UP Board Solution of Class 9 Hindi Padya Chapter 4 – Prem-Madhuri – प्रेम-माधुरी (भारतेन्दु हरिश्चन्द्र) Jivan Parichay, Padyansh Adharit Prashn Uttar Summary
Dear Students! यहाँ पर हम आपको कक्षा 9 हिंदी पद्य खण्ड के पाठ 4 प्रेम-माधुरी का सम्पूर्ण हल प्रदान कर रहे हैं। यहाँ पर प्रेम-माधुरी सम्पूर्ण पाठ के साथ भारतेन्दु हरिश्चन्द्र का जीवन परिचय एवं कृतियाँ, पद्यांश आधारित प्रश्नोत्तर अर्थात पद्यांशो का हल, अभ्यास प्रश्न का हल दिया जा रहा है।
Dear students! Here we are providing you complete solution of Class 9 Hindi Poetry Section Chapter Prem-Madhuri. Here the complete text, biography and works of Bharatendu Harishchandra along with solution of Poetry based quiz i.e. Poetry and practice questions are being given.
Chapter Name | Prem-Madhuri – प्रेम-माधुरी (भारतेन्दु हरिश्चन्द्र) Bharatendu Harishchandra |
Class | 9th |
Board Nam | UP Board (UPMSP) |
Topic Name | जीवन परिचय,पद्यांश आधारित प्रश्नोत्तर,पद्यांशो का हल (Jivan Parichay, Padyansh Adharit Prashn Uttar Summary) |
जीवन परिचय
भारतेन्दु हरिश्चन्द्र
स्मरणीय तथ्य
जन्म | सन् 1850 ई०, काशी। |
मृत्यु | सन् 1885 ई०। |
पिता | बाबू गोपालचन्द्र । |
रचनाएँ | प्रेम-माधुरी, प्रेम-तरंग, प्रेम-फुलवारी, श्रृंगार सतसई आदि। |
काव्यगत विशेषताएँ
वर्ण्य–विषय | श्रृंगार, प्रेम, ईश्वर-भक्ति, राष्ट्रीय प्रेम, समाज-सुधार आदि। |
भाषा | गद्य-खड़ीबोली, पद्य-ब्रजभाषा में उर्दू, अंग्रेजी आदि के शब्द मिश्रित हैं और व्याकरण की अशुद्धियाँ हैं। |
शैली | उद्बोधन, भावात्मक, व्यंग्यात्मक । |
छन्द | गीत, कवित्त, कुण्डलिया, लावनी, गजल, छप्पय, दोहा आदि। |
रस | नव रसों का प्रयोग। |
जीवन–परिचय
बाबू भारतेन्दु हरिश्चन्द्र का जन्म काशी के एक प्रतिष्ठित वैश्य परिवार में सन् 1850 ई० में हुआ था। इनके पिता बाबू गोपालचन्द्र जी (गिरधरदास) ब्रजभाषा के अच्छे कवि थे। इन्हें काव्य की प्रेरणा पिता से ही मिली थी। पाँच वर्ष की अवस्था में ही एक दोहा लिखकर बाबू भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने पिता से कवि होने का आशीर्वाद प्राप्त कर लिया था। दुर्भाग्य से भारतेन्दु जी की स्कूली शिक्षा सम्यक् प्रकार से नहीं हो सकी थी। इन्होंने घर पर ही हिन्दी, उर्दू, फारसी, अंग्रेजी और संस्कृत भाषाओं का ज्ञान स्वाध्याय से प्राप्त किया था। भारतेन्दु जी साहित्य स्त्रष्टा होने के साथ-साथ साहित्यकारों और कलाकारों का खूब सम्मान करते थे। ये अत्यन्त ही मस्तमौला स्वभाव के व्यक्ति थे और इसी फक्कड़पन में आकर इन्होंने अपनी सारी पैतृक सम्पत्ति को बर्बाद कर दिया था जो बाद में इनके पारिवारिक कलह का कारण बना। सन् 1885 ई० में इनका देहान्त राजयक्ष्मा की बीमारी से हो गया। 35 वर्ष के अल्पकाल में ही भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने हिन्दी के सर्वतोन्मुखी विकास के लिए जो प्रयास किया वह अद्वितीय था। इन्होंने पत्रिका प्रकाशन के साथ-साथ लेखकों का एक दल तैयार किया और निबन्ध, कहानी, उपन्यास, नाटक, कविता आदि हिन्दी की विभिन्न विधाओं में साहित्य प्रणयन को प्रेरणा प्रदान की। भारतेन्दु की साहित्यिक सेवाओं का ही परिणाम है कि उनके युग को ‘भारतेन्दु युग‘ कहा गया है।
रचनाएँ
बाबू भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की प्रसिद्ध काव्य-रचनाएँ हैं-प्रेम–माधुरी, प्रबोधिनी, प्रेम–सरोवर, प्रेम फुलवारी, सतसई श्रृंगार, भक्तमाल, विनय, प्रेम पचीसी आदि। काशी नागरी प्रचारिणी सभा से प्रकाशित तीन खण्डों में ‘भारतेन्दु ग्रन्थावली‘ नाम से इनकी समस्त रचनाओं का संकलन हुआ है। भारतेन्दु जी की रचनाओं की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इन्होंने रीतिकालीन काव्यधारा को राजदरबारी विलासिता के वातावरण से मुक्त कराकर स्वतन्त्र जन-जीवन के साथ विचरण करने की नयी दिशा प्रदान की। इनकी रचनाओं में प्रेम और भक्ति के साथ-साथ राष्ट्रीयता, समाज-सुधार, राष्ट्रभक्ति और देश-प्रेम के व्यापक स्वरूप के दर्शन होते हैं। इन्होंने रीतिकालीन कवियों की भाँति प्रेम और श्रृंगार की भी सरल एवं भावपूर्ण मार्मिक रचनाएँ की हैं।
भाषा– गद्य-खड़ीबोली, पद्य-ब्रजभाषा में उर्दू, अंग्रेजी आदि के शब्द मिश्रित हैं और व्याकरण की अशुद्धियाँ हैं।
शैली– उद्बोधन, भावात्मक, व्यंग्यात्मक ।
प्रेम–माधुरी
कूकै लगीं कोइलें कदंबन पै बैठि फेरि
धोए-धोए पात हिलि-हिलि सरसै लगे।
बोलै लगे दादुर मयूर लगे नाचै फेरि
देखि के सँजोगी-जन हिय हरसै लगे।।
हरी भई भूमि सीरी पवन चलन लागी
लखि ‘हरिचंद’ फेरि प्रान तरसै लगे।
फेरि झूमि-झूमि बरषा की रितु आई फेरि
बादर निगोरे झुकि झुकि बरसै लगे ।। 1 ।।
सन्दर्भ – प्रस्तुत पद्यांश पाठ्य-पुस्तक ‘हिन्दी काव्य‘ में कवित्त-छन्द भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की रचना है। जो कि उनके ‘प्रेम–माधुरी‘ शीर्षक के अन्तर्गत संगृहीत छन्दों से उद्धृत है।
व्याख्या– वर्षा-ऋतु आने पर कोयलें फिर कदम्ब के वृक्षों पर बैठकर कूकने लगी हैं। वर्षा के जल से धुले हुए वृक्षों के पत्ते वायु में हिलते हुए शोभा पाने लगे हैं। मेंढक बोलने लगे हैं, मोर नाचने लगे हैं और अपने प्रियजनों के समीप स्थित लोग इस वर्षा ऋतु के दृश्यों को देख-देखकर प्रसन्न होने लगे हैं। सारी भूमि हरियाली से भर गयी है, शीतल वायु चलने लगी है और हरिश्चन्द्र (श्रीकृष्ण) को देखकर हमारे प्राण मिलने को फिर तरसने लगे हैं। झूमते हुए बादलों के साथ यह वर्षा ऋतु फिर आ गयी और ये निगोड़े बादल फिर धरती पर झुक झुककर बरसने लगे हैं।
काव्यगत सौन्दर्य
(1) कवि ने वर्षा के मनोहारी दृश्यों को शब्द चित्रों में उतारा है।
(2) भाषा में सरसता एवं प्रवाह है।
(3) शैली वर्णनात्मक तथा शब्द चित्रात्मक है।
अलंकार– अनुप्रास तथा पुनरुक्ति अलंकार
रस-श्रृंगार।
जिय पै जु होइ अधिकार तो बिचार कीजै
लोक-लाज, भलो-बुरो, भले निरधारिए।
नैन, श्रौन, कर, पग, सबै पर-बस भए
उतै चलि जात इन्हें कैसे कै सम्हारिए।
‘हरिचंद’ भई सब भाँति सों पराई हम
इन्हें ज्ञान कहि कहो कैसे कै निबारिए।
मन में रहै जो ताहि दीजिए बिसारि, मन
आपै बसै जामैं ताहि कैसे के बिसारिए।।2।।
सन्दर्भ– पूर्ववत्
व्याख्या– गोपियाँ कहती हैं-हे उद्धव । यदि हमारा अपने मन पर अधिकार हो तभी तो हम लोक- लज्जा तथा अच्छे-बुरे आदि का निर्धारण कर सकती हैं। पर हमारे नेत्र, कान, हाथ, पैर सभी तो परवश हो चुके हैं। ये तो बार-बार कृष्ण की ओर ही आकर्षित होते चले जाते हैं। हम तो सब प्रकार से परवश हो चुकी हैं। अब हमें ज्ञान का उपदेश देकर आप कृष्ण से विमुख कैसे कर पायेंगे। अरे! जो मन में बसा हो उसे तो भुलाया भी जा सकता है किन्तु स्वयं मन जिसमें बसा हुआ हो उसे कैसे भुलाया जा सकता है।
काव्यगत सौन्दर्य
(1) भारतेन्दु जी ने गोपियों की प्रेम-विवशता को बड़े मार्मिक शब्दों में तुत किया है।
(2) भाषा भावानुरूप है।
(3) शैली भावुकता से सिचित है।
अलंकार–अनुप्रास कार की योजना है।
छन्द–कवित्त।
यह संग में लागियै डोलें सदा, बिन देखे न धीरज आनती हैं।
छिनहू जो वियोग परै ‘हरिचंद’, तो चाल प्रलै की सु ठानती हैं।
बरुनी में थिरै न झपैं उझपैं, पल मैं न समाइबो जानती हैं।
पिय प्यारे तिहारे निहारे बिना, अँखियाँ, दुखियाँ नहिं मानती हैं।।3।।
सन्दर्भ– पूर्ववत्
व्याख्या – गोपियाँ कहती हैं- हे प्रिय ! हमारी ये आँखें सदा आपके संग-संग ही लगी रही हैं। आपको – देखे बिना इनको चैन ही नहीं पड़ता। यदि कभी क्षणभर को भी आपसे वियोग हो जाता है तो ये आँखें प्रलय की ठान लेती हैं अर्थात् आँसू बरसाना प्रारम्भ कर देती हैं। ये कभी बरौनिया में स्थिर नहीं रह पातीं। कभी बन्द होत। हैं तो कभी खुलती हैं। पलकों में बन्द होना तो जैसे इनको आता ही नहीं है। हमारे प्यारे, हे प्रिय ! – आपको देखे बिना हमारी आँखें मानती ही नहीं।
काव्यगत सौन्दर्य
(1) आँखों का मिलन-आकुलता का कवि ने बड़ा हृदयस्पर्शी वर्णन प्रस्तुत किया
(2) भाषा ब्रज है।
(3) शैली चमत्कारिक और आलंकारिक है।
(4) मुहावरों का मुक्त भाव से प्रयोग हुआ है जैसे- संग लगे डोलना, धीरज न लाना, प्रलय की चाल ठानना आदि।
रस–वियोग श्रृंगार।
गुण–माधुर्य,
छन्द–सवैया।
पहिले बहु भाँति भरोसो दयो, अब ही हम लाइ मिलावती हैं।
‘हरिचंद’ भरोसे रही उनके सखियाँ जो हमारी कहावती हैं।।
अब वेई जुदा है रहीं हम सों, उलटो मिलि कै समुझावती हैं।
पहिले तो लगाइ कै आग अरी! जल को अब आपुहिं धावती हैं।।4।।
सन्दर्भ– पूर्ववत्
व्याख्या– हे सखी! पहले तो तुम हमें तरह-तरह से भरोसा दिलाती थीं कि हम अभी श्रीकृष्ण को लाकर तुपसे मिला देती हैं। जो मेरी अपनी सखियाँ कहलाती हैं, मैं उनके ही विश्वास पर बैठी रही, लेकिन अब वही मुझसे अलग हो गयी हैं। श्रीकृष्ण को मिलाने की अपेक्षा वे उल्टा मुझे ही समझाती हैं। अरी सखी ! इन्होंने पहले तो मेरे हृदय में प्रेम की जाग भड़का दी और अब उसे बुझाने के लिए स्वयं ही जल लेने को दौड़ी जाती हैं। यह कहाँ का न्याय है?
काव्यगत सौन्दर्य
(1) यहाँ कवि ने सखियों के प्रति गोपी की खीझ का सुन्दर चित्रण किया है।
भाषा – ब्रज ।
शैली– मुक्तक ।
रस – विप्रलम्भ श्रृंगार ।
छन्द–सवैया ।
अलंकार – अनुप्रास।
गुण–प्रसाद ।
ऊधौ जू सूधो गहो वह मारग, ज्ञान की तेरे जहाँ गुदरी है।
कोऊ नहीं सिख मानिहै ह्याँ, इक स्याम की प्रीति प्रतीति खरी है।।
ये ब्रजबाला सबै इक सी, हरिचंद जू मण्डली ही बिगरी है।
एक जौ होय तो ज्ञान सिखाइए कूप ही में यहाँ भाँग परी है।।5।।
सन्दर्भ– पूर्ववत्
व्याख्या – हे उद्धव! तुम उस मार्ग पर सीधे चले जाओ, जहाँ तुम्हारे ज्ञान की गुदड़ी रखी हुई है। यहाँ पर तुम्हारे उपदेश को कोई गोपी ग्रहण नहीं करेगी; क्योंकि सभी श्रीकृष्ण के प्रेम में विश्वास रखती हैं। हे उद्धव! ये सभी ब्रजबालाएँ एक-सी हैं, कोई भिन्न प्रकृति की नहीं हैं। इनकी तो पूरी मण्डली ही बिगड़ी हुई है। यदि किसी एक गोपी की बात होती तो तुम उसे ज्ञान का उपदेश देते किन्तु यहाँ तो कुएँ में ही भाँग पड़ी हुई है अर्थात् सभी श्रीकृष्ण के प्रेम-रस में सराबोर होकर पागल-सी हो गयी हैं। इसलिए तुम्हारा उपदेश देना व्यर्थ होगा।
काव्यगत सौन्दर्य
(1) यहाँ कवि ने श्रीकृष्ण के प्रति गोपियों का अनन्य प्रेम प्रकट किया है।
भाषा – मुहावरेदार, सरस ब्रज ।
शैली – मुक्तक ।
छन्द– सवैया।
अलंकार – अनुप्रास, रूपक।
रस–श्रृंगार।
सखि आयो बसंत रितून को कंत, चहुँ दिसि फूलि रही सरसों।
बर सीतल मंद सुगंध समीर सतावन हार भयो गर सों।।
अब सुंदर साँवरो नंद किसोर कहै ‘हरिचंद’ गयो घर सों।
परसों को बिताय दियो बरसों तरसों कब पाँय पिया परसों।।6।।
सन्दर्भ– पूर्ववत्
व्याख्या – एक गोपी कृष्णं-विरह से पीड़ित होकर दूसरी सखी से अपनी मनोव्यथा को व्यक्त करती हुई कहती है कि हे सखी! ऋतुओं का स्वामी बसन्त आ गया है। चारों दिशाओं में पीली पीली सरसों फूल रही है। अत्यन्त सुन्दर, शीतल, मन्द और सुगन्धित वायु बह रही है किन्तु बसन्त ऋतु का मादक वातावरण श्रीकृष्ण के बिना मुझे पूर्णरूप से कष्टदायक प्रतीत हो रहा है। नन्दनन्दन श्रीकृष्ण हमसे यह बताकर गये थे कि मैं परसों तक मथुरा से लौट आऊँगा, परन्तु उन्होंने परसों के स्थान पर न जाने कितने वर्ष व्यतीत कर दिये और अभी तक लौटकर नहीं आये। मैं तो अपने प्रियतम कृष्ण के चरणों का स्पर्श करने के लिए तरस रही हूँ, पता नहीं कब उनके दर्शन हो सकेंगे?
काव्यगत सौन्दर्य
(1) बसन्त ऋतु का सुहावना वातावरण गोपियों की विरह-व्यथा को और भी
अधिक बढ़ाता है।
भाषा – ब्रज ।
शैली – वर्णनात्मक, मुक्तक।
रस–वियोग श्रृंगार।
छन्द–सवैया ।
अलंकार – यमक, अनुप्रास।
गुण–माधुर्य।
इन दुखियान को न चैन सपनेहुँ मिल्यो,
तासों सदा व्याकुल बिकल अकुलायेंगी।
प्यारे हरिचंदजू की बीती जानि औधि, प्रान,
चाहत चले पै ये तो संग ना समायेंगी।।
देखौ एक बारहू न नैन भरि तोहिं यातें
जौन-जौन लोक जैहैं तहाँ पछतायेंगी।
बिना प्रान-प्यारे भये दरस तुम्हारे हाय
मरेहू पै आँखें ये खुली ही रहि जायेंगी।।7।।
सन्दर्भ– पूर्ववत्
व्याख्या – विरहिणी गोपियाँ कहती हैं कि प्रियतम श्रीकृष्ण के विरह में आकुल इन नेत्रों को स्वप्न में भी शान्ति नहीं मिल पाती है; क्योंकि इन्होंने कभी स्वप्न में भी श्रीकृष्ण के दर्शन नहीं किये। इसलिए ये सदा प्रिय-दर्शन के लिए व्याकुल होते रहेंगे। प्रियतम के लौट आने की अवधि को बीतती हुई जानकर मेरे प्राण व इस शरीर से निकलकर जाना चाहते हैं, परन्तु मेरे मरने पर भी ये नेत्र प्राणों के साथ नहीं जाना चाहते हैं; क्योंकि इन्होंने अपने प्रियतम कृष्ण को जी भरकर नहीं देखा है। इसलिए जिस किसी भी लोक में ये नेत्र जायेंगे, वहाँ पश्चात्ताप ही करते रहेंगे। हे उद्भव ! तुम श्रीकृष्ण से कहना कि हमारे नेत्र मृत्यु के पश्चात् भी तुम्हारे दर्शन की प्रतीक्षा में खुले रहेंगे।
काव्यगत सौन्दर्य
(1) गोपियों के एकनिष्ठ प्रेम का चित्रण है।
भाषा– ब्रज ।
शैली – मुक्तक ।
रस– वियोग श्रृंगार।
छन्द– सवैया ।
अलंकार – अनुप्रास, पुनरुक्तिप्रकाश।
भाव–साम्य– सूर की अँखियाँ भी हरि-दर्शन की भूखी हैं
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निम्नलिखित पद्यांशों पर आधारित प्रश्नों के उत्तर दीजिए–
(क) कूकै लगीं कोइलें कदंबन पै बैठि फेरि
धोए-धोए पात हिलि-हिलि सरसै लगे।
बोलै लगे दादुर मयूर लगे नाचै फेरि
देखि के सँजोगी- जन हिय हरसै लगे।।
हरी भई भूमि सीरी पवन चलन लागी
लखि ‘हरिचंद’ फेरि प्रान तरसै लगे।
फेरि झूमि-झूमि बरषा की रितु आई फेरि
बादर निगोरे झुकि झुकि बरसै लगे।।
प्रश्न– (i) प्रस्तुत पद्यांश का सन्दर्भ लिखिए।
उत्तर– सन्दर्भ – प्रस्तुत पद्यांश पाठ्य-पुस्तक ‘हिन्दी काव्य‘ में कवित्त-छन्द भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की रचना है। जो कि उनके ‘प्रेम–माधुरी‘ शीर्षक के अन्तर्गत संगृहीत छन्दों से उद्धृत है।
(ii) कोयलें किस वृक्ष पर बैठकर कूक रही हैं?
उत्तर– वर्षा ऋतु आने पर कोयलें कदम्ब के वृक्षों पर बैठकर कूक रही हैं।
(iii) उपर्युक्त पद्यांश में किस ऋतु के सौन्दर्य का वर्णन किया गया है?
उत्तर– उपर्युक्त पद्यांश में वर्षा ऋतु के सौन्दर्य का वर्णन है।
(ख) जिय पै जु होइ अधिकार तो बिचार कीजै
लोक-लाज, भलो-बुरो, भले निरधारिए।
नैन, श्रौन, कर, पग, सबै पर-बस भए
उतै चलि जात इन्हें कैसे कै सम्हारिए।
‘हरिचंद’ भई सब भाँति सों पराई हम
इन्हें ज्ञान कहि कहो कैसे कै निबारिए।
मन में रहै जो ताहि दीजिए बिसारि, मन
आपै बसै जामैं ताहि कैसे कै बिसारिए।।
प्रश्न– (1) प्रस्तुत पंक्तियों में गोपियाँ किससे कह रही हैं?
उत्तर– प्रस्तुत पंक्तियों में में गोपियाँ उद्धव से कह रही हैं।
(ii) गोपियों के नेत्र, कान, हाथ, पैर सभी किसके वश में हो गये हैं?
उत्तर–गोपियों के नेत्र, कान, हाथ, पैर सभी भगवान श्रीकृष्ण के वश में हो गये हैं।
(iii) गोपियों के अनुसार कृष्ण को क्यों नहीं भुलाया जा सकता है?
उत्तर–गोपियाँ उद्धव से कह रही हैं कि जो मन में बसा हो, उसे तो भुलाया जा सकता है किन्तु स्वयं मन जिसमें बसा हो उसे कैसे भुलाया जा सकता है अर्थात् मन पूरी तरह से भगवान श्रीकृष्ण में बस गया है। अतः भगवान श्री कृष्ण को भुलाना संभव नहीं है।
(ग) ऊधौ जू सूधो गहो वह मारग, ज्ञान की तेरे जहाँ गुदरी है है।
कोऊ नहीं सिख मानिहै ह्याँ, इक स्याम की प्रीति प्रतीति खरी है।।
ये ब्रजबाला सबै इक सी, हरिचंद जू मण्डली ही बिगरी है।
एक जौ होय तो ज्ञान सिखाइए कूप ही में यहाँ भाँग परी है।।
प्रश्न- (1) गोपियाँ किससे कह रही हैं?
उत्तर- इस सवैये में गोपियाँ उद्धव से कह रही हैं।
(ii) ‘यहाँ तो कुएँ में ही भाँग पड़ी हुई है‘ का आशय स्पष्ट कीजिए।
उत्तर- ब्रज बालाएँ उद्धव से कह रही हैं कि यहाँ की गोपिकाओं की पूरी मण्डली ही बिगड़ी हुई है। यदि किसी एक गोपी की बात होती तो तुम उसे ज्ञान का उपदेश देते किन्तु यहाँ तो कुएँ में ही भाँग पड़ी हुई है अर्थात् सभी श्रीकृष्ण के प्रेम रस में सराबोर होकर पागल-सी ही गयी हैं।
(iii) गोपियाँ किसके प्रेम रस में डूबी हुई हैं?
उत्तर-गोपियाँ श्रीकृष्ण के प्रेम रस में डूबी हुई हैं।
(घ) सखि आयो बसंत रितून को कंत, चहुँ दिसि फूलि रही सरसों ।
बर सीतल मंद सुगंध समीर सतावन हार भयो गर सों।।
अब सुंदर साँवरो नंद किसोर कहै ‘हरिचंद’ गयो घर सों।
परसों को बिताय दियो बरसों तरसों कब पाँय पिया परसों।।
प्रश्न- (i) प्रस्तुत पद्यांश में किस ऋतु का वर्णन है?
उत्तर- प्रस्तुत सवैये में बसन्त ऋतु का वर्णन है।
(ii) गोपियाँ किसके वियोग में दुःखी हैं?
उत्तर- गोपियाँ श्रीकृष्ण की विरह व्यथा से पीड़ित हैं।
(iii) बसन्त ऋतु के सौन्दर्य पर दो पंक्तियाँ लिखिए।
उत्तर- (a) बसन्त ऋतु के आगमन पर चारों तरफ पीली-पीली सरसों फूली रहती है।
(b) अत्यन्त सुन्दर, शीतल, मन्द और सुगन्धित वायु बह रही है।
(ङ) इन दुखियान को न चैन सपनेहुँ मिल्यो,
तासों सदा व्याकुल बिकल अकुलायेंगी।
प्यारे हरिचंदजू की बीती जानि औधि, प्रान,
चाहत चले पै ये तो संग ना समायँगी।।
देखौ एक बारहू न नैन भरि तोहिं यातें
जौन-जौन लोक जैहैं तहाँ पछतायेंगी।
बिना प्रान-प्यारे भये दरस तुम्हारे हाय
मरेहू पै आँखें ये खुली ही रहि जायेंगी।।
प्रश्न- (i) प्रस्तुत पद्यांश का सन्दर्भ लिखिए।
उत्तर- प्रस्तुत पद्यांश भारतेन्दु हरिश्चन्द्र द्वारा रचित ‘प्रेम-माधुरी’ से उद्धृत है।
(ii) गोपियाँ उद्धव से कृष्णजी के पास क्या सन्देशा भिजवा रही हैं?
उत्तर- (ii) गोपियाँ उद्धव से कह रही हैं कि हे उद्धव! कृष्ण के पास जाकर यह सन्देश देना कि गोपियों के नेत्र मृत्यु के पश्चात् भी तुम्हारे दर्शन की प्रतीक्षा में खुले रहेंगे।
(iii) प्रस्तुत छन्द में कौन-सा रस है?
उत्तर-प्रस्तुत छन्द में वियोग श्रृंगार है।