण देकर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर – जब नई चीजें बनती हैं तो लोगों को उन्हें खरीदने के लिए प्रेरित भी करना पड़ता है। नए उपभोक्ता पैदा करने का एक तरीका विज्ञापनों का है। विज्ञापन विभिन्न उत्पादों को जरूरी और वांछनीय बना देते हैं। वे लोगों की सोच बदल देते हैं और नई जरूरतें पैदा कर देते हैं। औद्योगीकरण के प्रारंभ से ही विज्ञापनों ने विभिन्न उत्पादों के बाजार को फैलाने में और एक नई उपभोक्ता संस्कृति रचने में अपनी भूमिका निभाई।
जब मैनचेस्टर के उद्योगपतियों ने भारत में कपड़ा बेचना शुरू किया तो वे कपड़ों के बंडल पर लेबल लगाते थे। इससे यह फायदा होता था कि खरीददारों को कंपनी का नाम व उत्पादन की जगह के बारे में पता लग जाता था। लेबल ही चीजों की गुणवत्ता का प्रतीक भी था। लेबलों पर सिर्फ शब्द ही नहीं होते थे बल्कि उन पर तस्वीरें भी बनी होती थीं जो अक्सर बहुत सुंदर होती थीं। इन लेबलों पर भारतीय देवी-देवताओं की तस्वीरें प्रायः होती थीं। देवी-देवताओं की तस्वीर के बहाने निर्माता ये दिखाने की कोशिश करते थे कि ईश्वर भी चाहता है कि लोग उस चीज को खरीदें। कृष्ण या सरस्वती की तस्वीरों का यह फायदा होता था कि विदेशों में बनी चीज भी भारतीयों को जानी-पहचानी-सी लगती थी।
19वीं सदी के अंत में निर्माता अपने उत्पादों को बेचने के लिए कैलेंडर छपवाने लगे थे। कैलेंडर उनको भी समझ में आ जाते थे जो पढ़ नहीं सकते थे। चाय की दुकानों, दफ्तरों व मध्यवर्गीय घरों में ये कैलेंडर लटके रहते थे। जो इन कैलेंडरों को लगाते थे वह विज्ञापन को भी हर रोज, पूरे साल देखते थे। देवताओं की तस्वीरों की तरह महत्त्वपूर्ण व्यक्तियों नवाबों व सम्राटों की तस्वीरें भी विज्ञापनों व कैलेंडरों में खूब प्रयोग होती थीं। इनका संदेश अक्सर यह होता था- अगर आप इस शाही व्यक्ति का सम्मान करते हैं तो इस उत्पाद का भी सम्मान कीजिए जब भारतीय निर्माताओं ने विज्ञापन बनाए तो उनमें राष्ट्रवादी संदेश साफ दिखाई देता था। इनका आशय यह था कि अगर आप राष्ट्र की परवाह करते हैं तो उन चीजों को खरीदिए जिन्हें भारतीयों ने बनाया है। ये विज्ञापन स्वदेशी के राष्ट्रवादी संदेश के वाहक बन गए थे।
प्रश्न 4. 19वीं सदी में “औद्योगिक क्रान्ति, मिश्रित वरदान सिद्ध हुई” इस कथन पर अपने विचार व्यक्त कीजिए।
उत्तर- 19वीं सदी में औद्योगिक क्रान्ति के मिश्रित वरदान सिद्ध होने के प्रमुख कारण निम्नवत् हैं-
- उत्पादन क्षमता में वृद्धि – नवीन खोजों के परिणामस्वरूप उत्पादन की नवीन तकनीकों का विकास भी होता रहता था, जिससे उत्पादन क्षमता में निरन्तर वृद्धि होती रहती थी। अतः औद्योगिक क्रान्ति के फलस्वरूप वस्तुओं की उत्पादन क्षमता कई गुना बढ़ गई।
- यातायात में विशेष सुविधा – औद्योगिक क्रान्ति से यातायात के साधनों का तेजी से विकास हुआ। यातायात के ऐसे नवीन साधनों का निर्माण और खोज होने लगी थी जो तीव्र गति से कार्य करते हों। इस प्रकार इस क्रान्ति के फलस्वरूप यातायात अधिक सुगम और विकसित हो गया।
- विज्ञान की प्रगति – औद्योगिक साधनों के विकास के लिए विज्ञान के क्षेत्र में निरन्तर खोज चलती रही। वैज्ञानिक नई-नई प्रौद्योगिकी की खोज में प्रयत्नशील रहते थे। इन खोजों और प्रयासों के परिणामस्वरूप विज्ञान की विभिन्न शाखाएँ निरन्तर प्रगति की ओर बढ़ने लगीं।
- कृषि में सुधार – औद्योगिक क्रान्ति के परिणाम स्वरूप कृषि कार्यों के लिए नवीन यन्त्रों का प्रयोग किया जाने लगा। अभी तक कृषि अत्यधिक श्रमसाध्य थी तथा इससे उत्पादन बहुत कम होता था। यन्त्रीकरण से कृषि कार्य सरल हो गया और खाद्यान्नों की उत्पाद क्षमता में कई गुना वृद्धि हो गई। अब कृषि धीरे-धीरे व्यवसाय का रूप लेने. लगी।
- सांस्कृतिक आदान – प्रदान में वृद्धि औद्योगिक क्रान्ति से अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार में वृद्धि हुई। व्यापारिक वर्ग के लोग विश्व के सभी देशों में आने-जाने लगे। इससे सांस्कृतिक आदान-प्रदान हुआ और मानव परम्परागत रूढ़ियों से मुक्त हो गया।
- दैनिक जीवन में सुख–सुविधा के साधनों में वृद्धि – मानव के दैनिक जीवन में भौतिक साधनों के सुलभ हो जाने से विशेष सुख-सुविधा का वातावरण बना। मानव को दैनिक जीवन के कार्यों की पूर्ति हेतु विशेष सुविधाएँ प्राप्त हुई, जिन्होंने नागरिकों के जीवन स्तर को परिष्कृत रूप प्रदान किया। अब उनका जीवन सुख-सुविधाओं से परिपूर्ण होता चला गया।
- समाजवादी विचारधारा का जन्म – औद्योगिक क्रान्ति का एक अन्य लाभकारी परिणाम यह हुआ कि श्रमिकों के माध्यम से समाजवाद का जन्म हुआ। समाजवाद ने मानव को अपने अधिकारों के प्रति अत्यधिक सजग बनाया। इससे मानवीय स्वतन्त्रता के सिद्धान्त को विशेष बल मिला।
- नगरों का विकास – औद्योगिक प्रतिष्ठानों की स्थापना के कारण नये-नये नगरों की स्थापना हुई। नगरों में जनसंख्या बढ़ने से वहाँ के आकार में वृद्धि हुई। नगर उद्योग तथा वाणिज्य के केन्द्र बन गए। इस प्रकार नगरीकरण की प्रक्रिया तीव्र हो गई उपर्युक्त लाभों से स्पष्ट है कि 19वीं सदी में हुई औद्योगिक क्रान्ति, मिश्रित वरदान सिद्ध हुई।
प्रश्न 5. ईस्ट इंडिया कंपनी ने भारतीय बुनकरों से सूती और रेशमी कपड़े की नियमित आपूर्ति सुनिश्चित करने के लिए क्या किया?
या अंगेज शासकों ने भारत के ‘कपड़ा उद्योग’ को कैसे नष्ट किया? उनके द्वारा अपनाए गए तरीकों में से किन्हीं दो पर प्रकाश डालिए। इसका बुनकरों पर क्या प्रभाव पड़ा?
उत्तर- 1760 और 1770 के दशकों में बंगाल और कर्नाटक में राजनीतिक सत्ता स्थापित करने से पहले ईस्ट इंडिया कम्पनी को निर्यात के लिए लगातार सप्लाई आसानी से नहीं मिल पाती थी। लेकिन कम्पनी की राजनीतिक सत्ता स्थापित हो जाने के बाद कम्पनी व्यापार पर अपने एकाधिकार का दावा कर सकती थी। फलस्वरूप उसने प्रतिस्पर्धा खत्म करने, लागतों पर अंकुश रखने और कपास व रेशम से बनी चीजों की नियमित आपूर्ति सुनिश्चत करने के लिए प्रबन्धन और नियन्त्रण की एक नई व्यवस्था लागू की। यह काम निम्नलिखित तरीके से किया गया-
(i) कंपनी ने कपड़ा व्यापार में सक्रिय व्यापारियों और दलालों को खत्म करने तथा बुनकरों पर प्रत्यक्ष नियंत्रण स्थापित करने की कोशिश की। कंपनी ने बुनकरों पर निगरानी रखने, माल इकट्ठा करने और कपड़ों की गुणवत्ता जाँचने के लिए वेतनभोगी कर्मचारी तैयार कर दिए जिन्हें ‘गुमाश्ता’ कहा जाता था।
(ii) कंपनी का माल बेचने वाले बुनकरों को अन्य खरीददारों के साथ कारोबार करने पर पाबंदी लगा दी गई। इसके लिए उन्हें पेशगी रकम दो जाती थी। एक बार काम का ऑर्डर मिलने पर बुनकरों को कच्चा माल खरीदने के लिए कर्ज दे दिया जाता था। जो कर्ज लेते थे उन्हें अपना बनाया हुआ कपड़ा गुमाश्ता को ही देना पड़ता था। उसे वे और किसी व्यापारी को नहीं बेच सकते थे।
बुनकरों पर प्रभाव – लघु उत्तरीय प्रश्न में प्रश्न 3 का उत्तर देखें।
प्रश्न 6. उन्नीसवीं सदी के यूरोप में कुछ उद्योगपति मशीनों की बजाय हाथ से काम करने वाले श्रमिकों को प्राथमिकता क्यों देते थे?
उत्तर – 19वीं सदी के यूरोप में कुछ उद्योगपति मशीनों की बजाए हाथ से काम करने वाले श्रमिकों को प्राथमिकता देते थे। इसके निम्नलिखित कारण
(i) विक्टोरियाकालीन ब्रिटेन में मानव श्रम की कोई कमी नहीं थी। इसलिए कम वेतन पर मजदूर मिल जाते थे। अतः उद्योगपति मशीनों की बजाय हाथ से काम करने वाले श्रमिकों को ही रखते थे।
(ii) जिन उद्योगों में मौसम के साथ उत्पादन घटता-बढ़ता रहता था वहाँ उद्योगपति मशीनों की बजाय मजदूरों को ही काम पर रखना पसंद करते थे।
(iii) ज्यादातर उत्पाद केवल हाथ से ही तैयार किए जा सकते थे। मशीने से एक जैसे उत्पाद ही बड़ी संख्या में बनाए जा सकते थे। लेकिन बाजार में अक्सर बारीक डिजाइन और खास आकारों वाली चीजे की काफी माँग रहती थी। इन्हें बनाने के लिए यांत्रिक प्रौद्योगिकी की नहीं बल्कि इन्सानी निपुणता की जरूरत थी।
(iv) विक्टोरियाकालीन ब्रिटेन में उच्च वर्ग के कुलीन लोग हाथों से बनी चीजों को महत्त्व देते थे। हाथ से बनी चीजों को परिष्कार और सुरुचि का प्रतीक माना जाता था। उनको एक-एक करके बनाया जाता था और उनका डिजाइन भी अच्छा होता था।
(v) यदि थोड़ी मात्रा में उत्पादन करना हो तो उसे मशीनों की बजाय श्रमिकों से ही कराया जाता था।
(vi) क्रिसमस के समय बाइंडरों और प्रिंटरों का कार्य मशीनों की बजाय मजदूरों की सहायता से अधिक अच्छी तरह से हो सकता था।
(vii) विक्टोरियाकालीन ब्रिटेन के उच्च वर्ग के कुलीन व पूँजीपति वर्ग के लोग हाथों से बनी वस्तुओं को अधिक महत्त्व देते थे क्योंकि ये वस्तुएँ सुरुचि और परिष्कार की प्रतीक थीं। इनमें अच्छी फिनिशिंग यानी सफाई होती थी। इनमें डिजाइनों की विविधता होती थी तथा इन्हें बड़ी मेहनत से बनाया जाता था।
प्रश्न 7. भारत में औद्योगिक विकास की क्या विशेषताएँ हैं? किन्हीं चार का उल्लेख कीजिए।
उत्तर- भारत में औद्योगिक विकास की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-
(i) उन्नीसवीं सदी के आखिर में जब भारतीय व्यवसायी उद्योग लगाने लगे तो उन्होंने भारतीय बाजार में मैनचेस्टर की बनी चीजों से प्रतिस्पर्धा नहीं की। भारत आने वाले ब्रिटिश मालों में धागा बहुत अच्छा नहीं था इसलिए भारत के शुरुआती सूती मिलों में कपड़े की बजाय मोटे सूती धागे ही बनाए जाते थे। जब धागे का आयात किया जाता था तो वह हमेशा बेहतर किस्म का होता था। भारतीय कताई मिलों में बनने वाले धागे का भारत के हथकरघा बुनकर इस्तेमाल करते थे या उन्हें चीन को निर्यात कर दिया जाता था।
(ii) बीसवीं सदी के पहले दशक तक भारत में औद्योगीकरण का ढर्रा कई बदलावों की चपेट में आ चुका था। स्वदेशी आन्दोलन को गति मिलने से राष्ट्रवादियों ने लोगों को विदेशी कपड़े के बहिष्कार के लिए प्रेरित किया। औद्योगिक समूह अपने सामूहिक हितों की रक्षा के लिए संगठित हो गए और उन्होंने आयात शुल्क बढ़ाने तथा अन्य रियायतें देने के लिए सरकार पर दबाव डाला 1906 के बाद चीन भेजे जाने वाले भारतीय धागे के निर्यात में भी कमी आने लगी थी। चीनी बाजारों में चीन और जापान की मिलों के उत्पाद छा गए थे। फलस्वरूप, भारत के उद्योगपति धागे की बजाय कपड़ा बनाने लगे। 1900 से 1912 के भारत में सूती कपड़े का उत्पादन दोगुना हो गया।
(iii) पहले विश्व युद्ध तक औद्योगिक विकास धीमा रहा। युद्ध ने एक बिलकुल नयी स्थिति पैदा कर दी थी। ब्रिटिश कारखाने सेना की जरूरतों को पूरा करने के लिए युद्ध सम्बन्धी उत्पादन में व्यस्त थे इसलिए भारत में मैनचेस्टर के माल का आयात कम हो गया। भारतीय बाजारों को रातोंरात एक विशाल देशी बाजार मिल गया। युद्ध लम्बा खिंचा तो भारतीय कारखानों में भी फौज के लिए जूट की बोरियाँ, फौजियों के लिए वर्दी के कपड़े, टेंट और चमड़े के जूते, घोड़े व खच्चर की जीन तथा बहुत सारे अन्य सामान बनने लगे। नए कारखाने लगाए गए। पुराने कारखाने कई पालियों में चलने लगे। बहुत सारे नए मजदूरों को काम पर रखा गया और हरेक को पहले से भी ज्यादा समय तक काम करना पड़ता था। युद्ध के दौरान औद्योगिक उत्पादन तेजी से बढ़ा।
(iv) युद्ध के बाद भारतीय बाजार में मैनचेस्टर को पहले वाली हैसियत कभी हासिल नहीं हो पायी। आधुनिकीकरण न कर पाने और अमेरिका, जर्मनी व जापान के मुकाबले कमजोर पड़ जाने के कारण ब्रिटेन की अर्थव्यवस्था चरमरा गई थी। कपास का उत्पादन बहुत कम रह गया था और ब्रिटेन से होने वाले सूती कपड़े के निर्यात में जबरदस्त गिरावट आई। उपनिवेशों में विदेशी उत्पादों को हटाकर स्थानीय उद्योगपतियों ने घरेलू बाजारों पर कब्जा कर लिया और धीरे-धीरे अपनी स्थिति मजबूत बना ली।