UP Board Solution of Class 9 Hindi Gadya Chapter 7 – Thele Par Himalaya -ठेले पर हिमालय (डॉ० धर्मवीर भारती) Jivan Parichay, Gadyansh Adharit Prashn Uttar Summary
Dear Students! यहाँ पर हम आपको कक्षा 9 हिंदी गद्य खण्ड के पाठ 7 ठेले पर हिमालय का सम्पूर्ण हल प्रदान कर रहे हैं। यहाँ पर ठेले पर हिमालय सम्पूर्ण पाठ के साथ डॉ० धर्मवीर भारती का जीवन परिचय एवं कृतियाँ, गद्यांश आधारित प्रश्नोत्तर अर्थात गद्यांशो का हल, अभ्यास प्रश्न का हल दिया जा रहा है।
Dear students! Here we are providing you complete solution of Class 9 Hindi Prose Section Chapter 7 Thele Par Himalaya. Here, along with the complete text, biography and works of Dr. Dharamvir Bharati, passage based quiz i.e. solution of the passage and practice questions are being given.
Chapter Name | Thele Par Himalaya -ठेले पर हिमालय (डॉ० धर्मवीर भारती) Dr. Dharamvir Bharati |
Class | 9th |
Board Nam | UP Board (UPMSP) |
Topic Name | जीवन परिचय,गद्यांश आधारित प्रश्नोत्तर,गद्यांशो का हल(Jivan Parichay, Gadyansh Adharit Prashn Uttar Summary) |
जीवन–परिचय
डॉ० धर्मवीर भारती
स्मरणीय तथ्य
जन्म | 25 दिसम्बर, सन् 1926 ई० । |
मृत्यु | 4 सितम्बर, सन् 1997 ई० । |
जन्म | स्थान-इलाहाबाद (उ० प्र०)। |
शिक्षा– | प्रयाग विश्वविद्यालय से पी-एच०डी० की उपाधि। |
रचनाएँ–काव्य | ‘ठण्डा लोहा’, ‘कनुप्रिया’, ‘सात गीत वर्ष’ और ‘अन्धायुग’। |
कहानी संग्रह | चाँद और टूटे हुए लोग। |
नाटक | नदी प्यासी थी, नीली झील (एकांकी संग्रह)। |
उपन्यास | ‘गुनाहों का देवता’ और ‘सूरज का सातवाँ घोड़ा’। |
समीक्षा–साहित्य | मानव मूल्य और साहित्य। |
सम्पादन | ‘संगम’ और ‘धर्मयुग’। |
साहित्य–सेवा | कवि के रूप में, गद्य लेखक के रूप में एवं सम्पादक के रूप में। |
भाषा | शुद्ध परिमार्जित खड़ीबोली। संस्कृत, अंग्रेजी, उर्दू के प्रचलित शब्दों का प्रयोग। |
शैली | विषयानुकूल, शैली में पर्याप्त विविधता। |
अलंकार योजना | उपमा, मानवीकरण, रूपक तथा रूपकातिशयोक्ति। |
जीवन–परिचय
आधुनिक हिन्दी के सशक्त कथाकार एवं ललित निबन्धकार डॉ० धर्मवीर भारती का जन्म इलाहाबाद में 25 दिसम्बर, सन् 1926 ई० को हुआ था। इन्होंने प्रयाग विश्वविद्यालय से हिन्दी में एम० ए० करने के पश्चात् पी-एच० डी० की उपाधि प्राप्त की। कुछ समय तक प्रयाग से निकलने वाले साप्ताहिक हिन्दी पत्र ‘संगम‘ का सम्पादन किया तथा कुछ वर्षों तक प्रयाग विश्वविद्यालय में हिन्दी के अध्यापक भी रहे। सन् 1958 ई० में वे मुम्बई से प्रकाशित होनेवाले प्रसिद्ध साप्ताहिक पत्र ‘धर्मयुग‘ के सम्पादक हो गये। पत्रकारिता के प्रयोजन से आपने देश-विदेश का भ्रमण भी किया है। भारत सरकार ने सन् 1972 ई० में उनकी हिन्दी-सेवाओं एवं हिन्दी पत्रकारिता के लिए ‘पद्मश्री‘ से अलंकृत कर सम्मानित किया। उन्होंने ‘धर्मयुग‘ पत्रिका का सफलतापूर्वक सम्पादन किया। हिन्दी के यशस्वी साहित्यकार एवं ‘अंधायुग’ एवं ‘गुनाहों का देवता’ जैसी लोकप्रिय पुस्तकों के प्रणेता डॉ० धर्मवीर भारती का निधन 4 सितम्बर, सन् 1997 ई० को हो गया।
रचनाएँ
भारती जी की प्रतिभा बहुमुखी थी। इन्होंने कविता, नाटक, उपन्यास, कहानी आदि सभी कुछ लिखा है। इनकी रचनाएँ निम्न हैं-
काव्य– ‘ठण्डा लोहा’, ‘कनुप्रिया’, ‘सात गीत वर्ष’ और ‘अंधायुग’।
- निबन्ध संग्रह– ‘कहानी अनकहनी’, ‘ठेले पर हिमालय’ और ‘पश्यन्ती’ आदि।
- उपन्यास – ‘गुनाहों का देवता’ और ‘सूरज का सातवाँ घोड़ा’।
- नाटक और एकांकी संग्रह– ‘नदी प्यासी थी’, ‘नीली झील’।
- कहानी– संग्रह ‘चाँद और टूटे हुए लोग’।
- आलोचना – ‘मानव मूल्य और साहित्य’।
- सम्पादन – ‘संगम’ और ‘धर्मयुग’।
- अनुवाद – ‘देशान्तर’।
भाषा–शैली– इनकी भाषा शुद्ध परिमार्जित खड़ीबोली। संस्कृत, अंग्रेजी, उर्दू के प्रचलित शब्दों का प्रयोग। एवं शैली विषयानुकूल, शैली में पर्याप्त विविधता।
ठेले पर हिमालय
‘ठेले पर हिमालय’ – खासा दिलचस्प शीर्षक है न। और यकीन कीजिए, इसे बिल्कुल ढूँढ़ना नहीं पड़ा। बैठे-बिठाये मिल गया। अभी कल की बात है, एक पान की दुकान पर मैं अपने एक गुरुजन उपन्यासकार मित्र के साथ खड़ा था कि ठेले पर बर्फ की सिलें लादे हुए बर्फ वाला आया। ठण्डे, चिकने, चमकते बर्फ से भाप उड़ रही थी। मेरे मित्र का जन्म- स्थान अल्मोड़ा है, वे क्षण भर उस बर्फ को देखते रहे, उठती हुई भाप में खोये रहे और खोये खोये से ही बोले, “यही बर्फ तो हिमालय की शोभा है।” और तत्काल शीर्षक मेरे मन में कौंध गया, ‘ठेले पर हिमालय’। पर आपको इसलिए बता रहा हूँ कि अगर आप नये कवि हों तो भाई, इसे ले जायें और इस शीर्षक पर दो-तीन सौ पंक्तियाँ बेडौल-बेतुकी लिख डालें शीर्षक मौजू है. और अगर नयी कविता से नाराज हों, सुललित गीतकार हों तो भी गुंजाइश है. इस बर्फ को डाँटें, “उत्तर आओ। ऊँचे शिखर पर बन्दरों की तरह क्यों चढ़े बैठे हो? ओ नये कवियो ! ठेले पर लादो। पान की दुकानों पर बिको।”
ये तमाम बातें उसी समय मेरे मन में आयी और मैंने अपने गुरुजन मित्र को बतायी भी। वे हँसे भी, पर मुझे लगा कि वह बर्फ कहीं उनके मन को खरोंच गयी है और ईमान की बात यह है कि जिसने 50 मील दूर से भी बादलों के बीच नीचे आकाश में हिमालय की शिखर-रेखा को चाँद तारों से बात करते देखा है, चाँदनी में उजली बर्फ को धुंध के हल्के नीले जाल में दूधिया समुद्र की तरह मचलते और जगमगाते देखा है; उसके मन पर हिमालय की बर्फ एक ऐसी खरोंच छोड़ जाती है, जो हर बार याद आने पर पिरा उठती है। मैं जानता हूँ, क्योंकि वह बर्फ मैंने भी देखी है।
सच तो यह है कि सिर्फ बर्फ को बहुत निकट से देख पाने के लिए ही हम लोग कौसानी गये थे। नैनीताल से रानीखेत और रानीखेत से मझकाली के भयानक मोड़ों को पार करते हुए कोसी। कोसी से एक सड़क अल्मोड़ा चली जाती है, दूसरी कौसानी। कितना कष्टप्रद, कितना सूखा और कितना कुरूप है वह रास्ता। पानी का कहीं नाम-निशान नहीं, सूखे भूरे पहाड़, हरियाली का नाम नहीं। ढालों को काटकर बनाये हुए टेढ़े-मेढ़े खेत, जो थोड़े-से हों तो शायद अच्छे भी लगें, पर उनका एकरस सिलसिला बिल्कुल शैतान की आँत मालूम पड़ता है। फिर मझकाली के टेढ़े-मेढ़े रास्ते पर अल्मोड़े का एक नौसिखिया और लापरवाह ड्राइवर, जिसने बस के तमाम मुसाफिरों की ऐसी हालत कर दी कि जब हम कोसी पहुँचे तो सभी मुसाफिरों के चेहरे पीले पड़ चुके थे। कौसानी जानेवाले सिर्फ हम दो थे, वहीं उतर गये। बस अल्मोड़ा चली गयी। सामने के एक टीन के शेड में काठ की बेंच पर बैठकर हम वक्त काटते रहे। तबियत सुस्त थी और मौसम में उमस थी। दो घण्टे बाद दूसरी लारी आकर रुकी और जब उसमें से प्रसन्नवदन शुक्लजी को उतरते देखा तो हम लोगों की जान में जान आयी। शुक्लजी जैसा सफर का साथी पिछले जन्म के पुण्यों से ही मिलता है। उन्होंने हमें कौसानी आने का उत्साह दिलाया था और खुद तो कभी उनके चेहरे पर थकान या सुस्ती दिखी ही नहीं, पर उन्हें देखते ही हमारी भी सारी थकान काफूर हो जाया करती थी।
पर शुक्लजी के साथ यह नयी मूर्ति कौन है? लम्बा-दुबला शरीर, पतला साँवला चेहरा, एमिल जोला-सी दाढ़ी, ढीला-ढाला पतलून, कन्धे पर पड़ी हुई ऊनी जर्किन, बगल में लटकता हुआ जाने थर्मस या कैमरा या बाइनाकुलर। और खासी अटपटी चाल थी बाबू साहब की। यह पतला दुबला मुझी जैसा सीकिया शरीर और उस पर आपका झूमते हुए आना…….मेरे चेहरे पर निरन्तर घनी होती हुई उत्सुकता को ताड़कर शुक्लजी ने कहा- “हमारे शहर के मशहूर चित्रकार हैं सेन, अकादमी से इनकी कृतियों पर पुरस्कार मिला है। उसी रुपये से घूमकर छुट्टियाँ बिता रहे हैं।” थोड़ी ही देर में हम लोगों के साथ सेन घुल-मिल गया, कितना मीठा था हृदय से वह। वैसे उसके करतब आगे चलकर देखने में आये।
कोसी से बस चली तो सारा दृश्य बदल गया। सुडौल पत्थरों पर कल-कल करती हुई कोसी, किनारे के छोटे-छोटे सुन्दर गाँव और हरे मखमली खेत। कितनी सुन्दर है सोमेश्वर की घाटी। हरी-भरी। एक के बाद एक बस स्टेशन पड़ते थे, छोटे-छोटे पहाड़ी डाकखाने, चाय की दुकानें और कभी-कभी कोसी या उसमें गिरने वाले नदी-नालों पर बने हुए पुल। कहीं- कहीं सड़क निर्जन चीड़ के जंगलों से गुजरती थी। टेढ़ी-मेढ़ी ऊपर-नीचे रेंगती हुई कंकड़ीली पीठ वाले अजगर-सी सड़क पर धीरे-धीरे बस चली जा रही थी। रास्ता सुहावना था और उस थकावट के बाद उसका सुहावनापन हमको और भी तन्द्रालस बना रहा था। पर ज्यों-ज्यों वह आगे बढ़ रही थी, त्यों-त्यों हमारे मन में एक अजीब-सी निराशा छाती जा रही थी, अब तो हम लोग कौसानी के नजदीक हैं, कोसी से 18 मील चले आये, कौसानी सिर्फ छह मील है, पर कहाँ गया वह अतुलित सौन्दर्य, वह जादू, जो कौसानी के बारे में सुना जाता था। आते समय मेरे एक सहयोगी ने कहा था कि कश्मीर के मुकाबले में उन्हें कौसानी ने अधिक मोहा है, गाँधीजी ने यहीं अनासक्तियोग लिखा था और कहा था स्विट्जरलैण्ड का आभास कौसानी में ही होता है। ये नदी, घाटी, खेत, गाँव सुन्दर हैं, किन्तु इतनी प्रशंसा के योग्य तो नहीं ही हैं। हम कभी-कभी अपना संशय शुक्लजी से व्यक्त भी करने लगे और ज्यों-ज्यों कौसानी नजदीक आती गयी, त्यों-त्यों अधैर्य, फिर असन्तोष और अन्त में तो क्षोभ हमारे चेहरे पर झलक आया। शुक्लजी की क्या प्रतिक्रिया थी, हमारी इन भावनाओं पर, यह स्पष्ट नहीं हो पाया, क्योंकि वे बिल्कुल चुप थे। सहसा बस ने एक बहुत लम्बा मोड़ लिया और ढाल पर चढ़ने लगी।
सोमेश्वर की घाटी के उत्तर में ऊँची पर्वतमाला है, उसी पर, बिल्कुल शिखर पर कौसानी बसा हुआ है। कौसानी से दूसरी ओर फिर ढाल शुरू हो जाती है। कौसानी के अड्डे पर जाकर बस रुकी। छोटा-सा, बिल्कुल उजड़ा-सा गाँव और बर्फ का तो कहीं नाम-निशान नहीं। विल्कुल ठगे गये हम लोग। कितना खिन्न था मैं। अनखाते हुए बस से उतरा कि जहाँ था वहीं पत्थर की मूर्ति-सा स्तब्ध खड़ा रह गया। कितना अपार सौन्दर्य बिखरा था, सामने की घाटी में। इस कौसानी की पर्वतमाला ने अपने अंचल में यह जो कत्यूर की रंग-बिरंगी घाटी छिपा रखी है; इसमें किन्नर और यक्ष ही तो वास करते होंगे। पचासों मील चौड़ी यह घाटी, हरे मखमली कालीनों जैसे खेत, सुन्दर गेरू की शिलाएँ काटकर बने हुए लाल-लाल रास्ते, जिनके किनारे-किनारे सफेद-सफेद पत्थरों की कतार और इधर-उधर से आकर आपस में उलझ जानेवाली बेलों की लड़ियों-सी नदियाँ। मन में बेसाख्ता यही आया कि इन बेलों की लड़ियों को उठाकर कलाई में लपेट लूँ, आँखों से लगा लूँ। अकस्मात् हम एक-दूसरे लोक में चले आये थे। इतना सुकुमार, इतना सुन्दर, इतना सजा हुआ और इतना निष्कलंक कि लगा इस धरती पर तो जूते उतारकर, पाँव पोंछकर आगे बढ़ना चाहिए। धीरे-धीरे मेरी निगाहों ने इस घाटी को पार किया और जहाँ ये हरे खेत और नदियाँ और वन, क्षितिज के धुंधलेपन में, नीले कोहरे में घुल जाते थे, वहाँ पर कुछ छोटे पर्वतों का आभास, अनुभव किया, उसके बाद बादल थे और फिर कुछ नहीं। कुछ देर तक उन बादलों में निगाह भटकती रही कि अकस्मात् फिर एक हल्का-सा विस्मय का धक्का मन को लगा। इन धीरे-धीरे खिसकते हुए बादलों में यह कौन चीज है, जो अटल है। यह छोटा-सा बादल के टुकड़े-सा…… और कैसा अजब रंग है इसका, न सफेद, न रूपहला, न हल्का नीला….. पर तीनों का आभास देता हुआ। यह है क्या? बर्फ तो नहीं है। हाँ जी। बर्फ नहीं है तो क्या है? और अकस्मात् बिजली-सा यह विचार मन में कौंधा कि इसी कत्यूर घाटी के पार वह नगाधिराज, पर्वत सम्राट्, हिमालय है, इन बादलों ने उसे ढाँक रखा है, वैसे वह क्या सामने हैं, उसका एक कोई छोटा-सा बाल-स्वभाव वाला शिखर बादलों की खिड़की से झाँक रहा है। मैं हर्षातिरेक से चीख उठा ‘बरफ। वह देखा।’ शुक्लजी, सेन, सभी ने देखा, पर अकस्मात् वह फिर लुप्त हो गया। लगा, उसे बाल-शिखर जान किसी ने अन्दर खींच लिया। खिड़की से झाँक रहा है, कहीं गिर न पड़े।
पर उस एक क्षण के हिमदर्शन ने हम में जाने क्या भर दिया था। सारी खिन्नता, निराशा, थकावट सब छू-मन्तर हो गयी। हम सब आकुल हो उठे। अभी ये बादल छूट जायेंगे और फिर हिमालय हमारे सामने खड़ा होगा- निरावृत्त…. असीम सौन्दर्यराशि हमारे सामने अभी-अभी अपना घूंघट धीरे से खिसका देगी और….. और तब ? और तब ? सचमुच मेरा दिल बुरी तरह धड़क रहा था। शुक्लजी शान्त थे, केवल मेरी ओर देखकर कभी-कभी मुस्कुरा देते थे, जिसका अभिप्राय था, ‘इतने
अधीर थे, कौसानी आयी भी नहीं और मुँह लटका लिया। अब समझे यहाँ का जादू।’ डाक बंगले के खानसामे ने बताया- ‘आप लोग बड़े खुशकिस्मत हैं साहब। 14 ट्युरिस्ट आकर हफ्तों भर पड़े रहे, बर्फ नहीं दिखी। आज तो आप के आते ही आसार खुलने के हो रहे हैं।’
सामान रख दिया गया। पर मैं, मेरी पत्नी, सेन, शुक्लजी सभी बिना चाय पिये सामने के बरामदे में बैठे रहे और एकटक सामने देखते रहे। बादल धीरे-धीरे नीचे उतर रहे थे और एक-एक कर नये-नये शिखरों की हिम-रेखाएँ अनावृत्त हो रही थीं। और फिर सब खुल गया। बायीं ओर से शुरू होकर दायीं ओर गहरे शून्य में धँसती जाती हुई हिमशिखरों की ऊबड़-खाबड़, रहस्यमयी, रोमांचक श्रृंखला।
हमारे मन में उस समय क्या भावनाएँ उठ रही थीं, यह अगर बता पाता तो यह खरोंच, यह पीर ही क्यों रह गयी होती ? सिर्फ एक धुँधला-सा संवेदन इसका अवश्य था कि जैसे बर्फ के सिल के सामने खड़े होने पर मुँह पर ठण्डी-ठण्डी भाप लगती है, वैसे ही हिमालय की शीतलता माथे को छू रहीं है और सारे संघर्ष, सारे अन्तर्द्वन्द्व, सारे ताप जैसे नष्ट हो रहे हैं। क्यों पुराने साधकों ने दैहिक, दैविक और भौतिक कष्टों को ताप कहा था और उसे नष्ट करने के लिए वे क्यों हिमालय जाते थे, यह पहली बार मेरी समझ में आ रहा था। और अकस्मात् एक दूसरा तथ्य मेरे मन के क्षितिज पर उदित हुआ। कितनी, कितनी पुरानी है यह हिमराशि। जाने किस आदिम काल से यह शाश्वत, अविनाशी हिम इन शिखरों पर जमा हुआ। कुछ विदेशियों ने इसीलिए इस हिमालय की बर्फ को कहा है- चिरन्तन हिम।
सूरज ढल रहा था। और सुदूर शिखरों पर दरें, ग्लेशियर, जल, घाटियों का क्षीण आभास मिलने लगा था। आतंकित मन से मैंने यह सोचा था कि पता नहीं इन पर कभी मनुष्य का चरण पड़ा भी है या नहीं या अनन्तकाल से इन सूने बर्फ बँके दरों में सिर्फ बर्फ के अन्धड़ हू-हू करते हुए बहते रहते हैं।
सूरज डूबने लगा और धीरे-धीरे ग्लेशियरों में पिघली केसर बहने लगी। बरफ कमल के लाल फूलों में बदलने लगी, घाटियों गहरी नीली हो गयीं। अंधेरा होने लगा तो हम उठे और मुँह-हाथ धोने और चाय पीने में लगे। पर सब चुपचाप थे, गुमसुम जैसे सबका कुछ छिन गया हो या शायद सबको कुछ ऐसा मिल गया हो, जिसे अन्दर-ही-अन्दर सहेजने में सब आत्मलीन हो अपने में डूब गये हों।
थोड़ी देर में चाँद निकला और हम फिर बाहर निकले…. इस बार सब शान्त था। जैसे हिम सो रहा हो। मैं थोड़ा अलग आरामकुर्सी खींचकर बैठ गया। यह मेरा मन इतना कल्पनाहीन क्यों हो गया है? इसी हिमालय को देखकर किसने- किसने क्या-क्या नहीं लिखा और यह मेरा मन है कि एक कविता तो दूर, एक पंक्ति, हाय एक शब्द भी तो नहीं जागता ।…. पर कुछ नहीं, यह सब कितना छोटा लग रहा है इस हिम सम्राट् के समक्ष। पर धीरे-धीरे लगा कि मन के अन्दर भी बादल थे, जो छँट रहे हैं, कुछ ऐसा उभर रहा है, जो इन शिखरों की ही प्रकृति का है….। कुछ ऐसा, जो इसी ऊँचाई पर उठने की चेष्टा कर रहा है, ताकि इनसे इन्हीं के स्तर पर मिल सके। लगा, यह हिमालय बड़े भाई की तरह ऊपर चढ़ गया है और मुझे छोटे भाई को नीचे खड़ा हुआ कुण्ठित और लज्जित देखकर थोड़ा उत्साहित भी कर रहा है, स्नेहभरी चुनौती भी दे रहा है ‘हिम्मत है? ऊँचे उठोगे?’
और सहसा सन्नाटा तोड़कर सेन रवीन्द्र की कोई पंक्ति गा उठा और जैसे तन्द्रा टूट गयी। और हम सक्रिय हो उठे- अदम्य शक्ति, उल्लास, आनन्द जैसे हम में झलक पड़ रहा था। सबसे अधिक खुश था सेन, बच्चों की तरह चंचल, चिड़ियों की तरह चहकता हुआ। बोला, “भाई साहब, हम तो वण्डरस्ट्रक हैं कि यह भगवान् का क्या-क्या करतूत इस हिमालय में होता है।” इस पर हमारी हँसी मुश्किल में ठण्डी हो पायी थी कि अकस्मात् वह शीर्षासन करने लगा। पूछा गया तो बोला, “हम हर पर्सपेक्टिव हिमालय देखूँगा।” बाद में मालूम हुआ कि वह बम्बई (अब मुम्बई) की अत्याधुनिक चित्रशैली से थोड़ा नाराज है और कहने लगा, “ओ सब जीनियस लोग शीर का बल खड़ा होकर दुनिया को देखता है। इसी से मैं भी शीर का बल खड़ा होकर हिमालय देखता हूँ।”
दूसरे दिन घाटी में उतरकर 12 मील चलकर हम बैजनाथ पहुँचे, जहाँ गोमती बहती है। गोमती की उज्ज्वल जलराशि में हिमालय की बर्फीली चोटियों की छाया तैर रही थी। पता नहीं, उन शिखरों पर कब पहुँचूँ, कैसे पहुँचूँ, पर उस जल में तैरते हुए हिमालय से जी भरकर भेंटा, उसमें डूबा रहा।
आज भी उसकी याद आती है तो मन पिरा उठता है। कल ठेले के बर्फ को देखकर मेरे मित्र उपन्यासकार जिस तरह स्मृतियों में डूब गये, उस दर्द को समझता हूँ और जब ठेले पर हिमालय की बात कहकर हँसता हूँ तो वह उस दर्द को भुलाने का ही वहाना है। ये बर्फ की ऊँचाइयाँ बार-बार बुलाती हैं और हम हैं कि चौराहों पर खड़े ठेले पर लदकर निकलने वाली बर्फ को ही देखकर मन बहला लेते हैं। किसी ऐसे क्षण में ऐसे ही ठेलों पर लदे हिमालयों से घिरकर ही तो तुलसी ने कहा था- ‘कबहुँक हौं यहि रहिन रहौंगो’ मैं क्या कभी ऐसे भी रह सकूँगा, वास्तविक हिमशिखरों की ऊँचाइयों पर? और तब मन में आता है कि फिर हिमालय को किसी के हाथ सन्देशा भेज दूँ “नहीं बन्धु…. आऊँगा। मैं फिर लौट-लौटकर वहीं आऊँगा। उन्हीं ऊँचाइयों पर तो मेरा आवास है। वहीं मन रमता है, मैं करूँ तो क्या करूँ?”
धर्मवीर भारती
-
निम्नलिखित गद्यांशों के नीचे दिए गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए
(1) ठेले पर बर्फ की सिलें लादे हुए बर्फ वाला आया। ठण्डे, चिकने, चमकते बर्फ से भाप उड़ रही थी। मेरे मित्र का जन्म- स्थान अल्मोड़ा है, वे क्षण भर उस बर्फ को देखते रहे, उठती हुई भाप में खोये रहे और खोये खोये से ही बोले, “यही बर्फ तो हिमालय की शोभा है।” और तत्काल शीर्षक मेरे मन में काँध गया, ‘ठेले पर हिमालय’। पर आपको इसलिए बता रहा हूँ कि अगर आप नये कवि हों तो भाई, इसे ले जायें और इस शीर्षक पर दो-तीन सौ पंक्तियाँ बेडौल-बेतुकी लिख डालें-शीर्षक मौजूँ है और अगर नयी कविता से नाराज हों, सुललित गीतकार हों तो भी गुंजाइश है, इस बर्फ को डाँटें, “उतर आओ। ऊँचे शिखर पर बन्दरों की तरह क्यों चढ़े बैठे हो? ओ नये कवियो ! ठेले पर लादो। पान की दुकानों पर बिको।”
प्रश्न (1) उपर्युक्त गद्यांश का संदर्भ लिखिए।
उत्तर- सन्दर्भ – प्रस्तुत गद्यावतरण हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘हिन्दी गद्य’ के ‘ठेले पर हिमालय’ नामक पाठ से उद्धृत है। इसके लेखक डॉ० धर्मवीर भारती जी हैं। प्रस्तुत अवतरण में लेखक ने बर्फ का वर्णन किया है।
(ii) रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।
उत्तर- रेखांकित अंश की व्याख्या- ठेले पर लदे हुए बर्फ को देखकर लेखक कहता है कि एक मेरा मित्र है जिनका जन्म- स्थान अल्मोड़ा है। वे पल भर उस बर्फ को एकटक देखते रहे। बर्फ से उठती हुई भाप को देखकर वे बोले कि’ यही बर्फ तो हिमालय की शोभा है’। मेरे मन में तुरन्त यह शीर्षक प्रवेश कर गया, ‘ठेले पर हिमालय।’ मैं आपको इसलिए बताना उचित समझता हूँ कि यदि आप एक नये कवि हों तो आप इसे ले जायँ और इस पर दो-तीन सौ पंक्तियों में रचना कर दीजिए। यह शीर्षक बहुत ही रुचिकर है। यदि आपकी नयी कविता में रुचि नहीं है और सुललित कवि हैं तो झड़प लगावें कि नीचे उतर जाइये। ऊँचे शिखर पर बन्दरों की भाँति क्यों बैठे हो। ठेले पर चढ़ो और चाय, पान आदि की दुकानों पर बिको।
(iii) हिमालय की शोभा क्या है?
उत्तर-हिमालय की शोभा बर्फ है।
(2) सच तो यह है कि सिर्फ बर्फ को बहुत निकट से देख पाने के लिए ही हम लोग कौसानी गये थे। नैनीताल से रानीखेत और रानीखेत से मझकाली के भयानक मोड़ों को पार करते हुए कोसी। कोसी से एक सड़क अल्मोड़ा चली जाती है, दूसरी कौसानी। कितना कष्टप्रद, कितना सूखा और कितना कुरूप है वह रास्ता। पानी का कहीं नाम-निशान नहीं, सूखे भूरे पहाड़, हरियाली का नाम नहीं। ढालों को काटकर
बनाये हुए टेढ़े-मेढ़े खेत, जो थोड़े से हों तो शायद अच्छे भी लगें, पर उनका एकरस सिलसिला बिल्कुल शैतान की आँत मालूम पड़ता है।
प्रश्न (i) उपर्युक्त गद्यांश का संदर्भ लिखिए।
उत्तर- सन्दर्भ- पूर्ववत्
(ii) रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।
उत्तर- रेखांकित अंश की व्याख्या- लेखक बताता है कि कौसानी जाने के लिए नैनीताल से रानीखेत जाना पड़ता है और रानीखेत से मझकाली के दुर्गम मोड़ों को पार करते हुए एक रास्ता कोसी जाता है। कोसी से एक सड़क अल्मोड़ा को जाती है और दूसरी सड़क कौसानी को जाती है। यह मार्ग अत्यन्त कष्टप्रद और दुर्गम है। मार्ग में पानी कहीं नहीं दिखायी पड़ता है। सूखे-सूखे पहाड़ दिखायी पड़ते हैं। हरे-भरे दृश्य देखने को मन तरस जाता है। ढालों को काटकर टेढ़े-मेढ़े खेत तैयार किये जाते हैं, जो देखने में अच्छे नहीं लगते हैं।
(iii) बर्फ को पास से देखने के लिये लेखक कहाँ गया?
उत्तर- बर्फ को पास से देखने के लिये लेखक कौसानी गया।
(3) कौसानी के अड्डे पर जाकर बस रुकी। छोटा-सा, बिल्कुल उजड़ा-सा गाँव बर्फ का तो कहीं नाम-निशान नहीं। बिल्कुल ठगे गये हम लोग। कितना खिन्न था मैं, अनखाते हुए बस से उतरा कि जहाँ था वहीं पत्थर की मूर्ति-सा स्तब्ध खड़ा रह गया। कितना अपार सौन्दर्य बिखरा था, सामने की घाटी में। इस कौसानी की पर्वतमाला ने अपने अंचल में यह जो कत्यूर की रंग-बिरंगी घाटी छिपा रखी है; इसमें किन्नर और यक्ष ही तो वास करते होंगे। पचासों मील चौड़ी यह घाटी, हरे मखमली कालीनों जैसे खेत, सुन्दर गेरू की शिलाएँ काटकर बने हुए लाल-लाल रास्ते, जिनके किनारे- किनारे सफेद-सफेद पत्थरों की कतार और इधर-उधर से आकर आपस में उलझ जानेवाली बेलों की लड़ियों-सी नदियाँ। मन में बेसाख्ता यहाँ आया कि इन बला की लड़ियों को उठाकर कलाई में लपेट लूँ, आँखों से लगा लूँ।
प्रश्न (i) उपर्युक्त गद्यांश का संदर्भ लिखिए।
उत्तर- सन्दर्भ- पूर्ववत्
(ii) रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।
उत्तर- रेखांकित अंश की व्याख्या- धर्मवीर भारती कहते हैं कि कौसानी के सामने की घाटी के सौन्दर्य और उसके आकर्षण से खिचा हुआ मैं मैं मन्त्रमुग्ध-सा उसे देखता रहा। वह कत्यूर घाटी थी, जिसमें अनन्त सौन्दर्य बिखरा पड़ा था। जिस प्रकार कोई सुन्दरी अपने सौन्दर्य को अपने आँचल में छिपाकर रखती है, उसी प्रकार कौसानी की इस पर्वत श्रृंखला ने कत्यूर घाटी के सौन्दर्य को छिपा रखा था। कत्यूर घाटी के सौन्दर्य में जो आकर्षण है, उससे आकर्षित होकर निश्चय ही प्रेम, सौन्दर्य तथा संगीत के उपासक यक्ष और किन्नर यहाँ आते रहते होंगे। तात्पर्य यह है कि इस कत्यूर घाटी के सौन्दर्य से आकर्षित होकर देवता भी यहाँ आने के लिए उत्सुक रहे होंगे। यह घाटी लगभग पचास मील चौड़ी है। इस घाटी में हरे-भरे खेत भी हैं, जो हरी मखमली चादर के समान प्रतीत होते हैं। यहाँ गेरू की लाल-लाल शिलाएँ काटकर रास्ते बनाये गये हैं, जो लाल रंग के हैं और अत्यन्त आकर्षक लगते हैं। इन लाल-लाल रास्तों के किनारे सफेद पर्वत खड़े हैं, जो ऐसे लगते हैं मानो सफेद रंग की कोई रेखा खींच दी गयी हो। उलझी हुई बेलों की लड़ियों के समान नदियाँ वहाँ गुँथी हुई प्रतीत होती हैं। इस सौन्दर्य ने मेरा मन मोह लिया और सहसा मेरे मन में यह विचार आया कि इन बेलों की लड़ियों को उठाकर, अपनी कलाई में लपेटकर आँखों से लगा लूँगा।
(iii) कौन-सी घाटी थी, जिसमें अनन्त सौन्दर्य बिखरा पडा था?
उत्तर-कत्यूर घाटी में अनन्त सौन्दर्य बिखरा पड़ा था।
(4) हिमालय की शीतलता माथे को छू रही है और सारे संघर्ष, सारे अन्तर्द्वन्द्व, सारे ताप जैसे नष्ट हो रहे हैं। क्यों पुराने साधकों ने दैहिक, दैविक और भौतिक कष्टों को ताप कहा था और उसे नष्ट करने के लिए वे क्यों हिमालय जाते थे, यह पहली बार मेरी समझ में आ रहा था और अकस्मात् एक दूसरा तथ्य मेरे मन के क्षितिज पर उदित हुआ। कितनी, कितनी पुरानी है यह हिमराशि। जाने किस आदिम काल से यह शाश्वत, अविनाशी हिम इन शिखरों पर जमा हुआ। कुछ विदेशियों ने इसीलिए इस हिमालय की बर्फ को कहा है- चिरन्तन हिम।
प्रश्न (1) उपर्युक्त गद्यांश का संदर्भ लिखिए।
उत्तर- सन्दर्भ- पूर्ववत्
(ii) रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।
उत्तर- रेखांकित अंश की व्याख्या- लेखक स्पष्ट करता है कि पुराने साधकों ने दैहिक, दैविक और भौतिक कष्टों को ताप की संज्ञा दी थी और वे इस कष्ट से मुक्त होने के लिए हिमालय जाते थे। यह बातें मेरी समझ में आयी। हिमालय तान का भाशक और शीतलता का सूचक है। एकाएक मेरे मन में यह विचार आया कि यह हिमराशि कितनी पुरानी है, न जाने किय काल से यह उत्तुंग शिखरों पर जमा हुआ है। इसीलिए विदेशियों ने हिमालय की बर्फ को चिरंतन हिम की संज्ञा प्रदान की है।
(iii) कुछ विदेशियों ने हिमालय की बर्फ को चिरन्तन हिम क्यों कहा है?
उत्तर-न जाने किस आदिम काल से यह शाश्वत, अविनाशी हिम इन शिखरों पर जमा हुआ। कुछ विदेशियों ने इसीलिए इस हिमालय की बर्फ को चिरन्तन हिम भी कहा है।
(5) सूरज डूबने लगा और धीरे धीरे ग्लेशियरों में पिघली केसर बहने लगी। बर्फ कमल के लाल फूलों में बदलने लगी, घाटियों गहरी नीली हो गयीं। अँधेरा होने लगा तो हम उठे और मुँह हाथ धोने और चाय पीने में लगे। पर सब चुपचाप थे, गुमसुम जैसे सबका कुछ छिन गया हो या शायद सबको कुछ ऐसा मिल गया हो, जिसे अन्दर-ही-अन्दर सहजेने
में सब आत्मलीन हो अपने में में डूब गये हों।
प्रश्न (i) उपर्युक्त गद्यांश का संदर्भ लिखिए।
उत्तर- सन्दर्भ- पूर्ववत्
(ii) रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।
उत्तर- रेखांकित अंश की व्याख्या- लेखक कहता है कि जब सूर्य अस्त होने का समय आया तो ग्लेशियरों में पिघली केसर प्रवाहित होने लगी। बर्फ कमल के लाल फूलों में बदलने-सी प्रतीत होने लगी और घाटियाँ नीली दिखायी पड़ने लगीं। अंधेरा हो गया। मैं उठा और हाथ-मुँह धोकर चाय पीने लगा। उस समय का वातावरण बिल्कुल शान्त था। ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे सबका सर्वस्व छिन गया हो या सभी को सब कुछ मिल गया हो और ऐसा लग रहा था जैसे सभी अन्दर-अन्दर संजोने में तल्लीन होकर आत्मविभोर हो गये हों। यह दृश्य अत्यन्त मनमोहक था।
(iii) किस समय बर्फ कमल के लाल फूलों में बदलने सी प्रतीत होने लगी?
उत्तर-सूर्य अस्त के समय बर्फ कमल के लाल फूलों में बदलने-सी प्रतीत होने लगी।
(6) आज भी उसकी याद आती है तो मन पिरा उठता है। कल ठेले के बर्फ को देखकर मेरे मित्र उपन्यासकार जिस तरह स्मृतियों में डूब गये, उस दर्द को समझता हूँ और जब ठेले पर हिमालय की बात कहकर हँसता हूँ तो वह उस दर्द को भुलाने का ही बहाना है। ये बर्फ की ऊँचाइयाँ बार-बार बुलाती हैं और हम हैं कि चौराहों पर खड़े ठेले पर लदकर निकलने वाली बर्फ को ही देखकर मन बहला लेते हैं। किसी ऐसे क्षण में ऐसे ही ठेलों पर लदे हिमालयों से घिरकर ही तो तुलसी ने कहा था- ‘कबहुँक हाँ यदि रहिन रहौंगो’- मैं क्या कभी ऐसे भी रह सकूँगा, वास्तविक हिमशिखरों की ऊँचाइयों पर?
प्रश्न (i) उपर्युक्त गद्यांश का संदर्भ लिखिए।
उत्तर- सन्दर्भ- पूर्ववत्
(ii) रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।
उत्तर-रेखांकित अंश की व्याख्या- लेखक कहता है कि आज भी जब हिमालय की याद आती है तो मन दर्द के मारे कराह उठता है। मेरे उपन्यासकार मित्र ठेले की बर्फ को देखकर स्मृतियों में डूब जाते थे। जब हिमालय का वास्तविक दर्शन होता तो क्या स्थिति होती। मैं उनके इस दर्द को भली-भाँति समझता हूँ। बर्फ की ऊँचाइयों को देखकर ऐसा मालूम होता है जैसे वे मुझे बुला रही हैं। हम ठेले पर लदे बर्फ को ही देखकर मन बहला लेते हैं। तुलसी ने भी हिमालय के शिखरों पर रहने की अपनी इच्छा व्यक्त की थी। उन्हें भी हिमालय की ऊँची-ऊँची शिखरों से बेहद लगाव था।
(iii) किसने हिमालय के शिखरों पर रहने की इच्छा व्यक्त की है?
उत्तर–तुलसी ने भी हिमालय के शिखरों पर रहने की इच्छा व्यक्त की है।