UP Board Solution of Class 10 Social Science [सामाजिक विज्ञान] Civics [नागरिक शास्त्र] Chapter- 1 सत्ता की साझेदारी (Satta ki Sajhedari) लघु उत्तरीय प्रश्न एवं दीर्घ उत्तरीय प्रश्न Notes
प्रिय पाठक! इस पोस्ट के माध्यम से हम आपको कक्षा 10वीं की सामाजिक विज्ञान इकाई-3: (नागरिक शास्त्र) लोकतांत्रिक राजनीति-2 खण्ड-1 के अंतर्गत चैप्टर-1 सत्ता की साझेदारी पाठ के लघु उत्तरीय प्रश्न एवं दीर्घ उत्तरीय प्रश्न प्रदान कर रहे हैं। जो की UP Board आधारित प्रश्न हैं। आशा करते हैं आपको यह पोस्ट पसंद आई होगी और आप इसे अपने दोस्तों के साथ भी शेयर करेंगे।
Subject | Social Science [Class- 10th] |
Chapter Name | सत्ता की साझेदारी |
Part 3 | Civics [नागरिक शास्त्र] |
Board Name | UP Board (UPMSP) |
Topic Name | सत्ता की साझेदारी |
सत्ता की साझेदारी (Satta ki Sajhedari)
लघु उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1. सत्ता की साझेदारी क्यों जरूरी है? एक तर्क दीजिए।
या “सत्ता की साझेदारी लोकतन्त्र की आत्मा है।” इस कथन की विवेचना कीजिए।
या सत्ता की साझेदारी क्यों आवश्यक है? व्याख्या कीजिए।
उत्तर – सत्ता की साझेदारी जरूरी है क्योंकि विभिन्न सामाजिक समूहों के बीच टकराव का अंदेशा कम हो जाता है। ये सामाजिक टकराव हिंसा और राजनीतिक अस्थिरता का रूप ले लेते हैं। इसलिए सत्ता में हिस्सा दे देना राजनीतिक व्यवस्था के स्थायित्व के लिए अच्छा है। बहुसंख्यक समुदाय की इच्छा को बाकी सभी पर थोपना देश की अखंडता के लिए घातक हो सकता है। इसलिए सत्ता की साझेदारी जरूरी है। सत्ता का बँटवारा लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं के लिए ठीक है। इसके पक्ष में एक अन्य बात कही जा सकती है तथा वह बात कहीं अधिक गहरी है। सत्ता की साझेदारी वास्तव में लोकतंत्र की आत्मा है। लोकतंत्र का अर्थ ही है कि जो लोग इस शासन-व्यवस्था के अंतर्गत हैं उनके बीच सत्ता को विभक्त किया जाए तथा ये लोग इसी ढर्रे से रहें। इसलिए, वैध सरकार भी होती है जिसमें अपनी भागीदारी के माध्यम से सभी समूह शासन-व्यवस्था से जुड़ते हैं।
प्रश्न 2. भारतीय संदर्भ में सत्ता की हिस्सेदारी का एक उदाहरण देते हुए इसका एक युक्तिपरक और एक नैतिक कारण बताइए।
उत्तर – भारत में सत्ता का बँटवारा सरकार के विभिन्न स्तरों के बीच हुआ है; जैसे- केन्द्र सरकार, राज्य सरकार और स्थानीय सरकार।
- युक्तिपरक कारण – भारत एक घनी आबादी वाला देश है। पूरे देश के लिए एक ही सरकार के द्वारा कानून बनाना, शांति तथा व्यवस्था बनाना संभव नहीं है। इसलिए सरकार को विभिन्न स्तरों में बाँट दिया गया है और उनके बीच कार्यों का बँटवारा संविधान में लिखित रूप से कर दिया गया है, जिससे ये सरकारें बिना झगड़े देश के लोगों के हितों को ध्यान में रखकर शासन कर सकें।
- नैतिक कारण – लोकतंत्रीय देश में सत्ता का बँटवारा जरूरी है। यदि एक ही प्रकार की सरकार होगी तो वह निरंकुश हो जाएगी, ज्यादा-से-ज्यादा लोगों की भागीदारी शासन में नहीं हो पाएगी जो कि लोकतंत्र के लिए जरूरी है। इसलिए भारत में विभिन्न स्तरों पर सरकारों का वर्गीकरण कर दिया गया है।
प्रश्न ३. गठबंधन सरकार से आप क्या समझते हैं?
उत्तर – गठबंधन सरकार का गठन दो या दो से अधिक दल मिलकर करते हैं। गठबंधन सरकार के प्रमुख लक्षण (विशेषताएँ) निम्नलिखित हैं-
- गठबंधन सरकार में कम-से-कम दो दल भागीदार होते हैं।
- भागीदार दल गठबंधन की राजनीति को कुछ प्राप्त करने के लिए अपनाते हैं। लक्ष्य सारभूत रूप में कुछ प्राप्ति का हो सकता है या मनोवैज्ञानिक रूप में प्राप्ति का।
- गठबंधन एक अस्थायी प्रबन्ध होता है।
- गठबंधन सरकार का गठन समझौते के आधार पर होता है। इसमें कठोर सिद्धांतवाद राजनीति के लिए कोई स्थान नहीं होता है, अर्थात् गठबंधन सरकारें यथार्थवाद पर आधारित होती हैं।
- गठबंधन का प्रत्येक प्रमुख भागीदार दल अपनी राजनीतिक शक्ति में वृद्धि कर अकेले ही सत्ता प्राप्त करने की इच्छा रखता है।
दीर्घ उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1. बेल्जियम में सामाजिक विविधता से जनित समस्याओं का समाधान कैसे किया जा सकता है?
उत्तर – बेल्जियम में डच, फ्रेंच और जर्मन भाषा बोलने वाले लोग रहते हैं। बेल्जियम की सरकार ने इन विविधताओं को स्वीकार किया है। 1970 और 1993 के बीच बेल्जियम की सरकार ने संविधान में चार संशोधन करके लोगों में एकता बनाने का प्रयास किया, जिसकी प्रमुख बातें इस प्रकार हैं-
(1) संविधान में इस बात का स्पष्ट प्रावधान है कि केंद्रीय सरकार में डच और फ्रेंच भाषी मंत्रियों की संख्या समान रहेगी। कुछ विशेष कानून तभी बन सकते हैं जब दोनों भाषायी समूहों के सांसदों का बहुमत उसके पक्ष में हो। इस प्रकार किसी एक समुदाय के लोग एकतरफा फैसला नहीं कर सकते।
(2) केंद्र सरकार की अनेक शक्तियाँ देश के दो इलाकों की क्षेत्रीय सरकारों को सुपुर्द कर दी गई हैं, अर्थात् राज्य सरकारें केंद्रीय सरकार के अधीन नहीं हैं।
(3) ब्रुसेल्स में अलग सरकार है और इसमें दोनों समुदायों का समान प्रतिनिधित्व है। फ्रेंच भाषी लोगों ने ब्रुसेल्स में समान प्रतिनिधित्व के इस प्रस्ताव को स्वीकार किया क्योंकि डच भाषी लोगों ने केंद्रीय सरकार में बराबरी का प्रतिनिधित्व स्वीकार कर लिया है।
(4) केंद्रीय और राज्य सरकारों के अलावा यहाँ एक तीसरे स्तर की सरकार भी काम करती है, यानि सामुदायिक सरकार। इस सरकार का चुनाव एक ही भाषा बोलने वाले लोग करते हैं। डच, फ्रेंच और जर्मन बोलने वाले समुदायों के लोग चाहे वे जहाँ भी रहते हों, इस सामुदायिक सरकार को चुनते हैं। इस सरकार को संस्कृति, शिक्षा और भाषा जैसे मसलों पर फैसले लेने का अधिकार है।
इस जटिल व्यवस्था में बेल्जियम में गृहयुद्ध की आशंकाओं पर विराम लग गया है, अन्यथा बेल्जियम भाषा के आधार पर तीन टुकड़ों में बँट गया होता।
प्रश्न 2. श्रीलंका में बहुसंख्यकवाद तथा इसके प्रभावों का वर्णन करें।
उत्तर – सन् 1948 ई. में श्रीलंका स्वतंत्र राष्ट्र बना। सिंहली समुदाय के नेताओं ने अपनी अधिक संख्या के बल पर शासन व सत्ता पर प्रभुत्व जमाना चाहा। नवनिर्वाचित लोकतांत्रिक सरकार ने सिंहली समुदाय की प्रभुता बनाए रखने के लिए अनेक कदम उठाए, जो इस प्रकार हैं-
(1) 1956 ई. में एक कानून बनाया गया जिसके तहत तमिल को दरकिनार करके सिंहली को एकमात्र राजभाषा घोषित कर दिया गया।
(2) विश्वविद्यालयों और सरकारी नौकरियों में सिंहलियों को प्राथमिकता दी गई।
(3) नए संविधान में यह प्रावधान भी किया गया कि सरकार बौद्ध मत घर को संरक्षण और बढ़ावा देगी।
प्रभाव – उपरोक्त सरकारी फैसलों ने श्रीलंकाई तमिलों की नाराजगी और शासन के प्रति बेगानेपन को बढ़ाया। उन्हें लगा कि बौद्ध धर्मावलंबी सिंहलियों के नेतृत्व वाली सारी राजनीतिक पार्टियाँ उनकी भाषा और संस्कृति को लेकर असंवेदनशील हैं। उन्हें लगा कि संविधान और सरकारी नीतियाँ उन्हें राजनीतिक अधिकारों से वंचित कर रही हैं। नौकरियों आदि में भेद-भाव हो रहा है, उनके हितों की अनदेखी की जा रही है। परिणामतः तमिल और सिंहली समुदायों के संबंध बिगड़ते चले गए। श्रीलंकाई तमिलों ने अपनी राजनीतिक पार्टियाँ बनाईं और तमिल को राजभाषा बनाने, क्षेत्रीय स्वायत्तता प्राप्त करने तथा शिक्षा और रोजगार में समान अवसरों की माँग को लेकर संघर्ष किया। 1980 ई. के दशक तक उत्तर-पूर्वी श्रीलंका में स्वतंत्र तमिल ईलम बनाने की माँग को लेकर अनेक राजनीतिक संगठन बने। श्रीलंका के दो समुदायों के बीच टकराव ने गृहयुद्ध का रूप धारण कर लिया। परिणामस्वरूप दोनों पक्षों के हजारों लोग मारे जा चुके हैं। अनेक परिवार अपने मुल्क से भागकर शरणार्थी बन गए हैं, कई गुना लोगों की रोजी-रोटी चौपट हो गई। इस प्रकार बहुसंख्यकवाद के कारण श्रीलंका जो आर्थिक विकास, शिक्षा और स्वास्थ्य के मामले में उच्च स्थान पर आता है किंतु वहाँ के गृहयुद्ध ने मुल्क के सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक जीवन में काफी परेशानियाँ पैदा कर दीं। हाल ही में एक सैनिक अभियान में लिट्टे प्रमुख प्रभाकरण की मृत्यु के बाद यह गृहयुद्ध खत्म हो गया है।
प्रश्न 3. शासन के विभिन्न अंगों के बीच सत्ता का विभाजन किस प्रकार होता है? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर – प्रत्येक लोकतांत्रिक सरकार के तीन अंग होते हैं- (1) विधायिका, (2) कार्यपालिका और (3) न्यायपालिका जो भिन्न-भिन्न कार्य करते हैं। विधायिका कानूनों का निर्माण करती है, कार्यपालिका उन्हें लागू करती है तथा न्यायपालिका उनकी व्याख्या करती है। वह उन व्यक्तियों को दंड देती है जो कानून का उल्लंघन करते हैं। सरकार के अंगों का इस प्रकार विभाजन इस बात को निश्चित करता है कि किसी भी अंग के हाथों में असीमित शक्तियाँ इकट्ठी न हों। प्रत्येक अंग दूसरे अंगों पर नियंत्रण बनाए रखता है जिससे किसी भी अंग के मनमानी करने की संभावना बहुत कम हो जाती है। विधायिका को कानून बनाने का अधिकार है, परंतु उसके द्वारा पास किया गया कोई भी विधेयक उसी समय कानून का रूप धारण करता है जब कार्यपालिका का अध्यक्ष उसे अपनी स्वीकृति प्रदान कर देता है। इसी प्रकार मंत्री अपनी नीतियों तथा कार्यों के लिए विधायिका के प्रति उत्तरदायी होते हैं, जिसे उनका निश्चित कार्यकाल समाप्त होने से पहले भी उनके विरुद्ध अविश्वास का प्रस्ताव पास करके पद से हटाने का अधिकार होता है। न्यायपालिका को भी अन्य दोनों अंगों के कार्यों की देखभाल करने का अधिकार प्राप्त होता है। यदि कोई-सा अंग संविधान के उल्लंघन में कोई कार्य करता है तो न्यायपालिका को उसे असंवैधानिक करार देने तथा रद्द करने का अधिकार होता है। सरकार के तीन अंगों के बीच शक्ति के विभाजन के परिणामस्वरूप शासन सुचारु रूप से चलता रहता है।
प्रश्न 4. श्रीलंका में सत्ता की भागीदारी पर संक्षिप्त विवरण दीजिए।
उत्तर –1948 ई. में श्रीलंका एक स्वतंत्र देश के रूप में अस्तित्व में आया। श्रीलंका के बहुसंख्यक सिंहली समुदाय के लोगों ने जनसंख्या में अपनी अधिक भागीदारी के आधार पर शासन सत्ता पर वर्चस्व जमाना चाहा और अल्पसंख्यक तमिलों की उपेक्षा आरंभ कर दी। सन् 1956 में एक कानून बनाया गया जिसके अनुसार तमिल भाषा को नजरअंदाज करते हुए ‘सिंहली’ को राजभाषा घोषित कर दिया गया। सरकारी नौकरियों तथा विश्वविद्यालयों में भी ‘सिंहली’ लोगों को प्राथमिकता देने की नीति अपनाई गई। संविधान में यह व्यवस्था की गई कि सरकार बौद्ध धर्म को बढ़ावा देने की नीति अपनाएगी।
इन प्रवधानों के परिणामस्वरूप ‘सिंहला’ तथा तमिल समुदायों के बीच संबंध बिगड़ते चले गए। अंततः तमिलों द्वारा अपने राजनैतिक दल बनाए गए और तमिल को राजभाषा बनाने, तमिलों को सरकारी नौकरियों में उचित स्थान देने तथा स्वायत्तता प्राप्त करने के लिए संघर्ष आरंभ कर दिया। इस गृहयुद्ध में दोनों समूहों के हजारों लोग मारे जा चुके हैं और अनेक परिवार देश छोड़कर अन्य पड़ोसी देशों में जाकर बस गए हैं। आज भी वहाँ पर यही स्थिति जारी है और ‘सिंहली’ लोग अपने बहुमत के आधार पर सत्ता में भागीदारी देने के लिए तैयार नहीं हैं।
प्रश्न 5. बहुसंख्यकवाद को स्पष्ट कीजिए। श्रीलंका ने बहुसंख्यकवाद को किस प्रकार स्वीकार किया है?
उत्तर – श्रीलंका में सामुदायिक संरचना – श्रीलंका की कुल जनसंख्या में सिंहली समुदाय का प्रतिशत 74 है जबकि तमिलों का प्रतिशत 18 है।
बहुसंख्यक सिंहली धनी और शक्तिशाली हैं। इन्हें अपेक्षाकृत अधिक संवैधानिक अधिकार प्राप्त हैं, जबकि अल्पसंख्यक तमिल सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक क्षेत्रों में पिछड़े हुए हैं। अतः यहाँ बहुसंख्यक लोग अल्पसंख्यकों पर हावी हैं।
श्रीलंका में बहुसंख्यकवाद – यह एक प्रकार का मत है कि बहुसंख्यक समुदाय को, जिस प्रकार वे चाहें, देश में शासन करने हेतु सक्षम होना चाहिए। बहुसंख्यक सामान्यतः अल्पसंख्यकों की इच्छाओं और आवश्यकताओं का निरादर करते हैं।
श्रीलंका में गृहयुद्ध के कारण – श्रीलंका की बहुसंख्यक या अधिमानित नीतियाँ निम्नलिखित हैं, जिनके कारण देश में गृह युद्ध प्रारंभ हुआ-
(1) सिंहली वर्चस्व स्थापित करने के कारण – श्रीलंकाई सरकार ने सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक क्षेत्रों में सिंहला वर्चस्व स्थापित करने हेतु कई प्रकार के उपाय अपनाए हैं।
(2) सिंहली को राजभाषा घोषित करने के कारण – 1956 में श्रीलंका में एक अधिनियम पारित किया गया, जिसके तहत सिंहला को एकमात्र आधिकारिक भाषा स्वीकार किया गया। इस प्रकार तमिल भाषा की उपेक्षा की गई।
(3) सिंहली लोगों को प्राथमिकता देने के कारण – शिक्षा के क्षेत्र में विश्वविद्यालय में विभिन्न पदों तथा सरकारी नौकरियों में सिंहला आवेदकों को प्राथमिकता दी गई।
(4) बौद्ध धर्म को राजधर्म की मान्यता प्रदान करने के कारण – धर्म के क्षेत्र में संवैधानिक प्रावधानों के तहत सरकार को बौद्ध धर्म का संरक्षण एवं देख-रेख करना था। यह तमिल हिन्दुओं के लिए एक अपमानजनक कदम था।
इस प्रकार श्रीलंकाई सरकार की प्राथमिकता वाली नीतियों के तहत तमिलों के समान राजनीतिक, सामाजिक एवं आर्थिक अधिकारों की अवहेलना की गई और इन क्षेत्रों में उनके साथ भेदभाव किया गया। इससे बहुसंख्यक सिंहला और अल्पसंख्यक तमिलों के बीच संघर्ष शुरू हुआ और देश में गृहयुद्ध जैसी स्थिति उत्पन्न हो गई।
प्रश्न 6. आधुनिक लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में सत्ता की साझेदारी के अलग-अलग तरीके क्या हैं? इनमें से प्रत्येक का एक उदाहरण भी दें।
उत्तर – आधुनिक लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में सत्ता की साझेदारी के अनेक रूप हो सकते हैं जो इस प्रकार हैं-
- राजनीतिक दलों व दबाव समूहों द्वारा सत्ता का विभाजन – लोकतांत्रिक राजनीतिक व्यवस्था के अंतर्गत सत्ता बारी-बारी से विभिन्न राजनीतिक दलों के हाथ में आती-जाती रहती है। लोकतंत्र में हम व्यापारी, उद्योगपति, किसान. और औद्योगिक मजदूर जैसे अनेक संगठित हित समूहों को भी सक्रिय रूप से क्रियाशील देखते हैं, दबाव समूह सरकार की विभिन्न समितियों में सीधी भागीदारी करने या नीतियों पर अपने सदस्य वर्ग के लिए दबाव बनाकर ये समूह भी सशा में हिस्सेदारी करते हैं। अमेरिका इसका यथोचित उदाहरण है। अमेरिका में दो प्रमुख राजनीतिक दल हैं जो चुनाव लड़कर सत्ता प्राप्त करना चाहते हैं तथा दबाव समूह चुनावों के समय व चुनाव जीतने के बाद राजनीतिक दलों की आर्थिक सहायता करके, सार्वजनिक नीतियों को प्रभावित करके सत्ता में हिस्सेदारी निभाते हैं।
- शासन के विभिन्न अंगों के बीच बंटवारा – शासन के विभिन्न अंग, जैसे-विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच सत्ता का बँटवारा रहता है। इसमें सरकार के विभिन्न अंग एक ही स्तर पर रहकर अपनी- अपनी शक्ति का उपयोग करते हैं। इसमें कोई भी एक अंग सत्ता का असीमित प्रयोग नहीं करता, हर अंग दूसरे पर अंकुश रखता है। इससे विभिन्न संस्थाओं के बीच सत्ता का संतुलन बना रहता है। इसके सबसे अच्छे उदाहरण अमेरिका व भारत हैं। यहाँ विधायिका कानून बनाती है, कार्यपालिका कानून को लागू करती है तथा न्यायपालिका न्याय करती है। भारत में कार्यपालिका संसद के प्रति उत्तरदायी है, न्यायपालिका की नियुक्ति कार्यपालिका करती है, न्यायपालिका, कार्यपालिका और विधायिका के कानूनों की जाँच करके उन पर नियंत्रण रखती है।
- सरकार के विभिन्न स्तरों में बंटवारा – पूरे देश के लिए एक सरकार होती है जिसे केंद्र सरकार या संघ सरकार कहते हैं। फिर प्रांत या क्षेत्रीय स्तर पर अलग-अलग सरकारें बनती हैं, जिन्हें अलग-अलग नामों से पुकारा जाता है। भारत में इन्हें राज्य सरकार कहते हैं। इस सत्ता के बंटवारे वाले देशों में संविधान में इस बात का स्पष्ट उल्लेख होता है कि केन्द्र और राज्य सरकारों के बीच सत्ता का बंटवारा किस तरह होगा। सत्ता के ऐसे बँटवारे को ऊर्ध्वाधर वितरण कहा जाता है। भारत में केंद्र और राज्य स्तर के अतिरिक्त स्थानीय सरकारें भी काम करती हैं। इनके बीच सत्ता के बँटवारे के विषय में संविधान में स्पष्ट रूप से लिखा गया है जिससे विभिन्न सरकारों के बीच शक्तियों को लेकर कोई तनाव न हो।
- विभिन्न सामाजिक समूहों के बीच सत्ता का बँटवारा – कुछ देशों के संविधान में इस बात का प्रावधान है कि सामाजिक रूप से कमजोर समुदाय और महिलाओं को विधायिका और प्रशासन में हिस्सेदारी दी जाए ताकि लोग स्वयं को शासन से अलग न समझने लगें। अल्पसंख्यक समुदायों को भी इसी तरीके से सत्ता में उचित हिस्सेदारी दी जाती है। बेल्जियम में सामुदायिक सरकार इस व्यवस्था का अच्छा उदाहरण है।
प्रश्न 7. भारतीय संदर्भ में ‘सत्ता की हिस्सेदारी’ का एक उदाहरण देते हुए इसका एक युक्तिपरक और एक नैतिक कारण बताएँ।
उत्तर – लोकतंत्र में सत्ता की सहभागिता के दो कारण दिए जाते हैं- (1) युक्तिपरक कारण और (2) नैतिक कारण। इनमें से युक्तिपरक कारण शक्ति के बँटवारे से होने वाले लाभदायक परिणामों पर बल देते हैं, जबकि नैतिक कारण इसकी स्वाभाविक योग्यता पर बल देते हैं।
(1) युक्तिपरक कारण – भारत में धर्म, जाति, लिंग, भाषा आदि के आधार पर कई सामाजिक समूह विद्यमान हैं। ऐसी स्थिति में सत्ता में भागीदारी विभिन्न सामाजिक समूहों के मध्य तनाव तथा संघर्ष की स्थिति की संभावना को कम करने में सहायता प्रदान करती है। अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों तथा अन्य पिछड़े वर्गों हेतु विधानमण्डलों तथा सरकारी नौकरियों में आरक्षण की व्यवस्था इसका उचित उदाहरण है।
(2) नैतिक कारण – नैतिकता के आधार पर यह तर्क प्रस्तुत किया जाता है कि लोकतंत्र की आत्मा शक्ति के विभाजन तथा साझेदारी में निहित है। लोकतंत्र की यह स्थापित मान्यता है कि सत्ताधारी लोग जिन पर शासन करते हैं वे उन लोगों की राय अवश्य लें कि उनकी सरकार से क्या अपेक्षा है, वे सरकार से किस प्रकार के कानूनों और नीतियों का क्रियान्वयन चाहते हैं। विधानमण्डलों में विभिन्न राजनैतिक दलों के प्रतिनिधि एक साथ बैठते हैं तथा सरकार के कार्यों में भाग लेते हैं। ये प्रतिनिधि समाज के सम्मुख उपस्थित समस्याओं के समाधान हेतु कानून बनाने की प्रक्रिया में शामिल होते हैं। उदाहरण के लिए भ्रष्टाचार, आतंकवाद, रिश्वतखोरी, दहेज प्रथा आदि को नियंत्रित करने के लिए बनाये गए कानूनों में प्रायः सभी राजनीतिक दलों ने समर्थन प्रदान किया।