स्वर –  ह्रस्व, दीर्घ, प्लुत – Swar Kise Kahte hai? Hrasv Deergh Plut Swar अनुनासिक, निरनुनासिक, अनुस्वार और विसर्ग

स्वर –  ह्रस्व, दीर्घ, प्लुत – Swar Kise Kahte hai? Hrasv Deergh Plut Swar- अनुनासिक, निरनुनासिक, अनुस्वार और विसर्ग

स्वर –  ह्रस्व, दीर्घ, प्लुत – Swar Kise Kahte hai? Hrasv Deergh Plut Swar –  हिंदी के  स्वर और व्यंजन (Hindi Ke Swar aur Vyanjan) ||(Hindi Grammar) Hindi Vyakaran ॥ Hindi Grammar ॥ हिंदी व्याकरण ॥  सामान्य हिंदी ॥ 

स्वर -  ह्रस्व, दीर्घ, प्लुत - Swar Kise Kahte hai? Hrasv Deergh Plut Swar- अनुनासिक, निरनुनासिक, अनुस्वार और विसर्ग

हिंदी के  स्वर और व्यंजन (Hindi Ke Swar aur Vyanjan)

उच्चारण के दो प्रमुख तत्त्व हैं- – स्वर और व्यंजन वर्णों के निर्माण में इन दोनों का योग रहता है।

हिंदी के स्वर वर्ण (Svar Varn) – Swar Kise Kahate hai?

स्वर उन वर्णों को कहते हैं, जिनका उच्चारण विना अवरोध अथवा विघ्न वाधा के होता है। इनके उच्चारण में किसी दूसरे वर्ण की सहायता नहीं ली जाती। ये सभी स्वतंत्र हैं। इनके उच्चारण में भीतर से आती हुई वायु मुख से निर्बाध रूप से निकलती है। सामान्यतः इसके उच्चारण में कंठ, तालु का प्रयोग होता है, जीभ, होंठ का नहीं। पर, उ, ऊ के उच्चारण में होठों का प्रयोग होता है।

हिंदी में स्वरवर्णों की संख्या 11 है, जिनका वर्गीकरण इस प्रकार है-

  • ह्रस्व स्वर – अ, इ, उ, ऋ
  • दीर्घ स्वर – आ, ई, ऊ
  • संयुक्त स्वर—ए, ऐ, ओ, औ

कुछ लोग लृ को मूल स्वरों में गिनते हैं। लेकिन, हिंदी में इनका प्रयोग नहीं होता। ‘ऋ’ की भी अपनी सीमा रह गई है। संस्कृत में ‘ऋ’ का प्रयोग होता है, किंतु हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं में इसका व्यवहार नगण्य है। फिर भी, एक सीमा के अंदर हिंदी में ‘ऋ’ का प्रयोग चल रहा है; जैसे— ऋग्वेद, ऋषि, ऋण, ऋतंभरा इत्यादि। इसमें व्यंजन और स्वर का योग है।

मात्रा और उसके भेद (Hindi Matra aur Bhed) 

पं. कामताप्रसाद गुरु के अनुसार, “व्यंजनों के अनेक प्रकार के उच्चारणों को स्पष्ट करने के लिए जब उनके साथ स्वर का योग होता है, तब स्वर का वास्तविक रूप जिस रूप में बदलता है, उसे मात्रा कहते हैं।”

मात्राएँ तीन हैं – हस्व, दीर्घ और प्लुत ।

ह्रस्व से दीर्घ में दूना और प्लुत में तिगुना समय लगता है। प्लुत संस्कृत में चलता था, हिंदी में नहीं। मात्राएँ स्वरों की ही होती हैं, व्यंजन की नहीं, क्योंकि व्यंजन तो स्वरों के ही सहारे बोले जाते हैं। जब स्वर व्यंजन में लगते हैं, तब उनके दस प्रकार के रूप होते हैं-ॉ,ॊ,ऻ,ॖ, ॗ,ॄ,ॊ, ॏ, । स्वरों के व्यंजन में मिलने के इन रूपों को भी ‘मात्रा’ कहते हैं, क्योंकि मात्राएँ तो स्वरों की होती हैं।

छंदशास्त्र में ‘ह्रस्व’ मात्रा को ‘लघु’ और ‘दीर्घ’ मात्रा को ‘गुरु’ कहते हैं।

ह्रस्व स्वर वे स्वर मूल या ह्रस्व या एकमात्रिक कहलाते हैं, जिनकी उत्पत्ति दूसरे स्वरों नहीं होती; जैसे – अ, इ, उ, ऋ ।

दीर्घ स्वर—किसी मूल या ह्रस्व को उसी स्वर के साथ मिलने से जो स्वर बनता है, वह दीर्घ स्वर कहलाता है; जैसे- आ (अ + अ), ई (इ + इ), ऊ ( उ + उ), ए (अ + इ), ऐ (अ + ए), ओ (अ + उ), औ (अ + ओ)। इनके उच्चारण में दो मात्राओं का समय लगता है। इन्हें ‘द्विमात्रिक स्वर’ भी कहते हैं।

प्लुत – जिस स्वर के उच्चारण में तिगुना समय लगे, उसे ‘प्लुत’ कहते हैं। इसका कोई चिह्न नहीं होता। इसके लिए तीन (३) का अंक लगाया जाता है; जैसे-:- ओ३म् ।हिंदी में साधारणतः प्लुत का प्रयोग नहीं होता । वैदिक भाषा में प्लुत स्वर का प्रयोग अधिक हुआ है। इसे ‘त्रिमात्रिक’ स्वर भी कहते हैं ।

अनुनासिक, निरनुनासिक, अनुस्वार और विसर्ग – हिंदी में स्वरों का उच्चारण अनुनासिक और निरनुनासिक होता है। अनुस्वार और विर्सग व्यंजन है जो स्वर के बाद, स्वर से स्वतंत्र आते हैं। इनके संकेतचिह्न इस प्रकार हैं-

अनुनासिक ( ँ ) – ऐसे स्वरों का उच्चारण नाक और मुँह से होता है और उच्चारण में लघुता रहती है; जैसे— गाँव, दाँत, आँगन, साँचा इत्यादि ।

अनुस्वार (ं ) यह स्वर के बाद आनेवाला व्यंजन है, जिसकी ध्वनि नाक से निकलती है; जैसे— अंगूर, अंगद, कंकण ।

निरनुनासिक—केवल मुँह से बोले जानेवाला सस्वर वर्णों को निरनुनासिक कहते हैं; जैसे— इधर, उधर, आप अपना घर इत्यादि ।

विसर्ग ( : ) अनुस्वार की तरह विसर्ग भी स्वर के बाद आता है। यह व्यंजन है और इसका उच्चारण ‘ह’ की तरह होता है। संस्कृत में इसका काफी व्यवहार है। हिंदी इसका अभाव होता जा रहा है; किंतु तत्सम शब्दों के प्रयोग में इसका आज भी उपयोग होता है; जैसे – मनः कामना, पयःपान, अतः, स्वतः, दुःख इत्यादि ।

Note- अनुस्वार और विसर्ग न तो स्वर हैं, न व्यंजन, किंतु ये स्वरों के सहारे चलते हैं। स्वर और व्यंजन दोनों में इनका उपयोग होता है; जैसे – अंगद, रंग। इस संबंध में –

आचार्य किशोरीदास वाजपेयी का कथन है कि “ये स्वर नहीं हैं और व्यंजनों की तरह ये स्वरों के पूर्व नहीं, पश्चात् आते हैं, इसलिए व्यंजन नहीं हैं। इसलिए इन दोनों ध्वनियों को ‘अयोगवाह’ कहते हैं।” अयोगवाह का अर्थ है— योग न होने पर भी जो साथ रहे ।

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