हिंदी का क्षेत्र, महत्व व विशेषताएं – Hindi Ka Kshetra, Mahtva, Visheshtaye (हिन्दी भाषा : क्षेत्र, स्वरूप तथा विकास)
हिंदी का क्षेत्र, महत्व व विशेषताएं – Hindi Ka Kshetra, Mahtva, Visheshtaye (हिन्दी भाषा : क्षेत्र, स्वरूप तथा विकास) – Hindi Vyakaran ॥ Hindi Grammar ॥ हिंदी व्याकरण ॥ सामान्य हिंदी ॥
हिंदी का क्षेत्र (Hindi Ka Kshetra)
भारतीय संघ की राजभाषा के रूप में हिंदी आज सारे देश की भाषा है। सिद्धांत की दृष्टि से हिंदी का जो रूप राष्ट्रभाषा के लिए ग्रहण किया गया है, उसके भौगोलिक क्षेत्र का सीमांकन भी किया गया है। उत्तर में हिमालय से दक्षिण में नर्मदा की तलहटी तक और पूर्व में भागलपुर से पश्चिम में अमृतसर तक हिंदी, खड़ीबोली के रूप में, फैली है और साहित्य, पत्रकारिता, स्कूल-कॉलेज, प्रशासन, विधानसभा और विधानपरिषदों में हर दिन व्यवहार में आ रही है।
ऐतिहासिक परंपरा को ध्यान में रखते हुए अधिकतर विद्वानों ने हिंदीक्षेत्र को दो भागों में बाँटा है-
(१) पश्चिमी हिंदी, और (२) पूर्वी हिंदी।
इन दोनों क्षेत्रों में हिंदी की अनेक बोलियाँ प्रचलित हैं, जो अब प्रायः घरों में ही व्यवहृत होती हैं। हिंदीक्षेत्र को खंड-खंड कर देखने का अब समय नहीं रहा । भाषाविज्ञान की दृष्टि से भले ही ऐसा करना कदाचित ठीक हो, पर हिंदी की समृद्ध परंपरा और उसकी प्रवहमान सामाजिकता को ध्यान में रखते हुए ऐसा करना उचित न होगा। सच तो यह है कि हिंदी आज अपनी सभी क्षेत्रीय सीमाओं को तोड़ चुकी है। क्या पूरब और क्या पश्चिम, क्या देश और क्या विदेश, सभी दिशाओं में यह गतिमान है। देश की केंद्रीय शक्ति, ज्यों-ज्यों मजबूत होती जाएगी, हिंदी और भी समृद्ध होगी। राजनीतिज्ञों से अधिक इस जनता का बल प्राप्त है। अतः इसके नष्ट होने का कोई भय नहीं है।
हिंदी का महत्त्व (Hindi Ka Mahtva)
संसार में कुल मिलाकर लगभग 2800 भाषाएँ हैं, जिनमें 13 ऐसी भाषाएँ हैं, जिनके बोलनेवालों की संख्या 60 करोड़ से अधिक है। संसार की भाषाओं में हिंदी भाषा को तृतीय स्थान प्राप्त है। इसके बोलनेवालों की संख्या 30 करोड़ के आसपास है। भारत के बाहर (बर्मा, लंका, मॉरिशस, ट्रिनिडाड, फीजी, मलाया, सुरीनाम, दक्षिण और पूर्वी अफ्रीका) भी हिंदी बोलनेवालों की संख्या काफी है। एशिया महादेश की भाषाओं में हिंदी ही एक ऐसी भाषा है, जो अपने देश के बाहर बोली और लिखी जाती है।
हिंदी हमारे देश में युग-युग से विचार-विनिमय का माध्यम रही है। यह केवल उत्तर भारत की भाषा नहीं, बल्कि दक्षिण भारत के प्राचीन आचार्यों – वल्लभाचार्य, विट्ठल, रामानुज, रामानंद आदि ने भी इसी भाषा के माध्यम से अपने सिद्धांतों और मतों क प्रचार किया था। अहिंदीभाषी राज्यों के संत कवियों (आसाम के शंकरदेव, महाराष्ट्र के नामदेव और ज्ञानेश्वर, गुजरात के नरसी मेहता, बंगाल के चैतन्य इत्यादि) ने इसी भाषा को अपने धर्म और साहित्य का माध्यम बनाया। आज हिंदी किसी-न-किसी रूप में पूरे देश में प्रचलित है।
हिंदी एक जीवित और सशक्त भाषा है। इसने अनेक देशी और विदेशी शब्दों को अपनाया है। इसकी पाचन शक्ति कमजोर नहीं है। इसने अन्य भाषाओं की ध्वनियों, शब्दों, मुहावरों और कहावतों को अपने अंदर पचाया है। इस प्रकार हिंदी ने अपने शब्द-भांडार और अपनी अभिव्यक्ति को समृद्ध किया है।
हिंदी एक जीवित भाषा है। इसका प्रचार-प्रसार बढ़ता जा रहा है। हिंदी एक सरल भाषा है, जिसके कारण इसका व्यवहार देश के कोने-कोने में हो रहा है।
हिंदी की विशेषताएँ (Hindi Ki Visheshtayen)
अन्य भारतीय भाषाओं की तरह हिंदी भी संस्कृत पर आधृत है। इसकी अपनी प्रकृति है, पर इसने संस्कृत का अंधानुकरण नहीं किया। इसने संस्कृत वर्णमाला और उच्चारण को अपनाया है और संस्कृत की अधिकतर ध्वनियों को ग्रहण किया है।
संस्कृत वाङ्मय देवनागरी लिपि में लिखित है। हिंदी ने भी उसी लिपि को स्वीकार किया है। इसमें ध्वनि-प्रतीकों—स्वर और व्यंजन का क्रम वैज्ञानिक है। स्वरों में हस्व-दीर्घ के लिए अलग-अलग मात्राएँ हैं और स्वरों की मात्राएँ निश्चित हैं। अल्पप्राण और महाप्राण ध्वनियों के लिए अलग-अलग लिपि-चिह्न हैं; जैसे- ‘क’ अल्पप्राण ध्वनि और ‘ख’ महाप्राण ध्वनि। लेकिन रोमन में ‘ख’ के लिए स्वतंत्र लिपि-चिह्न नहीं है, इसीलिए k में h मिलाकर ‘kha’ लिखा जाता । यह गत्यात्मक और व्यावहारिक लिपि है। इसमें पहले जिन ध्वनियों के लिए चिह्न नहीं थे, उन्हें बाद में बना लिया गया है; जैसे – क, ख, ग, ज, फ, अॅ, ऍ इत्यादि। इसमें तीन संयुक्त व्यंजन हैं— क्ष, त्र और ज्ञ; इनके अतिरिक्त कुछ और भी आवश्यक व्यंजन गढ़ लिए गए हैं; जैसे—ड़, ढ़।
इसमें वर्णों के नाम उच्चारण के अनुरूप हैं, पर अन्य लिपियों में ऐसी बात नहीं। यहाँ जो वर्ण जैसा है, उसका सामान्य उच्चारण वैसा ही होता है। इसमें प्रत्येक ध्वनि के लिए अलग चिह्न है। एक ध्वनि के लिए एक ही चिह्न इसकी सबसे बड़ी विशेषता है। अन्य लिपियों में एक ही ध्वनि के लिए अनेक चिह्न प्रयुक्त होते हैं; जैसे – रोमन लिपि में ‘क’ ध्वनि के लिए C (Cat कैट), K (Kin किन), Q (Quote क्वोट) ।
देवनागरी में एक लिपि – चिह्न से दो-दो ध्वनियों का बोध नहीं होता। जैसे— रोमन लिपि में ‘U’ से अ और उ — But (बट), Put (पुट) । इसमें केवल उच्चरित ध्वनियाँ ही अंकित होती हैं, अनुच्चरित ध्वनियाँ नहीं; जैसे— Walk में अनुच्चरित ध्वनि L भी लिखी जाती है। वस्तुतः, हिंदी भाषा जिस रूप में बोली जाती है, उसी रूप में सामान्यतः लिखी भी जाती है। इसलिए, अँगरेजी की अपेक्षा हिंदी सीखने में अधिक कठिनाई नहीं होती ।
हिंदी व्याकरण की विशेषताएँ (Hindi Vyakran Ki Visheshtaen)
हिंदी व्याकरण संस्कृत व्याकरण पर आधृत होते हुए भी अपनी कुछ स्वतंत्र विशेषताएँ रखता है। हिंदी को संस्कृत का उत्तराधिकार मिला है। इसमें संस्कृत व्याकरण की देन भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं है। पं० किशोरीदास वाजपेयी ने लिखा है कि “हिंदी ने अपना व्याकरण प्रायः संस्कृत व्याकरण के आधार पर ही बनाया है— क्रियाप्रवाह एकांत संस्कृत व्याकरण के आधार पर है, पर कहीं-कहीं मार्गभेद भी है। मार्गभेद वहीं हुआ है, जहाँ हिंदी ने संस्कृत की अपेक्षा सरलतर मार्ग ग्रहण किया है। ” १
हिंदी की क्रियाएँ
संस्कृत व्याकरण में क्रिया के दो प्रकार हैं- (१) तिड़ंत, और (२) कृदंत तिड़ंत क्रिया में कर्ता या कर्म के अनुसार पुंलिंग स्त्रीलिंग के रूपभेद नहीं होते, केवल कर्ता या कर्म के अनुसार ‘पुरुष’ बदलते हैं। जैसे—
एकवचन वहुवचन
राम चतुर है। लड़के अच्छे हैं।
सीता चतुर है। लड़कियाँ अच्छी हैं।
यहाँ ‘राम है’ और ‘सीता है’ में तिड़ंत क्रिया में पुंलिंग स्त्रीलिंग का कोई भेद नहीं है । हाँ, एकवचन कर्ता के साथ वह एकवचन ‘है’ के रूप में है, बहुवचन में उसका बहुवचन रूप ‘हैं’ हो गया। पुरुषभेद से भी तिड़ंत क्रिया में रूपभेद होता है। जैसे—
मैं ऐसा नहीं हूँ तू ऐसा नहीं है।
कृदंत क्रिया में कर्ता के अनुसार ‘पुंलिंग-स्त्रीलिंग के भेद से रूपभेद रहता है, किंतु ‘पुरुषभेद’ का इसपर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। जैसे-
- रामः गतः —राम गया।
- सीता गता – सीता गई।
यहाँ कर्तृवाच्य कृदंत क्रिया है । ‘त’ का हिंदी में ‘य’ हो गया है और उसे फिर पुंलिंगव्यंजक प्रत्यय-रूप ‘गया’ या स्त्रीलिंगव्यंजक प्रत्यय-रूप ‘गई’ कर दिया गया।
प्रायः हर भाषा में क्रिया के दो रूप होते हैं। हिंदी में भी ये रूप वर्तमान हैं। किंतु पं॰ किशोरीदास वाजपेयी के मतानुसार, “हिंदी ने कृदंत क्रियाओं को अधिक पसंद किय क्योंकि यह बहुत सरल और स्पष्ट है। हिंदी की सरलता का यह एक प्रमुख कारण है कि इसकी अधिकांश क्रियाएँ कृदंत हैं।”
हिंदी की विभक्तियाँ (Hindi Ki Vibhakti)
चूँकि हिंदी ने संस्कृत व्याकरण की कृदंत-पद्धति अपनाई है, इसलिए संस्कृत की संज्ञा-विभक्तियों से हिंदी की संज्ञा – विभक्तियाँ अपेक्षाकृत कम हैं। संख्या में ये पाँच-सा ही हैं। विभक्तियों की इतनी कम संख्या होते हुए भी हिंदी में सरलता और स्पष्टता इतनी अधिक है कि संसार की दूसरी भाषा में शायद ही हो। राष्ट्रभाषा हिंदी के प्रसार का मूल कारण इसकी सरलता है ।
विभक्तियाँ मुख्यतः आठ हैं— ने, का, के, को, से, में, पर और के लिए। हिंदी भाषा में विभक्तियों का प्रयोग बड़ी कड़ाई से होता है। हिंदी की यह एक ऐसी विशेषता है, जो भारत की अन्य आधुनिक भाषाओं में, उर्दू को छोड़, नहीं पाई जाती। खासकर ‘ने’ विभक्ति के प्रयोग में बड़ी सावधानी रखी जाती है।
हिंदी में विभक्तियों का प्रयोग क्रिया की स्पष्टता, सरलता और सुनिश्चय के लिए होता है। संस्कृत में विभक्तियों के व्यवहार में अनेक रूपभेद होते हैं, हिंदी में यह झमेला बिलकुल नहीं है। वस्तुतः, हिंदी व्याकरण ने संस्कृत व्याकरण को अधिकाधिक सरल बनाया है। हिंदी ने संस्कृत व्याकरण की अधिकतर उलझनें दूर कर दी है।
हिंदी के सर्वनाम अपने हैं
हिंदी के सर्वनामों पर प्राकृतों तथा अपभ्रंशों का प्रभाव है; क्योंकि ये वहीं से घिसते-बनते आए हैं। इनकी अपनी विशेषताएँ हैं। हिंदी के सर्वनाम चाहे पुरुषवाचक हों या प्रश्नवाचक, सभी अपनी विशेषताएँ लिए हुए हैं। संस्कृत में केवल ‘युष्मद् – अस्मद्’ ही सब लिंगों में समानरूप में प्रयुक्त होते हैं; शेष सभी सर्वनाम अपने रूप बदलते हैं; जैसे—
कस्याः अयं बालकः ? कस्य इयं बालिका ?
हिंदी ने इन झंझटों को दूर कर दिया है। यहाँ स्त्रीलिंग या पुंलिंग, किसी भी रूप में सर्वनाम का रूप नहीं बदलता देखिए-
- तू पढ़ेगी — तू पढ़ेगा। तुम कहाँ जाओगी- मैं पटना जाऊँगा –
- मैं पटना जाऊँगी। – तुम कहाँ जाओगे ?
- कोई जा रहा है— कोई जा रही है।
- कौन जा रहा है—कौन जा रही है?
हिंदी सर्वनामों की एकरूपता उसकी एक ऐसी विशेषता है, जो भारत की अन्य वर्तमान भाषाओं में प्रायः नहीं मिलती। यहाँ भी हिंदी ने संस्कृत की जटिलता कम कर भाषा को अपेक्षाकृत अधिक सरल बनाया है। इससे बढ़कर सर्वनामों का सरलतम रूप और क्या हो सकता है ?
हिंदी के विशेषण की अपनी विशेषता है- हिंदी में विशेषण के रूप भी अत्यंत सरल हैं।
पं० किशोरीदास वाजपेयी जी के अनुसार – “हिंदी में विशेषण के साथ अलग विभक्ति लगाने का बखेड़ा भी नहीं है। विशेषण तो विशेष्य के रंग में डूबा होता है, विशेष्य की विभक्तियाँ ही विशेषण की विभक्तियाँ हैं । तब फिर अलग विशेषण में विभक्तियाँ लगाने की झंझट क्या ? उदारणार्थ –
- चतुर लड़के से प्रश्न पूछो।
- मूर्ख जनों को सचेत करो ।
जब सर्वनाम विशेषण के रूप में आते हैं, तब वे इसी तरह निर्विभक्तिक होते हैं-
इसका घर – उसका पेड़ । किसकी स्त्री – किसका पति
हिंदी के अव्यय (Hindi Ke Avyay)
हिंदी के कुछ अव्यय संस्कृत से आए हैं और कुछ अपने हैं, जो अपनी विशेषता लिए हुए हैं। हिंदी में ‘जब-तब’, ‘इधर-उधर’, ‘जहाँ-तहाँ ‘ इत्यादि अव्यय अपने हैं। इनके स्थान पर संस्कृत के ‘यदा-कदा’, ‘इतस्ततः’, ‘यत्र-तत्र’ इत्यादि अव्यय हिंदी में कम चलते हैं। लेकिन, संस्कृत के कुछ अव्यय ऐसे हैं, जो हिंदी में बहुत अधिक चलते हैं; जैसे – यदि, कदाचित् आदि।
शब्द – निर्माण की दृष्टि से या व्याकरण की दृष्टि से, किसी भी दृष्टि से विचार करे, तो हम यह पाएँगे कि हिंदी जटिलता से सरलता की ओर सदा अग्रसर होती रही है। जैसे-
- संस्कृत प्राकृत हिंदी
- एकादश एआरह ग्यारह
- कर्ण कण्ण कान
- कर्म कम्म काम
- चतुर्थ चउट्ठ चौथा
- दुग्ध दुद्ध दूध
- मुक्ता मुत्ता मोती
- जीभ जिह्वा जिब्भा
व्याकरण की दृष्टि से हम ऊपर कह चुके हैं कि क्रियाओं, सर्वनामों, विशेषणों, विभक्तियों और अव्ययों के सामान्य प्रयोग में हिंदी ने कितनी सरलता से काम लिया है; कहीं भी संस्कृत की कठोरता अथवा जटिलता नहीं आने दी। स्पष्ट हैं कि हिंदी भाषा और व्याकरण की कुछ ऐसी विशेषताएँ हैं, जिनसे वह संसार की किसी भी सभ्य भाषा से किसी भी तरह कम शिष्ट नहीं कही जा सकती। ‘हिंदी की प्रकृति’ नहीं समझने के कारण ही तरह-तरह के भ्रम फैले हैं।
हिंदी की प्रकृति (Hindi Ki Prakriti)
हिंदी की अपनी प्रकृति है। उसके कुछ दोष हमारे लिए गुण हैं और कुछ गुण दूसरों के लिए दोष बन गए हैं। पर, ऐसा सभी भाषाओं में होता है। यदि बंगाली सज्जन कहते हैं कि हिंदी में लिंग एक झंझट है, तो दक्षिणवाले कहते हैं कि हिंदी में विभक्तियों का प्रयोग बड़ा जटिल है। इस तरह, जितने मुँह, उतनी बातें हैं। प्रश्न यह है कि अगर सबकी बातें मान ली जाएँ, तो हिंदी का ‘अपना’ क्या रह जाएगा! फिर यह प्रश्न हिंदी के लिए ही क्यों? हिंदीवाले भी बँगला, तेलुगु, तमिल, मलयालम, मराठी, गुजराती, उड़िया (ओड़िया) इत्यादि आधुनिक आर्यभाषाएँ सीखते हैं और इन भाषाओं से अपना संबंध बनाकर हिंदी को समृद्ध करना चाहते हैं, लेकिन ये यह कभी नहीं कहते कि अमुक भाष में यह ‘बेकार’ है, ‘जटिल’ है, ‘अव्यावहारिक’ है आदि-आदि।
सुप्रसिद्ध भाषाविद् डॉ. सुनीति कुमार चटर्जी ने भी हिंदी भाषा और व्याकरण की त्रुटियाँ दूर करने की राय दी थी और उसके व्याकरण को सरल से सरल बनाने का सुझाव दिया था। इन विविध प्रश्नों का समुचित उत्तर देने के लिए हम ६-७ अगस्त, १९४९ को दिल्ली में अखिल भारतीय राष्ट्रभाषा-व्यवस्था-परिषद् में एक बंगाली विद्वान, श्री क्षेत्रेशचंद्र चट्टोपाध्याय द्वारा दिए गए भाषण का कुछ अंश यहाँ उद्धृत करते हैं।
श्री चट्टोपाध्याय के अनुसार – “संसार की ऐसी कोई भी भाषा नहीं है, जिसकी कोई अपनी विशेषता न हो। उसकी यह विशेषता ही अन्य भाषाभाषियों के लिए उलझन बन जाती है। हमारी बँगला भाषा में हो ऐसी चीजें हैं, जो अन्य भाषाभाषियों के लिए कठिन समस्याएँ हैं। वे लोग इन बारीकियों को समझे बिना जब बँगला भाषा लिखते-बोलते हैं, तब हमलोगों को हँसी आती है। वस्तुतः, हिंदी बहुत सरल भाषा है। बिना पढ़े और सीखे यह कामचलाऊ हो जाती है। ऐसी कामचलाऊ भाषा तो साधारण होगी ही, इसमें लिंग संबंधी तथा अन्यान्य गलतियाँ भी होंगी; पर काम सबका चल जाता है। परंतु, उत्तम टकसाली हिंदी लिखने-बोलने के लिए तो हिंदी पढ़नी सीखनी होगी। यदि हिंदी पढ़ने-सीखने में दो वर्ष भी अच्छी तरह लगाए जाएँ, तो किसी भी अहिंदीभाषी के सामने कोई कठिनाई न रहेगी।”
भाषा एक प्रवाह है
“भाषा का एक प्रवाह होता है। उसके उस नैसर्गिक प्रवाह को रोकना या उलटा मोड़ना उचित नहीं । इस तरह यदि कोई कृत्रिम भाषा बनाई जाएगी, तो वह जनता से दूर जा पड़ेगी। …… – “इसलिए अपनी सुविधा के लिए भाषा में वैसा कोई मौलिक उलट-फेर करना उचित नहीं। हाँ, विभिन्न प्रांतों के लोग चाहे जैसी हिंदी लिख – बोल सकते हैं। फिर, जो रूप स्वतः ग्राह्य हो जाएगा, जिसे अधिकांश जनता नैसर्गिक रूप से स्वीकार कर लेगी, वह स्थिर हो जाएगा।””
सच तो यह है कि “हर भाषा के बोलने और लिखने का अपना एक अलग और निराला ढंग होता है। कुछ बातें ऐसी हैं, हम हिंदीवाले एक ढंग से कहते हैं, उर्दूवाले कुछ दूसरे ढंग से और अँगरेजीवाले किसी तीसरे ढंग से। यही बात बँगला, मराठी, गुजराती इत्यादि भाषाओं में किसी और ढंग से कही जाती है। भाषा का यह ढंग ही उसका रूप शुद्ध रखता है और यही उसके अच्छे होने की सबसे अच्छी पहचान या कसौटी है।”
मानक (परिनिष्ठित) हिंदी (Manak Hindi)
अक्सर यह प्रश्न किया जाता है कि हिंदी का मानक रूप क्या है, इसका आधार और मूल स्रोत क्या है। भाषाविज्ञान की दृष्टि से पश्चिमी हिंदी के अंतर्गत पाँच प्रमुख बोलियों में एक खड़ीबोली से हिंदी का सीधा संबंध है। यह खड़ीबोली एक बड़े भू-भाग में बोली जाती है। अपने ठेठ रूप में यह रामपुर, मुरादाबाद, बिजनौर, मेरठ, सहारनपुर, देहरादून और अंबाला जिलों में बोली जाती है। इनमें मेरठ की खड़ीबोली आदर्श और मानक मानी जाती है।
यह सच है कि पश्चिमी हिंदी की खड़ीबोली का साहित्यिक या मानक रूप आज सारे देश में प्रचलित है, लेकिन वर्तमान अवस्था तक पहुँचने में उसे परिष्कार, संशोधन और समन्वय की अनेक स्थितियों से गुजरना पड़ा है। उन्नीसवीं शताब्दी से आजतक, विगत डेढ़-दो सौ वर्षों में, खड़ीबोली का जो परिष्कार, परिशोधन और संस्कार हुआ है, वह मेरठ, दिल्ली और आगरा में बोली जानेवाली खड़ीबोली से काफी भिन्न हो गई है। कुछ उदाहरण देकर इस अंतर को स्पष्ट कर उसका मानक रूप स्थिर किया जा सकता है।
१. मानक खड़ीबोली में द्वित्व ध्वनियों की प्रधानता नहीं है, किंतु मेरठी अथवा पश्चिमी हिंदी की खड़ीबोली में द्वित्व ध्वनियों का उच्चारण आज भी वहाँ के सामान्य लोग करते हैं। जैसे-
पश्चिमी हिंदी मानक हिंदी
गाड्डी गाड़ी
धोत्ती धोती
बेट्टी बेटी
राण्णी रानी
देक्खा देखा
जात्ता जाता
रोट्टी रोटी
२. पश्चिमी हिंदी और मानक खड़ीबोली हिंदी की क्रिया रचना में भी अंतर है। जैसे—
वर्तमानकाल में पश्चिमी हिंदी मानक हिंदी
चले है चलता है
चलूँ हूँ चलता हूँ
मारूँ था मारता था
भूतकाल में पश्चिमी हिंदी मानक हिंदी
चल्या चला
लिख्या लिखा
उठ्या उठा
३. कारक – रचना की दृष्टि से भी दोनों में अंतर है। जैसे—
कारक पश्चिमी हिंदी मानक हिंदी
कर्ता नैं, पैं ने
कर्म क, नै को
करण सै, मू से
संप्रदान कू, णे, ने के लिए
अपादान सै, सु से
अधिकरण पै, उप्पर में, पर
४. सर्वनामों के प्रयोग में भी अंतर है; जैसे—मुझ> मुज; हमारा > म्हारा।
५. क्रियाविशेषणों में भी उच्चारणगत अंतर है; जैसे- अब > इब; अभी > इभी; वहाँ > ह्याँ; जहाँ > जाँ, क्यों > क्यूँ ।
६. मानक हिंदी के ‘इन’ स्त्रीलिंग-प्रत्यय के स्थान पर पश्चिमी हिंदी में ‘अन’, ‘अण’ प्रत्यय लगते हैं; जैसे― चमारिन > चमारण; धोबिन > धोब्बण ।
उपर्युक्त उदाहरणों से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि राष्ट्रभाषा के रूप में प्रचलित मानक हिंदी का स्वरूप स्वतंत्र हो गया है और मेरठी हिंदी से वह कहीं अधिक परिष्कृत भी हो गया है। अतएव, आचार्य वाजपेयी का यह कथन सही है कि राष्ट्रभाषा हिंदी का लेखक मेरठ की खड़ीबोली का एकमात्र अनुसरण नहीं कर सकता।
मानक हिंदी ने देशी-विदेशी अनेक शब्दों को ग्रहणकर और अपने परिवार की अनेक बोलियों और अन्य भाषाओं के प्रभावकारी तत्त्वों और शक्तियों को मिलाकर एक ऐसी परिष्कृत खड़ीबोली का शानदार रूप गठित किया है, जो आज राष्ट्रभाषा का गौरव बन गई है। आधुनिक हिंदी व्याकरण उसी परिष्कृत खड़ीबोली हिंदी का प्रतीक है। इसने पश्चिमी हिंदी की मर्दानगी और पूर्वी हिंदी की मधुरता का सुंदर समन्वय किया है।