UP Board Solution of Class 9 Hindi Gadya Chapter 5 – Smriti – स्मृति (श्री राम शर्मा) Jivan Parichay, Gadyansh Adharit Prashn Uttar Summary – Copy
Dear Students! यहाँ पर हम आपको कक्षा 9 हिंदी गद्य खण्ड के पाठ 5 स्मृति का सम्पूर्ण हल प्रदान कर रहे हैं। यहाँ पर स्मृति सम्पूर्ण पाठ के साथ श्री राम शर्मा का जीवन परिचय एवं कृतियाँ, गद्यांश आधारित प्रश्नोत्तर अर्थात गद्यांशो का हल, अभ्यास प्रश्न का हल दिया जा रहा है।
Dear students! Here we are providing you complete solution of Class 9 Hindi Prose Section Chapter 5 Smriti . Here, along with the complete text, biography and works of Shri Ram Sharma, passage based quiz i.e. solution of the passage and practice questions are being given.
Chapter Name | Smriti – स्मृति (श्री राम शर्मा) Shri Ram Sharma |
Class | 9th |
Board Name | UP Board (UPMSP) |
Topic Name | जीवन परिचय,गद्यांश आधारित प्रश्नोत्तर,गद्यांशो का हल(Jivan Parichay, Gadyansh Adharit Prashn Uttar Summary) |
जीवन-परिचय
श्री राम शर्मा
स्मरणीय तथ्य
जन्म-सन् | 1892 ई० (1949 वि०)। |
मृत्यु | सन् 1967 ई०। |
जन्म-स्थान | किरथरा (मैनपुरी) उ० प्र०। |
शिक्षा | बी० ए०। |
साहित्य सेवा | सम्पादक (विशाल भारत), आत्मकथा लेखक, संस्मरण तथा शिकार साहित्य के लेखक।
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भाषा | सरल, प्रवाहपूर्ण, सशक्त, उर्दू एवं ग्रामीण शब्दों का प्रयोग विषयानुकूल । |
शैली | वर्णनात्मक रोचक शैली। |
रचनाएँ | सन् बयालीस के संस्मरण, सेवाग्राम की डायरी, शिकार साहित्य, प्राणों का सौदा, बोलती प्रतिमा, जंगल के जीव। |
जीवन-परिचय
हिन्दी में शिकार साहित्य के प्रणेता पं० श्रीराम शर्मा का जन्म उत्तर प्रदेश के मैनपुरी जिले में 23 मार्च, सन् 1892 ई० को हुआ था। प्रयाग विश्वविद्यालय से स्नातक की डिग्री प्राप्त करने के पश्चात् ये पत्रकारिता के क्षेत्र में उतर आये। आपने ‘विशाल भारत’ नामक पत्र का सम्पादन बहुत दिनों तक किया। इनका जीवन के प्रति दृष्टिकोण मुख्यतः राष्ट्रीयता से ओत-प्रोत है। आपने राष्ट्रीय आन्दोलनों में बराबर भाग लिया है जिसकी सजीव झाँकियाँ आपकी रचनाओं में परिलक्षित होती हैं। आपकी मृत्यु एक लम्बी बीमारी के पश्चात् सन् 1967 ई० में हो गयी।
कृतियाँ
- संस्मरण-साहित्य – ‘सेवाग्राम की डायरी’ और ‘सन् बयालीस के संस्मरण’ में इन्होंने राष्ट्रीय आन्दोलन और उस समय के समाज की झाँकी प्रस्तुत की है।
- शिकार साहित्य – ‘ जंगल के जीव’, ‘प्राणों का सौदा’, ‘बोलती प्रतिमा’, ‘शिकार’ में आपका शिकार-साहित्य संगृहीत है। इन सभी रचनाओं में रोमांचकारी घटनाओं का सजीव वर्णन हुआ है। इन कृतियों में घटना-विस्तार के साथ- साथ पशुओं के मनोविज्ञान का भी सम्यक् परिचय दिया गया है।
- जीवनी– ‘नेताजी’ और ‘गंगा मैया।’
- इन कृतियों के अतिरिक्त शर्मा जी के फुटकर लेख अनेक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहे।
भाषा– शैली– सरल, प्रवाहपूर्ण, सशक्त, उर्दू एवं ग्रामीण शब्दों का प्रयोग विषयानुकूल । एवं शैली वर्णनात्मक रोचक शैली।
स्मृति
सन् 1908 ई० की बात है। दिसम्बर का आखिर या जनवरी का प्रारम्भ होगा। चिल्ला जाड़ा पड़ रहा था। दो-चार दिन पूर्व कुछ बूँदा-बाँदी हो गयी थी, इसलिए शीत की भयंकरता और भी बढ़ गयी थी। सायंकाल के साढ़े तीन या चार बजे होंगे। कई साथियों के साथ मैं झरबेरी के बेर तोड़-तोड़कर खा रहा था कि गाँव के पास से एक आदमी ने जोर से पुकारा कि तुम्हारे भाई बुला रहे हैं, शीघ्र ही घर लौट जाओ। मैं घर को चलने लगा। साथ में छोटा भाई भी था। भाई साहब की मार का डर था, इसलिए सहमा हुआ चला जाता था। समझ में नहीं आता था कि कौन-सा कसूर बन पड़ा। डरते-डरते घर में घुसा। आशंका थी कि बेर खाने के अपराध में ही तो पेशी न हो। पर आँगन में भाई साहब को पत्र लिखते पाया। अब पिटने का भ्रम दूर हुआ। हमें देखकर भाई साहब ने कहा- ‘इन पत्रों को ले जाकर मक्खनपुर डाकखाने में डाल आओ। तेजी से जाना जिससे शाम की डाक में ही चिड्डियाँ निकल जायें। ये बड़ी जरूरी हैं।’
जाड़े के दिन थे ही, तिस पर हवा के प्रकोप से कैंपकंपी लग रही थी। हवा मज्जा तक ठिठुरा रही थी, इसलिए हमने कानों को धोती से बाँधा। माँ ने भुजाने के लिए थोड़े-से चने एक धोती में बाँध दिये। हम दोनों भाई अपना-अपना डण्डा लेकर घर से निकल पड़े। उस समय उस बबूल के डण्डे से जितना मोह था, उतना इस उम्र में रायफल से नहीं। मेरा डण्डा अनेक साँपों के लिए नारायण-वाहन हो चुका था। मक्खनपुर के स्कूल और गाँव के बीच पड़नेवाले आम के पेड़ों से प्रतिवर्ष उससे आम झूरे जाते थे। इस कारण वह मूक डण्डा सजीव-सा प्रतीत होता था। प्रसन्नवदन हम दोनों मक्खनपुर की ओर तेजी से बढ़ने लगे। चिट्ठियों को मैंने टोपी में रख लिया, क्योंकि कुर्ते में जेबें न थीं।
हम दोनों उछलते-कूदते, एक ही साँस में गाँव से चार फलाँग दूर उस कुएँ के पास आ गये जिसमें एक अति भयंकर काला साँप पड़ा हुआ था। कुओं कच्चा था और चौबीस हाथ (36 फीट) गहरा था। उसमें पानी न था। उसमें न जाने सौंप कैसे गिर गया था? कारण कुछ भी हो, हमारा उसके कुएँ में होने का ज्ञान केवल दो महीने का था। बच्चे नटखट होते ही हैं। मक्खनपुर पढ़ने जानेवाली हमारी टोली पूरी वानर-टोली थी। एक दिन हम लोग स्कूल से लौट रहे थे कि हमको कुएँ में उझकने की सूझी। सबसे पहले उझकनेवाला मैं ही था। कुएँ में झाँककर एक बेला फेंका कि उसकी आवाज कैसी होती है। उसके सुनने के बाद अपनी बोली की प्रतिध्वनि सुनने की इच्छा थी, पर कुएँ में ज्यों ही ढेला गिरा त्यों ही एक फुसकार सुनायी पड़ी। कुएँ के किनारे खड़े हुए हम सब बालक पहले तो फुसकार से चकित हो गये, जैसे किलोलें करता हुआ मृगसमूह अति समीप के कुत्ते की भौक से चकित हो जाता है। उसके उपरान्त सभी ने उझक उझककर एक-एक ढेला फेंका और कुएँ से आनेवाली क्रोधपूर्ण फुसकार पर कहकहे लगाये।
गाँव से मक्खनपुर जाते और मक्खनपुर से लौटते समय प्रायः प्रतिदिन ही कुएँ में ढेले डाले जाते थे। मैं तो आगे भागकर आ जाता था और टोपी को एक हाथ से पकड़कर दूसरे हाथ से ढेला फेंकता था। यह रोजाना की आदत हो गयी थी। सौंप से फुसकार करवा लेना मैं उस समय बड़ा काम समझता था। इसलिए जैसे ही हम दोनों उस कुएँ की ओर से निकले, कुएँ में ढेला फेंककर फुसकार सुनने की प्रवृत्ति जागृत हो गयी। मैं कुएँ की ओर बढ़ा। छोटा भाई मेरे पीछे हो लिया, जैसे बड़े मृगशावक के पीछे छोटा मृगशावक हो लेता है। कुएँ के किनारे से एक ढेला उठाया और उझककर एक हाथ से टोपी उतारते हुए सौंप पर ढेला गिरा दिया, पर मुझ पर तो बिजली-सी गिर पड़ी। साँप ने फुसकार मारी या नहीं, बेला उसे लगा या नहीं, यह बात अब तक स्मरण नहीं। टोपी के हाथ में लेते ही तीनों चिट्ठियाँ चक्कर काटती हुई कुएँ में गिर रही थीं। अकस्मात् जैसे घास चरते हुए हिरन की आत्मा गोली से हत होने पर निकल जाती है और वह तड़पता रह जाता है, उसी भाँति वे चिट्ठियाँ क्या टोपी से निकल गयीं, मेरी तो जान निकल गयी। उनके गिरते ही मैंने उनको पकड़ने के लिए एक झपट्टा भी मारा, ठीक वैसे जैसे घायल शेर शिकारी को पेड़ पर चढ़ते देख उस पर हमला करता है। पर वे तो पहुँच से बाहर हो चुकी थीं। उनको पकड़ने की घबराहट में मैं स्वयं झटके के कारण कुएँ में गिर गया होता।
कुएँ की पाट पर बैठे हम रो रहे थे-छोटा भाई ढाड़ें मारकर और मैं चुपचाप आँखें डबडबाकर। पतीली में उफान आने से ढकना ऊपर उठ जाता है और पानी बाहर टपक जाता है। निराशा, पिटने के भय और उद्वेग से रोने का उफान आता था। पलकों के ढकने भीतरी भावों को रोकने का प्रयत्न करते थे, पर कपोलों पर आँसू ढलक ही जाते थे। माँ की गोद की याद आती थी। जी चाहता था कि माँ आकर छाती से लगा ले और लाड़-प्यार करके कह दे कि कोई बात नहीं, चिट्ठियाँ फिर लिख ली जायेंगी। तबीयत करती थी कि कुएँ में बहुत-सी मिट्टी डाल दी जाय और घर जाकर कह दिया जाय कि चिट्ठी डाल आये, पर उस समय झूठ बोलना मैं जानता ही न था। घर लौटकर सच बोलने से रूई की भाँति धुनाई होती। मार के ख्याल से शरीर ही नहीं, मन भी काँप जाता था। सच बोलकर पिटने के भावी भय और झूठ बोलकर चिट्ठियों के न पहुँचने की जिम्मेदारी के बोझ से दबा मैं बैठा सिसक रहा था। इसी सोच-विचार में पन्द्रह मिनट होने को आये। देर हो रही थी, और उधर दिन का बुढ़ापा बढ़ता जाता था। कहीं भाग जाने की तबीयत करती थी, पर पिटने का भय और जिम्मेदारी की दुधारी तलवार कलेजे पर फिर रही थी।
दृढ़ संकल्प से दुविधा की बेड़ियों कट जाती हैं। मेरी दुविधा भी दूर हो गयी। कुएँ में घुसकर चिट्ठियों को निकालने का निश्चय किया। कितना भयंकर निर्णय था। पर जो मरने को तैयार हो, उसे क्या? मूर्खता अथवा बुद्धिमत्ता से किसी काम को करने के लिए कोई मौत का मार्ग ही स्वीकार कर ले, और वह भी जान-बूझकर, तो फिर वह अकेला संसार से भिड़ने को तैयार हो जाता है। और फल? उसे फल की क्या चिन्ता? फल तो किसी दूसरी शक्ति पर निर्भर है। उस समय चिट्ठियाँ निकालने के लिए मैं विषधर से भिड़ने को तैयार हो गया। पासा फेंक दिया था। मौत का आलिंगन हो अथवा साँप से बचकर दूसरा जन्म, इसकी कोई चिन्ता न थी। पर विश्वास यह था कि डण्डे से साँप को पहले मार दूंगा, तब फिर चिट्ठियाँ उठा लूँगा। बस इसी दृढ़ विश्वास के बूते पर मैंने कुएँ में घुसने की ठानी। छोटा भाई रोता था और उसके रोने का तात्पर्य था कि मेरी मौत मुझे नीचे बुला रही है, यद्यपि वह शब्दों से न कहता था। वास्तव में मौत सजीव और नग्न रूप में कुएँ में बैठी थी, पर उस नग्न मौत से मुठभेड़ के लिए मुझे भी नग्न होना पड़ा। छोटा भाई भी नंगा हुआ। एक धोती मेरी, एक छोटे भाई की, एक चनेवाली, दो कानों से बंधी हुई धोतियाँ-पाँच धोतियाँ और कुछ रस्सी मिलाकर कुएँ की गहराई के लिए काफी हुई। हम लोगों ने धोतियाँ एक-दूसरी से बाँधीं और खूब खींच खींचकर आजमा लिया कि गाँठें कड़ी हैं या नहीं। अपनी ओर से कोई धोखे का काम नहीं रखा। धोती के एक सिरे पर डण्डा बाँधा और कुएँ में डाल दिया। दूसरे सिरे को डेंग (वह लकड़ी जिस पर चरस से पुर टिकता है) के चारों ओर एक चक्कर देकर और एक गाँठ लगाकर छोटे भाई को दे दिया। छोटा भाई केवल आठ वर्ष का था, इसलिए धोती को डेंग से कड़ी करके बाँध दिया और तब उसे खूब मजबूती से पकड़ने के लिए कहा। मैं कुएँ में धोती के सहारे घुसने लगा। छोटा भाई फिर रोने लगा। मैंने उसे आश्वासन दिलाया कि मैं कुएँ के नीचे पहुँचते ही साँप को मार दूंगा और मेरा विश्वास भी ऐसा ही था। कारण यह था कि इसके पहले मैंने अनेक साँप मारे थे। इसलिए कुएँ में घुसते समय मुझे साँप का तनिक भी भय न था। उसको मारना मैं बायें हाथ का खेल समझता था। कुएँ के धरातल से जब चार-पाँच गज रहा होगा, तब ध्यान से नीचे को देखा। अकल चकरा गयी। साँप फन फैलाये धरातल से एक हाथ ऊपर उठा हुआ लहरा रहा था। पूँछ और पूँछ के समीप का भाग पृथ्वी पर था, आधा अग्रभाग ऊपर उठा हुआ मेरी प्रतीक्षा कर रहा था। नीचे डण्डा बंधा था, मेरे उत्तरने की गति से जो इधर-उधर हिलता था। उसी के कारण शायद मुझे उत्तरते देख साँप घातक चोट के आसन पर बैठा था। सैंपेरा जैसे बीन बजाकर साँप को खिलाता है और साँप क्रोधित हो फन फैलाकर खड़ा होता तथा फुंकार मारकर चोट करता है ठीक उसी प्रकार साँप तैयार था। उसका प्रतिद्वन्द्वी- मैं उससे कुछ ही ऊपर धोती पकड़े लटक रहा था। धोती डेंग से बंधी होने के कारण कुएँ के बीचोबीच लटक रही थी और मुझे कुएँ के धरातल की परिधि के बीचोबीच उतरना था। इसके माने थे साँप से डेढ़-दो फुट-गज नहीं की दूरी पर पैर रखना और इतनी दूरी पर साँप पैर रखते ही चोट करता। स्मरण रहे, कच्चे कुएँ का व्यास बहुत कम होता है। नीचे तो वह डेढ़ गज से अधिक होता ही नहीं। ऐसी दशा में कुएँ में मैं सौंप से अधिक-से-अधिक चार फुट की दूरी पर रह सकता था, वह भी उस दशा में जब साँप मुझसे दूर रहने का प्रयत्न करता, पर उतरना तो था कुएँ के बीच में क्योंकि मेरा साधन बीचोबीच लटक रहा था। ऊपर से लटककर तो साँप मारा नहीं जा सकता था। उतरना तो था ही। थकावट से ऊपर चढ़ भी नहीं सकता था। अब तक अपने प्रतिद्वन्द्वी को पीठ दिखाने का निश्चय नहीं किया था। यदि ऐसा करता भी तो कुएँ के धरातल पर उतरे बिना क्या मैं ऊपर चढ़ सकता था? धीरे-धीरे उतरने लगा। एक-एक इंच ज्यों-ज्यों मैं नीचे उतरता जाता था, त्यों-त्यों मेरी एकाग्रचित्तता बढ़ती जाती थी। मुझे एक सूझ सूझी। दोनों हाथों से धोती पकड़े हुए मैंने अपने पैर कुएँ की बगल में लगा दिये। दीवार से पैर लगाते ही कुछ मिट्टी नीचे गिरी और साँप ने फूँ करके उस पर मुँह मारा। मेरे पैर भी दीवार से हट गये और मेरी टाँगें कमर से समकोण बनाती हुई लटकी रहीं, पर इससे साँप से दूरी और कुएँ की बगल से सटाये, और कुछ धक्के के साथ अपने प्रतिद्वन्द्वी के सम्मुख कुएँ की दूसरी ओर डेढ़ गज पर कुएँ के धरातल पर खड़ा हो गया। आँखें चार हुईं। शायद एक-दूसरे ने पहचाना। साँप को चक्षुःश्रवा कहते हैं। मैं स्वयं चक्षुःश्रवा हो रहा था। अन्य इन्द्रियों ने मानो सहानुभूति से अपनी शक्ति आँखों को दे दी हो। साँप के फन की ओर मेरी आँखें लगी हुई थीं कि वह कब किस ओर को आक्रमण करता है, साँप ने मोहनी- सी डाल दी थी। शायद वह मेरे आक्रमण की प्रतीक्षा में था, पर जिस विचार और आशा को लेकर मैंने कुएँ में घुसने की ठानी थी, वह तो आकाश-कुसुम था। मनुष्य का अनुमान और भावी योजनाएँ कभी-कभी कितनी मिथ्या और उल्टी निकलती हैं। मुझे साँप का साक्षात् होते ही अपनी योजना और आशा की असम्भवता प्रतीत हो गयी। डण्डा चलाने के लिए स्थान ही न था। लाठी या डण्डा चलाने के लिए काफी स्थान चाहिए, जिसमें वे घुमाये जा सकें। साँप को डण्डे से दबाया जा सकता था, पर ऐसा करना मानो तोप के मुहरे पर खड़ा होना था। यदि फन या उसके समीप का भाग न दबा, तो फिर वह पलटकर जरूर काटता और फन के पास दबाने की कोई सम्भावना भी होती तो फिर उसके पास पड़ी हुई दो चिट्ठियों को कैसे उठाता? दो चिट्ठियाँ उसके पास उससे सटी हुई पड़ी थीं और एक मेरी ओर थी। मैं तो चिट्ठियाँ लेने ही उतरा था। हम दोनों अपने पैतरों पर डटे थे। उस आसन पर खड़े-खड़े मुझे चार-पाँच मिनट हो गये। दोनों ओर मोरचे पड़े हुए थे, पर मेरा मोरचा कमजोर था। कहीं साँप मुझ पर झपट पड़ता तो मैं यदि बहुत करता तो उसे पकड़कर कुचलकर मार देता, पर वह तो अचूक तरल विष मेरे शरीर में पहुंचा ही देता और अपने साथ-साथ मुझे भी ले जाता। अब तक साँप ने वार न किया था, इसलिए मैंने भी उसे डण्डे से दबाने का खयाल छोड़ दिया। ऐसा करना उचित भी न था। अब प्रश्न था कि चिट्ठियाँ कैसे उठायी जायें? बस, एक सूरत थी। डण्डे से साँप की ओर से चिट्ठियों को सरकाया जाय। यदि साँप टूट पड़ा, तो कोई चारा न था। कुर्ता था, और कोई कपड़ा न था जिसे साँप के मुँह की ओर करके उसके फन को पकड़ लूँ। मारना या बिल्कुल छेड़खानी न करना-ये दो मार्ग थे। सो पहला मेरी शक्ति के बाहर था। बाध्य होकर दूसरे मार्ग का अवलम्बन करना पड़ा।
डण्डे को लेकर ज्यों ही मैंने साँप की दायीं ओर पड़ी हुई चिट्ठी की ओर उसे बढ़ाया कि साँप का फन पीछे की ओर हुआ। धीरे-धीरे डण्डा चिट्ठी की ओर बढ़ा और ज्यों ही चिट्ठी के पास पहुँचा कि फुंकार के साथ काली बिजली तड़पी और डण्डे पर गिरी। हृदय में कम्प हुआ और हाथों ने आज्ञा न मानी। डण्डा छूट पड़ा। मैं तो न मालूम कितना ऊपर उछल गया। जान-बूझकर नहीं, यों ही बिदककर। उछलकर जो खड़ा हुआ, तो देखा डण्डे के सिर पर तीन-चार स्थानों पर पीब-सा कुछ लगा हुआ है। वह विष था। साँप ने मानो अपनी शक्ति का सर्टिफिकेट सामने रख दिया था, पर मैं तो उसकी योग्यता का पहले ही से कायल था। उस सर्टिफिकेट की जरूरत न थी। साँप ने लगातार फूं-फूं करके डण्डे पर तीन-चार चोटें की। वह डण्डा पहली बार ही इस भाँति अपमानित हुआ था, या शायद वह साँप का उपहास कर रहा था।
उधर ऊपर फू-फूं और मेरे उछलने और फिर वही धमाके से खड़े होने से छोटे भाई ने समझा कि मेरा कार्य समाप्त हो गया और बन्धुत्व का नाता फूं-फूं और धमाके में टूट गया। उसने खयाल किया कि साँप के काटने से मैं गिर गया। मेरे कष्ट और विरह के खयाल से उसके कोमल हृदय को धक्का लगा। भ्रातृ-स्नेह के ताने-बाने को चोट लगी। उसकी चीख निकल गयी।
छोटे भाई की आशंका बेजा न थी, पर उस फूँ और धमाके से मेरा साहस कुछ बढ़ गया। दुबारा फिर उसी प्रकार लिफाफे को उठाने की चेष्टा की। अबकी बार साँप ने वार भी किया और डण्डे से चिपट भी गया। डण्डा हाथ से छूटा तो नहीं, पर झिझक, सहम अथवा आतंक से अपनी ओर खिंच गया और गुंजल्क मारता हुआ साँप का पिछला भाग मेरे हाथों से छू गया। उफ, कितना ठण्डा था! डण्डे को मैंने एक ओर पटक दिया। यदि कहीं उसका दूसरा वार पहले होता, तो उच्छलकर मैं साँप पर गिरता और न बचता, लेकिन जब जीवन होता है, तब हजारों ढंग बचने के निकल आते हैं। वह दैवी कृपा थी। डण्डे के मेरी ओर खिंच आने से मेरे और साँप के आसन बदल गये। मैंने तुरन्त ही लिफाफे और पोस्टकार्ड चुन लिये। चिट्ठियों को धोती के छोर से बाँध दिया, और छोटे भाई ने उन्हें ऊपर खींच लिया।
डण्डे को साँप के पास से उठाने में भी बड़ी कठिनाई पड़ी। साँप उससे खुलकर उस पर धरना देकर बैठा था। जीत तो मेरी हो चुकी थी पर अपना निशान गंवा चुका था। आगे हाथ बढ़ाता तो साँप हाथ पर वार करता, इसलिए कुएँ की बगल से एक मुट्ठी मिट्टी लेकर मैंने उसकी दायीं ओर फेंकी कि वह उस पर झपटा, और मैंने दूसरे हाथ से उसकी बायीं ओर से डण्डा खींच लिया, पर बात-की-बात में उसने दूसरी ओर भी वार किया। यदि बीच में डण्डा न होता, तो पैर में उसके दाँत गड़ गये होते।
अब ऊपर चढ़ना कोई कम कठिन काम न था। केवल हाथों के सहारे, पैरों को बिना कहीं लगाये हुए 36 फुट ऊपर चढ़ना मुझसे अब नहीं हो सकता। 15-20 फुट बिना पैरों के सहारे, केवल हाथों के बल चलने की हिम्मत रखता हूँ, कम ही, अधिक नहीं। पर उस ग्यारह वर्ष की अवस्था में मैं 36 फुट चढ़ा। बाँहें भर गयी थीं। छाती फूल गयी थी। धौंकनी चल रही थी। पर एक-एक इंच सरक-सरककर अपनी भुजाओं के बल में ऊपर चढ़ आया। यदि हाथ छूट जाते तो क्या होता, इसका अनुमान करना कठिन है। ऊपर आकर, बेहाल होकर थोड़ी देर तक पड़ा रहा। देह को झार-झूरकर धोती-कुर्ता पहना ! फिर किशनपुर के लड़के को, जिसने ऊपर चढ़ने की चेष्टा को देखा था, ताकीद करके कि वह कुएँवाली घटना किसी से न कहे, हम लोग आगे बढ़े।
सन् 1915 ई० में मैट्रीक्युलेशन पास करने के उपरान्त यह घटना मैंने माँ को सुनायी। सजल नेत्रों से माँ ने मुझे गोद में ऐसे बैठा लिया जैसे चिड़िया अपने बच्चों को डैने के नीचे छिपा लेती है।
कितने अच्छे थे वे दिन ! उस समय रायफल न थी, डण्डा था और डण्डे का शिकार-कम-से-कम उस साँप का शिकार- रायफल के शिकार से कम रोचक और भयानक न था।
श्रीराम शर्मा
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निम्नलिखित गद्यांशों के नीचे दिये गये प्रश्नों के उत्तर दीजिए –
(1) इन जाड़े के दिन थे ही, तिस पर हवा के प्रकोप से कंपकंपी कागजाती थी बनाना तक विद्वरा रही थी, इसलिए हमने कानों को धोती से बाँधा। माँ ने भुजाने के लिए थोड़े-से चने एक धोती में बाँध दिये। हम दोनों भाई अपना-अपना डण्डा लेकनी का से निकल पड़े। उस समय उस बबूल के डण्डे से जितना मोह था, उतना इस उम्र में रायफल से नहीं। मेरा डण्डा अनेक घापों के लिए नारायण-वाहन हो चुका था। मक्खनपुर के स्कूल और गाँव के बीच पड़नेवाले आम के पेड़ों से प्रतिवर्ष उससे आम झूरे जाते थे। इस कारण वह मूक डण्डा सजीव-सा प्रतीत होता था। प्रसन्नवदन हम दोनों मक्खनपुर की ओर तेजी से बढ़ने लगे। चिट्ठियों को मैंने टोपी में रख लिया, क्योंकि कुर्ते में जेबें न थीं।
प्रश्न (i) प्रस्तुत गद्यांश का संदर्भ लिखिए।
उत्तर – सन्दर्भ – प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘हिन्दी गद्य‘ में संकलित एवं श्रीराम शर्मा द्वारा लिखित ‘स्मृति‘ नामक निबन्ध से उधृत है। प्रस्तुत अवतरण में लेखक ने अपनी बाल्यावस्था का सजीव चित्रण करते हुए बचपन की छोटी-छोटी बारीकियों को स्पष्ट किया है।
(ii) रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।
उत्तर – रेखांकित अंश की व्याख्या- लेखक शीतऋतु का वर्णन करते हुए कहता है कि ” जाड़े का दिन था। हाड़ कंपा देने वाली ठण्ड थी। इसलिए हमने कानों को धोती से बाँध लिया। माँ ने चना भुजाने के लिए उसे एक धोती में बाँध कर मुझे दिया। मैं और छोटा भाई डण्डा लेकर घर से चल पड़े। उस समय उस बबूल के डण्डे से जितना लगाव था उतना आज एक रायफल से नहीं है। मैं उस डण्डे से अनेक साँपों को मार चुका था। प्रतिवर्ष इसी डण्डे से आम के टिकोरे तोड़े जाते थे। इसीलिए वह डण्डा मुझे अत्यन्त प्रिय था। हम दोनों भाई मक्खनपुर की ओर आगे बढ़े। कुर्ते में जेब न होने के कारण चिट्ठियों को मैंने टोपी में रख लिया था।”
(iii) लेखक ने चिट्ठियों को कहाँ रख लिया था?
उत्तर – लेखक ने चिट्ठियों को अपनी टोपी में रख लिया था।
(iv) लेखक ने चिट्ठियों को टोपी में क्यों रख लिया?
उत्तर – लेखक के कुर्ते में जेबें न थीं, इसलिए उसने चिट्ठियों को टोपी में रख लिया।
(v) लेखक ने डण्डे की तुलना किससे की है?
उत्तर – लेखक ने डण्डे की तुलना गरुण से की है।
(2) साँप से फुसकार करवा लेना मैं उस समय बड़ा काम समझता था। इसलिए जैसे ही हम दोनों उस कुएँ की ओर से निकले, कुएँ में ढेला फेंककर फुसकार सुनने की प्रवृत्ति जागृत हो गयी। मैं कुएँ की ओर बढ़ा। छोटा भाई मेरे पीछे हो लिया, जैसे बड़े मृगशावक के पीछे छोटा मृगशावक हो लेता है। कुएँ के किनारे से एक ढेला उठाया और उझककर एक हाथ से टोपी उतारते हुए साँप पर ढेला गिरा दिया, पर मुझ पर तो बिजली-सी गिर पड़ी।
प्रश्न (i) उपर्युक्त गद्यांश का संदर्भ लिखिए।
उत्तर- सन्दर्भ- पूर्ववत्
(ii) रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।
उत्तर- रेखांकित अंश की व्याख्या– लेखक कहता है कि “मैं बचपन में साँप से फुसकार करवा लेना महान् कार्य समझता था। मैं और छोटा भाई जब कुएँ की तरफ से गुजरे तो फुसकार सुनने की इच्छा बलवती हुई। मैं कुएँ की तरफ बढ़ा और छोटा भाई मेरे पीछे हो गया। कुएँ के किनारे से मैंने एक ढेला उठाया और एक हाथ से टोपी उतारते हुए साँप पर प्रहार किया, लेकिन मैं एक अजीब संकट में फँस गया। टोपी उतारते हुए मेरी तीनों चिट्ठियाँ कुएँ में गिर पड़ीं। साँप ने फुसकारा था या नहीं मुझे आज भी ठीक से याद नहीं है। मेरी स्थिति उस समय वही हो गयी थी जैसे घास चरते हुए हिरन की आत्मा गोली लगने पर निकल जाती है और वह तड़पता रहता है। चिट्ठियों के कुएँ में गिरने से मेरी भी स्थिति हिरन जैसी हो गयी थी।”
(iii) लेखक को कब लगा कि उस पर बिजली सी गिर पड़ी?
उत्तर- लेखक को टोपी उतारते हुए तीन चिट्ठियाँ कुएँ में गिर पड़ीं। उस समय लेखक पर बिजली-सी गिर पड़ी।
(3) साँप को चक्षुःश्रवा कहते हैं। मैं स्वयं चक्षुःश्रवा हो रहा था। अन्य इन्द्रियों ने मानो सहानुभूति से अपनी शक्ति आँखों को दे दी हो। साँप के फन की ओर मेरी आँखें लगी हुई थीं कि वह कब किस और को आक्रमण करता है, साँप ने मोहनी- सी डाल दी थी। शायद वह मेरे आक्रमण की प्रतीक्षा में था, पर जिस विचार और आशा को लेकर मैंने कुएँ में घुसने की ठानी थी, वह तो आकाश-कुसुम था। मनुष्य का अनुमान और भावी योजनाएँ कभी-कभी कितनी मिथ्या और उल्टी निकलती हैं। मुझे साँप का साक्षात् होते ही अपनी योजना और आशा की असम्भवता प्रतीत हो गयी। डण्डा चलाने के लिए स्थान ही न था। लाठी या डण्डा चलाने के लिए काफी स्थान चाहिए, जिसमें वे घुमाये जा सकें। साँप को डण्डे से दबाया जा सकता था, पर ऐसा करना मानो तोप के मुहरे पर खड़ा होना था।
प्रश्न (1) उपर्युक्त गद्यांश का संदर्भ लिखिए।
उत्तर- सन्दर्भ- पूर्ववत्
(ii) रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।
उत्तर- रेखांकित अंश की व्याख्या- लेखक का कहना है कि “साँप एक ऐसा जीव है जिसे चक्षुः श्रवा के नाम से जाना जाता है। वहाँ मैं स्वयं चक्षुःश्रवा हो रहा था। मुझे कुएँ में ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे अन्य इन्द्रियों ने अपनी सम्पूर्ण शक्ति नेत्रों को दे दी है। मेरी आँखें साँप के फन पर थीं कि साँप किस तरफ से आक्रमण कर सकता है। इसलिए मैं बिल्कुल चौकन्ना था। उधर साँप भी मेरे आक्रमण की प्रतीक्षा में था। मैंने जिस संकल्प के साथ कुएँ में प्रवेश किया था, लगता था संकल्प अधूरा ही रह जायेगा। सौंप से सामना होते ही मेरी योजना एवं आशा असम्भव-सी प्रतीत होने लगी। लाठी-डण्डा चलाने के लिए पर्याप्त स्थान चाहिए। कुएँ में डण्डा चलाने के लिए स्थान बहुत कम था, वहाँ केवल साँप को डण्डे से दबाया जा सकता था, लेकिन ऐसा करना तोप के आगे खड़ा होना था।”
(iii) चक्षुःश्रवा के नाम से कौन-सा जीव जाना जाता है?
उत्तर-चक्षुःश्रवा के नाम से साँप को जाना जाता है। माना जाता है कि सर्प कर्णविहीन होने के कारण आँख से सुनता भी है।
(iv) लेखक की दृष्टि कुएँ में कहाँ लगी हुई थी और क्यों?
उत्तर- लेखक की दृष्टि कुएँ में साँप के फन पर लगी हुई थी, क्योंकि वह जानना चाहता था कि साँप किस ओर से उसके ऊपर आक्रमण करता है।
(v) कुएँ में उतरने पर लेखक को क्या अनुभव हुआ?
उत्तर- कुएँ में उतरने पर लेखक को अनुभव हुआ कि किसी कार्य के क्रियान्वयन के सन्दर्भ में मनुष्य जो पूर्व-योजना बनाता है और अनुमान लगाता है, वह वास्तविक क्रियान्वयन के समय लगभग असत्य और विपरीत निकलती है।