UP Board Solution of Class 9 Hindi Padya Chapter 1 – Sakhi -साखी (कबीरदास) Jivan Parichay, Padyansh Adharit Prashn Uttar Summary
Dear Students! यहाँ पर हम आपको कक्षा 9 हिंदी पद्य खण्ड के पाठ 1 साखी का सम्पूर्ण हल प्रदान कर रहे हैं। यहाँ पर साखी सम्पूर्ण पाठ के साथ कबीरदास का जीवन परिचय एवं कृतियाँ, पद्यांश आधारित प्रश्नोत्तर अर्थात पद्यांशो का हल, अभ्यास प्रश्न का हल दिया जा रहा है।
Dear students! Here we are providing you complete solution of Class 9 Hindi Poetry Section Chapter Sakhi. Here the complete text, biography and works of Kabir along with solution of Poetry based quiz i.e. Poetry and practice questions are being given.
Chapter Name | Sakhi – साखी (कबीरदास) Kabir |
Class | 9th |
Board Nam | UP Board (UPMSP) |
Topic Name | जीवन परिचय,पद्यांश आधारित प्रश्नोत्तर,पद्यांशो का हल(Jivan Parichay, Padyansh Adharit Prashn Uttar Summary) |
जीवन–परिचय
कबीरदास
संक्षिप्त परिचय
जन्म | 1398 ई०, काशी। |
मृत्यु | 1495 ई०, मगहर । |
जन्म एवं माता | विधवा ब्राह्मणी से। पालन-पोषण नीरू तथा नीमा ने किया। |
गुरु | रामानन्द । |
रचना | बीजक । |
काव्यगत विशेषताएँ
भक्ति-भावना | प्रेम तथा श्रद्धा द्वारा निराकार ब्रह्म की भक्ति। रहस्य भावना, धार्मिक भावना, समाज सुधार, दार्शनि विचार। |
वर्ण्य विषय |
वेदान्त, प्रेम-महिमा, गुरु महिमा, हिंसा का त्याग, आडम्बर का विरोध, जाति-पाँति का विरोध। |
भाषा | राजस्थानी, पंजाबी, खड़ीबोली और ब्रजभाषा के शब्दों से बनी पंचमेल खिचड़ी तथा सधुक्कड़ी। |
शैली | 1. भक्ति तथा प्रेम के चित्रण में सरल तथा सुबोध शैली। 2. रहस्यमय भावनाओं तथा उलटवाँसियों में दुरूह अस्पष्ट शैली। |
छन्द | साखी, दोहा और गेय पद। |
रस तथा अलंकार | कहीं-कहीं उपमा, रूपक, अन्योक्ति अलंकार तथा भक्ति-भावना में शान्त रस पाये जाते हैं। |
जीवन-परिचय
कबीरदास का जन्म काशी में सन् 1398 ई० के आस-पास हुआ था। नीमा और नीरू नामक जुलाहा दम्पति ने इनका पालन-पोषण किया। ये बचपन से ही धार्मिक प्रवृत्ति के थे। हिन्दू भक्तिधारा की ओर इनका झुकाव प्रारम्भ से ही था। इनका विवाह ‘लोई’ नामक स्त्री से हुआ बताया जाता है जिससे ‘कमाल’ और ‘कमाली’ नामक दी संतानों का उल्लेख मिलता है। कबीर का अधिकांश समय काशी में ही बीता था। वे मूलतः संत थे, किन्तु उन्होंने अपने पारिवारिक जीवन के कर्त्तव्यों की कभी उपेक्षा नहीं की। परिवार के भरण-पोषण के लिए कबीर ने जुलाहे का धन्धा अपनाया और आजीवन इसी धन्धे में लगे रहे। अपने इसी व्यवसाय में प्रयुक्त होनेवाले चरखा, ताना-बाना, भरनी-पूनी का इन्होंने प्रतीकात्मक प्रयोग अपने काव्य में किया था।
कबीर पढ़े-लिखे नहीं थे। उन्होंने स्वयं ‘मसि कागद् छुयो नहीं, कलम गही नहिं हाथ’ कहकर इस तथ्य की पुष्टि की है। सत्संग एवं भ्रमण द्वारा अपने अनुभूत ज्ञान को अद्भुत काव्य प्रतिभा द्वारा कबीर ने अभिव्यापक कहकर इस तथ्य की पुष्टि की है। सत्संग विगुणोपासक ज्ञानमार्गी शाखा के प्रमुख कवि के रूप में मान्य हुए।
कबीर ने रामानन्द स्वामी से दीक्षा ली थी। कुछ लोग इन्हें सूफी फकीर शेख तकी का भी शिष्य मानते हैं, किन्तु श्रद्धा के साथ कबीर ने स्वामी रामानन्द का नाम लिया है। इससे स्पष्ट है कि ‘स्वामी रामानन्द’ ही कबीर के गुरु थे।
‘काशी में मरने पर मोक्ष होता है’ इस अंधविश्वास को मिटाने के लिए कबीर जीवन के अन्तिम दिनों में मगहर चले गये। वहीं सन् 1495 ई० में इनका देहान्त हो गया।
महात्मा कबीर के जन्म के विषय में भिन्न-भिन्न मत हैं। कबीर कसौटी में इनका जन्म संवत् 1455 दिया गया है। ‘भक्ति सुधा- बिन्दु-संवाद में इनका जन्म काल संवत् 1451 से संवत् 1552 के बीच माना गया है। किन्तु बाबू श्याम सुन्दर दास, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल एवं आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ज्येष्ठ शुक्ल पूर्णिमा, सोमवार संवत् 1456 वि० (सन् 1399 ई०) ही कबीर का जन्म संवत स्वीकार किया है। एक जनश्रुति के अनुसार इन्होंने 120 वर्ष की आयु पायी थी।
रचनाएँ
पढ़े-लिखे न होने के कारण कबीर ने स्वयं कुछ नहीं लिखा है। इनके शिष्यों द्वारा ही इनकी रचनाओं का संकलन मिलता है। इनके शिष्य धर्मदास ने इनकी रचनाओं का संकलन ‘बीजक’ नामक ग्रन्थ में किया है जिसके तीन खण्ड हैं- (1) साखी (2) सबद (3) रमैनी।
साखी
सतगुरु हम सूं रीझि करि, एक कह्या प्रसंग।
बरस्या बादल प्रेम का, भीजि गया सब अंग ।।1।।
सन्दर्भ – प्रस्तुत साखी हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘हिन्दी काव्य‘ में संकलित एवं संत कबीर द्वारा रचित ‘साखी‘ कविता शीर्षक से उद्धृत है।
व्याख्या– कबीरदास जी कहते हैं कि सद्गुरु ने मेरी सेवा-भावना से प्रसन्न होकर मुझे ज्ञान की एक बात समझायी, जिसे सुनकर मेरे हृदय में ईश्वर के प्रति सच्चा प्रेम उत्पन्न हो गया। वह उपदेश मुझे ऐसा प्रतीत हुआ, मानो ईश्वर-प्रेमरूपी जल से भरे बादल बरसने लगे हों। उस ईश्वरीय प्रेम की वर्षा से मेरा अंग-अंग भीग गया। यहाँ कबीरदास जी के कहने का भाव यह है कि सद्गुरु के उपदेश से ही हृदय में ईश्वर के प्रति प्रेम उत्पन्न होता है और उसी से मन को शान्ति मिलती है। इस प्रकार जीवन में गुरु का अत्यधिक महत्त्व है।
काव्यगत सौन्दर्य
भाषा – सधुक्कड़ी,
रस – शान्त,
अलंकार – रूपक ।
छन्द–दोहा।
राम नाम के पटतरे, देबे की कछु नाहिं।
क्या ले गुर संतोषिए, हाँस रही मन माँहिं।।2।।
सन्दर्भ – पूर्ववत्
व्याख्या – कबीरदास जी का कहना है कि गुरु ने मुझे राम नाम दिया है। उसके समान बदले में संसार में देने को कुछ नहीं है। तो फिर मैं गुरु को क्या देकर सन्तुष्ट करूँ? कुछ देने की अभिलाषा मन के भीतर ही रह जाती है। भाव यह है कि गुरु ने मुझे राम नाम का ऐसा ज्ञान दिया है कि मैं उन्हें उसके अनुरूप कोई दक्षिणा देने में असमर्थ हूँ।
काव्यगत सौन्दर्य–
ईश्वर प्रेम की प्राप्ति सद्गुरु की कृपा से ही सम्भव है और सद्गुरु की प्राप्ति ईश्वर की कृपा से ही होती है।
भाषा–सधुक्कड़ी
शैली–मुक्तक
रस–शान्त
छन्द–दोहा
अलंकार–अनुप्रास।
ग्यान प्रकास्या गुर मिल्या, सो जिनि बीसरि जाइ।
जब गोविन्द कृपा करी, तब गुरु मिलिया आइ।।3।।
सन्दर्भ – पूर्ववत्
व्याख्या–कबीर का कहना है कि ईश्वर की महान् कृपा से गुरु की प्राप्ति हुई है। इस सच्चे गुरु ने तुम्हारे भीतर ज्ञान का प्रकाश दिया है। हे जीवात्मा ! कहीं ऐसा न हो कि तुम उसे भूल जाओ क्योंकि ईश्वर की असीम कृपा से तो ‘सद्गुरु’ की प्राप्ति हुई और उसकी कृपा से तुम्हें ज्ञान मिला है।
काव्यगत सौन्दर्य
रस–शान्त
छन्द–दोहा
अलंकार–अनुप्रास ।
भाषा–सधुक्कड़ी।
माया दीपक नर पतंग, अमि अमि इवें पहुंत।
कहै कबीर गुर ग्यान थे, एक आध उबरंत ।।4।।
सन्दर्भ – पूर्ववत्
व्याख्या– यह संसार माया के दीपक के समान है और मनुष्य पतिंगे के समान है। जिस प्रकार पतिंगा दीपक के सौन्दर्य पर मुग्ध हो अपने प्राणों को त्याग देता है उसी तरह मनुष्य माया पर मुग्ध हो भ्रम में पड़ कर आपने मिटा देता है। गुरु के उपदेश से शायद ही एक-आध इससे छुटकारा पा जाते हैं।
काव्यगत सौन्दर्य
भाषा–सधुक्कड़ी।
रस–शान्त।
छन्द–दोहा।
अलंकार–अनुप्रास
जब मैं था तब गुरु नहीं, अब गुरु हैं हम नाहिं।
प्रेम गली अति सॉकरी, तामें दो न समाहि।।5।।
सन्दर्भ – पूर्ववत्
व्याख्या– कबीर कहते हैं- जब तक मुझमें ‘मैं’ अर्थात् अहंकार था तब तक मुझे अपने सद्गुरु से एकात्मभाव प्राप्त नहीं हो सका। मैं गुरु और स्वयं को दो समझता रहा। अतः मैं प्रेम-साधना में असफल रहा, क्योंकि प्रेम-साधना का मार्ग बड़ा सँकरा है उस पर एक होकर ही चला जा सकता है। जब तक द्वैत भाव-मैं और तू-बना रहेगा प्रेम की साधना, गुरुभक्ति सम्भव नहीं है।
काव्यगत सौन्दर्य
भाषा–सधुक्कड़ी।
रस–शान्त।
छन्द–दोहा।
अलंकार–अनुप्रास रूपक ।
भगति भजन हरि नार्वे है, दूजा दुक्ख अपार।
मनसा बाचा कर्मनों, कवीर सुमिरण सार ।।6।।
सन्दर्भ – पूर्ववत्
व्याख्या – जीव के लिए परमात्मा की भक्ति और भजन करना एक नाव के समान उपयोगी है। इसके अतिरिक्त संसार में दुःख ही दुःख हैं। इसी भक्तिरूपी नाव से सांसारिक-दुःखरूपी सागर को पार किया जा सकता है। इसलिए मन, वचन और कर्म से परमात्मा का स्मरण करना चाहिए, यही जीवन का परम तत्त्व है।
काव्यगत सौन्दर्य
भाषा – सधुक्कड़ी।
शैली – उपदेशात्मक, मुक्तक।
छन्द– दोहा।
रस– शान्त।
अलंकार‘ भगति भजन हरि नाँव है‘ में रूपक तथा अनुप्रास है।
कबीर चित्त चमंकिया, चहुँ दिसि लागी लाइ।
हरि सुमिरण हाथू घड़ा, बेगे लेहु बुझाइ ।।7।।
सन्दर्भ – पूर्ववत्
व्याख्या– कबीर का कथन है कि इस संसार में सब जगह विषय-वासनाओं की आग लगी हुई दिखायी देती है। मेरा मन भी उसी आग से जल रहा है अथवा झुलस रहा है। या यूँ कहिये कि मेरे मन में भी विषय वासनाएँ उमड़ रही हैं। अपने मन को संबोधित करते हुए संत कबीर कहते हैं कि हे मन! तेरे हाथ में ईश्वर-स्मरण रूपी जल का घड़ा है। तू इस जल से शीघ्र ही वासनाओं की आग बुझा ले। सात्पर्य यह है कि ईश्वर के नाम-स्मरण से हो इन विषय वासनाओं से छुटकारा पाया जा सकता है
काव्यगत सौन्दर्य
ईश्वर के नाम-स्मरण से विषय-वासना नष्ट हो जाती है। शान्त। अलंकार – ‘हरि सुमिरण हाथू घड़ा’ में रूपक है।
छन्द–दोहा।
रस– शान्त
अलंकार–’ हरि सुमिरण हाँथू घड़ा मे रूपक हैं।
भाषा–सधुक्कड़ी
शैली – मुक्तक ।
अंषड़ियाँ झाई पड़ी, पंथ निहारि-निहारि।
जीभड़ियाँ छाला पड्या, राम पुकारि-पुकारि।।8।।
सन्दर्भ – पूर्ववत्
व्याख्या – कबीर का कथन है कि जीवात्मा बड़ी व्याकुलता से परमात्मा की प्रतीक्षा में आँखें बिछाये हुए है। भगवान् की बाट जोहते-जोहते उसकी आँखों में झाइयाँ पड़ गयी हैं, पर फिर भी उसे ईश्वर के दर्शन नहीं हुए। जीवात्मा परमात्मा का नाम जपते-जपते थक गयी, उसकी जीभ में छाले भी पड़ गये, परन्तु फिर भी परमात्मा ने उपकी पुकार नहीं सुनी क्योंकि सच्ची लगन, सच्चे प्रेम तथा मन की पवित्रता के बिना इस प्रकार नाम जपना और ‘बाट जोहना व्यर्थ है।
काव्यगत सौन्दर्य
- कहाँ कवि ने ईश्वर के वियोग में व्याकुल जीवात्मा का मार्मिक चित्रण किया है।
- इनमें कवि की रहस्यवादी भावना दृष्टिगोचर होती है।
- भाषा– सधुक्कड़ी।
- शैली– मुक्तक ।
- छन्द–दोहा।
- रस – शान्त।
- अलंकार – पुनरुक्तिप्रकाश, अनुप्रास ।
झूठे सुख को सुख कहै, मानत हैं मन मोद।
जगत चवैना काल का, कछु मुख में कछु गोद ।।9।।
सन्दर्भ – पूर्ववत्
व्याख्या– कबीर कहते हैं- अज्ञानी मनुष्य सांसारिक सुखों को, जो कि मिथ्या और परिणाम में दुःखदायी हैं, सच्चे सुख समझते हैं और मन में बड़े प्रसन्न होते हैं। ये भूल जाते हैं कि यह सारा जगत् काल के चबैने-चना आदि के समान हैं जिसमें से कुछ उसके मुख में जा चुका है और कुछ भक्षण किये जाने के लिए उसकी गोद में पड़ा हुआ है।
काव्यगत सौन्दर्य
भाषा–सधुक्कड़ी।
रस–शान्त।
छन्द–दोहा।
अलंकार–अनुप्रास रूपक ।
जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि हैं मैं नॉहि।
सब अंधियारा मिटि गया, जब दीपक देख्या माँहिं।।10।।
सन्दर्भ – पूर्ववत्
व्याख्या – जब तक हमारे भीतर अहंकार की भावना थी तब तक ईश्वर के दर्शन नहीं हुए थे किन्तु जब हमने ईश्वर का साक्षात्कार कर लिया तो अहंकार बिल्कुल ही नष्ट हो गया है। कहने का तात्पर्य यह है कि ज्ञानरूपी दीपक के प्रकाश मिल जाने पर अज्ञानरूपी सारा अंधकार नष्ट हो गया है।
काव्यगत सौन्दर्य
भाषा–सधुक्कड़ी।
रस–शान्त ।
छन्द–दोहा।
अलंकार–अनुप्रास, रूपक ।
कबीर कहा गरबियौ, ऊँचे देखि अवास।
काल्हि पर्यं भवें लोटणाँ, ऊपरि जामै घास ।।11।।
सन्दर्भ – पूर्ववत्
व्याख्या– इस संसार की नश्वरता को बतलाते हुए कबीरदास जी कहते हैं कि हे मनुष्य ! तुम इस संसार में अपने ऊँचे स्थान पाकर क्यों गर्व करते हो। यह सारा संसार नश्वर है। एक दिन यह सारा वैभव नष्ट होकर धूल में मिल जायेगा और उस पर घास जम जायेगी अथवा तुम्हें कल भूमि पर लेटना पड़ेगा अर्थात् तुम भी काल-कवलित हो जाओगे। लोग तुम्हें मिट्टी में दफना देंगे और उस पर घास जम जायेगी।
काव्यगत सौन्दर्य
भाषा–सधुक्कड़ी।
छन्द–दोहा।
अलंकार–उपमा और अनुप्रास।
रस–शान्त ।
यहुं ऐसा संसार है, जैसा सैंबल फूल।
दिन दस के ब्यौहार कीं, झूठे रंग न भूलि ।।12।।
सन्दर्भ – पूर्ववत्
व्याख्या – संसार की असारता को बतलाते हुए कबीरदास जी का कहना है कि यह संसार सेमल के फूल की भाँति सुन्दर और आकर्षक तो है किन्तु इसमें कोई गंध नहीं है। जिस प्रकार से तोता सेमल के फूल पर मुग्धं हो उसके सुन्दर फल की आशा में उस पर मँडराता रहता है और अन्त में उसे निस्सार रुई ही हाथ लगती है ठीक उसी प्रकार यह जीव इस संसार की अल्पकालीन रंगीनियों में भूला हुआ है। उसे इस झूठे रंग में सच्चाई को नहीं भूलना चाहिए।
काव्यगत सौन्दर्य
अलंकार – उपमा
भाषा–सधुक्कड़ी
रस–शान्त ।
इहि औसरि चेत्या नहीं. पसु ज्यू पाली देह।
राम नाम जाण्या नहीं, अंति पड़ी मुख पेह।।13।।
सन्दर्भ – पूर्ववत्
व्याख्या–कबीरदास जी कहते हैं कि हे जीव! तुम उस मनुष्य योनि में पैदा हुए हो जो बड़े ही सौभाग्य से प्राप्त होता है। इतना सुन्दर अवसर पाकर भी तुम सजग नहीं होते और ‘राम नाम’ का स्मरण नहीं करते। केवल पशु की भाँति अपने शरीर का पालन-पोषण कर रहे हो। यह समझ लो कि यदि समय रहते तुमने ‘राम’ का स्मरण नहीं किया तो अन्त में मिट्टी में ही मिलना होगा।
काव्यगत सौन्दर्य
भाषा–सधुक्कड़ी।
रस–शान्त।
छन्द–दोहा।
- पशु ज्यूँ पाली देह-उपमा अलंकार।
- 2. राम-नाम-अनुप्रास अलंकार।
यह तन काचा कुंभ है, लियाँ फिरै था साथि।
ढबका लागा फूटि गया, कछू न आया हाथि।।14।।
सन्दर्भ – पूर्ववत्
व्याख्या– यह शरीर मिट्टी के कच्चे घड़े के समान है जिसे तुम बड़े अहंकार के साथ सबको दिखलाने के लिए साथ लिये घूमतें हो, किन्तु एक ही धक्का लगने से यह टूटकर चूर-चूर हो जायेगा और कुछ भी हाथ नहीं लगेगा। अर्थात् काल के धक्के से शरीर नष्ट हो जायेगा और वह मिट्टी में मिल जायेगा।
काव्यगत सौन्दर्य
भाषा–सधुक्कड़ी।
रस–शान्त ।
छन्द–दोहा।
कबीर कहा गरबियौ, देही देखि सुरंग।
बीछड़ियाँ मिलिबौ नहीं, ज्यू काँचली भुवंग ।।15।।
सन्दर्भ – पूर्ववत्
व्याख्या– कबीरदास जी कहते हैं कि तुम अपने शरीर की सुन्दरता पर इतना क्यों घमण्ड करते हो। तुम्हारा यह घमण्ड सर्वथा व्यर्थ है। मरने के पश्चात् फिर यह शरीर ठीक उसी प्रकार तुम्हें नहीं मिलेगा जिस प्रकार अपनी केंचुल को एक बार छोड़ देने के पश्चात् सर्प को वह पुनः प्राप्त नहीं होती। वह उसके लिए निरर्थक हो जाती है।
काव्यगत सौन्दर्य
भाषा–सधुक्कड़ी।
रस–शान्त ।
छन्द–दोहा।
- ‘कबीर कहा’, ‘देही देखि’ में अनुप्रास अलंकार।
- बीछड्या. भुजंग-उपमा अलंकार।
निम्नलिखित पद्यांशों पर आधारित प्रश्नों के उत्तर दीजिए –
(क) राम नाम के पटतरे, देबे कौं कछु नाहिं।
क्या ले गुर संतोषिए, हौंस रही मन माँहि ।।
प्रश्न– (i) गुरु ने कबीर को कौन–सा मंत्र दिया है?
उत्तर– गुरु ने कबीर को राम नाम का मंत्र दिया है।
(ii) प्रस्तुत दोहे के रचनाकार का नाम लिखिए।
उत्तर– प्रस्तुत दोहे के रचनाकार कबीर जी हैं।
(iii) प्रस्तुत दोहे में किस अलंकार की अभिव्यक्ति हुई है?
उत्तर– प्रस्तुत दोहे में अनुप्रास अलंकार प्रयुक्त हुआ है।
(ख) माया दीपक नर पतंग, भ्रमि-भ्रमि इवें पड़ंत ।
कहैं कबीर गुर ग्यान थें, एक आध उबरंत ।।
प्रश्न– (i) कबीर ने मनुष्य और माया को किसका रूपक माना है?
उत्तर–कबीर ने मनुष्य और माया को पतिंगा और दीपक का रूपक माना है।
(ii) पतिंगे के समान कौन है?
उत्तर–कबीर ने व्यक्ति को पतिंगे के समान माना है।
(iii) ‘कहै कबीर‘ और ‘गुरु ज्ञान‘ में कौन–सा अलंकार है?
उत्तर–‘कहै कबीर’ और ‘गुरु ज्ञान’ में अनुप्रास अलंकार है।
(ग)अंषड़ियाँ झाईं पड़ी, पंथ निहारि-निहारि।
जीभड़ियाँ छाला पड्या, राम पुकारि-पुकारि।।
प्रश्न– (i) परमात्मा का स्मरण किस प्रकार करना चाहिए?
उत्तर–परमात्मा का स्मरण सच्ची लगन, सच्चे प्रेम तथा मन की पवित्रता के साथ करना चाहिए।
(ii) जीवात्मा किसकी प्रतीक्षा में आँखें बिछाये हुए है?
उत्तर–जीवात्मा, परमात्मा की प्रतीक्षा में आँखें बिछाये हुए है।
(iii) प्रस्तुत दोहे में कौन से अलंकार प्रयुक्त हुए हैं?
उत्तर–प्रस्तुत दोहे में पुनरुक्ति और अनुप्रास अलंकार है।
(घ) झूठे सुख को सुख कहैं, मानत हैं मन मोद।
जगत चबैना काल का, कछु मुख में कछु गोद।।
प्रश्न– (i) प्रस्तुत दोहे का सन्दर्भ लिखिए।
उत्तर–प्रस्तुत दोहा कबीर द्वारा रचित है।
(ii) अज्ञानी व्यक्ति सच्चा सुख किसे समझता है?
उत्तर–अज्ञानी व्यक्ति सच्चा सुख सांसारिक सुखों को मानता है।
(iii) उपर्युक्त दोहे में कौन–सा अलंकार है?
उत्तर–प्रस्तुत दोहे में अनुप्रास एवं रूपक अलंकार की अभिव्यक्ति हुई है।
(ङ) जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि हैं मैं नाँहि ।
सब अंधियारा मिटि गया, जब दीपक देख्या माँहि ।।
प्रश्न– (i) व्यक्ति को ईश्वर के दर्शन क्यों नहीं होते हैं?
उत्तर–जब तक व्यक्ति अहंकार से युक्त होता है, तब तक ईश्वर के दर्शन नहीं होते हैं।
(ii) ‘सब अंधियारा मिटि गया, जब दीपक देख्या माँहिं‘ का आशय स्पष्ट कीजिए।
उत्तर–ज्ञानरूपी दीपक का प्रकाश मिल जाने पर अज्ञान रूपी अंधकार मिट जाता है।
(iii) प्रस्तुत दोहे में कौन–से अलंकार प्रयुक्त हुए हैं?
उत्तर–प्रस्तुत दोहे में अनुप्रास एवं रूपक अलंकार की अभिव्यक्ति हुई है।
(च) यह तन काचा कुंभ है, लियाँ फिरै था साथि।
ढबका लागा फूटि गया, कछु न आया हाथि।।
प्रश्न– (i) कबीर ने शरीर की तुलना किससे की है?
उत्तर–कबीर ने शरीर की तुलना मिट्टी के कच्चे घड़े से की है।
(ii) प्रस्तुत दोहे के रचनाकार कौन हैं?
उत्तर–प्रस्तुत दोहे के रचनाकार कबीर जी हैं।
(iii) “ढबका लागा फूटि गया, कछु न आया हाथि” का आशय स्पष्ट कीजिए।
उत्तर–एक ही धक्का लगने से यह टूटकर चूर-चूर हो जायेगा और कुछ भी हाथ नहीं लगेगा।
(छ)कबिरा कहा गरबियौ, देही देखि सुरंग।
बीछड़ियाँ मिलिबौ नहीं, ज्यूँ काँचली भुजंग।।
प्रश्न– (i) प्रस्तुत दोहे में कबीर किस बात पर घमण्ड न करने की सलाह देते हैं?
उत्तर–कबीर अपने शरीर की सुन्दरता पर घमण्ड न करने की सलाह देते हैं।
(ii) ‘बीछड़ियाँ मिलिबौ नहीं, ज्यूँ काँचली भुजंग‘ का आशय स्पष्ट कीजिए।
उत्तर–एक बार केंचुल छोड़ देने के बाद साँप को वह दोबारा प्राप्त नहीं होता है।
(iii) ‘कबीर कहा‘, ‘देखि देखि‘ में कौन–सा अलंकार है?
उत्तर–‘कबीर कहा’ और ‘देही देखि’ में अनुप्रास अलंकार है।